इन हाद्सों से सबक कौन लेगा? संत, संन्यासी, नेता या सरकार?
नीचे लिखी कुछ दुर्घटनाओं पर गौर फरमाएं-
१. १४ मई १९९९ को केरल के सबरीमाला में मची भगदड़ में ६० लोगों की मौत हो गई.
२. २८ सितंबर २००२ को लखनऊ रेलवे स्टेशन पर बहुजन समाज पार्टी की रैली से लौट रहे लोगों में मची भगदड़ में लगभग २० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तथा १०० से अधिक घायल हो गए.
३. २७ अगस्त २००३ को कुंभ मेला नासिक (महाराष्ट्र) में मची भगदड़ में ४१ से अधिक लोगों की मौत हो गई.
४. १२ अप्रैल २००४ को लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल जी टंडन के जन्मदिन के अवसर पर साड़ी वितरण कार्यक्रम में मची भगदड़ में लगभग २२ महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
५. २५ जनवरी २००५ को महाराष्ट्र के मंधारा देवी नामक स्थान पर मची भगदड़ में लगभग ३४० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
६. ३ अगस्त २००८ को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर स्थित नैना देवी मंदिर में मची भगदड़ में १६२ से अधिक लोगों की मौत हो गई.
७. ३० सितंबर २००८ को राजस्थान के जोधपुर स्थित चामुंडा मंदिर में मची भगदड़ में २२४ लोगों की मौत हो गई.
अब आते हैं वर्ष २०१० में. ४ मार्च २०१० को इलैक्ट्रानिक समाचार माध्यमों द्वारा पता चला कि उत्तर प्रदेश के मनगढ़ (प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग ६० किलोमीटर दूर) में कॄपालु महाराज की दिवंगत पत्नी (पदमा) की बरसी पर आश्रम में एक विशाल भंडारे का आयोजन किया गया था, जिसमें आसपास के हज़ारों लोग जुटे थे. इस विशाल भंडारे के लिए विशाल स्तर पर प्रचार किया गया था, जिसमें इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया था कि आने वाले लोगों को एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए भी मिलेंगे.
इस प्रचार का व्यापक असर पड़ा. आसपास के अलावा दूरदराज़ के हज़ारों गरीब लोग (महिलाएं बच्चे, बूढ़े सभी शामिल) यह घोषणा सुनकर इस भंडारे में इस आशा में चले आए थे कि चलो एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए मिलेंगे. लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि इस भंडारे उपहार नहीं बल्कि मौत बड़ी बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही है.
अब जब यह ह्र्दयविदारक दुर्घटना घट चुकी है तो आधिकारिक सूत्रों द्वारा सूचना मिल रही है कि कम से कम साठ-सत्तर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तथा सैकड़ों राज्य के विभिन्न सरकारी तथा निज़ी अस्पतालों में बुरी तरह घायल पड़े हैं. घर से चलते समय उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं रहा होगा कि थोड़े से लालच में आकर वे लोग एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंसने जा रहे हैं. मरने वालों को यह नहीं पता था कि शायद यह उनकी अंतिम यात्रा है.
अब जब इतनी भारी दुर्घटना घट चुकी है तो राज्य सरकार, केन्द्र सरकार, सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, जिला प्रशासन एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं. एक दो दिनों में सभी दलों के नेता घड़ियाली आंसू बहाते हुए वहां चले आएंगे और अपनी राजनीतिक रोटियां सेकेंगे. कुछ नेता (शासक तथा विरोधी दल) प्रभावित लोगों के घरों में भी जाएंगे तथा मदद की फर्ज़ी घोषणाएं भी करेंगे. इस बीच कुछ दलालों की मौज़ आ जाएगी. वे फर्ज़ी लोगों को राहत राशि दिला देंगे और जो इस राहत राशि अथवा सहायता के वास्तविक हकदार हैं, वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे. सरकारी सहायता के इस सरकारी मेले में कुछ सरकारी अधिकारियों की भी मौज़ आ जाएगी.
आज किसी नेता, प्रशासक, मंत्री, पुलिस अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता में इतनी हिम्मत नहीं है कि जब कॄपालु महाराज लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं (शायद जब यह लेख लिखा जा रहा है, तब भी वह कहीं पर उपदेश दे रहे होंगे), उनसे सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को त्यागने का आह्वान करते हैं. फिर उन्होंने अपनी पत्नी की बरसी में इतना विशाल आयोजन करके अपने भक्तों को कौन-सा सन्देश दिया? क्या उनके खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग है? क्या उन्होंने इतने बड़े कार्यक्रम को संभालने के लिए अपनी ओर से कोई प्रबंध किए थे? यदि नहीं, तो वह आगे आकर अपनी गलती क्यों नहीं स्वीकारते? क्या अपनी गलती स्वीकार करने पर वे छोटे हो जाएंगे? यदि नहीं, तो फिर क्या उनमें इतना साहस है कि वे आगे बढ़्कर इतनी बड़ी दुर्घटना के लिए स्वयं की ज़िम्मेदारी लें.
क्या सरकार में इतनी हिम्मत है कि वह इस दुर्घटना को मात्र एक दुर्घटना न मानकर कॄपालु महाराज तथा उनके प्रबंधन को ज़िम्मेदार मानते हुए उन्हें गिरफ्तार करे? उनके विरुद्ध गैर इराद्तन हत्या का मुकदमा कायम करे जिससे आने वाले समय में यह एक उदाहरण बने.
क्या लोगों, विशेषकर, कॄपालु महाराज के भक्तों में इतना साहस है कि वे कॄपालु महाराज से यह प्रश्न करें कि यदि आप जैसे विद्वान लोग भी ऐसे प्रपंच करेंगे तो आम आदमी (विशेषरूप से आपके भक्त) तो बरसी जैसे आयोजनों पर होने वाले अंधाधुंध खर्च किस प्रकार रोक सकेगा?
धार्मिक महापुरुषों से यह आशा की जाती है कि वे आगे बढ़कर समाज के सामने अच्छे-अच्छे आदर्श रखें, जिससे सामाजिक बुराइयों (कट्टरता, कूपमंडता, कर्म कान्डों आदि) को रोकने की दिशा में कार्य किए जा सकें, किन्तु यहां तो धार्मिक महापुरषों द्वारा ही मूढों जैसा व्यवहार किया जा रहा है. क्या इन साधुओं, संन्यासियों, बाबाओं, महामंड्लेश्वरों आदि में इतना साहस है कि ये अपने दिल पर हाथ रखकर ऐसा कह सकें-"हमें अपने जीवन में सादगी, ईमानदारी, सच्चाई को अपनाना चाहिए. क्योंकि ये गुण मनुष्यता की निशानी हैं."
अब इन हालातों में क्या किया जा सकता है-
१. इस घटना के बाद इन धार्मिक महापुरुषों में इतना साहस अवश्य आए जिससे वे कम से कम अपने पारिवारिक कार्यक्रमों को सामाजिक प्रतिष्टा, दिखावे आदि से बचा सकें. यदि वे ऐसा कर सके तो वे दूसरों का नहीं बल्कि अपना उद्धार कर पाएंगे.
२. माननीय राजनाथ सिंह जैसे राजनेताओं को व्यर्थ में ही ऐसे धार्मिक महापुरुषों का समर्थन नहीं करना चाहिए, जैसा कि शनिवार को उन्होंने कह दिया कि कॄपालु महाराज या उनके प्रबंधन की कोई गलती नहीं है.
३. राजनेताओं को इन दुर्घटनाओं के बाद में न जाकर ऐसे आयोजनों के समय पर जाना चाहिए, ताकि उन्हें भी पता चल सके कि कुप्रबंधन क्या होता है. मैं तो एक कदम आगे बढ़कर यह कहना चाहूंगी कि राजनेताओं को ऐसे आयोजनों में अवश्य जाना चाहिए, जिससे कि उन्हें आम आदमी का दर्द पता चल सके.
४. प्रशासनिक अधिकारियों को सख्ती से इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि हज़ारों लोगों की संख्या में कोई आयोजन होता है तो वह उनकी मंज़ूरी के बिना न होने दें. वे इस बात पर ध्यान न दें कि यह आयोजन किसी आम आदमी का है या फिर किसी खास आदमी का. यदि उनकी मंज़ूरी के बिना कोई आयोजन होता है तो आयोजक को उसी समय गिरफ्तार किया जाए.
५. आम आदमी को जहां तक हो सके, ऐसे आयोजनों से दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि ऐसे आयोजनों में आम आदमी ही पिसता है.