Author Topic: उत्तराखंड पर लिखी गयी विभन्न किताबे - VARIOUS BOOKS WRITTEN ON UTTARAKHAND !  (Read 180314 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हिमालय के खश - एक एतिहासिक एवं सांस्कृतिक विशलेषण

Author (s): डी डी शर्मा
Study of one of the very important ethnic group of hindukush himalayan region

D. D. Sharma is a renowned linguist and historian based in Haldwani (Nainital) district of Uttarakhand.

Information
Language: Hindi
Year: 2006
Pages: 235
Status: Print Copy Available
Price: Rs 275.00



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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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भयो बिरज झकझोर कुमूं में - कुमाॐ की चुनिंदा होलियाँ

Author (s): प्रयाग जोशी
Collection of selected Kumaoni Holi's.

Prayag Joshi is one of the prominent experts of Kumaoni and Garhwali folk lore, language, history, and travelogue writer. He retired as professor of Hindi and is settled in Haldwani (Nainital) of Uttarakhand.

Information
Language: Hindi
Year: 2005
Pages: 152
Status: Print Copy Available
Price: Rs 200.00



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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखण्ड की प्रतिभाएं - युवाओं के लिए प्रेरणा और परामर्श की कोशिश

Author (s): चंदन डांगी
Description of 396 living personalities of Uttarakhand with brief introduction, address, contact details and inspirational statement.

Chandan Dangi is Senior Manager with Hyundai and is actively involved in the activities of PAHAR.

Language: Hindi
Year: 2003
Pages: 350
Status: Print Copy Available
Price: Rs 200.00



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मुट्ट बोटीकि रख

Author (s): नरेन्द्र सिंह नेगी
Selected poems of famous garhwali poet musician and singer Narendra Singh Negi.

Narendra Singh Negi is one of the best known folk singer, poet, and musicians of Uttarakhand.

Information
Language: Hindi
Year: 2002
Pages: 48
Status: Print Copy Available
Price: Rs 60.00


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Apart from a Singer, Negi Ji is also a writer. That is why his songs have great social meanings too.


मुट्ट बोटीकि रख

Author (s): नरेन्द्र सिंह नेगी
Selected poems of famous garhwali poet musician and singer Narendra Singh Negi.

Narendra Singh Negi is one of the best known folk singer, poet, and musicians of Uttarakhand.

Information
Language: Hindi
Year: 2002
Pages: 48
Status: Print Copy Available
Price: Rs 60.00


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BOOKS WRITTEN BY GOPAL BABU GOSWAMI , राष्ट्रज्योति , जीवनज्योति (हिन्दी) , गीतमाला ( कुमाउनी ) प्रमुख हैं

गोपाल दा द्वारा गाये गये गानों की एक लंबी सूची है. इनमें से कुछ ये हैं बेडू पाको बारामासा , जै मैया दुर्गा भवानी , रुपसा रमौति घुंघुर नि बजा छुम-छुमा , भुर-भुर उज्यावो हैगो , मालुरा हरयाला डांड का पार , आखि तेरि कायी-कायी , नै रो चेली नै रो , हिमाला का ऊंचा डांडा आदि गोस्वामी जी ने हिन्दी तथा कुमाउनी में कुछ किताबें भी लिखीं. जिनमें दर्पण , राष्ट्रज्योति , जीवनज्योति (हिन्दी) , गीतमाला ( कुमाउनी ) प्रमुख हैं. एक पुस्तक उज्याव अप्रकाशित है. [/b]


1) राष्ट्रज्योति ,
2) जीवनज्योति (हिन्दी)
3)  गीतमाला ( कुमाउनी )

[/size][/color][/size]

हेम पन्त

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मुट्ट बोटीकि रख : लेखक श्री नरेन्द्र सिंह नेगी

उत्तराखण्ड की प्रमुख सामाजिक संस्था "पहाङ" द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में नेगी जी द्वारा उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, वन/चिपको आन्दोलन सहित अन्य जनसरोकारों से जुङे मुद्दों पर रचित गीत व कविताएं हैं. नेगी जी के प्रशंसकों के लिये संग्रहणीय़ पुस्तक है.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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HERE IS THE BOOK ON RIDDLE AND IDOMS OF UTTARAKHAND !

AS I HAD PROMISED WITH YOU THAT A BOOK WOULD BE RELEASED ON THIS. ON 21 DEC 2008, ON ENE (RIDDLE & IDOMS OF UTTARAKHAND) WAS RELEASE. HERE IS THE COVER OF BOOK.





Parashar Gaur

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उकाल-उन्दार
(लेखक : पाराशर गौड़)
परिचय : सुमन कुमार घई



पुस्तक  :  उकाल-उन्दार
प्रकाशक : साहित्य कुंज प्रकाशन
         टोरोंटो, कैनेडा
सम्पर्क  : sahityakunj@gmail.com

कविता जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति है। इसके रोम-रोम में जीवन की खुशी, पीड़ा, सफलता, विफलता, आशा, निराशा, संकल्प, कुंठा, प्रेम, विरह - यानि जीवन के “उकाल-उन्दार” (उतराव-चढ़ाव) बसे हैं। पाराशर गौड़ का यह काव्य-संकलन भी उनके अनुभवों से उत्त्पन्न भावों का “उकाल-उन्दार” है।

 

इस काव्य-संकलन की कविताएँ पाराशर गौड़ के जीवन का एक नया आयाम पाठकों से सामने प्रस्तुत करती हैं। कैनेडा के साहित्यिक वृत्त में पाराशर जी का जो रूप है उससे सवर्था भिन्न है यह रूप। पाराशर गौड़ की यह रचनाएँ उत्तराखण्ड की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और अन्य समस्याओं इत्यादि  से सम्बन्धित हैं जो कि अन्तर्मन में बसे मातृभूमि प्रेम और उसकी पीड़ा से उत्त्पन्न हुई हैं। उनकी यहाँ पर प्रचलित और लोकप्रिय कविताओं की व्यंग्यात्मकता और भावों की कोमलता की छाप भी इन रचनाओं में दीखती है। परन्तु “उत्तराखण्ड” की माँग के समय का उनके समाज में जो रोष था उसकी अभिव्यक्ति उनके परिचित पाठकों के लिए नई होगी। जैसे कि -

पूछो...

   उन सफेद नकाबपोश नेताओं से.....

   जिनके इशारों पर

   उनके उन गुर्गों व

   खाकी वर्दी वालों ने

   मेरी माँ बहिनों की इज़्ज़त पर

   हाथ डाला ...

   निहत्थे निसहाय मासुमों  के

   सीनों पर गोलियाँ दागीं ।

 

उत्तराखण्ड जब मिला तो उत्तराँचल बन कर, कवि कह उठा ‘टीस’ कविता में -

 

   “जिन्होंने इसके नाम “उत्तराखण्ड” के लिए

   अपने सीनों पर गोलियाँ खाईं

   अपनी आखिरी निशानियों को शहीद होते देखा

   अपनी माँग की आहुती दी

   नाम रखते समय चंद एक स्वार्थियों ने

   इसका नाम बदल दिया ।

 

अब लगता है कि- मैं

किसी का गोद लिया बच्चे जैसा हूँ

जिसका ना तो ...

माँ का और ना बाप का पता है ।”

 

प्रान्त मिल तो गया परन्तु जो सपना कवि और दूसरे आन्दोलनकारियों ने देखा था वह पूरा नहीं हुआ। लालफीताशाही और अफसरबाजी का शिकार होकर रह गया उत्तराँचल -

 

   मेरे पहाड़ों की

   प्लानिंग वो कर रहे हैं

   जिन्होंने ......

   कभी पहाड़ को देखा ही नहीं

   उसकी ज़िन्दगी को भोगा ही नहीं

 

कवि सजगता से सोचता है कि लोकतन्त्र की इस दशा की दोषी केवल राजनीतिज्ञियों की धूर्त्तता नहीं अपितु समाज की अपनी कुरितियाँ, जातिवाद और जड़ता भी है। इसी हेतु उसकी ललकार है -

तो...

   तो क्यों नहीं

   किसके पास जाकर पूछते ।

   क्यों नहीं करते “उख़ेल”

   मंडाण* रखो

   नचाओ राजनीति के डौडया* को

   भाषा बोली की हंत्या* को

   खा-बा-डा* के मसाणा* को

   हडतालें करके पूजो.. ।

   मत पड़ो ...

   खा-बा-डा के चक्कर में

   स्वर में स्वर मिलाकर

   एकजुट होकर उसका मुकाबिला करो ।

पाराशर गौड़ ने स्वयं पहाड़ का जीवन जिया है, उसकी सुन्दरता को देखा है, उसकी पीड़ा को आत्मसात किया है, पार्यावरण के प्रदूषण के क-परिणामों को देखा है। यह सभी इस काव्य संकलन की कविताओं में दीखता है। “लीस पेड़” में लगता है कि पेड़ पर होती चोटें कवि के हृदय पर हो रही हैं।ऐसे ही “मजबूरी” में वहाँ की गरीबी को सहते कवि हृदय रो उठता है -

 

         पेट की आग

         निगल जाती है.... तब

         पर्वत श्रृंखलाएँ

         पहाड़ पहाड़ी

         माँ बाप भाई बहिन

         नाते-रिश्ते जान-पहिचान

         मान - सम्मान - आत्मसम्मान ।

धीरे धीरे .....

वो अपने को भी

भुला लेता है

कि... वो....

कौन है

और कहाँ से आया है ।

 

ऐसा ही दूसरा भाव है-

 

   पहाड़ को देखने का सुख अलग है

   और...

   पहाड़ को भोगने का दुख अलग

   उसके लिए ...

   जिगरा चाहिए मित्र जिगरा ।

 

पाराशर गौड़ ने अपनी कविता “भाग्य” में क-छ पंक्तियों में ही अपने प्रदेश की सारी सामाजिक परिस्थितियों का चित्र पाठकों के समक्ष रख दिया है -

   आदमी...

         शहरों की ओर दौड़ रहा है

         पीछे रह गई महिलायें

         उसको देखने उसके मर्म को

         झेलने के लिए।

             कब तक सह सकेगी

             कब तक देख पायेगी

             वो उसकी पीड़ा...

             देख रही हैं कि वो रुग्ण है, बीमार है

   फिर भी....

   गा रही है गीत उसके

   उतराईयों-गहराईयों को नापते-नापते

   बोझ ढोते-ढोते इस पहाड़ से उस पहाड़ तक।

 

अन्त में बस यही कहना चाहूँगा कि यह हृदयस्पर्शी पुस्तक अपने आप में एक ऐतिहासिक महत्व भी रखती है। कैनेडा की भूमि पर प्रकाशित गढ़वाली और हिन्दी का प्रथम काव्य संग्रह “उकाल-उन्दार” ही है। सरल भाषा में भावानुवादित यह काव्य संग्रह अन्तर्मन की गहनतम सम्वेदनाओं को तरंगित करता हुआ भावनाओं के अनेकों रूपों को जागृत करता है। आप स्वयं ही इन कविताओं को पढ़ते हुए इन्हें अनुभव करेंगे।

 

सुमन कुमार घई

सम्पादक - साहित्य कुंज

(अंतरजाल पत्रिका

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Sir,

Many-2 congratulations.

I will try to get this book.


उकाल-उन्दार
(लेखक : पाराशर गौड़)
परिचय : सुमन कुमार घई



पुस्तक  :  उकाल-उन्दार
प्रकाशक : साहित्य कुंज प्रकाशन
         टोरोंटो, कैनेडा
सम्पर्क  : sahityakunj@gmail.com

कविता जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति है। इसके रोम-रोम में जीवन की खुशी, पीड़ा, सफलता, विफलता, आशा, निराशा, संकल्प, कुंठा, प्रेम, विरह - यानि जीवन के “उकाल-उन्दार” (उतराव-चढ़ाव) बसे हैं। पाराशर गौड़ का यह काव्य-संकलन भी उनके अनुभवों से उत्त्पन्न भावों का “उकाल-उन्दार” है।

 

इस काव्य-संकलन की कविताएँ पाराशर गौड़ के जीवन का एक नया आयाम पाठकों से सामने प्रस्तुत करती हैं। कैनेडा के साहित्यिक वृत्त में पाराशर जी का जो रूप है उससे सवर्था भिन्न है यह रूप। पाराशर गौड़ की यह रचनाएँ उत्तराखण्ड की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और अन्य समस्याओं इत्यादि  से सम्बन्धित हैं जो कि अन्तर्मन में बसे मातृभूमि प्रेम और उसकी पीड़ा से उत्त्पन्न हुई हैं। उनकी यहाँ पर प्रचलित और लोकप्रिय कविताओं की व्यंग्यात्मकता और भावों की कोमलता की छाप भी इन रचनाओं में दीखती है। परन्तु “उत्तराखण्ड” की माँग के समय का उनके समाज में जो रोष था उसकी अभिव्यक्ति उनके परिचित पाठकों के लिए नई होगी। जैसे कि -

पूछो...

   उन सफेद नकाबपोश नेताओं से.....

   जिनके इशारों पर

   उनके उन गुर्गों व

   खाकी वर्दी वालों ने

   मेरी माँ बहिनों की इज़्ज़त पर

   हाथ डाला ...

   निहत्थे निसहाय मासुमों  के

   सीनों पर गोलियाँ दागीं ।

 

उत्तराखण्ड जब मिला तो उत्तराँचल बन कर, कवि कह उठा ‘टीस’ कविता में -

 

   “जिन्होंने इसके नाम “उत्तराखण्ड” के लिए

   अपने सीनों पर गोलियाँ खाईं

   अपनी आखिरी निशानियों को शहीद होते देखा

   अपनी माँग की आहुती दी

   नाम रखते समय चंद एक स्वार्थियों ने

   इसका नाम बदल दिया ।

 

अब लगता है कि- मैं

किसी का गोद लिया बच्चे जैसा हूँ

जिसका ना तो ...

माँ का और ना बाप का पता है ।”

 

प्रान्त मिल तो गया परन्तु जो सपना कवि और दूसरे आन्दोलनकारियों ने देखा था वह पूरा नहीं हुआ। लालफीताशाही और अफसरबाजी का शिकार होकर रह गया उत्तराँचल -

 

   मेरे पहाड़ों की

   प्लानिंग वो कर रहे हैं

   जिन्होंने ......

   कभी पहाड़ को देखा ही नहीं

   उसकी ज़िन्दगी को भोगा ही नहीं

 

कवि सजगता से सोचता है कि लोकतन्त्र की इस दशा की दोषी केवल राजनीतिज्ञियों की धूर्त्तता नहीं अपितु समाज की अपनी कुरितियाँ, जातिवाद और जड़ता भी है। इसी हेतु उसकी ललकार है -

तो...

   तो क्यों नहीं

   किसके पास जाकर पूछते ।

   क्यों नहीं करते “उख़ेल”

   मंडाण* रखो

   नचाओ राजनीति के डौडया* को

   भाषा बोली की हंत्या* को

   खा-बा-डा* के मसाणा* को

   हडतालें करके पूजो.. ।

   मत पड़ो ...

   खा-बा-डा के चक्कर में

   स्वर में स्वर मिलाकर

   एकजुट होकर उसका मुकाबिला करो ।

पाराशर गौड़ ने स्वयं पहाड़ का जीवन जिया है, उसकी सुन्दरता को देखा है, उसकी पीड़ा को आत्मसात किया है, पार्यावरण के प्रदूषण के क-परिणामों को देखा है। यह सभी इस काव्य संकलन की कविताओं में दीखता है। “लीस पेड़” में लगता है कि पेड़ पर होती चोटें कवि के हृदय पर हो रही हैं।ऐसे ही “मजबूरी” में वहाँ की गरीबी को सहते कवि हृदय रो उठता है -

 

         पेट की आग

         निगल जाती है.... तब

         पर्वत श्रृंखलाएँ

         पहाड़ पहाड़ी

         माँ बाप भाई बहिन

         नाते-रिश्ते जान-पहिचान

         मान - सम्मान - आत्मसम्मान ।

धीरे धीरे .....

वो अपने को भी

भुला लेता है

कि... वो....

कौन है

और कहाँ से आया है ।

 

ऐसा ही दूसरा भाव है-

 

   पहाड़ को देखने का सुख अलग है

   और...

   पहाड़ को भोगने का दुख अलग

   उसके लिए ...

   जिगरा चाहिए मित्र जिगरा ।

 

पाराशर गौड़ ने अपनी कविता “भाग्य” में क-छ पंक्तियों में ही अपने प्रदेश की सारी सामाजिक परिस्थितियों का चित्र पाठकों के समक्ष रख दिया है -

   आदमी...

         शहरों की ओर दौड़ रहा है

         पीछे रह गई महिलायें

         उसको देखने उसके मर्म को

         झेलने के लिए।

             कब तक सह सकेगी

             कब तक देख पायेगी

             वो उसकी पीड़ा...

             देख रही हैं कि वो रुग्ण है, बीमार है

   फिर भी....

   गा रही है गीत उसके

   उतराईयों-गहराईयों को नापते-नापते

   बोझ ढोते-ढोते इस पहाड़ से उस पहाड़ तक।

 

अन्त में बस यही कहना चाहूँगा कि यह हृदयस्पर्शी पुस्तक अपने आप में एक ऐतिहासिक महत्व भी रखती है। कैनेडा की भूमि पर प्रकाशित गढ़वाली और हिन्दी का प्रथम काव्य संग्रह “उकाल-उन्दार” ही है। सरल भाषा में भावानुवादित यह काव्य संग्रह अन्तर्मन की गहनतम सम्वेदनाओं को तरंगित करता हुआ भावनाओं के अनेकों रूपों को जागृत करता है। आप स्वयं ही इन कविताओं को पढ़ते हुए इन्हें अनुभव करेंगे।

 

सुमन कुमार घई

सम्पादक - साहित्य कुंज

(अंतरजाल पत्रिका


 

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