उद्जन -बम के युग में जोशी जी की एक कविता
इस तोतापंखी कमरे में नीलम-मोती बिखराते हम,
मोरपंख हिलाते हम और श्वेत शंख बजाते हम,
चांद डाल में,
चांद ताल में,
चांद-चांद में मुस्काते हम.
कभी,बहुत पहले कभी,
शायद यही छटा एक कविता बन सकती थी.
इसका वर्णन कर,
इसके कानों में रुपहले रूपकों के झूमर डालकर,
इसकी आंखॉं में अलंकार का काजर डालकर,
चिपकाकर मद्रासी बिंदिया इसके उन्नत भाल पर,
और आंखॉं ही आंखों में पूछे कुछ प्रश्नों के मूक उत्तर
इसकी फैली गदोलियों में थैली-झोलियों में भर-भर कर,
मैं कभी,
बहुत पहले कभी,शायद कवि बन सकता था.
मेरी काव्यकृति की प्रेरणा तू
शायद कविप्रिया बन सकती थी.
पर अब नहीं,नहीं अब नहीं,
क्योंकि धक धक धक दिल के टेलिप्रिंटर पर अक्षर कर
छप-छप जाती है यह फ्लैश खबर-
कि सवधान
लो! अब विराट घृणा के कुंचित ललाट का धीरज छूटता है!
लो! अब उद्जन के परम कण का सूर्य-सा शक्ति-स्रोत फूटता है!
हो सावधान!
ओ आधे-भगवानः इंसान!
अब दूर कहीं बहुत-बहुत दूर
शुरू होती है वह अनंत विध्वंस-प्रक्रिया-लड़ी
जिसमें न रह पाएगी यह अर्ध-चेतना की मीनार खड़ी,
जिसमें हो जायेंगे ये सब के सब कांच के सपने चकनाचूर!
खबरदार
आ रहा ज्वार!
ये आधे-आधे वादे सब बह जायेंगे!
ये पुंसत्वहीन इरादे सब धरे रह जायेंगे!