भाषाई अस्मिता के लिए सोचे उत्तराखंडी समाज
डॉ. बिहारीलाल जलंधरी
किसी जीवंत संस्कृति का आएना भाषा ही होती है, भाषा के बिना कितना भी विकसित माना जाया एक अतिशयोक्ति ही माना जाएगा, संस्कृति की पहचान भाषा के पश्चात ही होती है, जहाँ भी संकृति शब्द का प्रयोग होता किया जाता है, उसके साथ यदि भाषा शब्द उसके अग्रज शब्द के साथ न जोड़ा जाय तो वह हमेशा अपूर्ण रहेगा,
समाज में केवल संकृति की बात करना फूहड़पन ही कहा जाएगा, क्यूं की संस्कृति की ध्वज्बाहक भाषा ही मानी जाती है, आज के उत्तराखंडी समाज दो भागों में बांटता नजर आ रहा है, इन दोनों के बिच की दूरी चेतना के अभाव में कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढती जा रही है, यह दूरी क्यों बढ़ रही है यह हम बखूबी से जानते है, हम इस दूरी को कम करने की हर सम्बभा कोशिश में हैं परन्तु हमें इस प्रकार का सशक्त माध्यम नहीं मिल रहा है, जिसके अंतर्गत हम इस दूरी को पता सके,
उत्तराखंडी समाज उत्तराखंड के अलावा देश के कोने कोने में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के साथ साथ विदेशों में अपनी कीर्ति फैला रहा है, देश विदेश में बसे उत्तराखंडियों के मन में कही न कही एक डर अवश्य होता है की जिस गढ़वाली कुमौनी को आज हम लोग बोल रहे है, क्या उसे हमारी आने वाली पीडी इसी प्रकार बोल पायेगी, इस और देश विदेश में बसने वाले उत्तराखंडियों का ध्यान ही नहीं है, अपितु उत्तराखंड के अंदर रहनेवाले विद्वानों ने भी इसे गहरे से लिया है, कई लोगों ने इसे बेकार की बात मानकर एक किनारे कर दिया, क्योंकि उन्हें केवल वर्तमान दिखाई दे रहा है, उनमे वर्तमान की सोच और आने वाली पीढी को दियेजाने वाले सरोकारों की सूजबूझ ही नहीं है, उदहारण के रूप में विदेश में होने वाले कार्य कर्म का का जिक्र करना आवशक होगो, जब मंच से विदेशी भाषा तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी के कर्म के संबोधन को तोड़ते हुए एक गायक की आवाज अपनी स्थानीय भाषा के लोकगीत के रूप में आती है, तो सभी का ध्यान अकग्र्चित होकर उस और एकटक हो जाता है, *आमा की दी माँ घुघती न बंसा* गीत के सुरताल में वासताबिक रूप में क्या था, *मेरो गधों कु देश बावन गरहों कु देश* गीत ने आख़िर में सात समुद्र पर बसे उत्तराखंडियों को क्या संदेश दिया, *चम् चमकू घाम कान्थियोंमा हिवाळी डंडी अचंदी की बनी गेना* इन गीतों में आख़िर क्या है, क्या यह कबी की कल्पना है, या अपनी धरती से रू व रू होने का साक्षात्कार, बहुत कम लोगों का इसकी मूल भावना की और ध्यान गया होगा, क्यों की केवल तीन घंटे का कार्यकर्म जिसमे केवल आधा घंटा ही बमुश्किल से इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने अपनी धरती से साक्षात्कार होने का मोका मिला उस आधे घंटे ने पूरे तीन घंटे वसूल कर दिए, ऐ जो तीन गीत गढ़वाली कुमौनी भाषा के मूल ध्वनियों के साथ सुरताल में प्रस्तुत किए गए यह वास्ताबिक रूप में यहाँ की भाषा का ही कमल है, जिसने हजारों मील दूर बैठे उत्तराखंडियों को झुमने के लिए मजबूर कर दिया, यह भी भाषा का ही कमल है, जो आज के समय में प्रतीक मात्र बनती जा रही है,
आज का उत्तराखंडी उत्तराखंड के बहार के अलावा उत्तराखंड में स्वयं के घर में स्वयम को असहाय महसूश कर रहा है, क्योंकि उनको अपनी मात्र भाषा अपने घर में भी पराई लग रही है, क्योंकि उनका बचा जब प्राइमरी स्कूल से घर आता है तो वह पूरे वाक्य को आधा अपनी भाषा में बोलता है तो आधा दूसरी भाषा में, इस प्रकार की भाषा पर कभी उसके माँ उसका मजाक तक उड़ा देती हैं, तथा नाराज होने पर हंसते हुए पुचकारती भी है, किंतु उस बचे की मानसिकता उस समय कैसी रही होगी जब उसके बोलने पर उसका मजाक उडाया गया, उसके इस प्रकार की भाषा में बतियाने में उसकी कहाँ गलती है जो उसका मजाक उडाया गया, उसने तो वही कहा जो उसने सीखा, अपनी माँ के साथ रहा तो मात्र भासा सीखी, स्कूल में मास्टर जी ने दूसरी भाषा सिखाई, वास्ताबिक रूप में क्या यह स्थिति उन नोइनिहलों की दुधी के विकाश में सहायक सिद्ध होगी, जिनको कैन भी पूर्णता नहीं मिल प् रही है, और परोतोशिक के रूप में उन्हें हैसी का पात्र बनना पड़ रहा है, प्रश्न उठता है, की क्या उस बालक का बोद्धिक विकाश इच्छानुसार हो पाएगा,
उत्तराखंडी समाज आज अपनी भाषा के बिमुख क्यों हो रहा है, न चाहते हुए भी इस और बढ्ता ही जा रहा है, राज्य आन्दोलन के दौरान एक सोच उभरकर आई थी की अपना राज्य होगा अपने लोग होंगे सब अपने पिछडेपन से अगड़ने की बात करेंगे, सभी क्षेत्र में स्वायत्ता होगी, स्वायत्ता भी मिली परन्तु कुछ गिनेचुने क्षेत्र में, जहाँ राज्य की संविधानिक आधार पर पहचान बनानी थी उस क्षेत्र में सोचने के लिए किसी के पास समय ही नहीं है, सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनेताओं नें जितने वादे किए परन्तु सत्ता की मदहोशी छाने पर वह यह सबकुछ भूल गए की इस राज्य की संस्कृति की ध्वजवाहक को भी जीवित रखना चाहिए.
इस संदर्भ में एक स्मरण का जिक्र करना अतिशयोक्ति न होगा की सूबे के मुखिया ने अपने चुनाव की दौर में अपनी सठिया बोली के सिवा अन्य भाषा में बात तक नहीं की, लोगों की खूब सहानुभूति बटोरी, भाषा के भावनात्मक जुदौव से उनको अपने क्षेत्र में वाहवाही मिली, परन्तु जब अन्य स्थान पर उनका कर्यकर्ता अपनी भाषा में बात करने की हिम्मत जुटता है तो वह उनके ब्यवहार से अपनेआप को ठगा सा महसूस करते हैं,
यहाँ भाषा का प्रयोग आम भोली भाली जनता को भावनात्मक रूप में आकर्षित करने के लिए कियस गया, स्थानीय भाषा के प्रयोग से यदि आसानी से साध्य पूरा होता है, तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि इस साध्य से एक उद्देश्य तो स्पष्ठ होता है की उतराखंड के स्थानीय लोग पानी भाषा को बहुत चाहते हैं, यदि सूबे का सिरमोर इस भाषा में बात कर रहा है तो वह अवश्य ही इसके विकाश के लिए अवश्य कार्य करेंगे, किंतु उत्तराखंड की दो मुख्य भाषा गढ़वाली कुमौनी के लिए आज तक किसी प्रकार की निति निर्धारित नहीं की गई, यहाँ तक स्तानीय भाषा में शोधकर्ताओं की आज दिनाक तक किसी ने खोजखबर तक नहीं की, यह उस भाषा के साथ साथ उस संस्क्तिती के लिए भी एक चुनोती बनकर उभरेगा, आज नहीं तो आने वाले कल में उत्तराखंड की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए लोग सड़कों पर उतरेंगे तथा अपनों से ही अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए लडेंगे, तब यह भाषाई आन्दोलन कहा जाएगा, जिसमे प्रतेक उत्तराखंडी अपनी भाषाई अस्मिता की रक्षा व पहचान के लिए आगे आएंगे, [/color] [/b]