Uttarakhand > Utttarakhand Language & Literature - उत्तराखण्ड की भाषायें एवं साहित्य

VOCABULARY OF KUMAONI-GARHWALI WORDS-कुमाऊंनी-गढ़वाली शब्द भण्डार

<< < (54/54)

Bhishma Kukreti:
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा

The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand 
-
Posted By: Girish Lohanion: December 09, 2019
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा
सौजन्य निलोंग जोडंग  घाटी फेसबुक पेज
-
जाड़ गंगा भागीरथी नदी की सबसे बड़ी उपनदी है. ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर भैरोंघाटी में भागीरथी और जाड़ गंगा का संगम होता है. भैरोंघाटी में पच्चीस किलोमीटर भीतर माणा गाड़ माणा दर्रे के पश्चिम में फैले हिमनद से निकलती है. यह निलांग से लगभग 6 किलोमीटर ऊपर जाड़ गंगा से जा मिलती है.
भैरों घाटी से तिब्बत जाने वाले थाग्ला दर्रे तक उच्च पर्वत हिम प्रदेश की पूरी घाटी निलांग नाम से जानी जाती है. निलांग 11310 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, भैरों घाटी से तिब्बत की ओर जाने वाले थाग्ला दर्रे तक की पूरी घाटी इसी नाम से जानी जाती है. यहां के मुख्य गांव निलङ और इससे ऊपर जादोंग है. यहां के निवासियों को जाड़ कहा जाता है. इनका मुख्य व्यवसाय तिब्बत जिसे ‘हूंण देश भी कहा गया, के साथ होता रहा . जाड़ व्यापारी अनाज, देशी कपड़ा या खङूवा, गुड़, चीनी, तम्बाकू, तिलहन, सूती कपड़े, धातु के बर्तन, लकड़ी के बने बर्तन या कनसिन, माला इत्यादि वस्तुओं का निर्यात तथा स्वर्ण चूर्ण व सोना, सुहागा,पश्मीना, नमक, चंवर, घोड़े, याक वा कुत्तों का आयात करते रहे. जाड़ व्यापारी तोलिंग या थोलिंग, तसपरंग व गरहोत के इलाकों में ही व्यापार करते थे तो बुशाहरी खामपा व्यापारी पूरे तिब्बत में व्यापार करने का अधिकार पाए थे. गढ़वाली व्यापारी केवल डोकपा ऑड़ तक ही जा पाते थे, जहां तिब्बत के गांव थांग, गंडोह, सरंग, करवक़ व डोकपा बसे हैं. इन्हीं गांवों से वस्तु और जिंसों का लेनदेन होता था. जाड़ व्यापारी जाड़ों के मौसम में निलांग से आगे दक्षिण की ओर हफ्ता – दस दिन पैदल चलने के बाद उत्तरकाशी में भागीरथी के किनारे डूंडा तथा भटवाड़ी में आ जाते थे. यह उनका शीतकालीन प्रवास रहता. Jad Culture and Language Uttarakhand
Jad Culture and Language Uttarakhand
जाड़ गंगा नदी.
निलांग घाटी में आदिम काल से निवास कर रही जाड़ जनजाति में जाड़ भाषा बहुतायत से बोली जाती रही है. जाड़ जनजाति के समृद्ध ऐतिहासिक अतीत का वर्णन करते हुए प्रो.डी.डी.शर्मा ने अपनी पुस्तक, तिब्बती हिमालयन लेंग्वेजिज ऑफ उत्तराखंड (1990) में लिखा है कि जाड़ समुदाय का मूल संबंध हिमाचल प्रदेश के बुशाहर राज्य के पहाड़ी इलाकों से रहा जिसे अब किन्नौर कहा जाता है. एच. एस. फकलियाल के अनुसार उत्तरकाशी के जाड़ मुख्यतः नेपाल के करनाली इलाके के जाड़ों के वंशज रहे. ये नाग वंश के राजा पृथ्वी मल्ला के समय चौदहवीं शताब्दी में इस इलाके में बस गए थे. एटकिंसन ने गढ़वाली व बुशाहरी हुणिया की मिश्रित नस्ल को जाड़ समुदाय कहा. नारी के हुणिया खुद को नारीपा तथा उच्च हिमालय इलाकों में रहने वाले को मोनपा कहते हैं. खस स्वयं को खस देश से अभिहित करते हुए उच्च पर्वत क्षेत्र में निवास करने वालों को जो तिब्बत से व्यापार करते थे, के आवास स्थलों को भोट तथा तिब्बत को हूणदेश कहते थे. वहीं तिब्बत के निवासी निलांग घाटी को चोंग्सा कहते थे.
2011 की जनगणना में जाड़ भाषा बोलने वालों की संख्या चार हजार बताई गई. जाड़ भाषा सीमांत हिमालय की तिब्बत-बर्मी भाषा समूह की उपबोलियों से सम्बंधित रही भले ही एक सीमित समुदाय में यह प्रचलित रही. 1962 में चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया. जादोंग, सुमदु, निलांग, बगोरी और हर्षिल में जाड़ भाषा का खूब प्रचलन था. 1962 से पहले निलांग घाटी में जाड़ भाषा ही सबसे अधिक बोली जाती रही. तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद तिब्बत की सीमा से लगे निवासियों को डुंडा, लंका व उत्तरकाशी के इलाकों में बसाया गया और इन इलाकों को भारतीय सेना की निगरानी में रखा गया. अब जाड़ भाषा मुख्य रूप से उत्तरकाशी, भटवाड़ी, डुंडा, बगोरी, व हर्षिल जैसे भागीरथी नदी के तटीय क्षेत्रों में बोली जाती है. ये मात्र भाषा अथवा बोली न हो कर समूचे जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति है.
जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति अभी भी कमोबेश परंपरागत जीवनक्रम का अनुसरण कर रही है. ये साल में छह महीने सीमांत के हिमाच्छादित इलाकों में रहते व विचरण करते हैं. जाड़ों के मौसम में ये उत्तरकाशी शहर के भटवाड़ी वा डूंडा में निवास करते हैं. सामान्यतः अभी भी ये अपने परंपरागत व्यवसाय एवं पुश्तैनी शिल्प से जुड़े हैं.
उत्तरकाशी में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई पिछले दस सालों से जाड़ संस्कृति व जाड़ भाषा पर जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं. वह यायावर प्रकृति के हैं. कई भाषाएं जानते हैं. पहाड़ की लोकथात पर बहुत काम कर चुके हैं. इस सीमांत इनर लाइन इलाके की उन्होंने खूब पदयात्राएं की हैं. वर्षों तक स्थानीय समाज से घुलने मिलने तथा उनके द्वारा बोली जाने वाली जाड़ भाषा व शब्दावली के संकलन के साथ ही स्थानीय संस्कृति व थात पर लम्बे अनुसन्धान के नतीजे में उनका जाड़ भाषा का शब्दकोष छप चुका है. जाड़ समुदाय के सामाजिक आर्थिक स्वरुप के साथ यहाँ की परंपरागत संस्कृति पर अलग से भी उन्होंने किताब लिखी है.
सीमित व संकुचित इलाके में सिमटी पर लोकथात से समृद्ध जाड़ संस्कृति पर वह बताते हैं कि जाड़ गंगा के तटीय इलाकों के निवासियों को उत्तराखंड की स्थानीय बोलियों में पहले हुणियाँ कहा जाता था. हुणियाँ शब्द ह्यूं का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है – हिम. इस प्रकार हुणियाँ से आशय है, उच्च हिमालय-हिम आच्छादित इलाकों में रहने वाले निवासी. उत्तराखंड एवं भोट (तिब्बत )के मध्यवर्ती इलाकों के निवासी होने के कारण स्थानीय निवासियों के द्वारा इन्हें भोटिया नाम से भी पुकारा जाता रहा पर ये रोंग्पा कहलाया जाना पसंद करते हैं. जिससे आशय है पर्वत-घाटियों में रहने वाले लोग. तिब्बत से व्यापार सम्बन्ध होने के कारण जाड़ समाज को तिब्बत निवासी चोंग्सा कहते रहे. जाड़ समुदाय स्वयं को किरातों का वंशज मानते हैं. गढ़वाल में किरात जाति के प्रसार का एक प्रमाण भागीरथी का एक नाम किराती भी माना गया. कश्यप संहिता में यह उल्लेख है कि यमुना घाटी में किरातों का गढ़ था.
कुमारसम्भव (1-17 एवं 1/8) में उल्लेख है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी में उत्तराखंड में गंगाजी के उदगम प्रदेश में किरात और किन्नर जाति निवास करती थी :
भागीरथी निर्झरसीकराणां वोढा मुहू कम्पित देवदारु:
यद् वायुर्नविष्ट मृगैः किरातैरा सेव्यते भिन्न शिखण्डिवहर
चंद किन्नर जातक (खंड 4, पृष्ठ 490-91)के सूत्रों से ज्ञात होता है कि उत्तराखंड में गंधमादन के समीप के क्षेत्र अर्थात आज के उत्तरकाशी व चमोली जनपदों में किन्नर निवास रहा. सभापर्व (52/2-3) से भी स्पष्ट होता है कि किरात जाति के वह लोग जो गढ़वाल के उच्चांश में रहते थे व हूण देश तिब्बत से सुहागा या टंकण, स्वर्ण चूर्ण, कस्तूरी का व्यापार करते थे. इन्हें तंगण या टंकण के नाम से भी जाना गया. यही टंकण वंशज उत्तरकाशी के जाड़ भी रहे.
Jad Culture and Language Uttarakhand
उत्तराखंड की जाड़ जनजाति में प्रयुक्त जाड़ भाषा-बोली उत्तरकाशी जनपद सीमांत पर्वत उपत्यकाओं में प्रयुक्त होती है. प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई बताते हैं कि इस भाषा में प्राचीन समय से मौखिक रूपों में संस्कृति तथा समाज की विषेशताओं का तानाबाना रचित होते आया है. जिसमें कृषि, व्यापार , पशुचारण तथा अध्यात्म से सम्बंधित शब्दावली के अतिरिक्त गीत, लोककथाएं , मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोकगाथाएँ भी अंतर्भूत हैं.जाड़ भाषा की ध्वन्यात्मक संरचना, उच्चारण -प्रक्रिया, स्वनिम विश्लेषण, शब्द भंडार रूपात्मक संरचना (संज्ञा, लिंग, वचन, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, काल-रचना) तथा व्याकरण का सम्बन्ध तिब्बती भाषा से जुड़ा रहा है. यद्यपि जाड़ भाषा में अनेक ऐसी भी विशेषताएं भी हैं जो तिब्बती भाषा से अलग हैं. मुंडा, खस तथा दरद परिवार की भाषा-बोली बोलने वालों से जाड़ समुदाय के व्यापारिक रिश्ते रहे हैं. इसलिए इन भाषा परिवारों का प्रभाव भी जाड़ भाषा पर देखा जा सकता है. पश्चिमी गढ़वाली की अनेक उपबोलियों जैसे टिरियाली, रमोली, रंवाल्टी, बुढेरा की शब्दावली को भी जाड़ भाषा ने अपनाया है.
हिन्दू धर्म से सम्बंधित होने के कारण जाड़ समुदाय अनेक स्थानीय लोक देवी देवताओं के प्रति आस्थावान रहा. संभवतः इसी कारण यहाँ संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता भी दिखाई देती है. हिन्दू धर्म से जुड़ी आस्थाओं के अनुकूल वार्षिक महीनों के नाम (चैत, बैशाख, जेठ, अषाढ़, सौंण, भादों, असूज, कार्तिक, मंगशीर, पूस, माघ तथा फागुन) इस समुदाय ने अक्षरशः ग्रहण कर लिए हैं. यही प्रवृति सप्ताह के नामों के साथ भी देखी जाती है बाकी अन्य प्रयोक्तियों में तिब्बती भाषा का अल्प प्रभाव भी दिखाई देता है.
जाड़ गीतों में जाड़ संस्कृति व लोक थात की स्पष्ट छाप है :
थोन्मो, थोन्मो गांगा, मऊ, मऊ पांगा
लाखू -लाखू थांगा गाशिंग -गाशिंग थोगो.
पिगा याला छोमजा -छोमजा तोगा माला छोमजा
लम -ला लम -ला दोजे, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
तला खुरु कलशा, पिरियाँ बुली टाशा
नमते, नमते छोमजा, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
थोन्मो , थोन्मो गांगा...
इस लोकगीत में जाड़ प्रदेश का वर्णन व दिनचर्या है :
ऊँचे ऊँचे पर्वत शिखर, हरे भरे घास के मैदान, सुन्दर-सुंदर पर्वतों पर बुग्याल कितने मनमोहक प्रतीत होते हैं. वसंत ऋतु का वह समय जब हम सभी अपने पूरे परिवार और पालतू पशुओं के साथ अपने मूल घरों (निलांग तथा जादोंग )की ओर चल पड़ते हैं. शीत ऋतु के आरम्भ होते ही इसी प्रकार अपने शीतकालीन आवासों की ओर आना और रास्ते में रुक-रुक करपड़ाव डालते हुए रुकना, ठहरना और वह घुमक्कड़पन कितना प्यारा लगता है. पूरा सामान घोड़ों पे लाद के चलना, छोटे बच्चों और नवजात शिशुओं को पीठ पर बांध कर झुटपुटे में ही चल देना कितना प्यारा लगता है.
अपने गाँव छोड़ कर आने की पीड़ा का लोक स्वर :
सांग (जादोंग )छोंगसा ( निलांग)नियी युल
ईन बिजे टांजी टाग
ची बेजे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सूं...
छोंगसा शी चा सै थुँग्जे
बिजे शिमु छौरी टाग
दी युल दु...
सांग छांग सा न्यी युल ईन
बिजे टाँजी टाग
ची बेचे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सुं...
जाड़ उपत्यका की याद भरी हैं इस गीत में. तब बोल फूट पड़ते हैं कि :
जादोंग और निलांग हमारे इन दोनों गांवों की याद हमें बहुत सताती है गाँव छोड़ते समय बड़ा ही कारुणिक और दुखदायी समय होता है. वो दिन याद आते हेंजब हम सभी एक साथ बैठ कर खाते-पीते थे और प्रसन्न होते थे. गाँव की स्मृतियाँ भी हमें सताती रहती हैं.
दुर्गम सीमांत प्रदेश के जाड़ पर्वत पुत्र जानते हैं कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों में उनकी रक्षा यही प्रकृति करती है. उनकी आस्था के बोल उभर उठते हैं समवेत स्वरों में :
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
यें कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टाग वो
लुग्मा गांगा ला न्येला खुड़ी टाग
हाँ हाँ...
कांबला सानी पोदु दुगो
हां थे...
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
न्ये कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टागचा...
जाड़ निवासी गा रहे हैं कि भगवान बकरी चराने वाला चरवाहा है और हम सभी उसकी बकरियां हैं. हरे भरे घास के मैदान में वो हमें मिलते हैं. वो चरवाहा हम सभी भेड़ बकरियों को हरे भरे बुग्यालों में चराने के लिए ले जाता है. चरवाहा हमारा भगवान है और हम उसकी भेड़ बकरियां हैं.
Copyright Girish Lohanion, 2019
   
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा; सीमांत उत्तरकाशी में जाड़ संस्कृति व भाषा; श्रृंखला जारी रहेगी
The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand series will continue

Navigation

[0] Message Index

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version