Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527424 times)

jagmohan singh jayara

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"सरग दिदा  पाणि-पाणि"

हमारा मुल्क प्यारा पहाड़,
जख छ गंगा यमुना कू मैत,
जख बगदा छन गाड गदना,
पेन्दा था मनखि ठण्डु पाणी,
लोठ्या, गिलास, छमोट भरिक,
गदना मा बगदा धारा बिटि,
मूळ अर सिळ्वाणि फर.

पर ऐंसु  यनु निछ,
जू पहाड़ प्रेम वश,
अपणा प्यारा गौं गैन,
गौं का सुख्याँ धारा देखिक,
मन ही मन भौत पछतैन,
ऊ पुराणा दिन भि याद ऐन,
कख हर्चि होलु पाणी?
देखि उन द्योरा जथैं,
दूर कखि ऊड़दु-ऊड़दु 
चोळी तीसन त्रस्त ह्वैक,
जोर-जोर सी  बासणी,
"सरग दिदा  पाणि-पाणि".

क्या ह्वै होलु यनु?
हर्चिगी पहाड़ कू ठण्डु पाणी,
द्यो देवता रूठिग्यन,
या लोग ऊँ भूलिग्यन,
जू भि ह्वै, भलु निछ,
वरूण देवता बरखौ,
प्यारा पहाड़ मा पाणी,
ह्वैगि  आज अनर्थ,
लोग बोन्ना छन,
"सरग दिदा  पाणि-पाणि".


रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित.मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड, हिमालय गौरव उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर)
दिनांक:२४.६.२०१०, दिल्ली प्रवास से.....(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल)

jagmohan singh jayara

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"सिद्धपीठ चन्द्रबदनी"

चंद्रकूट पर्वत शिखर,
खास पट्टी, टिहरी गढ़वाल,
२७५६ मीटर की ऊँचाई फर,
स्थित छ  चन्द्रबदनी मन्दिर,
जख औन्दा छन भक्त गण,
दूर दूर देश, प्रदेश बिटि,
अर  करदा छन कामना,
होंणी, खाणी, सुखी जीवन की,
होन्दि छ मनोकामना पूर्ण,
माँ चन्द्रबदनी का दर्शन  करिक.

जब भगवान शिव शंकर,
माता सती कू मृत शरीर,
दगड़ा ल्हीक विरह मा,
विचरण कन्न लग्यां था,
माता सती कू बदन,
सुदर्शन चक्र सी कटिक,
चंद्रकूट पर्वत शिखर फर,
भ्वीं मा पड़ी,
"सिद्धपीठ चन्द्रबदनी",
एक प्रसिद्ध तीर्थ बणि.

चन्द्रबदनी तीर्थ स्थल,
सुरम्य अर रमणीक भारी,
जख बिटि दिखेन्दि छन,
हिवाँळी काँठी, डाँडी प्यारी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित.मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड, हिमालय गौरव उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर)
दिनांक:२५.६.२०१०, दिल्ली प्रवास से.....(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल)

jagmohan singh jayara

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"छायाकार"

करदु छ कैमरा सी कैद,
पहाड़ की प्राकृतिक सुन्दरता,
संस्कृति की झलक,
दूध जनि बगदि जल धारा,
धौळ्यौं का मनमोहक किनारा,
बणु का बुरांश प्यारा,
डांडा, काँठा, पर्वतजन, न्यारा,
देवदार अर कुळैं का डाळा,
पहाड़ मा घुमावदार सड़क,
लग्दि छन जन हो माळा,
पर्वतीय परिवेश मा सज्याँ,
दादा, दादी, बोडा, बोडि हमारा.

कवि लेखक जब कल्पना करिक,
लिख्दा छन कहानी अर गीत,
छायाकार करदु छ छायांकन,
भला लगदा पहाड़ी गीत संगीत.

छायाकार की  छायाकारी का द्वारा,
लग्दि छन मन मा कुतग्याळि,
पहाड़ी गीतु की गीत माळा हेरि,
परदेश मा पहाड़ की झलक देखि,
मन मा खुश होन्दा छन पहाड़ी,
कुमाऊनी अर गढ़वाळी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर   प्रकाशित दिनांक: १.७.२०१०)


"ऊलारया पराण"

घुटिक घुटिक कुजाणि क्यौकु,
परदेश  मा पराण,
सोचि नि थौ कबि मन मा,
पाड़ छोड़िक चलि जाण.

छट्ट छुटिगि क्या बतौण,
अपणु पहाड़ प्यारू,
दुनियां मा देवभूमि,
कथ्गा  सुन्दर मुल्क हमारू.

देवभूमि सी दूर दर्द छ,
हमारू मुल्क स्वर्ग का समान,
चारधाम देवतों कू वास,
जख बद्रीविशाल जी विराजमान.

जन्मभूमि सी दूर दगड़्यौं,
क्वांसु सी होन्दु  पराण,
मयाळु मन भि मरिगि,
तर्स्युं  छ "ऊलारया पराण".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं पहाड़ी फोरम,  यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित दिनांक: १.७.२०१०)

jagmohan singh jayara

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"अबत डौर लगणि छ"

भारी खुश होन्दु थौ,
यू पापी पराण,
यनु सोचिक,
मेरी प्यारी  जन्मभूमि,
देवभूमि उत्तराखण्ड छ.

उत्तराखण्ड की राजधानी,
उत्तराखंडी नेतौं की नगरी,
गैरसैण की सौत देरादूण,
वख बल अजग्याल,
थेंचि धोळि आलू की तरौं,
उत्तराखण्ड की मित्र पुलिसन,
सत्तापक्ष कू एक विधायक,
जबकि,
विधायक बोन्न थौ लग्युं,
अरे! मैं विधायक छौं.

क्या होलु?
उत्तराखंडी भै बन्धु,
देखा अब यनु होलु,
उत्तराखण्ड कू विकास,
हमारी भी टूटि सक्दि छन,
कमजोर हाथ गौणी,
ऊँका हाथन,
जौन नेता जी कू करि,
पलग पछोड़,
जबकि ऊ  एक थैलि का,
चट्टा बट्टा छन.

"अबत डौर लगणि छ",
कनुकै जौला, वे प्यारा मुल्क,
भौं कबरी, पहाड़ प्रेम मा,
ज्यु कनु छ जब जौलु,
खोजलु कर्ण कू कवच कुंडल.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक:१३.७.२०१०

jagmohan singh jayara

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"खाड्डु अर बाखरू नि छौं"

सुपिना मा देखि मैन,
पाड़ पिड़ान घैल ह्वैक,
छट पटाण थौ लग्युं,
मैन पूछि, हे पाड़ जी क्या ह्वै?

पाड़जिन मैकु बताई,
आज मैं बिमार छौं,
पर कै सनै मै फर,
कतै दया नि औन्दि,
मेरा कपड़ा फटिग्यन,
मेरा बदन फर चीरा धर्यलन,
मैकु सदानि बुखार रंदु छ,
पीठ फर मेरा बणांग लगौन्दन,
क्या बतौँ, भौत सतौन्दन.

मैन बोलि पाड़ जी,
आपकी दुर्दशा देखिक,
मेरा मन मा भि,
भारी पिड़ा छ,
पर आज मनखि,
भारी स्वार्थी अर लालची ह्वैगी,
आपकी दुर्दशा वैका हाथन ह्वै.

हाँ यू सच छ,
हे कवि "जिज्ञासु",
क्वी नि पोंज्दु,
मेरा डळबळ औन्दा आंसू,
यनु न करा, हे मनख्यौं,
मैं "खाड्डु अर बाखरू नि छौं"

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,
(मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १४.७.२०१० 

jagmohan singh jayara

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"अगेला की आग"

देखि होलि कैन,
प्यारा  कुमौं अर गढ़वाल,
किलै नि दिखेन्दि आज?
मन मा छ सवाल.

अणसाळ कू तपैयुं,
लोखर कू टुकड़ु,
जैन रगोड़दा छन,
घंघतीर कू मुखड़ु.

चिणगारी पैदा होन्दी,
कबासी फर लगदि आग,
जगौंदा था तब  चुल्लू,
बणौन्दा रोठी अर साग.

बाखी खोळा का लोग,
केड़ा, दळ-छिल्ला जगैक ल्ह्योंदा आग,
माचिस  कू जमानु छ आज,
देखा, ऐगि अगेला कू अभाग.

तमाख्या लोग रखदा था,
चिलम तमाखु अर अगेलु,
पेन्दा था चिलम भरिक,
दगड़ा मा या अकेलु.

सार्थक नि रै अब,
बग्त बदलिगि आज,
जैकु अतीत मा थौ अस्तित्व,
वैसी अनविज्ञ छ,
हमारू  उत्तराखंडी समाज,
नि जाणदा अब लोग,
कनि  होन्दि "अगेला की आग".

(बचपन मा पहाड़ मा अगेलु जगौंदु देख्दा था हम.. कै गौं समाज का दाना मनख्यौं ...आज हर्चिगी अगेलु...देखि होलु आप लोगुन भी.  या कविता  आपतैं जरूर याद दिलालि पहाड़ का पारंपरिक अगेला की.   पैलि का जमाना मा "अगेला की आग" जगैक खोळा बाखी का लोग आपस मा बाँटदा था...पर आज व बात निछ )
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु "
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित, १८.७.२०१०)

jagmohan singh jayara

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"मनखी अर कला"

जबरी मनखि शुरू मा,
धरती मा अवतरित ह्वै,
उबरी ऊ आदि मानव थौ,
धीरे-धीरे वैकु,
मानसिक विकास,
सामाजिक विकास ह्वै.

पैलि वेन,
ढुंगा सी औजार बणैन,
ढुंगा सी आग बणाई,
बण का जीव,
आग मा भड़ेक खाई,
ये प्रकार सी,
वैका समझ मा,
कला कू प्रयोग,
कन्न कु विचार आई.

कला कू प्रयोग करि,
अतीत का मन्खिन,
जिंदगी बेहतर बणाई,
अतीत कनु थौ,
ढुंगौं फर ऊकेरिक,
वैकी झलक संकलित करि,
आज का मनखी तैं समझाई.

कला विहीन अतीत कू मनखी,
पैलि जानवर का सामान थौ,
आज आपस  मा सार्थक छ,
"मनखी अर कला".

रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(२३.७.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

jagmohan singh jayara

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"पहाड़ सी ऊंचा"

मनखी का इरादा,
मेहनत अर लग्न,
साकार करदि सुपिना,
होन्दि छ लक्ष्य की प्राप्ति,
मिल्दि छ प्रसिद्धि,
मन मा भारी सकून,
पहाड़ सी उंचा ऊठिक.

पहाड़ प्रेरणादायक छन,
अटल इरादा कू संचार होन्दु छ ,
मनखी का मन मा,
कल्पनाशीलता पैदा होन्दि छ,
कवि, लेखक, छायाकार,
गितांग का मन मा.

बहादुरी कू भाव पैदा होन्दु,
सैनिक का मन मा,
जन, माधो सिंह भण्डारी,
गबर सिंह, दरमियान सिंह,
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली,
उत्तराखंड आन्दोलन का शहीद,
जौंका इरादा अर काम,
"पहाड़ सी ऊंचा" था.
रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(२५.७.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
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jagmohan singh jayara

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"लग्याँ छन जुगाड़ मा"

जिन्दगी चन्नि  छ सब्यौं की,
मन मारिक जन भि चलु,
महंगाई की मार मा,
कनुकै पळलि आस औलाद,
हमारा देश का सब्बि मनखी,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.

कटणि छ जनता की जेब,
जौंका खातिर,
ऊ सब्बि ठगणा  छन,
भोली-भाली  जनता तैं,
राजनीती की आड़ मा,
सत्तापक्ष अर विपक्ष द्वी,
सत्ता का खातिर,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.

पहाड़ कू घर्या घ्यू ,
दाळ, गौथ अर तोर,
छौंकण का खातिर जख्या,
कख बिटि मिललु,
सोचदा छन ऊ,
जू नि रन्दन पाड़ मा,
कु होलु यनु रिश्तेदार,
प्यारा पाड़ मा,
जू भेजि द्यो कैमु,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.

उत्तराखंडी कवि,
लिख्दा छन पहाड़ फर,
रन्दा नि छन पाड़ मा,
कल्पना करदा छन,
कविता लिखण सी पैलि,
कनुकै लिखौं सुन्दर कविता,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(२८.७.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

jagmohan singh jayara

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"अतीत उबरी यनु थौ "

रज्जा का जमाना मा, जनतान बिगार बोकी,
होणी खाणी कनुकै होण, शिक्षा कू विकास रोकी.

जनता का खातिर रज्जा, बल बोलान्दु बद्रीनाथ थौ,
अनपढ़ जनता कू भाग, संत्री-मंत्रियों का हाथ थौ.

आजादी का बाद भी, लोग भूखा तीसा रैन,
आस अर औलादन, कंडाळी,खैणा-तिमला खैन.

लाणु पैन्नु यनु थौ, टल्लौं  मा टल्ला लगौंदा,
रात सेण कनुकै थौ, खटमल, ऊपाणा खूब तड़कौन्दा

उबरी बाटौं कू हिटणु  थौ,  सैणी सड़क दूर थै,
जख भी जाण हिटिक, जनता भौत मजबूर थै.

आजादी का बाद पाड़ मा, सब्बि नौना नौनी स्कूल गैन,
शिक्षा प्राप्ति का बाद, रोजगार का खातिर प्रवासी ह्वेन.

विकास की बयार बगि, अब यनु निछ पहाड़ मा,
अतीत उबरी यनु थौ, अब मनखी कम छ पाड़ मा.

रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(२८.७.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

 

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