बरखा पर एक कविता लिखी है गल्तियों के लिये माफी चाहता हॅू।
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर
(बसग्याल़)
रूमझुम-रूमझुम बरखी बरखा,
बढ़गी गाड़ गदेरौं मा पाणी,
कैकी डोखरी, कैकी पुगडी,
बगगी पाणी मा आस पुराणी।
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर।
सरगै किड़कताल्यूॅन डौर लगदी,
तबर्यूॅ बरखा हौर लगदी,
बीदा द्योकू बजर पोडिगे,
कूड़ी बी देखा खन्द्वार ह्वेगे।
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर।
कखी त गौंका गऊॅं बगी गिन,
पीड़ी पिस्तान्यूॅ तक नऊॅं मिटिगिन,
कैका गोरू भैंसा नी रैनी ,
सीबी पाणी मा रामदी गैनी
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर।
‘‘पक्का डौंण्डा बी रौल़ा बणिगिन,
उबाणा मा बि बौल़ा बणिगिन,‘‘
कखीत गौंका गौंकरैलिन खाली,
उजड़ीगी फसल, बगगिन डाली
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर।
सौण भादों कू गिगड़ाट देखा,
कूडैं पठाल्यूॅ कू थर्राट देखा,
बूड़ बूढ़्यों कू भबड़ाट देखा,
गाड़ गदन्यूॅ कू सुस्यांट देखा,
हाय रे बरखा नी औण पै तू फेर।
स्वरचित
सुरेश स्नेही