Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158647 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अंधकार की गुहा सरीखी
==================

उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण


दैन्‍य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का


उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का


देतीं वे निर्मम विज्ञापन!

फूट रहा उनसे गहरा आतंक,


क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
डूब कालिमा में उनकी


कँपता मन, उनमें मरघट का तम!
ग्रस लेती दर्शक को वह


दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
झूल रहा उस छाया-पट में


युग युग का जर्जर जन जीवन!

वह स्‍वाधीन किसान रहा,


अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज


संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में


हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उनके जीवन की


हरियाली जिनके तृन तृन से!

आँखों ही में घूमा करता


वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो


गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,


महाजन ने न ब्‍याज की कौड़ी छोड़ी,
रह रह आँखों में चुभती वह


कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

उजरी उसके सिवा किसे कब


पास दुहाने आने देती?
अह, आँखों में नाचा करती


उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी


स्‍वरग चली,--आँखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुँही


बिटिया दो दिन बाद गई मर!

घर में विधवा रही पतोहू,


लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल नें,


डूब कुँए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू


न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर


साँप लोटते, फटती छाती!

पिछले सुख की स्‍मृति आँखों में


क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन


तीखी नोक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता


रहती तब आँखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,


दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!

उस अवचेतन क्षण में मानो


वे सुदूर करतीं अवलोकन
ज्योति तमस के परदों पर


युग जीवन के पट का परिवर्तन!
अंधकार की अतल गुहा सी


अह, उन आँखों से डरता मन,
वर्ग सभ्यता के मंदिर के

निचले तल की वे वातायन!

(Source - http://www.hindikunj.com)


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जीना अपने ही में - सुमित्रानंदन पंत


जीना अपने ही में
एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग
यह मनुज धर्म है

अपने ही में रहना
एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में
सबका सहज भला है

जग का प्यार मिले
जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को
प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए

ज्ञानी बनकर
मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य
प्रथम सत्कर्म कीजिए

http://www.hindikunj.com


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ताज - सुमित्रानंदन पंत

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?

शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?
गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!

भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!


(http://www.hindikunj.com)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गाँव में जन्मे मशहूर कवि सुमित्रानंदन पंत जिनका जन्म 20 मई 1900 में हुआ था, प्रतिभा के बड़े ही धनी थे जिनकी रचनाएं आज भी उत्तराखंड की संस्कृति को सींचती है और प्रत्येक उत्तराखंडियों की मनोभिव्यक्ति को भी प्रकट करती है...आज भी इनकी पंक्तियाँ पढ़कर अपने प्रदेश के प्रति मन में एक विषाद उत्पन्न होता है.... पेश है पर्वत प्रदेश पर उन्ही की कुछ पंक्तियाँ.... जो आपको भी एक पर्वतवासी होने का आभास कराएंगी.....

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्तेझजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्दतर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चारकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वे आँखें -सुमित्रानंदन पंत  अंधकार की गुहा सरीखी
     उन आँखों से डरता है मन,
 भरा दूर तक उनमें दारुण
     दैन्‍य दुख का नीरव रोदन!
 अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
     उनमें भीषण सूनापन,
 मानव के पाशव पीड़न का
     देतीं वे निर्मम विज्ञापन!

 फूट रहा उनसे गहरा आतंक,

     क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
 डूब कालिमा में उनकी
     कँपता मन, उनमें मरघट का तम!
 ग्रस लेती दर्शक को वह
     दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
 झूल रहा उस छाया-पट में
     युग युग का जर्जर जन जीवन!

 वह स्‍वाधीन किसान रहा,

     अभिमान भरा आँखों में इसका,
 छोड़ उसे मँझधार आज
     संसार कगार सदृश बह खिसका!
 लहराते वे खेत दृगों में
     हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
 हँसती थी उनके जीवन की
     हरियाली जिनके तृन तृन से!

 आँखों ही में घूमा करता

     वह उसकी आँखों का तारा,
 कारकुनों की लाठी से जो
     गया जवानी ही में मारा!
 बिका दिया घर द्वार,
     महाजन ने न ब्‍याज की कौड़ी छोड़ी,
 रह रह आँखों में चुभती वह
     कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

 उजरी उसके सिवा किसे कब

     पास दुहाने आने देती?
 अह, आँखों में नाचा करती
     उजड़ गई जो सुख की खेती!
 बिना दवा दर्पन के घरनी
     स्‍वरग चली,--आँखें आतीं भर,
 देख रेख के बिना दुधमुँही
     बिटिया दो दिन बाद गई मर!

 घर में विधवा रही पतोहू,

     लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
 पकड़ मँगाया कोतवाल ने,
     डूब कुँए में मरी एक दिन!
 ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
     न सही एक, दूसरी आती,
 पर जवान लड़के की सुध कर
     साँप लोटते, फटती छाती!

 पिछले सुख की स्‍मृति आँखों में

     क्षण भर एक चमक है लाती,
 तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन
     तीखी नोंक सदृश बन जाती।
 मानव की चेतना न ममता
     रहती तब आँखों में उस क्षण!
 हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
     दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!

 उस अवचेतन क्षण में मानो

     वे सुदूर करतीं अवलोकन
 ज्योति तमस के परदों पर
     युग जीवन के पट का परिवर्तन!
 अंधकार की अतल गुहा सी
     अह, उन आँखों से डरता मन,
 वर्ग सभ्यता के मंदिर के
     निचले तल की वे वातायन!

 

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 पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस -सुमित्रानंदन पंत चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
 आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
 नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
 तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
 सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
 आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !

 शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,

 मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण !
 आम्र-मौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,
 पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ,
 जय भारत गाओ, स्वतन्त्र भारत गाओ !
 उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचल,
 चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल !
 लहर-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल
 जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !

 धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,

 भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल !
 तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,
 नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !
 राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
 जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !
 स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
 बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!
 लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
 हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!
 मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
 संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
 मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
 वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!

 नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,

 नव प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !
 नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
 आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
 रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
 शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!
 भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
 विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!
 धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!
 नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!
 नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
 नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !

(Source-http://hi.bharatdiscovery.org/)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 पर्वत प्रदेश में पावस -सुमित्रानंदन पंत पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
 पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
 
 मेखलाकर पर्वत अपार
 अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
 अवलोक रहा है बार-बार
 नीचे जल में निज महाकार,
 
 -जिसके चरणों में पला ताल
 दर्पण सा फैला है विशाल!
 
 गिरि का गौरव गाकर झर-झर
 मद में नस-नस उत्‍तेजित कर
 मोती की लड़ियों सी सुन्‍दर
 झरते हैं झाग भरे निर्झर!
 
 गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
 उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
 है झाँक रहे नीरव नभ पर
 अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
 
 उड़ गया, अचानक लो, भूधर
 फड़का अपार वारिद के पर!
 रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
 है टूट पड़ा भू पर अंबर!
 
 धँस गए धरा में सभय शाल!
 उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
 -यों जलद-यान में विचर-विचर
 था इंद्र खेलता इंद्रजाल
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बाल प्रश्न -सुमित्रानंदन पंत माँ! अल्मोड़े में आए थे
 जब राजर्षि विवेकानंदं,
 तब मग में मखमल बिछवाया,
 दीपावली की विपुल अमंद,
 बिना पाँवड़े पथ में क्या वे
 जननि! नहीं चल सकते हैं?
 दीपावली क्यों की? क्या वे माँ!
 मंद दृष्टि कुछ रखते हैं?"

 "कृष्ण! स्वामी जी तो दुर्गम

 मग में चलते हैं निर्भय,
 दिव्य दृष्टि हैं, कितने ही पथ
 पार कर चुके कंटकमय,
 वह मखमल तो भक्तिभाव थे
 फैले जनता के मन के,
 स्वामी जी तो प्रभावान हैं
 वे प्रदीप थे पूजन के।"

(http://hi.bharatdiscovery.org)

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सुमित्रानंदन पंत की कविता प्रथम रश्मि
 

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊंघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।

स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
 काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
 
     काले बादल जाति द्वेष के,
     काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,
     काले बादल उठते पथ पर
     नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!
 
 सुनता आया हूँ, है देखा,
 काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
 
     आज दिशा हैं घोर अँधेरी
     नभ में गरज रही रण भेरी,
     चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
     झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर!
 
 नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
 काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
 
     काले बादल, काले बादल,
     मन भय से हो उठता चंचल!
     कौन हृदय में कहता पलपल
     मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!
 
 आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
 काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
 
     मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
     पर अनीति से प्रीति नहीं है,
     यह मनुजोचित रीति नहीं है,
     जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!
 
     देश जातियों का कब होगा,
     नव मानवता में रे एका,
     काले बादल में कल की,
 
         सोने की रेखा!
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