ह्यूंद पर गढवाळी मा कविता फड़कि -३
(Poetries on Autum , Winter, Snowfall in Garhwali Language)
भीष्म कुकरेती
ह्यूंद पर एक लोक गीत
गढवाळ मा ह्यूंद एक महत्व पूर्ण मौसम /ऋतु च. हेमंत का बाद या बग्वाळ , गोधन, इगास का बाद
खेती को काम कम ही रै जांद अर पहाड़ कि जनानी हुय्न्द का बगत घास, लखड़ निडाणो बान घास लखड़
मा व्यस्त रौंदा छया . पूस का मैना माने मैत /मायका कू मैना अर ब्वारीयूँ तैं अपण मैत जा णो मौका
मिली जान्दो छौ . पूस मा मैत जाण पर लोक क्लाकारु न भौत सा लोक गीत गंठयाँ/रच्याँ छन
जब प्रवास आम ह्व़े गे त जनानी मंगसीर - पूस मा अपण कजे (पति) तैं मिलणो देश (प्रवास मा की जगा )
जाणे इच्छा करदी छे अर याँ पर भौत इ प्रसिद्ध लोक गीत इन च :
कब आलो ह्यूंद मंगसीर मैना , हे ज्योरू ! हे ज्योरू मीन दिल्ली जाण
हे ज्योरू होटल की रुट्टी उखी खाण , हे ज्योरू ! मीन दिल्ली जाण
कब आलो ह्यूंद मंगसीर मैना , हे ज्योरू मीन दिल्ली जाण
प्यायी सिगरेट फेंकी चिल्ला, प्यायी सिगरेट फेंकी चिल्ला
घुमणो कू जाण मीन लाल किल्ला , हे ज्योरू लाल किल्ला
कब आलो ह्यूंद मंगसीर मैना , हे ज्योरू मीन दिल्ली जाण
आलू गोभी को बणाये साग , आलू गोभी को बणाये साग
घुमणो को जाण मीन कारोल बाग़ , हे ज्योरू करोला बाग़
' हे ज्योरू ..' लोक गीत वै बगतो सामजिक परिस्थिति बयान करण मा
भौत ई सक्षम च . लोक गितांगो योही त कमल च बल समौ का गीत गंठयाँदन/रचदन