एक कल्पना मेरे मन की ,,,,,
******साहिल और लहरें ***
लहरों ने छेड़ा कुछ यूँ ही साहिल को ,
तुम सदा खामोश निष्चल क्यों रहते हो ,
हम बेताब रहते है तुम को मिलने को ,
तुम हो कि इजहार तक नहीं करते हो ,
साहिल ने कहा तब मुझे क्या जरूरत है ,
तुम सदा हमें गले तो मिलते रहते हो ,
थपेड़ों का अहशास तो जरूर होता है मुझे ,
मगर मैं अचल निष्चल को मजबूर हूँ ,
दिल तो मचलने को मेरा भी करता है ,
मगर क्या करू बंदिशों से जकड़ा हुवा हूँ ,
अगर जज्ज्बात में अपनी हद तोड़ता हूँ ,
तो क़यामत सी आ सकती है जमीं पर ,
तुम मनचलों का क्या भरोंसा है यहाँ ,
तुम कहाँ तक चली आओगी जहां पर ,
फिर तो साहिल की क्या हैशियत यहाँ ,
इस जहां पर सकल तुम ही मचलावोगी ,
सारी धरा पर तब तुमारा ही राज होगा ,
जमीन सारी तुम में बिलींन हो जायेगी ,
जल प्रलय का मंजर होगा सब जगह ,
तुम्हारी मौज मस्ती मुझे महँगी पड़ेगी ,
कोशता रहूँगा तब हर पल अपने को ,
सोचता हूँ हर पल सदा इसी सपने को ,
इस लिए मत छेड़ो मुझे यूं इस कदर ,
नहीं तो भटकती रहोगी सदा यूँ दर बदर ,
मुझे निष्चल खामोस सदा यूँ ही रहने दो ,
बस यूँ ही मिलने का सिलसिला चलने दो ,
द्वारा रचित >भगवान् सिंह जयाड़ा
दिनांक >16/02/2013
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