Author Topic: पहाड़ की नारी पर कविता : POEM FOR PAHADI WOMEN  (Read 53712 times)

पंकज सिंह महर

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मीना जी बहुत अच्छी कविता है।  आपने बार्डर के उस गाने की याद दिला दी....जंग तो चंद रोज होती है.....

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Excellent meena ji,

Have you composed any poem on the day-today problems of Pahadi womens.

I have listened a song of Prahlad Singh Mehra.. describing the problems of Uttarkahandi Women. A few lines.

 Pahad ki Cheli Le
 Pahad ki Bwari Le
 Kaibey na khaya diwi rwata sukh le..

कारगिल के दिन और रात

दुश्मनों के मनसूबे उखाड़ फैकने की बाते
क्या कारगिल के दिन होंगे क्या कारगिल के राते

शायद धमाको के बीच याद आती हो खिलखिलाहट
चोंका देने वाली होती होगी हर आहाट
कभी अकेले मे तस्वीर किसी अपने की
याद दिलाती होगी उनके नन्हें नन्हें सपनो की
उस वीराने मे शुकुन देती होंगी घर की यादे
क्या कारगिल के दिन होंगे क्या कारगिल की राते !

दुश्मनों के मनसूबे उखाड़ फैकने की बाते
क्या कारगिल के दिन होंगे क्या कारगिल के राते !

कभी प्यार कभी चेहरे से  आग बरसती होगी
कभी बंदूक कभी हाथो मे कलम होती होगी
एक नजर डाली होगी उसने सपनो पर अरमानों पर
आंखे तर हो जाती होंगी लिखते हुए ख़त के उत्तर
लड़ते लड़ते ऐसे ही एक दिन रुक गई होंगी सांसे
क्या कारगिल के दिन होंगे क्या कारगिल की राते !

(ye kavita maine kargil ki ladai ke samay likhi thi. isiliye  kavita mai utne maturity to nahi thi fir bhi feelings ke level per apko shayad pasand aye)


Meena Pandey

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दर्पण का गम

खुशियों मे न अधर है पुलकित
पीडा मे न चक्षु मोन
जैसा अन्दर वैसा बाहर
दर्पण का गम जाने कोन

रूप नही कोई रंग नही
दुश्मन है न मीत कोई
जब जो आया मिलन मनाया
गया तो फ़िर जाने था कोन
जैसा अन्दर वैसा बाहर
दर्पण का गम जाने कोन !

निर्मल काया स्वच्छ है मन
रे मानव तू भी उस सा बन
देख भले रंग दुनिया के
सुन पर अपने मन का शोर
जैसा अन्दर वैसा बाहर
दर्पण का गम जाने कोन !
 

Meena Pandey

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शहीद ( कारगिल शहीदों की याद मे १९९९ मे लिखी)

निगेबानी थी मुल्क की मेरे हाथो मे
बर्दास्त नही कर सकता था दुश्मन अपनी सरहद पर
इसीलिए जान दे दी हँसते हँसते
नही तो ऐ दोस्त जीना तो मै भी चाहता था !

मैने नही उसने सरहद नांगी थी
अपनी नापाक निगाह मेरी पाक जमी पे दागी थी
इसीलिए अपनों से बिछुड़ गया हँसते हँसते
नही तो ऐ दोस्त अपनों से तो मै भी मिलना चाहता था!

दोस्ती के लिए बड़े हाथ को तोड़ना चाह उसने
गले लगने के बदले सीना छलनी करना चाहा उसने
इसलिए तुम्हे बिलखता छोड़ दिया मैंने
नही तो ऐ दोस्त हँसी तो मै भी लुटाना चाहता था!

उसने ललकारा था वीरता को मेरी
उसने परीक्षा ली थी धैर्यता की मेरी
इसीलिए सरहद पर आन्खरी साँस ली मेने
नही तो ऐ दोस्त गावं तो मै भी लोटना चाहता था!

दिखाना चाहता था मै सीमापार वालो को
सिखाना चाहता था मै अपने आने वालो को
इसीलिए गोली लगा ली सीने से
नही तो ऐ दोस्त अपनों के लिए सीना तो मै भी बचाना चाहता था!



खीमसिंह रावत

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mehata ji , mahar ji, uppyaya ji aap ise kundali font me dekh kar foram me dal de
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 29&10&2003



Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Mahar ji kripya is kavita ko forum pai daalne ka kasht karen.

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पंकज सिंह महर

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Yeh lijiye Meena ji Kavita paath karti hui:

http://s194.photobucket.com/albums/z18/kumar_anubhav/MU/?action=view&current=29062008153.flv

"उसकी दो आंखें पगडंडी पर डाकिये को निहारती" क्या बात है मीना जी, पहाड़ की महिला का असली दर्द आपने इस गीत में उतारा है। बधाई दूं या धन्यवाद दूं? समझ में नहीं आ रहा।

पंकज सिंह महर

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खीम दा की कविता का लिप्यांतरण

भोर का पनघट

हुआ अंधकार का आधा असर, तारे भी बचे से बस चन्द,
चांद निकल गया तारों के संग, हवा चली थी मद मन्द-मन्द,
खुली रात की खुशी में, चिडि़यों का कोलाहल सा अट्टाहास,
प्रियतम ने किया था प्रिय को, जगाने का यह मधुर प्रयास।
प्रातः की पहली बेला पर, पनिहारी ने उठाई गागर,
पायल की मधुर संगीत, मधु मुस्कान थी, डगर-डगर,
नींद थी अभी आंखों में, पनघट था खबरों का घर,
सूरज, मुख की लाली, सब बेसुध था, सब बेखर,
गुलाब की कोमल पंखुड़ियों में, ओस मोती सा था चमकता,
सपना भोर का अधूरा, अलसाई आंखों में था झलकता,
प्रफ्फुलित मन पंख बने पांव, पानी की सरसराहट देते थाम,
उठाती घूंघट गिरता पानी, पूछती क्यों री क्या है तेरा नाम,
फिर प्रभात ने ली अंगड़ाई, पूरब की ओर नजर दौड़ाई,
सुन्दर है दश्य कितना, भोर की लालिमा बढ़ आई।

खीम सिंह रावत
२९-१०-२००३

खीमसिंह रावत

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thanx mahar jyu

ye kaise lipyantaran hota hai/

 

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