Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158629 times)

sanjaygarhwali

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मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।

मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।

अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।

औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।

मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।

देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।

निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।

तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है

यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर

रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जहां रची गईं बड़ी-बड़ी पुस्तकें

महात्मा गांधी ने उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी में प्रवास कर ‘अनासक्ति योग’ की रचना की थी। सुमित्रानन्दन पंत का घर भी कौसानी में था, जहां उन्होंने अनेक कृतियों का सृजन किया। महादेवी वर्मा और रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने नैनीताल जिले के रामगढ़ में काफी लेखन कार्य किया। अज्ञेय ने अपनी अनेक रचनाओं का सृजन भीमताल प्रवास के दौरान किया। मन्नू भंडारी ने उपन्यास ‘महाभोज’ का ड्राफ्ट 1978 में शिमला विवि के गेस्ट हाउस में रह कर तैयार किया था। चित्रा मुद्गल ने उपन्यास ‘एक जमीन अपनी’ की रचना शिमला के माल रोड पर स्थित लेखक गृह में 1988 में की थी। मोहन राकेश ने ‘लहरों के राजहंस’ की रचना के लिए दाजिर्लिंग की खूबसूरत वादियों में प्रवास किया था। राजेन्द्र यादव ने कसौली की वादियों में अपने उपन्यास ‘अनदेखे अजनबी पल’ के साथ-साथ और भी काफी लेखन कार्य किया। रणजीत कपूर को भी कसौली खूब पसंद है और अपने लेखन के प्रारम्भिक कार्य के लिए कसौली जाते हैं। रामकुमार पेंटिंग करने के लिए रानीखेत जाते रहे। निर्मल वर्मा लेखन कार्य के लिए एकांतवास हेतु शिमला और उत्तराखंड के मुक्तेश्वर जाते रहे, वहीं राजी सेठ को शिमला में प्रवास कर लेखन करना पसंद आता है। कृष्णा सोबती शिमला ही नहीं, कई जगहों पर लेखन के लिए विशेष प्रवास करती रही हैं।

http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/lifestylenews/50-50-128339.html

दीपक पनेरू

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सावन की बूंदों से

रिमझिम रिमझिम वर्षा से,
जब तन मन भीगा जाता है,
राग अलग सा आता है मन मे,
और गीत नया बन जाता है I

कोशिश करता कोई शब्दों की,
कोई मन में ही गुनगुनाता है,
कोई लिए कलम और लिख डाले सब,
कोई भूल सा जाता है I

सावन का मन-भावन मौसम,
हर तन भीगा जाता है,
झींगुर, मेढक करते शोरगुल,
जो सावन गीत कहलाता है I

हरियाली से मन खुश होता,
तन को मिलती शीत बयार,
ख़ुशी ऐसी मिलती सबको,
जैसे मिल गया हो बिछड़ा यार I

गाड-गधेरे, नौले-धारे सब,
पानी से भर जाते है,
नदिया करती कल-कल,
और पंछी सुर में गाते है I

"सावन की बूंदों" का रस,
तन पर जब पड़ जाता है,
रोम -रोम खिल जाता है सबका,
स्वर्ग यही मिल जाता है I

दीपक पनेरू
मथेला सदन, तुलसी नगर,
पॉलीशीट, हल्द्वानी I
[/right]

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  •      <blockquote> जग के उर्वर आँगन में
    बरसो ज्योतिर्मय जीवन!
    बरसो लघु लघु तृण तरु पर
    हे चिर अव्यय, चिर नूतन!
    बरसो कुसुमों के मधु बन,
    प्राणो में अमर प्रणय धन;
    स्मिति स्वप्न अधर पलकों में
    उर अंगो में सुख यौवन!
    छू छू जग के मृत रज कण
    कर दो तृण तरु में चेतन,
    मृन्मरण बांध दो जग का
    दे प्राणो का आलिंगन!
    बरसो सुख बन, सुखमा बन,
    बरसो जग जीवन के घन!
    दिशि दिशि में औ’ पल पल में
    बरसो संसृति के सावन!
     
     
    (Source http://hindipatal.wordpress.com )</blockquote>

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कवि सुमित्रानंदन पन्त से एक मुलाकात अबोध मन की...रश्मि प्रभा    और अब  रश्मि प्रभा जी स्मृति शेष में दर्ज उन अनुभूतियों से आपको रूबरू कराने जा रही हैं जो उनकी सुनहरी यादों का अनमोल हिस्सा है ....
 आज मैं आपको प्रकृति कवि सुमित्रानंदन पन्त जी से मिलवाने समय के उस बिन्दू पर ले चलती हूँ,जहाँ मुझे नहीं पता था कि वे कौन हैं ,उनकी महत्ता क्या है !   
 नन्हा बचपन,नन्हे पैर,नन्ही तिलस्मी उड़ान सपनों की और नन्ही-नन्ही शैतानियाँ- उम्र के इसी अबोध,मासूमियत भरे दिनों में मैं अपने परिवार के साथ इलाहाबाद गई थी। मेरे पापा,मेरी अम्मा, हम पाँच भाई-बहन -छोटे भाई के फूल संगम में प्रवाहित करने गए थे। उम्र को मौत के मायने नहीं मालूम थे, बस इतना पता था कि वह नहीं है - फूल,संगम .... अर्थ से बहुत परे थे।
 आंसुओं में डूबे दर्द के कुछ टुकड़े मेरे पापा,मेरी अम्मा ने संगम को समर्पित किया, पानी की लहरों के साथ लौटती यादों को समेटा और लौट चले वहां , जहाँ हम ठहरे थे। हाँ , संगम का पानी और माँ की आंखों से गिरते टप-टप आंसू याद हैं। और याद है कि हम कवि पन्त के घर गए (जो स्पेनली रोड पर था)। माँ उन्हें 'पिता जी' कहती थीं,कवि ने उनको अपनी पुत्री का दर्जा दिया था, और वे हमारे घर की प्रकृति में सुवासित थे, बाकी मैं अनजान थी।
 उस उम्र में भी सौंदर्य और विनम्रता का एक आकर्षण था, शायद इसलिए कि वह हमारे घर की परम्परा में था।
 जब हम उनके घर पहुंचे, माथे पर लट गिराए जो व्यक्ति निकला.....उनके बाल मुझे बहुत अच्छे लगे,बिल्कुल रेशम की तरह - मैं बार-बार उनकी कुर्सी के पीछे जाती.....एक बार बाल को छू लेने की ख्वाहिश थी। पर जब भी पीछे जाती, वे मुड़कर हँसते..... और इस तरह मेरी हसरत दिल में ही रह गई।
 उनके साथ उनकी बहन 'शांता जोशी' थीं, जो हमारे लिए कुछ बनाने में व्यस्त थीं । मेरे लिए मीठा,नमकीन का लोभ था, सो उनके इर्द-गिर्द मंडराती मैंने न जाने कितनी छोटी-छोटी बेकार की कवितायें उन्हें सुनाईं.....कितना सुनीं,कितनी उबन हुई- पता नहीं, बस रिकॉर्ड-प्लेयर की तरह बजती गई ।
 दीदी,भैया ने एक जुगलबंदी बनाई थी -
 'सुमित्रानंदन पन्त
 जिनके खाने का न अंत', .... मैं फख्र से यह भी सुनानेवाली ही थी कि दीदी,भैया ने आँख दिखाया और मैं बड़ी मायूसी लिए चुप हो गई !
 फिर पन्त जी ने अपनी कवितायें गाकर सुनाईं, माँ और दीदी ने भी सुनाया..... मैं कब पीछे रहती -सुनाया,'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए....'
 उसके बाद मैंने सौन्दर्य प्रिय कवि के समक्ष अपने जिज्ञासु प्रश्न रखे - ' नाना जी, पापा हैं तो अम्मा हैं, मामा हैं तो मामी , दादा हैं तो दादी......फिर यहाँ नानी कहाँ हैं?'प्रकृति कवि किसी शून्य में डूब गए, अम्मा, पापा सकपकाए , मैं निडर उत्तर की प्रतीक्षा में थी (बचपन में माँ,पिता की उपस्थिति में किसी से डर भी नहीं लगता)। कुछ देर की खामोशी के बाद कवि ने कहा ,'बेटे, तुमने तो मुझे निरुत्तर कर दिया,इस प्रश्न का जवाब मेरे पास नहीं....' क्या था इन बातों का अर्थ, इससे अनजान मैं अति प्रसन्न थी कि मैंने उनको निरुत्तर कर दिया, यानि हरा दिया।
 इसके बाद सुकुमार कवि ने सबका पूरा नाम पूछा - रेणु प्रभा, मंजु प्रभा , नीलम प्रभा , अजय कुमार और मिन्नी !
 सबके नाम कुछ पंक्तियाँ लिखते वे रुक गए, सवाल किया - 'मिन्नी? कोई प्रभा नहीं ' - और आँखें बंदकर कुछ सोचने लगे और अचानक कहा - 'कहिये रश्मि प्रभा , क्या हाल है?' अम्मा ,पापा के चेहरे की चमक से अनजान मैंने इतराते हुए कहा -'छिः ! मुझे नहीं रखना ये नाम ,बहुत ख़राब है। एक लडकी-जिसकी नाक बहती है,उसका नाम भी रश्मि है................' पापा ने डांटा -'चुप रहो', पर कवि पन्त ने बड़ी सहजता से कहा, 'कोई बात नहीं , दूसरा नाम रख देता हूँ' - तब मेरे पापा ने कहा - 'अरे इसे क्या मालूम, इसने क्या पाया है....जब बड़ी होगी तब जानेगी और समझेगी ।'
 जैसे-जैसे समय गुजरता गया , वह पल और नाम मुझे एक पहचान देते गए ।
 वह डायरी अम्मा ने संभालकर रखा है , जिसमें उन्होंने सबके नाम कुछ लिखा था। मेरे नाम के आगे ये पंक्तियाँ थीं,
 ' अपने उर की सौरभ से
 जग का आँगन भर देना'...........
 कवि का यह आशीर्वाद मेरी ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा बन गया......इस नाम के साथ उन्होंने मुझे पूरी प्रकृति में व्याप्त कर दिया ।   www.parikalpnaa.com/2010/05/blog-post_6689.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बुधवार, २० मई २००९
...स्व. सुमित्रानंदन पन्त {जयन्ती २० मई }पर विशेष "जैसा मैंने उन्हें देखा"
साथियों जब उन्होंने इस संसार से विदा ली थी तो मैं गोदी की थी ...इसीलिए उनसे जुड़ी कोई याद मेरे पास नहीं है ...हाँ पापा के पास उनसे सम्बंधित कई संस्मरण हैं ...वे उन्हें "नान का" कहते हैं ..."नान" मतलब कुमाउनी में छोटा और "का" मतलब काका ,अर्थात चाचा ....पापा के पास उनके लिखे कई पत्र सुरक्षित रखे हैं ..उनके कई फोटोग्राफ आने जाने वालों ने एल्बम  में से निकाल लिए ....
हम लोग बचपन से ही उनकी फोटो अपनी  पाठ्य पुस्तकों में देख देख कर खुश होते थे ..और लोगों को बताया करते  थे कि ये हमारे दादाजी हैं ...पापा को ये बिलकुल भी पसंद नहीं था कि हम किसी को भी ये बात बताएं....उन्हें  आज भी इस तरह का प्रदर्शन कतई पसंद नहीं आता है.
बहुत कम लोग यह बात जानते होंगे कि पन्त जी एक बहुत अच्छे ज्योतिष भी थे ...उनका दिया हुआ पुखराज पापा ने कई वर्षों तक धारण किया ...बाद में वह गिर कर खो गया ...
आज यहाँ मैं अपनी माँ 'दीपा पन्त' के अनुभवों को आपके साथ बांटना चाहती हूँ ...जब वह पहली बार उनसे मिली तो कैसा लगा उसे ....माँ के ही शब्दों में .........
 
गौर वर्ण ,ऊँचा ललाट ,बड़ी- बड़ी स्वप्नाविष्ट आँखें ,तीखे नाक-नक्श और कन्धों तक रेशमी घुंघराले बाल ,लम्बा कद ,कुरता पायजामा और बास्केट पहने हुए ,यह था उनका पहला और अंतिम दिव्य दर्शन  ,मानो कविता ने ही साकार रूप धारण कर लिया हो .वह क्षण  मेरे लिए शब्दातीत है जिसे याद कर मैं आज भी रोमांचित हो उठती हूँ.
१३ मई १९७३ की वह अविस्मरणीय दोपहर जब स्व. सुमित्रानंदन पन्त जी ने अल्मोड़ा में अपने पूज्य मामा के निवास स्थान पर हम लोगों को विवाह  का शगुन देने के लिए बुलाया था. हमारे विवाह में वे किसी कारणवश सम्मिलित नहीं हो सके थे, इसीलिए एक वर्ष उपरांत जब वे अल्मोड़ा आए, उस समय मेरा नवजात पुत्र 'रोहित',जिसका नाम उन्होंने ही रखा था, लगभग एक माह का होगा,उसे लेकर हम लोग उनका आर्शीवाद पाने वहां पहुंचे.
छोटे से शिशु को देखकर पन्त जी द्रवित हो उठे और बोले "अरे !ये तो इतना छोटा सा है, इसे लेकर तुम इतनी दूर क्यूँ आईं? पर उनको देखने की उत्कंठा के आगे यह बात कितनी मामूली थी. अगर उस दिन वहां ना जाती तो उनका दुर्लभ आर्शीवाद कैसे पाती ?
छात्रावस्था से ही पन्त जी मेरे प्रिय कवि थे, उनकी कविताओं के मनोरम संसार में मेरा मन रमता था. मेरा सौभाग्य  कि उन्हीं के परिवार में वधू रूप [बड़े भाई हर दत्त पन्त की पुत्र वधू ] में उनसे मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ .
इस छोटी सी मुलाकात में उनसे काफी देर बातें हुई, मेरी शिक्षा दीक्षा ,अभिरुचियाँ व घर परिवार के विषय में उन्होंने रुचिपूर्वक बातें कीं ..यह जानकर कि मैं एम् .ए.हिन्दी से हूँ व गोल्ड मेडिलिस्ट हूँ और कवितायेँ भी करती हूँ ,उन्होंने मेरी कुछ रचनाएं सुनीं और आगे लिखने के लिए प्रेरित किया . उनके साथ बातचीत में बिलकुल भी ऐसा नहीं लगा के मैं इतने बड़े व्यक्ति से बारें कर रही हूँ जो हमारे परिवार के बुजुर्ग ही नहीं ,पूरे एक युग के प्रवर्तक भी हैं ,उसके आगे भी वह मानवीय संवेदनाओं से ओत- प्रोत एक महामानव भी हैं .
एक सरल ह्रदय और एक सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी एक भावुक कवि ही नहीं ...पारिवारिक संबंधों के सफल निर्वाहक भी थे .घर के छोटे से छोटे और बड़े बूढों तक के स्वास्थ्य और सुविधाओं का वे ध्यान रखते थे और स्वयं अविवाहित होने पर भी गृहस्थ जीवन की परेशानियों और कठिनाइयों को समझते थे .
मेरी पूजनीया सास जी प्रायः स्नेहपूर्ण स्वर में पन्त जी की रूचि, अरुचि और व्यवहार कुशलता की सराहना करती न थकती थीं .सब भाइयों में छोटे अपने इस देवर के प्रति उनका असीम स्नेह था .यद्यपि अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने कभी पन्त जी के सम्मुख अपनी स्नेह भावना का प्रदर्शन नहीं किया .स्वाभाव की यही विशिष्टता उनके सभी निकट सम्बन्धियों में मैंने समान रूप से पाई.
पन्त जी के विषय में जितना भी पढ़ा वह कम है ,यह अपने घर में मुझे अनुभव हुआ .उन्होंने संत का स्वभाव पाया  था .किसी के प्रति ईर्ष्या और क्रोध करना तो उनके चरित्र में ही नहीं था .अपनी प्रशंसा और आलोचना दोनों को वे सामान भाव से ग्रहण करते थे .
पन्त जी छायावाद युग के प्रमुख स्तम्भ थे, जिनकी काव्य की रश्मियाँ युग -युगांतर तक संसार को आलोकित करती रहेंगी .
अंत में मेरी औटोग्राफ पुस्तिका में उनकी लिखी कविता की चार  पंक्तियाँ सदैव  उनके स्नेहपूर्ण व्यवहार और भावी जीवन के लिए शुभकामनाओं की याद दिलाती रहेंगी ...
"हंसमुख प्रसून सिखलाते,
पल भर है जो हँस पाओ .
अपने उर के सौरभ से ,
जग का आँचल भर जाओ. "   ......दीपा पन्त ...sw विशेष "
प्रस्तुतकर्ता शेफाली पाण्डे पर ९:०४ अपराह्न   

http://shefalipande.blogspot.com/2009/05/blog-post_20.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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drynpathak


Tuesday, February 8, 2011
बापू के प्रति ...................सुमित्रानंदन पन्त .
तुम मांस-हीन, तुम रक्त-हीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिसपर ,भावी की संस्कृति समासीन!

तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,--निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग , है विश्व-भोग का वर साधन।
इस भस्म-काम तन की रज से- जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के  ताने-बानों से मानवपन!
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम, धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँकदी , बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत, छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त किये  मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!

सुख-भोग खोजने आते सब, आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के, मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,
पशुता का पंकज बना दिया तुमने मानवता का सरोज!
पशु-बल की कारा से जग को दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष, घृणा से लड़ने को सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ तुमने विचार-परिणीत उक्ति,
विश्वानुरक्त हे अनासक्त! सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!

सहयोग सिखा शासित-जन को शासन का दुर्वह हरा भार,
होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
बहु भेद-विग्रहों में खोई ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
तुमने प्रकाश को कह प्रकाश, औ अन्धकार को अन्धकार।
उर के चरखे में कात सूक्ष्म युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँग-रँग खद्दर के सूत्रों में नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,
मानवी-कला के सूत्रधार! हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।

जड़वाद जर्जरित जग में तुम अवतरित हुए आत्मा महान,
यन्त्राभिभूत जग में करने मानव-जीवन का परित्राण;
बहु छाया-बिम्बों में खोया पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में फूँकने सत्य से अमर प्राण!
संसार छोड़ कर ग्रहण किया नर-जीवन का परमार्थ-सार,
अपवाद बने, मानवता के ध्रुव नियमों का करने प्रचार;
हो सार्वजनिकता जयी, अजित! तुमने निजत्व निज दिया हार,
लौकिकता को जीवित रखने तुम हुए अलौकिक, हे उदार!

मंगल-शशि-लोलुप मानव थे विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
तुम केन्द्र खोजने आये तब सब में व्यापक, गत राग-शोक;
पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
जीवन-इच्छा को आत्मा के वश में रख, शासित किए लोक।
था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण,
बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद मानव-संस्कृति के बने प्राण;
थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान,
भू पर रहते थे मनुज नहीं, बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान--

तुम विश्व मंच पर हुए उदित बन जग-जीवन के सूत्रधार,
पट पर पट उठा दिए मन से कर नव चरित्र का नवोद्धार;
आत्मा को विषयाधार बना, दिशि-पल के दृश्यों को सँवार,
गा-गा--एकोहं बहु स्याम, हर लिए भेद, भव-भीति-भार!
एकता इष्ट निर्देश किया, जग खोज रहा था जब समता,
अन्तर-शासन चिर राम-राज्य, औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता;
हों कर्म-निरत जन, राग-विरत, रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता,
प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव, है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता।

ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र , शासन-चालन के कृतक यान,
मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र , हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान;
भौतिक विज्ञानों की प्रसूति , जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान,
मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम-- मानव मानवता का विधान!
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी मानवता पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त;
कारा-गृह में दे दिव्य जन्म मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त!

कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति , बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त, विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;
आए तुम मुक्त पुरुष, कहने-- मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं, मा भैः जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३६

(Source http://drynpathak.blogspot.com/2011/02/blog-post.html)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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>> कविता संग्रह >> मुक्ति यज्ञ
 
 मुक्ति यज्ञ
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सुमित्रानंदन पंत << आपका कार्ट
पृष्ठ :  112 << अपने मित्रों को बताएँ
मूल्य :  $1.95   
प्रकाशक :  लोकभारती प्रकाशन
आईएसबीएन :  0000
प्रकाशित :  फरवरी ०४, १९८१
पुस्तक क्रं : 3267
मुखपृष्ठ : अजिल्द
 

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशकवि-परिचय
श्री सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म सन् 1900 में कौसानी में हुआ।
दस साल की आयु तक उनका नाम गोसाईंदत्त था। महाकवि जन्म और उनकी मां की मृत्यु, ये दोनों घटनाएं साथ-साथ घटित हुईं। मातृ-विहीन, अत्यधिक दुर्बल बालक के दीर्घ जीवन की मनौती मनाते हुए उनके वात्सल्य-विमूढ़ पिता ने उन्हें एक गोस्वामी को अर्पित कर दिया, जिनके उनका नाम गोसाईंदत्त पड़ा। उनका बचपन कौसाकी में बीता। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं के वर्नाक्यूलर स्कूल में हुई। दस वर्ष की आयु में वे अल्मोड़ा गये। वहाँ के हाई स्कूल में नाम लिखाते समय उन्हें अपना नाम बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई। सर्टिफिकेट पर लिखे नाम को तत्काल चाकू से खुरदकर उन्होंने अपनी कल्पना के आदर्श पात्र सुमित्रा- नन्दन (लक्ष्मण) का नाम लिख दिया। तभी से उनका यही नाम चल रहा है। अल्मोड़ा से पन्तजी को उनकी शिक्षा के लिए काशी भेजा गया। वहाँ के जयनारायण हाईस्कूल से उन्होंने स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की और उनके बाद उच्चतर शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गये। सन् 1921 ई० में असहयोग आन्दोलन के कारण उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड दी।

काव्य-चेतना का प्रादुर्भाव और विकास

पन्त जी को कवि बनाने का सबसे अधिक श्रेय उनकी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर वे बड़े हुए है। बचपन से ही उनके संस्कार उन्हें कवि-कर्म की ओर प्रेरित कर रहे थे और उस प्रेरणा के विकास के लिए कौसानी के पर्वत–प्रदेश की प्राकृतिक शोभा ने आधारभूमि का निर्माण किया। वहीं की प्रकृति के बीच बडे़ होने के कारण प्रकृति-प्रेम पन्तजी के स्वभाव के अभिन्न अंग बन गये हैं। ‘मेरा रचनाकाल’ और ‘मैं और मेरी कला’ नामक निबन्धों में उन्होंने अपने कवि-जीवन की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है- ‘‘तब मैं छोटा-सा चंचल भावुक किशोर था, मेरा काव्य-कंठ अभी नहीं फूटा था, पर प्रकृति मुझ मातृहीन बालक को, कवि-जीवन के लिए मेरे बिना जाने ही जैसे तैयार करने लगी थी। पर्वत प्रदेश के उज्ज्वल चंचल सौन्दर्य ने मेरे जीवन के चारों ओर अपने नीरव सम्मोहन का जाल बुनना शुरू कर दिया था।’’

परन्तु, पन्तजी जीवन-भर केवल प्रकृति का आंचल पकड़कर उसी से मनुहारें नहीं करते रहे, हिन्दी कविता की विभिन्न प्रवृत्तियों के उत्थान-पतन के साथ वे प्रायः सभी में अपना योग देते। वर्गीकरण की सुविधा के लिए पन्त के सम्पूर्ण काव्य का विभाजन रूप-काव्य और विचार-काव्य नाम से किया जा सकता है। प्रथम वर्ग की मुख्य कृतियाँ हैं- ‘वीणा’ ‘ग्रन्थि’ और ‘पल्लव’। इन कृतियों में कवि की दृष्टि मुख्यतः रूपात्मक और कुछ अंशों में भावात्मक सौन्दर्य पर केन्द्रित है। ‘वीणा’ जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है, उनका दुधमुँहा प्रयास है। इन कविताओं में पन्तजी का किशोर मन उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रहा है। शान्तिप्रिय द्विवेदी के शब्दों में ‘वीणा’ में पन्तजी के ‘अविकच शैशव का अबोध जगत् है।’ वीणा की अधिकांश कविताएं भाव-प्रधान हैं। कल्पना की उड़ानें कहीं-कहीं बहुत ऊँची हैं। ‘ग्रन्थि’ वियोग-श्रृंगार की रचना है, जिसमें कथा केवल पृष्ठभूमि है और नायक के द्वारा नायक के द्वारा प्रथम पुरुष में कही गई है।

उनमें श्रृंगार के प्रमुख संचारी भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है जो ऐन्द्रियता से युक्त होते हुए भी संयत और परिष्कृत है, प्रकृति-प्रेम और प्रकृति-सौन्दर्य की अभिव्यंजना ‘पल्लव’ में अधिक प्रांजल और परिपक्व रूप में हुई है। ‘पल्लव’ की अनेक छोटी-बड़ी रचनाओं में पन्तजी ‘निर्द्वन्द्व प्रकृतिपुत्र’ हैं, उनकी दृष्टि प्रकृति के अंग-अंग से फूटती हुई शोभा पर टिकी हुई थी। परन्तु ‘पल्लव’ में संकलित ‘परिवर्तन’ कविता में उनके हृदय मंथन और बौद्धिक संघर्ष का प्रतिबिम्ब भी मिलता है। इस कविता में जीते हुए तथ्यों के प्रति उपेक्षा और आशोन्मुखी परिवर्तन के प्रति आग्रह विद्यामान है। यह कहना अनुचित न होगा कि रूप से विचार की ओर उड़ने की प्रकिया का आरम्भ इसी ‘परिवर्तन’ कविता से हुआ है। ‘गुंजन’ में पन्तजी का ध्यान फूलों, ओस की बिन्दुओं और निर्झर की कलकल से हट कर मानव की ओर गया है, परन्तु उसकी समस्याओं से उलझने की इच्छा उनमें नहीं जगी है। ‘युगान्तर’ उस सौन्दर्यभोगी कल्पना-पुत्र के अन्तर्द्वन्द्व की कविता है जिसे निरी कल्पना से अब सन्तोष नहीं मिलता, जो जीवन की समस्याओं पर सोचने को तैयार हो रहा है।


पन्तजी का विचारक रूप पहले–पहल उनके प्रतीक-रूपक ‘ज्योत्सना’ में दिखाई दिया था। ‘गुंजन’ की प्रारम्भिक कविताओं में भी कुछ विचार हैं परन्तु वहां कवि का ध्यान मुख्य रूप से कविता के रूप-पक्ष पर ही केन्द्रित है। पन्तजी ने पृथ्वी के त्रास की आवाज पहली बार ‘युगान्त’ में सुनी और उसके बाद ‘युगवाणी’ में इन समस्याओं के निदान और समाधान का कार्य आरम्भ हुआ। पन्तजी के विचार-विकास में दो मुख्य दर्शनों की प्रधानता है। वे दर्शन हैं मार्क्सवाद और अरविन्द दर्शन। ‘युगवाणी लिखने के समय तक पन्तजी’ अरविन्द दर्शन के सम्पर्क में नहीं आये थे, इसलिए उनका चिन्तन प्राचीन भारतीय दर्शन तथा मार्क्सवाद की पृष्ठ-भूमि में पल्वित हुआ।

‘युगवाणी’ और ग्राम्या’ में पूँजीपतियों की भर्त्सना तथा कृषक और श्रमजीवियों आदि की प्रशंसा की गई थी। उसमें मार्क्स का स्तवन और भौतिकवादी दर्शन का आंशिक स्वीकार भी था। यही कारण था कि  आलोचकों की ओर से घोषणा कर दी गई कि पन्तजी पूर्ण मार्क्सवादी हो गये हैं, लेकिन यदि हम ध्यान से देखें तो पता लग जाता है कि ‘युगवाणी’ में भी कवि की दृष्टि केवल भौतिकवाद को स्वीकार करके नहीं चली थी। उन्होंने ‘युगवाणी’ में ही यह समझ लिया था कि भौतिकवाद और अध्यात्मवाद एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह दोनों के बीच समन्वय स्थापित करे। केवल बहिर्जीवन के संगठन से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। संकीर्ण भौतिक-वाद पर उन्होंने ‘युगवाणी’ की अनेक रचनाओं में आपेक्ष किया है—

हाड़ मांस का आज बनाओगे तुम मनुज-समाज ?
हाथ पाँव संगठित चलाओगे जग-जीवन-काज ?

उनकी दृष्टि में भौतिकवाद आध्यात्मिक सिद्धि की प्राप्ति का साधन मात्र है—
 
भूतवाद उस धरा-स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्मदर्शन अनादि से समासीन अम्लान।

‘ग्राम्या की रचना के बाद पन्त जी का झुकाव अरविन्द दर्शन की ओर हुआ। ‘युगवाणी’ और ग्राम्या’ की रचनाओं में अध्यात्मवाद की सूक्ष्म रेखाएँ भौतिकता की व्यापक पृष्ठभूमि पर खींची गई थीं; अरविन्द दर्शन में उन्हें दोनों के संतुलित समन्वय का संकेत मिला और उसके प्रभाव के कारण पन्तजी ने जो काव्य-कृतियाँ लिखीं उनमें उनकी काव्य-चेतना का एक नया मोड़ आरम्भ होता है। यहां से ‘स्वर्णकिरण’ युग का आरम्भ होता है। इसे पन्तजी ने ‘चेतना काव्य’ का नाम दिया है। स्वर्णकिरण’ ‘स्वर्णधूलि’ उत्तरा ‘अतिमा’, ‘वाणी’ आदि इसी युग की कृतियाँ हैं। पन्तजी ने लिखा है कि ‘‘मैंने एक नवीन काव्य-संचरण में आदर्शवाद तथा वस्तुवाद के विरोधों को नवीन मानव-चेतना के समन्वय में ढालने का प्रयत्न किया है।’’
चेतना काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण और अन्तिम कड़ी है ‘लोकायतन’।

प्रस्तुत ‘मुक्तियज्ञ’ प्रसंग ‘लोकायतन’ का ही एक अंश है, परन्तु अंश होते हुए भी वह अपने आप में पूर्ण है। ‘लोकायतन’ एक लक्ष्य प्रधान भविष्योन्मुखी काव्य है। उसका काव्य ‘‘वाल्मीकि अथवा व्यास की तरह एक ऐसे युग शिखर पर खड़ा है जिसके निचले स्तरों में उद्वेलित मन का गर्जन टकरा रहा है और ऊपर का स्वर्ग प्रकाश, अमरों का संगीत और भावी का सौन्दर्य बरस रहा है।’’ उनके अपने शब्दों में ‘‘सांप्रतिक युग का मुख्य प्रश्न सामूहिक आत्मा का मनःसंगठन है, अतः आधुनिक मानव को अंतः शुद्धि के द्वारा अन्तर्जगत के नये संस्कारों को गढ़ना है।

सामाजिक स्तर पर आत्मा का यही संस्कार ‘लोकायतन’ का प्रतिपाद्य है।’’ वास्तव में पन्तजी ने आज की दुर्निवार स्थितियों में जबकि चारों ओर मूल्यों के विघटन, खंडित आस्था और आपाधापी की हलचल का बोलबाला है, ‘लोकायतन’ में आत्मा का एक अमर भवन स्थापित करने तथा सारी पृथ्वी को अन्तश्चैतन्य के रागात्मक वृत्त में बाँधने की कल्पना की है। पन्तजी की यह विश्वदृष्टि राष्ट्र और देश की सीमाओं को पार करती हुई गई है, इसलिए भारत के राजनीतिक आन्दोलनों और सामाजिक समस्याओं का चित्रण भी उनके लिए अनिवार्य हो गया है। ‘मुक्तियज्ञ’ लोकायतन का वही अंश है जिसमें भारत के स्वतन्त्रता का युद्ध आद्योपान्त वर्णन किया गया है। इसलिए ‘मुक्तियज्ञ’ को समझने के लिए इस युग की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है।

‘मुक्तियज्ञ’ की पृष्ठभूमि

 ‘मुक्तियज्ञ’ में उस युग का इतिहास अंकित है जब भारत में एक हलचल मची हुई थी और सम्पूर्ण भारत में क्रांति की आग सुलग रही थी। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र के आतंक के अवसाद पर विजय पाकर जनता फिर नये युद्ध के लिए तैयार हो गयी थी। देश के युवक विशेष रूप से जागरुक हो गए थे। सारे देश में युवक समाजों की नींव पड़ी जिनमें देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रश्नों पर विचार होता था। इन्हीं के द्वारा जनता को सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे सेनानी मिले; सारे देश में सत्याग्रह, हड़ताल और बहिष्कार आन्दोलनों की बाढ़ आ गयी। किसानों और मजदूरों के जीवन में जागृति की एक नई लहर आ गयी। सरदार पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों ने भूमिकर से छूट पाने के लिए सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह किया।
 
 http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3267
 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सुमित्रानंदन पंत
गुंजन

वन- वन उपवन
छाया उन्मन- उन्मन गुंजन
नव वय के अलियों का गुंजन !

रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन !
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु-संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन !


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तप रे मधुर-मधुर मन !
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन;
ढल रे ढल आतुर मन !
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !

 

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