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Articles By Charu Tiwari - श्री चारू तिवारी जी के लेख

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Charu Tiwari:
त्ता जीती, उकzांद हारा

उत्तराखण्ड कzान्ति दल का बहुप्रतीक्षित द्विवार्षिक सम्मलेन भारी हंगामे के बाद समाप्त हुआ। नैनीताल जनपद के पीरुमद्वारा के एक बैंकट हाWल में सत्ता की धनक और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का जो खेल कथित नेतृत्व ने खेला उसे दूर-दराज से आये कार्यकर्ताओं में भारी मायूसी छाई रही। कार्यकर्ताओं की सरकार से समर्थन की वापसी की बात को नेताओं ने नहीं सुना। इतना ही नहीं दो साल में होने वाले कार्यकर्ताओं  के इस आम जलसे में पार्टी ने यह संदेश भी दिया कि अब वह जनसरोकारों से काफी दूर जा चुकी है, जहां से उसका लौटना अब संभव नहीं है। इस दो दिन के सम्मेलन में मुद~दों की जगह जिस तरह नेताओं ने अपने अंह से अध्यक्ष के चुनाव को टाला उससे एक आंदोलनकारी संगठन के लोकतांत्रिक स्वरूप पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं। चालीस प्रस्ताव पारित कर जिस तरह इस सम्मेलन की खानापूर्ति हुयी उससे क्षेत्रीय पार्टी की कमजोर राजनीतिक समझ ही परिलक्षित होती है। दो दिनों तक हंगामे के अलावा इस सम्मेलन की उपलब्धि शून्य रही।
   उल्लेखनीय है कि कभी राज्य आंदोलन की अगुवाई करने वाले उत्तराखण्ड कzान्ति दल ने अपनी विचारधारा के विपरीत प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया। दल के जमीनी कार्यकर्ताओं ने इस समर्थन का विरोध किया था, लेकिन पार्टी के कथित सर्वोच्च निर्णायक मंडल ने देहरादून में बैठकर कार्यकर्ताओं की भावनाओं के खिलाफ सरकार को समर्थन दिया। इन तीन सालों में विभिन्न बैठकों और अपने बयानों में पार्टी का एक बड़ा तबका इसके खिलाफ लड़ाई लड़ता रहा। भाजपा ने दल के एक विधायक को केबिनेट मंत्री और दो को लालबत्ती से नबाजा। पार्टी के शीर्ष नेता माने जाने वाले काशी सिंह ऐरी ने भी संबसे कम महत्व के हिल्टान जैसे विभाग का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया। संगठन और नेताओं के बीच यह विरोध लगातार जारी रहा। पिछले मसूरी सम्मेलन में भी सरकार से समर्थन वापसी का मुद~दा छाया रहा, लेकिन कार्यकर्ताओं की बात सुनने वाला कोई नहीं था। इन तीन वर्षों में भाजपा ने अपने सहयोगी पार्टी को महत्वहीन बनाकर कहीं का नहीं छोड़ा। एक तरफ जहां पार्टी के नेता देहरादून में सत्ता सुख भोगने में लगे रहे वहीं कार्यकर्ता गांवों में लोगों के सवालों से जूझते रहे। कार्यकर्ताओं को इस सम्मेलन का इंतजार था। वे चाहते थे कि 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुये सरकार से तुरंत समर्थन वापस लिया जाना चाहिये। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अध्यक्ष पद के लिये जिस तरह की औछी राजनीति हुयी उसने पार्टी की रही-सही साख पर भी बट~टा लगा दिया।
   पार्टी के कार्यकर्ताओं के अलावा उत्तराखण्ड कzान्ति दल का यह सम्मेलन उन तमाम शक्तियों के लिये भी निराशा भरा रहा जो राज्य के आमजन से उठे सवालों को एक मंच से उठाने की पैरवी करता रहा है। वह मानता रहा है कि बिना उकzांद के किसी तीसरे गठबंधन की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। सबको इस बात का भी इंतजार था कि देर से ही सही आंदोलन की ध्वजवाहक रही इस पार्टी के नेताओं को अक्ल आयेगी। लेकिन इस बार बिल्कुल उल्टा हुआ। पार्टी में जिस तरह कार्यकर्ताओं की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं का गला घोंटा उसने राज्य में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के जनविश्वास को और कमजोर किया है। उकzांद भाजपा से समर्थन के जिन नौ बिन्दुओं की बात करता रहा है, उससे कोई भी सहमत नहीं हो सकता है। इस समर्थन पर सवालिया निशान लगाने वाला सबसे बड़ा मुद~दा स्थाई राजधानी गैरसैंण है। इस सरकार के साथ रहते हुये दीक्षित आयोग का कार्यकाल दो बार बढ़ा, जिसे पार्टी हमेशा असंवैधानिक मानती रही है। आश्चर्यजनक बात यह है कि जब सदन में इस आयोग की रिपोर्ट गयी तो पार्टी की ओर से इस पर कोई ठोस प्रतिकार नहीं किया गया। पार्टी के युवा विधायक पुष्पेश त्रिपाठी ने आयोग की रिपोर्ट को सदन में ही फाड़ दिया था, लेकिन पार्टी के मंत्री ने इसे उनका व्यक्तिगत नजरिया कहकर कमजोर कर दिया। पार्टी के शीर्ष नेता भाजपा के जिला स्तर के नेताओं के सामने भी गिड़गिड़ाते रहे। सरकार के साथ गलबहियां करते जहां एक ओर भाजपा की कृपा से पद पाने और कहीं समारोहों में एक सीट पाने जैसी छोटी आंकाक्षाओं के चलते इस पार्टी के इतिहास बनने का रास्ता तैयार किया।
   असल में उकzांद में राजनीतिक समझ का भारी अभाव रहा है। संगठन में पिछले तीन-चार वर्षों से जिस तरह के लोग और जिस तरह की प्रवृतियों ने घुसपैठ की है उसने कभी जनसरोकारों के लिये खड़ी एक बड़ी जमात के सपनों को न केवल कुचला है बल्कि आने वाली स्वस्थ राजनीतिक समझ वाले लोगों के रास्ते को भी रोका है। झोला लटकाकर और चंदा कर सम्मेलनों में ओने वालों की जगह बड़ी गाड़ियों ने ले ली है। सैकडों कारों में उत्तराखण्ड कzान्ति दल के पदाधिकारियों के चमचमाते बोर्ड हैं। रहने के लिये रेस्ट हाउस और रिसोर्ट हैं। देहरादून में बैठकर लाइजिंनिग करने वाला का एक नया वर्ग पैदा हुआ। जिला पंचायत के हाWल में दरी में बैठकर राज्य बनाने और उसे संवारने की चिंता करने वालों की जगह बैंकट हाWल और नेताओं के बैठने के लिये धुली चादरों का मंच है। ऐसे में आम कार्यकर्ता की हैसियत क्या होगी यह सहजता से समझा जा सकता है। रामनगर में संपन्न इस सम्मेलन का कुल संदेश यही था। तीस साल पहले एक बड़े उद~देश्य और बेहतर राज्य का सपना देखने वाले लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी विरासत ऐसे लोगों के हाथों में चली जायेगी जो उसे नोंच-नोंच कर खा जायेंगे। उत्तराखण्ड कzान्ति दल की दुर्गति किसी काशी सिंह ऐरी या दिवाकर भट~ट के सत्ता सुख से उपजी पतन की कहानी नहीं, बल्कि उन लोगों की असहय पीड़ा है जिन्होंने तीन दशक तक अपना सबकुछ त्याग कर एक बेहतर राज्य का सपना देखा था। इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये पुराने कार्यकर्ता इस सम्मेलन में गये थे, लेकिन यहां सत्ता जीत गयी और उकzांद हार गया। अब कौन रोयेगे उकzांद के लिये।

Charu Tiwari:
मत मारो मोहना पिचकारी

उत्तराखण्ड के जनकवि शेरदा ‘अनपढ’ की होली पर बनी एक कविता प्रतिवर्ष होली में व्यवस्था के खिलाफ रंग डालने को प्रेरित करती है। कविता है-
मत मारो मोहना पिचकारी,
पैलिके छू मंहगाई मारी
मत मारो मोहना पिचकारी...
   शेरदा की मंहगाई पर लिखी यह कविता आज देश और उत्तराखण्ड की व्यवस्था पर सटीक चोट करती है। अब पिचकारी भी कहां मारूं। जहां-तहां बदरंग व्यवस्था पर कोई रंग चढ़ेगा भी नहीं। सुविधाभोगी रंग में रंग चुके उत्तराखण्ड के नीति-नियंताओं पर कोई रंग नहीं भा रहा है। यहां एक ही रंग है सत्ता का। उसके लिये हौल्यार भी अलग हैं और आयोजक भी अलग। इसमें जनता नहीं पूंजीपति शामिल होते हैं। इसमें बांधों का रंग है, सिडकुल में उद्योग लगाने का जुगाड़ है, देहरादून में बैठकर दलाली करने वालों की जमात है, टासंफर पोस्टिंग है, माफिया-अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ है। ये सब मिलकर नई होलियों की रचना कर रहे हैं। बोल बदल गये हैं, संगीत बदल गया है अब होली के स्थान भी बदल रहे हैं। जनता ने कहा हमारी होली गैरसैंण में तो पार्टियों ने कहा देहरादून में। इस नहीं होली की जील उठाने वाले कहीं थापर है तो कहीं, जेपी। कहीं नैनो लगाने वाला टाटा है तो कहीं सब्सिडी डकार भागने वाले उद्योगपति। सत्ता की होली में अब राष्टीय ही नहीं क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी शामिल होने लगे हैं। गांव में होली खेलने के लिये लोग नहीं हैं। सरकार बाहर से हाल्यारों को बुला रही है। कभी बोगश्वर मेले में तो कभी गौचर में। इसके अलावा हर शहर में महोत्सव मनाकर वह पहाड़ को रंगना चाहती है। मुबई से कलाकार आ रहे हैं। नगर पालिकाओं को भारी बजट सौंपा जा रहा है कार्यकzम करने के लिये। इसके अलावा विरासत जैसी संस्थायें हैं पहाड़ की संस्कृति की पहरेदार। होलियों को संरक्षित यही करेंगी। सरकार ने ऐसे ही हजारों एनजीओ ओ अपना एजेंट बनाया है। पूरे वर्ष सरकार ने जनता के साथ खूब होली खेली। बेरोजगार कहां  होली खेलें। विधानसभा के आगे पहरा है। ज्यादा अपनी बात करोगे तो सरकार डंडों की होली खेलेगी। गोली से होली खेलेगी। आत्महत्या के लिये मजबूर करने की होली खेलेगी। हल्द्वानी में बेरोजगारों को जहर पीने की होली ोलनी पड़ी। देहरादून में राणा को टावर में चढ़कर आत्महत्या की हाली खेलनी पडी। पूरे पहाड़ में अपराधों की होली खेली जा रही है। देहरादून में नये हाल्यारों की मौज है। राजनीतिक छुटभैयौं को लालबत्ती मिल रही है। मुख्यमंत्राी हर महीने, हर साल एक पुस्तक लिखकर होली खेल रहे हैं। महंगे ग्लैज पेपर पर अपना फोटो छपवा रहे हैं। शहरों में अपने चमचों के माध्यम से अपने को राष्टकवि घोषित करने में लगे हैं। उनके लिये पूरे साल भर होली ही होली है। देश-विदेश में लोग उन्हें सम्मानित कर रहे हैं। उन्हें उर्जा प्रदेश का मुख्यमंत्राी बताया जा रहा है। उस प्रदेश का जहां इस समय आठ घंटे की विद्युत कटौती चल रही है।
   खैर, होली में इस तरह के रंग घुस गये हैं। यही परेशानी है। इन रंगों ने उत्तराखण्ड के रंग को बदलना शुरू किया है। बदरंग होली की इस प्रवृत्ति के खिलाफ नई होली की रचना का समय आ गया है। उत्तराखण्ड आंदोलनों की जमीन रही है। यहां आंदोलन भी होली रंगों मे सराबोर हो जाते हैं। आंदोलन के दौर में ऐसी होलियों की रचना हुयी है जो व्यवस्था पर तो चोट करती ही है, जनता को संघर्ष का संदेश भी देती थी। जनकवि ‘गिर्दा’ द्वारा रचित एक होली विदेशी कंपनियों के खिलाफ माहौल बनाती है। इस तर्ज पर उत्तराखण्ड की व्यस्था पर एक होली पिछले दिनों हमारे साथियों ने गायी। यह होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आप सबको प्रेषित-
झुकि आयो शहर में व्यापारी
अलिबैर की टेर गिरधारी। झुकि...
उद्योगपतियों की गोद में बैठी,
निशंक मारो पिचकारी। झुकि...
देहरादून में लूट मची है,
आओ लूटो व्यापारी। झुकि...
एनजीओ से विकास की रचना
सरदार बने अफसर भारी। झुकि...
झूठ रचो, प्रपंच रचो है,
विकास पर विज्ञापन भारी। झुकि...
कमल का फूल, कांगzेस की विरासत,
लालबत्तियों की भरमारी। झुकि...
यूकेडी को दोस्त बनाकर,
गैरसैंण पर साजिश भारी। झुकि...
अपराधी पहाड़ चढ़े हैं,
निशंक की कविता न्यारी। झुकि...
माफिया ठेकेदार, पहाड़ को लूटें,
नेताओं को सत्ता प्यारी। झुकि...
इस होली के संकल्प बडो है,
अबकी है जनता की बारी। झुकि..

धनेश कोठारी:
          ‘मेरा पहाड़’ और ‘जनपक्ष आजकल’ पत्रिका के माध्यम से मैं चारु तिवारी जी के लेखों से हाल ही में परिचित हुआ। उनके तेवरों में जो युवापन है, वह काबिलेगौर है। क्योंकि उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद पहाड़ की पत्रकारिता में अब ऐसी हिकमत लगभग नदारद ही दिखती है। जिस तरह से राज्य निर्माण के बाद पहाड़ को हर स्तर पर बेचने, लुटने, खसोटने और नीलाम कर दिये जाने के करतब जारी हैं। ऐसे में हम इसे कब तक ‘पहाड़ी राज्य’ कह पायेंगे, कहना मुश्किल है।
            होली के परिदृश्य में चारु जी ने अपने नये आलेख में राज्य की जैसी पड़ताल की है, वह सच है। आज यहां हौल्यार (राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, नौकरशाह, ठेकेदार, माफिया, एनजीओ इत्यादि) जी भरकर होली खेलने में ‘रौंस’ महसूस कर रहे हैं। यहां तक कि चौथा पांया भी आदमकद विज्ञापनों और कथित मेहरबानियों की बदौलत भरपूर उत्तेजना में लगता है। अगर कोई मायूस है तो वह यहां का ऐसा युवा है जिसके पास न सोर्स है, न धन और न आसान पहुंच।
मुझे लगता है कि चारु जी की जीवटता को सलाम ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि जन- पक्ष में उनका समर्थन भी किया जाना बाजिब होगा। वरना ‘गिर्दा’ की कविता ‘झूकी आयो शहर में व्यापारी’ के ‘यथार्थ’ से हमें कोई शायद ही बचा पायेगा।

Charu Tiwari:
हम अपने इतिहास को कैसे याद करें

उत्तराखण्ड के मौजूदा सवालों को समझने के लिये हम अतीत के कई ऐतिहासिक संदर्भों को को उठाकर उनकी आज की प्रासंगिकता को जोड़कर देख सकते हैं। इस बीच कई ऐसे मौके आये और आने वाले हैं जिनसे संवाद का एक बड़ा फलक तैयार किया जा सकता है। पिछले दिनों उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के युग पुरुष आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्म शताब्दि पर एकजुट हुये समाज के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाओं ने मौजूदा सवालों पर चिन्तन किया। यह मौका कई संदर्भों में बहुत महत्वपूर्ण था। पहला आज के दौर की पत्रकारिता में पक्षधरिता की तलाश और दूसरा जनसरोकारों के लिये प्रतिबद्ध नई पीढ़ी को उस धारा से जोड़ने का काम। उत्तराखण्ड का मौजूदा दौर आजादी से पहले के पहाड़ को समझने का भी है।  क्योंकि जिन संदर्भों में हम आचार्य कोठियाल और युगवाणी को याद करते हैं, आज पत्रकारिता में उसी असहमति और प्रतिकार की जरूरत है। जंगलात, पानी और जमीन के सवाल आज भी उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह टिहरी रियासत के समय थे। उत्तराखण्ड में प्राकृतिक धरोहरों पर आश्रित जनता के लिये इनकी हिफाजत हमेशा प्रमुखता में रही है। तीस के दशक में तिलाड़ी और चालीस के दशक में सालम और सल्ट में अपनी धरोहरों को बचाने के लिये ही आंदोलनकारियों ने अपनी शहादतें दी थी। टिहरी में राजा का कानून और शेष पहाड़ में अंग्रेजों का दमन उस समय की युवा पीढ़ी को अपने-अपने तरह से प्रतिकार के लिये तैयार कर रही थी। टिहरी में आंदोलन को किसी भी रूप में समर्थन करना देशद्रोह था। ऐसे समय में जब पूरे देश में आजादी की लड़ाई नई अंगडाई ले रही थी, वहीं टिहरी में राजशाही से मुक्ति के लिये अलग इबारत भी लिखी जा रही थी। उस दौर में सच और प्रजा के पक्ष में खड़ा होना बड़ी चुनौती थी। पत्रकारिता के माध्यम से उस चुनौती को स्वीकार करने का जज्बा और उसे परिणाम तक पहुंचाने की जिद का नाम ही युगवाणी जैसी पक्षधरता ही कर सकती थी। देश को आजादी मिली और टिहरी रियासत से मुक्ति भी, लेकिन आजादी के साठ दशक बाद स्वत्रंत्र कहे जाने वाले देश में जनता को उन्हीं सवालों से लड़ना पड़ रहा है। इसलिये आचार्य कोठियाल जी की जन्म शताब्दी की प्रासंगिता और बढ़ गयी है।
   जनपक्षधरता का जो सवाल लंबे समय से उठाया जा रहा है वह पत्रकारिता के साथ ही नहीं समाज के प्रत्येक क्षेत्र के साथ जोड़ा जाना चाहिये। उत्तराखण्ड की पत्रकारिता अैर जनसरोकारों की पूरी यात्रा अबाध गति से चलती रही है। युगवाणी, कर्मभूमि, गढ़वाली, शक्ति, स्वाधीन प्रजा से लेकर पर्वतीय, युवजन मशाल, नैनीताल समाचार से लेकर आज कई छोटी पत्र-पत्रिकाएं इस धारा का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्होंने ही सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक सवालों को न केवल उठाया है बल्कि इन्हें आगे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है। आजादी के बाद सत्तर के दशक में इसी पक्षधरता ने आंदोलनों का एक बड़ा मंच तैयार किया। 26 मार्च 1974 को चमोली जनपद के रैंणी गांव में महिलाओं की एक आवाज ने पूरी दुनिया को जो संदेश दिया वह चिपको आंदोलन के रूप में सामने आया। इस आंदोलन को इसी महीने 36 वर्ष पूरे हो गये हैं। यह मौका भी इस बात को याद करने का है कि अपनी धरोहरों को बचाने के लिये गांवों से जो आवाज उठी उमें सबसे बड़ी बात पक्षधरता की है। गांवों में अंदर जिस तरह हकों के लिये उठने वाली आवाज को कुंद किया जा रहा है उसके खिलाफ गौरा देवी का साढ़े तीन दशक पहले लिया गया संकल्प सबका मार्गदर्शन दे सकता है। जिस पहाड़ से जंगलों को बचाने की आवाज सुनी गयी थी वहीं जल, जंगल और जमीन पूंजीपतियों के हवाले किये जा रहे हैं। उस समय जंगलों को ठेकेदारों और कुछ कंपनियों को तीस साला एग्रीमेंट पर दिया जा रहा था, आज पूरी नदियां जेपी और थापर के हवाले कर दी गयी हैं। अपने घर में बेगानी होती गौरा की सुध लेने के लिये के लिये भी पक्षधरता को खोजना पड़ रहा है।
   इस बीच 24 मार्च को शहीद उमेश डोभाल की पुण्यतिथि का मौका भी जनपक्षधरता को याद करने  का भी मौका है. उमेश को शराब माफिया के खिलाफ एक लंबी जंग में अपनी जान देनी पड़ी। उत्तराखण्ड में जंगलात और शराब की लड़ाई बहुत पुरानी है। जब भी पहाड़ के विकास की बात आती रही है नशामुक्त उत्तराखण्ड का नारा बुलंद होता रहा है। व्यापक शराबबंदी आंदोलन और उमेश की शहादत के बाद भी पहाड़ में नशे के व्यापारी अपना नेटवर्क बढ़ाते रहे। राजनीति के साथ शराब ने जिस तरह पहाड़ में प्रवेश किया है उसके खिलाफ एक बड़ी मुहिम की जरूरत है। 24 मार्च को जनपक्षधरता की हिमायत करने वाले तमाम लोग पौड़ी में जुटकर इस मुहिम को आगे बढ़ायेंगे ऐसी उम्मीद है। इस वर्ष जनता के साथ हमेशा खड़े रहने वाले राजू रावत हमसे बिछड़ गये थे उन्हें भी पौड़ी में सभी साथी याद कर जनपक्षधरिता के अभियान को आगे बढ़ायेंगे।
   इन अवसरों का जिक्र इसलिये जरूरी है क्योंकि इन पड़ावों ने समाज को आगे बढ़ने का साहस दिया है, समझ दी है और उस पर चलने वालों का एक समाज दिया है। उत्तराखण्ड में इन तीनों अवसरों पर दिये जाने वाले संकल्प निश्चित रूप से राज्य की दिशा को तय कर सकते हैं। लेकिन एक सबसे बड़ा सवाल खड़ा है हम किस तरफ हैं। उत्तराखण्ड में राजनीतिक अपसंस्कृति और राष्टीय राजनीतिक दल इन तीनों अवसरों पर उठने वाले सवालों के लिये जिम्मेदार है। हमारे लिये अभी यह तय कर पाना कठिन हो रहा है कि हम किस तरफ हैं। हम जनपक्षधरता को किस तरह परिभाषा करते हैं। अब भी हमारे कार्यक्रमों इस चिन्ता की बजाय सत्ता में बैठे लोगों का आतिथ्य बड़ा है। राज्य की आबकारी नीति को माफिया के हितों में बनाने वाले, बांधों से लोगों का बेघर करने वालों को, नदियों को बेचने वालों जनविरोध पर खड़े राजनीतिक दलों के इन कांर्यक्रमों में भाषण सुनना यदि हमारी मजबूरी है तो जनपक्षधरता की नई परिभाषा करें। आचार्य कोठियाल, गौरा देवी, शहीद उमेश डोभाल और राजू रावत को याद करते हुये उम्मीद है कि आने वाला कल फिर उत्तराखण्ड में नई चेतना की सुबह लायेगा।

Charu Tiwari:


उत्तराखण्ड में पिछले दिनों दो बातें चर्चा में रही। पहला राज्य को विशेष औद्योगिक पैकेज देना और दूसरा गंगा को अविरल बहने देने के लिये बांधों पर रोक। इन दोनों पर सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल उत्तराखण्ड में श्रेय लेने की होड़ मची रही। सरकार में शामिल क्षेत्रीय राजनीतिक दल उक्रांद भी अपनी मूल विचारधारा को ताक में रखकर इन दलों के साथ शामिल रहा। इन दोनों मुद्दों पर भाजपा, कांग्रेस और उक्रांद के पास न तो कोई अपन समझ थी और न वह इस पर कोई जनपक्षीय रास्ता बनाने की इच्छाशक्ति। यही कारण था कि जब भी विशेष आर्थिक पैकेज या बांधों के विरोध की बात आती तो वह जाने-अनजाने जनता के खिलाफ ही खड़े दिखाई देते हैं। ये दोनों सवाल उत्तराखण्ड के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसलिये नहीं कि आर्थिक पैकेज मिलने से पहाड़ के लोगों की तस्वीर बदल जायेगी। इसलिये भी नहीं कि बांधों के निर्माण से उत्पादित बिजली से बनने वाले राज्य की दरिद्रता समाप्त  हो जायेगी। इन सवालों का महत्व इस रूप में है कि इस बात की पड़ताल होनी चाहिये कि आखिर सरकार विशेष ओद्यौगिक पैकेज किसके भले के लिये लेना चाहती है। बांधों के सवाल को उर्जा प्रदेश के रूप में नहीं, बल्कि वहां के विस्थापन और पहाड़ को नस्तनाबूद होने के खतरे के रूप में उठाया जाना चाहिये।
   उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के समय से ही यह बात राजनीतिक पार्टियों की तरफ से जोर-शोर से उठायी जाती रही है कि नये राज्य की हालत सुधारने के लिये उसे विशेष ओद्यौगिक पैकेज दिया जाना चाहिये। राज्य जब अस्तित्व मे आया तो यह पैकेज एक अवधि तक के लिये दिया भी गया। इस पैकेज से प्रभावित होकर देश के तमाम उद्योगपतियों ने उत्तराखण्ड का रुख किया। राज्य में सिडकुल के माध्यम से रुद्रपुर, पंतनगर, खटीमा, सितारगंज, देहरादून और हरिद्वार में उद्योगों के लिये नई जमीन तलाशी गयी। कांग्रेस सरकार ने इस पूरे ओद्यौगीकरण को अपने तरीके से भुनाया। भाजपा लगातार कहती रही कि उनके प्रधानमंत्राी अटलबिहारी वाजपेयी ने अगर विशेष आर्थिक पैकेज की व्यवस्था नही की होती तो राज्य के उद्योगों का स्वरूप ऐसा नहीं होता। इस पूरे उद्योगों को बसाने की आपाधापी में इन उद्योगों से यहां की जनता को मिलने वाले लाभों को हमेशा दरकिनार किया जाता रहा। हमेश यही कहा जाता रहा है कि यहां उद्योगों को सब्सिडी इसलिये मिलनी चाहिये कि इससे यहां के लोगों का रोजगार जुड़ा है। राज्य के मौजूदा चतुर मुख्यमंत्राी ने कहा कि यदि इस पैकेज की अवधि नहीं बढ़ी तो राज्य के दो लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ेगा। उन्होंने इस पैकेज की मांग के साथ उत्तराखण्ड के सामाजिक, सामरिक, आर्थिक और माओवादी खतरों के साथ भी जोड़ दिया है। कमोवेश कांग्रेस भी यही बात करती है। यह पैकेज नहीं उत्तराखण्ड के लिये संजीवनी हो गयी है जो सुंघाते ही यहां की दरिद्रता को दूर कर देगी। पिछले दिनों इस पैकेज के लिये अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ प्रधानमंत्राी से मिलकर मुख्यमंत्री ने एक रिकार्ड भी बना दिया। कुछ समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ कि वह ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ प्रधानमंत्री से मुलाकात की। कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। राज्य के तमाम बड़े नेता भी एक प्रतिनिधिमंडल लेकर संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर इस पैकेज को बढ़ाने की मांग कर आयी।
   असल में इस आर्थिक पैकज को पूंजीपतियों के हितों के लिये बढ़ाने की मंशा है। इससे जनता को किसी प्रकार का फायदा नहीं होने वाला है। उत्तराखण्ड में जिस तरह उद्योगों को बसाने की कवायद चली है उसके अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। राज्य बनने से पहले और बाद मे जितने भी क्षेत्र उद्योगों के नाम पर विकसित किये गये उन्होंने हमेशा यहां की जनता को छला ही है। वर्ष 1988 में काशीपुर और भीमताल को नये ओद्यौगिक क्षेत्रों के रूप में विकसित किया। इन उद्योगों को पंाच साल की सब्सिडी दी गयी। लोगों की कृषि योग्य जमीनों पर उद्योग स्थापित किये गये। ये तमाम उद्योग पांस साल सब्सिडी लेने के बाद गायब हो गये। काशीपुर और भीेमताल के लगभग सभी पुराने उद्योग बंद हो गये हैं। इतना ही नहीं उनका भू उपयोग बदल कर अब उन्हें बेचा जा रहा है। राज्य बनने के बाद जिस तरह से उद्योगों से रोजगार का छलावा लोगों को दिया जा रहा है उसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। पंतनगर और सितारगंज की सोना उगलने वाली जमीन को कौड़ी के भाव उद्योगपतियों के हवाले कर दिया गया है। इन तमाम उद्योगों को आर्थिक पैकेज की जरूरत है ताकि वे इसका लाभ उठाकर फिर कई और अपने उद्योगों को ले जायें। इस समय राज्य में जितने भी उद्योग लगे हैं उनमें स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ठेकेदारों के हवाले कर दिया गया है। यहां अच्छा पैसा तो दूर उनका जीवन भी सुरक्षित नहीं है। अब तक दो दर्जन से अधिक ध्याडी के मजदूर इन उद्योगों में घायल हो गये हैं, इनकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। मुख्यमंत्री उन कौन से दो लाख लोगों के रोजगार की बात कर रहे हैं यह किसी की समझ में नहीं आ रहा है। सिडकुल से कई उद्योग अपना बोरिया-बिस्तर बांधने की तैयारी में हैं। राज्य में उद्योग लगाने में किसी को ऐतराज नहीं है। विशेष आर्थिक पैकेज मिलने का भी विरोध नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है जिस पैकेज को हम मांग रहे हैं उसमें यहां के लोगों के कितने हित सुरक्षित हैं। उद्योगों को इस पैकेज का लाभ देने से पहले यह सुनिश्चित कराना जरूरी है कि वे यहां के लोगों को कितना स्थायी रोजगार देंगे। इस बात की गारंटी भी सुनिश्चित हो कि वह इसका लाभ लेने के बाद भागेंगे नहीं। लेकिन भाजपा-कांग्रेस और उक्रांद को इसकी कोई परवाह नहीं है। इनके लिये टाटा की नैनों का पंतनगर में बनना और निशंक का हिन्दुजा बंधुओं के साथ मुलाकात करना ज्यादा गौरवमयी है।
   मौजूदा समय में राज्य में बन रहे सैकडों बांधों का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। राज्य की जनता पिछले चार दशक से इन बांधों के खिलाफ अपनी आवाज उठाती रही है। भाजपा-कांग्रेस हमेशा किसी न किसी रूप में इन बांधों के समर्थन में खड़ी रही है। अब वे इसे यहां के रोजगार के साथ भी जोड़ने लगे हैं। पिछले दिनों साधु-संतों के दबाव में भागीरथी पर बने रहे दो बांधों को निरस्त किये जाने के बाद भाजपा, कांग्रेस और उक्रांद के लिये नई मुसीबत खड़ी हो गयी है। प्रदेश के मुख्यमंत्राी निंशक जो पिछले दिनों भोपाल में गंगा को अविरल बहने की कसम खाकर आये थे, अब कहने लगे हैं कि ये बांध बंद नहीं होने चाहिये थे क्योंकि इससे लोगों का रोजगार जुड़ा है। उनका यह भी तर्क है कि ये परियोजनायें राय सरकार की थी इसे बंद करने का अधिकार केन्द्र को किसने दे दिया। असल में झूठ और लफाजी के पैर नहीं होते। भोपाल में कुछ और उत्तरकाशी में कुछ, इस तरह का दागला चरित्र अब उत्तराखण्ड के बांध प्रभावितों के लिये खतरनाक साबित हो रहा है। रही-सही कसर हमेशा बड़े बांधों का विरोध करने वाले उक्रांद ने पूरी कर दी। उन्होंने भी फैसला लिया है कि चाहे जान चली जाये पहाड़ में बांधों केकाम को नहीं रोकने देंगे। कांग्रेस तो इन बांधों की जनक ही है। असल में गंगा उत्तरकाशी में 35 किलोमीटर तक बांध न बनाने से शुद्ध नहीं होगी। गंगा की तीन मुख्य धारायें हैं, भगीरथी, भिलंगना और अलकनन्दा। इन तीनों को बचाये बगैर हम गंगा के अविरल बहने की कल्पना नहीं कर सकते। इन धाराओं से पंच प्रयाग बनते हैं। यही फिर देवप्रयाग में गंगा बनती है। दुभार्ग्य से भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों को गंगा कुछ ही किलोमीटर दिखाई दे रही है। इसलिये वे कभी टिहरी बांध का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक जीडी अग्रवाल की अगवाई में पानी और पर्यावरण की दलाली करने वालों के साथ खड़े हो जाते हैं। यहां की जनता जो चालीस साल से सके विरोध में आंदोलन चला रही है उसकी सुनने वाला कोई नहीं है। भागीरथी, भिलंगना और अलकनन्दा पर बन रहे सैकडों बांधों को बंद कर ही गंगा और हिमालय बचेगा। आर्थिक पैकेज और बांधों के साथ स्थानीय लोगों के रोजगार को जोड़कर ठगी करने वाले लोगों की मंशा को समझना जरूरी है।

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