प्रणब दा को एक चिठ्ठी
प्रणब दा
आपको सुनाई दे रही होगी
ना मेरी आवाज़ बहुत गौर से
नहीं भी सुनायी दे रही होगी तो-
सुनो गौर से मेरी आवाज़ सुनो
प्रणब दा।
मैं जीना चाहती थी
दूर तक चलना चाहती थी
आसमां में पक्षियों के संग
उड़ना चाहती थी...
खुद के जीवन को एक नई दिशा देना चाहती थी
मैने भी सपने संजोए थे खुद के लिए
जिन्हें साकार करना चाहती थी
खेलना चाहती
घर आंगन में अपने
मैं गिनना चाहती थी खुद की सफलताओं को
आसमां में चमकते तारों की टिमटिमाहट में
सफलताओं की इस पोटली को लेकर
लौटना चाहती थी मैं
घर को अपने।
सोना चाहती थी मां की गोद में
पिता को गर्व करते हुए देखना चाहती थी
खुद के लिए
छोटे भाई बहनों को बताना चाहती थी
खुद की उपलब्धियों के मायने...
इसलिए सिर्फ इसलिए तो
आई थी
आपके घर-आंगन में
प्रणव दा...।
प्रणब दा मैं बहुत निडर और मजबूत थी
खुद के वजूद के लिए
मुझे किसी भय के चेहरे से भी
नहीं था तनिक भी डर
मैं जानती थी मेरे अस्तित्व के लिए
आपके साथ खड़ी है
सर्वश्रेष्ठ शक्तिमान
उपलब्धियों के मायने अच्छी तरह समझने वाली
सोनिया-सुषमा और शीला जैसी मातृशक्तियां
इनकी गोद से मुझे भला कौन दरिंदा उठा सकता है
किसकी क्या हिमाकत
मेरे लिए आपके बनाए चक्रव्यूह को
भेद सके कोई
लेकिन प्रणब दा
मैं इतने सुरक्षित चक्रव्यूह में रहते हुए
इन महान मातृशक्तियों की गोद में
सुकून की नींद सोते हुए
अपने जीवन की सीढ़ियां चढ़ते हुए-
क्यों आख़िर क्यों
हार गई... लड़खड़ा गई
क्यों मेरा वजूद मिटा दिया
क्यों मुझे निवस्त्र कर फेंक दिया गया
आपके सबसे सुरक्षित चक्रव्यूह के द्वार पर?
और क्या-क्या सवाल करूं आपसे
प्रणव दा...।
सोचती हूं...क्या आप देंगे...मेरे सवालों का जबाब मुझे...
आपको जबाब देना होगा
हर हाल में देना होगा
ये मत सोचना मैं हार चुकी
मैं जा चुकी
नहीं...
मैं मरी नहीं हूं...मैं हारी नहीं हूं अभी
प्रणब दा...।
मेरा वजूद...मेरे जीने की सहनशीलता
अब और अधिक बढ़ गई है
मेरे कदमों की आहट...अब और तेज होने लगी है
सुनो गौर से सुनो मेरे क़दमों की आहट को
मेरे दर्द को महसूस करो
मेरे शरीर से निकलने वाली
एक-एक ख़ून की बूंद के रंग को देखो
यह बहुत...गहरा लाल सुर्ख हैं अभी भी
मेरे आंखों से टपकते इन आंसूओं को देखो
ये मेरी विदाई के नहीं...गर्व के आंसू हैं...गर्व के...
इन्हें ज़मीन पर मत गिरने देना अब...
किसी भी हाल में नहीं
ये आंसू...आग बन गए हैं अब
प्रणव दा...।
इन्हें आग बनने से रोको
इन्हें बिखरने ना दो
इन्हें बर्बाद मत होने दो...
ये मेरी मां के सपने...मेरे पिता का गर्व है
मेरे छोटे-छोटे भाई-बहनों का सम्मान है
और...ये सब मेरे,आपके जीने का वजूद भी है
प्रणब दा....।
इस वजूद को
इस वजूद के रिश्तों को
खुद को...मुझको...मेरी आत्मा को...मेरे वजूद के लिए खड़ी-
उन तमाम बेटियों के दर्द को, आंसूओं को...
न्याय दे दो...न्याय दे दो...प्रणब दा...।
जगमोहन 'आज़ाद'
राजपथ पर बेटियां
बस कुछ दिन बाद ही
देश का गौरव दिखाने के लिए
चमकेगा-गूंजेगा
गर्व से सीना चौड़ा कर-
कदम से कदम मिलकार चलेगा देश
राजपथ पर....।
लेकिन
यह गूंज-यह चमक
क्या सच में सीना चौड़ा कर
कदम से कदम से मिलाकर
चल पाएगें आज राजपथ पर....
उस राजपथ पर
जिस पर आज बेटियां-
रो रही हैं...चिल्ला रही हैं
लहूलुहान हो रही हैं
कड़कड़ाती ठंड में...ठंडे पानी की बोछारों से-
लड़ रही हैं...
पुलिसनुमा कुछ ख़ूंख़ार भेड़ीयों के वार से
घायल हो रही हैं-
फिर भी चल रही...निरंतर चल रही है
कभी ना रुकने वाली यात्रा पर
राजपथ पर...।
जिन बेटियों का भविष्य
संवर रहा था...विश्वविद्यालों में
जो जीवन की तलाश में
निकली ही थीं....अभी-अभी..घोंसले से अपने
जिन्होंने खुद के मायने को समझना शुरू ही किया था
अभी-अभी....
वह बेटियां भी आज सब कुछ छोड़कर-
चल रही हैं राजपथ पर....।
और लोग पूछ रहे हैं
इतनी सारी बेटियों...
क्यों चल रही राजपथ पर?
...और बेटियां...
हाथों में मशाल...मन में विश्वास
आखों में आग...लिए...
चीख रही हैं...चिल्ला रही हैं...
बस अब और नहीं...किसी हाल में नहीं
जागो...हर हाल में जागो
उठो गहरी नींद से...आवाज़ के मिज़ाज को बदलो...
खोल दो पट्टी न्याय की देवी की आंखों से
और...दिखाओ
कि बेटियों अब झूकेगीं नहीं...रूकेगी नहीं
नहीं होगा खिलवाड़-अत्याचार उनके साथ अब
न सहेगें वह अपमान अब...
बस अब नहीं...किसी भी कीमत पर नहीं...
अब इस राजपथ पर,तब तक गूंजती रहेगी आवाज़ बेटियों की
तब तक चलती रहेंगी...बेटियां...।
जब तक मानुष रूपी भेड़ियों को,नहीं चढ़ाया जायेगा...
सूली पर...
जब तक नहीं सुनायी देगी...इन बेटियों की आवाज़
खुद को लोकतंत्र का-
रहनुमा मानने वाले...सफेदपोश...धारियों को
तब तक चलती रहेंगी...गरज़ती रहेंगी आवाज बेटियों की
राजपथ पर...।
- जगमोहन 'आज़ाद'