ऊॅ श्री गणेशाय नमः
अथ:- उत्तर रामचरित मानस
तुलसीकृत
काक-भुसुण्डि-गरूड़ मोह सम्बाद
कुमाऊॅनी गद्य - पद्य
नाटिका
रचनाकार:-
विशनदत्त जोशी ‘शैलज’
ग्राम - बजीना
पो0 - ईड़ा द्वाराहाट
अल्मोड़ा
उत्तराखण्ड भारत
पात्र परिचय
1. शंकर पारवती 2
(गरूड़ शिव संबाद)
2. काकभुसुण्डि - गरूड़ 2
(शूद्र जनम में, मनुष्य पात्र भेष में) दुर्दम्भि नामक शूद्र
3. काकभुसुण्डि एवी गुरू 1
4. काकभुसुण्डि लोमस ऋषि 1
(आत्माराम बामणांक् रूप में)
5. काकभुसुण्डि - नारद मुनि 1
6. सूत्र धार: गुरू - शिष्य 2 (पूर्व पात्रों से)
7. अन्य पक्षीपात्र (4 या 5)
8. सखियॉ 6
9. कृष्ण राधा 2
-------ः-------
विधा
सम्बाद:- 1. संरक्षित कर अभिनय
2. प्रत्यक्ष अभिनय दोनों विधाऐं
आपणि बात में - द्वी- ऑखर निवेदनाक् छन -
यो उत्तर रामचरित मानस ‘तुलसीकृत’ बटी समेरि बेर एक नाटक रचना कुमाउॅनी रामायण उत्तरकाण्ड काक-गरूड़ मोह सम्वाद कि इच्छा छी कि कुछ कुमाउॅनी गद्य पद्य रचना करिबेर एक नाटिका वणाई जा,े दि0 09-09-09 क दिन वटी आरम्भ करछी आज 29-09-09 व्याखुलि चार बजी पुरियो।
संभव है सकुॅ यै मै कुछ विचार और मिली तो जोडी जै सकनी। काव्य नाट्यकला जानकार लोगों क सुझावोंक् जरूर अनुपालन हौंल। जैल रचना और सुन्दर वणौ।
आपण नफरू, चिपडू, कुरुप च्यल मॉ बापॅं कणि भलै लागू। तसै आपणि रचना, रचनाकार कि भलि रचना है। सज्जन लोग छ्वटि म्वटि कुरूपता कणि उपचार करिबेर ढकि दिनी, तब उलग भलै लागू।
श्रीरामलीला नाटक खेलण में राम रावण लणै तक लीला मंचन हुॅछ। कथें लव कुश चरित्र सीता प्रयाण तक लीला मंचन करीजैं, मगर काक गरूड़ मोह मंचन आजितक निभय हुनल कै सेचनू।
यो रचना में दोहा, चौपाई आदि कै साथ साथ पद लग छन। संसय इमें यो छ कि कुमाउॅनी लोक साहित्य विधा क पुरोधा कवि गुमानी क अनुसरण ज्यादे मात्रा में कैल निकर। स्वयं गुमानी ज्यूल लग प्रयोग मात्र करिबेर बॉकि अघिल हूॅ छोड़ि दे। कुमाउॅनी मेघदूत को छन्दोवद्ध अनुवाद भौछ। मगर पुस्तक के निदेखीन। कुछ उद्धरण मिलनी बस। शेष कुमाउॅनी तुकान्त काव्य बहौत लेखीणौ। सम्मिलित रूप में देखी जाओं तो बहौत नाम चीन मिलाल्। सुवद्ध लोक साहित्य फिर शास्त्रीय आधार पर गायन करण साधना क काम छ।
जो शास्त्रीय गायन वादन प्रवीण छन वी में कुमाउॅनी में यथा लेखी तथा पढ़ण कि अभ्यासै कि कमीछ। यो स्थिति मेें कलाकार कणि माजण में समय लागल। तब कसि होल? यो मॅहगाई मार समयक तौयाट समाजक रौयाट बौयाट, सबै सब संसय पैद करनी। फिर -
आजाक चैनल सस्त मनोरंजन अश्लील प्रदर्शन जो स्लील वणनें जाणौ। पाश्चात्य संगीतक प्रचार प्रसार। पाश्चात्य काव्य कि नकल। कामुकताक दृश्य। सस्त मनोरंजन, घटिया सिरियल, झकड़ाक क्वीड़ॉक सीरियल। गुण्डगर्दी में चतुरता पूर्ण दृश्य आदि मनोरंजनाक् साथ नव युवकों कणि कुमार्ग पर हिटण कि सोच बढ़ाणई। जैल अपराधों में बढ़ोत्तरी, परिवारी जनों कि हत्या, अपहरण जास् कृत्य बढ़ण लागि रई।
इनु हालातों कन देखि बेर श्री राम चरित मानसक जो अति महत्वक अध्याय उत्तरकाण्ड छा। ज्यौ में ज्ञान अज्ञान जुग वर्णनाक साथ साथ चरित्र वर्णन जीवन दर्शन छ। वी पर कुछ समाज कणि यो भटकाव हैवरे बचाई जावों। यो विचार नाटक रचनाक कारण छ।
यो निवेदन में सुविचारित लोगोंक सहयोग मिलो तो कुमाउॅ लोक साहित्यकि यो नाटिका पर आघिल काम है सकूॅ। तन मन धनल समय निकालि बेर तथा एक टक मन लगै बेर जो कलादगड़ि जुड़ि छैं उनार तै यो के बड़ि बात निछ । जरूरत छ समाज कणि ‘‘असतो मॉ सतगमय’’ ‘‘तमसों मॉ ज्योर्तिगमय’’। इन द्वी विषयों कि सेवा में आपण कलाक् योगदान दिणकि, तो फिर देर करण उचित निछ, आओं दृढ़ संकल्पक साथ - इत्यलम्
धन्यवाद
विशनदत्त जोशी ‘शैलज’
ऊॅ श्री गणेशाय नमः ऊॅ
अथ: श्री काकभुशुण्डि गरूड़ मोह नाटिका
प्रथम दिवस
(प्रथम दृश्य) प्रथम दिन - पैल दिन
सूत्रधार - गुरू एवी शिष्य गुणानन्द
(विप्र वेशम गुरू - अभयानन्द। शिष्य गुणानन्द)
(गुणानन्द) शिष्य गुणानन्द को प्रणाम गुरूदेव!
(गुरूदेव) आयुष्मान् पुत्र! यशस्वी भव!!
कहो पुत्र! क्ये पूछण चॉछा?
(गुणानन्द) गुरूजी! श्री राम कथा लीला सुणहुॅ मन हैरौ। सब हम लोगोंक्
(गुरू अभयानन्द) बड़ि सुन्दर बात पुत्र! तो तुम राम कथा साथ नाटक खेलणकि तयारी करो। तुमन कणि काग गरूड़ मोह नाटक दिखाई जाल।!
(गुणानन्द) अहा! ज्ञान कथा सुणिवेर हम श्री राम कणि तत्वल जाणुल!
(गुरू) होय पुत्र! और लग- मनख जीवनाक भाल् नाक् विचार करम गुण सुभाव पर लग जाणला।
(शिष्य साथियों हणि) गुरू गणेश! वन्दना करूल हम सब जाणी!
गणपति वन्दना
अनादि सम्भूत सुराधि सेवितम्।
सुगन्धि पुष्टान्न रसादि भक्षणम्।
जगाधियं भक्त भयापहारकम्फ।
भजामि विघ्नेश्वर मोददायकम्।।1।।
नित्यं शान्तं स्मर मन सदा पादमभायताक्षम्।
संसार सारं फणिपतिमिवं श्री हरि शेव्यमानम्।
तस्यैव चिन्तयमविरतं, घोर संसार ऽगाधम्।
संसेव्यै ना विषय गरलं सत्य पीयूषपीवम्।।2।।
वन्दना भोग्य
जैजै दुणागिरि वासिनि जै जै।
लौभ मोह मद नाशिनि जै जै।
स्वर्गाश्रम विन्सरपति जै जै।
बारत जन की दुर्मति जै जै।
मंगल मूरति मानिल जै जै
नारसिहि नैथन कि जै जै।
‘शैलज’ सन्त सुजन की जै जै।
तपोभूमि गुनिजन की जै जै।
जगदीश्वर वन्दना (4)
अस्थाई - हे! परमेश्वरा! हे परमेश्वरा!
हे परमातम तुम बैठी छा, सबॅुकैं हिरद घरा। हे0!
अन्तरा - तुम अलेप! हम करम लपेटी, पढ़ि लिखि अद खिचरा।
तुमरी लीला जाणि नि जानी, ज्ञानी खोजि तरा।। हे0!
घर ममता कै मोह फॅसी हम, यो म्यर! कौने मरा।
यस अज्ञान हरौ हरि हमरो, ‘शैलज’ विनति करा।। हे0।। ।।4।।
पेज 1
ख् पैल गुरु वन्दना , द्वी - चार जणी -
अखण्ड मंण्डलाकारं व्याप्तएन चराचरम्।
तत्पदं दर्शित येन तस्मे श्री गुरुवे नमः।
-: -
ख्दगड़ - दगडै़ ओंमकार रुप गणपति वन्दना ,
ओमकार तुम नमन छ मेरो। नमन छ हमरो नमन छ मेरो।
गणपति, हरि, बरमा, शिव हमरै। हिय मा करो बसेरो ।। टेक ।। ओम0।।
जप तप साधन होइ न सकना। मोहल बादो डेरो।
ज्ञान - ध्यान हम जाणुन न्हाती, पड़ुॅ माया को फेरो ।। ओमकार0।।
मंगल करिया, बिघनन हरिया। नाक् भाल् जास् हम तेरो।
श् शैलज श् आसर एक छ तुमरो, संकट हमर उकेरो ।। ओमकार0।।
- दुसर भजन - राग - ( तीनताल )
ख् दृश्य पुर होल , दुसर दृश्य:-
ख् शिव पारवती मंचासीन , व्यवस्थानुसार:-
ख् परवती:- 4 पाई - , श्री राम कथा सुणिबेर म्यर संशय भाजि गो, पर तुमल कौ - मैल यो कथा कवक मुख सुणी बड़ अचर्ज होछ।
4 पाई - , हरिक चरित मानस तुम गायो । स्वामी ! सुणि सुणि मै सुख पायो।
अपुॅल कइछ यो कॅथ चितलाई । सुणी गरुड़ कागक मुख जाई ।।1।।
पेज 2
ख् 2 हा -, भगति ज्ञान बैराग तिनु , राम चरण अति प्रीत।
कउवक तन रघुपति भगति, ओंनि म मन परथीत ।। 2।।
ख्सवॅुक उज्याणि चैबेर:-, यो कसि अणकसि रीत , सियावर राम - जै।।
ख्शिवजी प्रकट भाषा में, पारवती! लाखों लाखों में क्वे
एक दानी हुॅछ। कदु लाखों में एक धर्मवान पैद हुॅछ ।
कदु लाख मनखियों में एक भगत पैद हुॅछ।
फिर कदु करोड़ भगतों में एक वैरागी जनम ल्यूॅ।
लाखों बैरागी में एक ज्ञानी हुॅछ। जब हजारों ज्ञानी मनख
हैला। तब लै उनुमें क्वे द्वी चार मनख मुक्ति पै सकनी ।
पारवती! तुमैल ठीकै पुछौ!
उमा! तनुमै श्रीराम भगत छ काग भुशुण्डि।
जै कि श्री सीता राम पर सारी ममता - मोह छा।
भगत मुक्ति नि चान , भगवान श्री रामक भगत मुक्ति है
लग पार पुजि जॉ। इमें के शंका निछ!
ख् पारवती ,
2 हा - रमौ राम में मन कसिक, गॉछो गुण मतिधीर।
स्वामि बुझ्याओ मिकणि सब, पाछौ काग शरीर।। 2।। मन हइ गोछ अधीर, सियावरराम चन्द्र की जै।
4 पाई - गरुड़ बड़ा ज्ञानी गुण राशा। वाहन हरिक सदा रॅनि पासा।
कसि विदि भयछ तनर संम्बादा। द्वी हरिभगतन बीच सुखॉदा।।
तुमुल कसिक सुणि सब त्रिपुरारी। अचरज हूॅछ मनम बड़ भारी।
ख् शिव - आसन बटी उठिबेर ,
ख्4 पाई -, धन गिरिजा त्यरिमति भलिनीता। रामक चरणम कम न पिरीता।
बडु सुन्दर सुण यो इतिहासा। जो सुणि मनक भरम हुॅछ नाशा।।
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ख् प्रकट भाषा में - ,:- पारवती! यसै गरुड़ ज्यूल लग काग थे पुछो, कि तुमल यो ज्ञान, यस शरीरल कसिक पा।।
ख् फिर - शिवज्यू - 4 पाई , -
जसिक कथा सुणि मैं दुःख नाशणि। सो सब उमा! सुणानू तुम कणि।।
दच्छ जग्य जब भय अपमाना । तब तुम त्यागी अपण पराणा।।
मनमा तुमरो लागछ शोगा। उमा! दुःखी भयुॅ तुमर वियोगा।
रौंछी देखन - वण अर बागा। मन व्यउमोंण सुॅ धरि बैरागा।।
ख् पारवती -, स्वामी! आघिल के हो ? उ बताओ।
ख् शिवजी -, उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वताक् पास नील पर्वत छा। जैक चार सुन्दर डानों में म्यर मन लागीगो। दो चार सुन्दर तप्पड़ौ (बुग्याल )में (पाकड )पिलखन बौड़ पीपल और आमक पेड़ छी ं और उन चार तप्पड़ो बीच में एक सुंदर ताल छी ंजै में सुन्दर कमल फूली छी सुन्दर फूलो पर मोंन भौर पुतइ नाचण लागि रौछी।
उ पहाड़क मलि बै काकभुशण्ड़ि ज्युक घर छी। जैक नजीक माया रची दोष नि पुजन
परवती! मैल वॉ देखौ !वॉ काग हरि भजन में मस्त छन ।
उमा ! मै यो सब देखते रयूॅ कि - काग-पिपवाक् तलि एै बैर ध्यान लगानी।
आमाक डाव मुणि मानस पूज करनी । पाकड़ा पेड़ तली जग्य करनी। फिर उनर बौड़ाक तलि छाया में हरि कथा करणक नेम छी । वॉ सबै पंछिन मगन है वेर श्री राम ज्यूक बाल चरित्तर सुणाछी। जो अलग अलग जुगॉ में अलग बाल चरित्तर करीं। जनर कथाक नई नई रस ओंछी। सब कथा कोंण सुणण में मगन रौछी।
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उमा! जब मैल तमार करतब देखी मै कन लग बड़ै आनन्द आ। तब मैल हंसक रुप धरि, श्री राम जी कथा सुणी। म्यर उमा उतु समय आनन्दल कटौ। फिर मै कैलाश ऐगयूॅ।
4 पाई - गिरिजा मैंल बता इतिहासा। मै जो समय गयूॅ खग पासा।
अब तुम कणि सो कथा सुणानू। गयो काग मुख गरुड़, बतानू।।
शिव प्रगट में:-
उमा! श्री राम - रावण जुहद में जब माया पति श्री रामल मेघनादाक् हाथों आपुॅ कणि नॉग फासल बदै दे।
उमा! खेल देखो! उनरि माया बिचारों ।।
स्वयं शेष अवतार लक्षमण, स्वयं हरि - आपण वाहन गरुडकि सेवा लिण चॅानी, पर हौके आधिक सुणौ। तब नारद ज्यू। गरुड़ कणि नागफास काटण भेजनी और गरुड़ वाण रुपी लपलपान् स्यापों कणि काटि काटि टुकुड़ वजै श्री राम लक्ष्मण ज्यू कि नागफास खोलनी। अब गरुड़ सोचनी सच्ची यूॅ हरि अवतार हुना तो इनार वै नागफास खोलड़ के बड़ी बात छी? बस यो भरम के पड़ौ उनुकै कि भरम टुटैनै। उमा! तुमर जस भरम गरुड़ कणि लग हैगो।
शिव - 4 पाई -
भाजि गयो नारद मुनि ढीका। गरुड़ बुलॉछ बचन बिनती का।
सुणि नारद कुनि विधि मुख जाओ। शंका आपणि तिनन सुणाओ।।
विधिल कौछ शिव नाशिल शंका। हरि मायाक विखट यो डंका।
3 हा - आयो तौ म्यरि पास, बेग बेग अर उतव बडो।
मै कुबेर घर जाण लागि, तुम रौछा कैलाश।। 3।।
गणपति कार्तिक पास सियावर राम चन्द्र की जै।
पेज 5
सुण उमा! तो वाट्पन गरुड़ मार मार - छाड़ - छाड़ बैग वेग कनें हमार यॉ औण लगी छी।
मै कन देखो, खुटामुण लटपटी गो।
फिर आपण मनक मोह रुपी दुःख सुणॅान लागौ।
पारवती - स्वामी आपुॅल के कौ गरुड़ ज्यू थे?।
शिव ज्यू - 2-हा
बिन सत संगत हरि कि कॅथ, सुणि बिन मोहन जॉछ।
मोह गई बिन राम को, हिय मॉ प्रेम न ऑछ।।4।।
मन कणि मोहबघाछ । सियावर राम चन्द्र की ।।जैं।।
शिव - 4 पाई -
उत्तर दिश सुन्दर गिरि नीला। कोंनी काग राम की लीला।
राम भगति को भरम बतानी। तॉ बसि बीति कलप यास् ज्ञानी।।
! हे गरुड़ तुम नील पर्वत काग भुसुण्डिक पास जाओ !
उमा - हे स्वामी ! तुमुल किलै नि बताय गरुड़ कै। कैलाश लिआना मै लग सुणि ल्युॅन, कॉथ्?
शिव ज्यू - 4 पाई
धरन उमा मैं आपण पासा। जाणनि पंछि पंछि की भाषा।
बता मैल तैकन समजाई। गयो हरषि खुटनें ख्वर नाई।।
उमा - फिर गरुड़ काग भुषुण्ड़ि पास गोछो? ।स्वामी। अधिक के भयो? आपुॅ अन्तर जामी छा, मेरी सुणण कि बड़ी इच्छा है
शिव ज्यू - 4 पाई-
उड़ौ गरुड़ पुज निलगिरि डॉना। जॉ बसि काग सुणौं छी ज्ञाना।
कथा अरम्भ करण जस लागीं। डीठ कान गरुड़क गई जागी।।
ठीके समय गरुड़ पुजि गोछा। देखि सबुॅक तब खुषि मन होछा।
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100 रठा-
तब काग भुसुण्ड़ि ज्यू, आदरक् साथ आपण बराबरि आसण दिवेर भैटानी - उमा - अब उनरै मुख तुमुकै अघिलै कथा सुणान्।
(दृश्य बदइयल खालि समय में और ज्ञान बढाणी कार्यक्रम लग चलाल् - )
दुसर दिनक नाटक
काग भुसुण्ड़ि दरवार, में गरुड़ ज्यू ओंनी
काग खुशि हैबेर आसन दिनी। और पुछनी-
प्रगट आज हमार धन भाग भई। जो आपुॅ दरशन दी।
आब बताओ मैं आपणि के सेवा कर सकॅनू।
काग 0 कि - 100 रठा -
100 रठा - दरशन दी अॅपु आज, पंछि राज मैं धन्य भयुॅ।
आछा अपॅु जे काज, जो अज्ञा दिणि करुल मैं।।5।।
अतिथि देव महाराज ! सियावर राम चन्द्र की ।। जै।।
गरुड़ - काग थे - हला! तुम परमारथै कै दुसर रुप छा। शिव ज्यूल मैकणि पैलिये बताछ, आज तुमार दरशनाक् साथ सब कुछ मिलि गो।
आब तुम राम कथा सुणाओं?।
काग कथा सुणानी हे गरुड़ ज्यू !
तुमकें राम जनम बटि सीता स्वयंबर - वनवास - सीता हरण - राम रावण युहद - रावण मरण - राज तिलक तक कथा सुणै हाली। जब राम लक्षमण कणि मेघनादल नाग - फॉसल बादों, तब तुमकें जाण पड़ों। नाग फांस खोलण। सो तुम जाणनेरै भया।
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गरुड़ - अहो काग ज्यू ! उ दिनै कै छल लैरो मे परि जैल म्यर सुख छिनि हालों। यो छल कणि निकाइ दियो न, तबै मै तुमरि पास पठ्यायूॅ शिव ज्यूंल।
काग भुषुण्ड़ि -
तुमरि बात सुणि बेर हे गरुड़! मै कणि के अचर्ज निहय।
किलकि यो मैं पर श्री राम कि किरपा है जो आपण दर्शन मै कणि कराणाक खेल खिलाणई। राम कि माया रामै जाणनी!
गरुड़ -
हे काग! तुम यस किलकि निकौला, ज्ञानक भन्डार जो छा।
दुसरै कणि मान दिन क्वे तुमुहै सीखो।
काग - 4 पाई
गद्य भाव मॅं या पद्यभाव मै कई जै सकॅू:-
नारद मुनि क्या शिव सनकादी। और जतुक मुनि इन्द्रिय सादी।
कैकणि ना तिषणा पगल्यायो। रीशल कैकन हिरद जवायो।।
मोहल अन्ध करो नें कैकणि। को यस काम नचाय न जैकणि।।
2 हा - क्रोधल कै मद ट्यड़ न भयो, कालो पद कन पाई
तिरिया नैनक बाण लै, को नें धैल बणाई।।1।।
माया जाणि न जाय, सियावर राम चन्द्र की।।जैं।।
काग भुषुण्ड़ि गायन -
राम कि माया बिखट बड़ी।
नारद - शिव अर सति भरमाई, हरि माया का फेर पड़ी।।टेक।।
जीवक - करम, राम कौ खेल छ तनुॅहणि के घडी के कु घड़ी।
राम की ओट न ल्यूॅ जो शैलज लगिं सुधरी जसि, रैं विगड़ी।
गरुड़ !यों! माया तरण छ भारी, जैक न राम - तराण - तड़ी।।राम।।
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3हा - घरक मोह दुःख काल, रीश डाह मति लोभ पड़ि।
तौ कॉ जाणल राम कणि, फसौ मूढ जनजाल।। 7।।
कुबुधिक जाल बवाल। सियावर राम चन्द्र की ।। जै।।
गरुड़ - 4 पाई - प्रगट- हे काग ! म्यर मन में जो छल पिडान है गों, उ छल कसिक जॉ?।
काग ! कसिक छूटी हरिमाया। कवो कसिक मिलनी रघुराया।।
तुम ज्ञानी छा अति बुधिवाना। हरो मनक म्यर सब अज्ञाना।।
(काग - भुसुण्ड़ि की - 4 पाई काग प्रगट:-)
हे गरुड़ यो छव जाल तब जब मनक भरम टुटल ।
बड़ी बिखट, खग! रामकि माया। को यस जैपर पड़ी न छाया ।
ज्ञानिन कौ मन कणि भटकाई, मैं कन लग बड़ि बेर नचाई ।।
गरुड़ छ रामक सैज सुभावा। भगतक मनक नशानि दुरावा।
करनी दूर दयालु खरारी। तनरि भगत पर ममता भारी।।
राम किरय आपणि मुरुखाई। कौनु गरुड़! सुणौ मन लाई।
जब जब राम मनख तन धरनी । में सॅड0 खेल सदा तब करनी।।
100 रठा - तॉ - तॉ संग उड़ानु, जॉ - जॉ, नाचनि घुमनि।
टुप टिपि - टिपि, मैं खानु, जूठो पडुॅ ऑगण मजि।।8।।
अमिरत स्वाद समानु। सियावर राम चन्द्र की ।। जै।।
पेज 9
( प्रगर संभाषण वार्ता ) काग-गरूण:-
गरूड़ - हे काक भुसुण्डि सुणाओ सुणाओ मेरो मन चित- सुणण हुॅ बिचैन हैरो।
काग -श्री राम म्येरि दगाड़ नान् तिना जस खेल करनी के यों सच्ची जै भगवान
हुॅनका बलि?
द हो गरूड़ ज्यू ! इतु बात म्यरि मन में के आछी
लैगो में पर छव्! आब् तुम अधिल कै सावधान है सुणिया हॉ।
हे गरूड़ ! जीव और भगवान बीच माया ठुल कारण छ।
भगवान ज्ञान रूप जीव मायाक फन्दांेल वादी छा।
जीव और भगवान यकनसै हॅुना पै के भेदै नि रून।
2 हा-
सीता रामक भजन बिन जोनर मुकुति चहॅू छ।
तौ नर ज्ञानी हॅूछ लग सो पशु सीड़ न पॅूछ ।।
ज्ञानक भरमी रूॅछ सियावर रामचन्द्र की जय।
( काग पद गायन ) राग बागेश्वरी ताक तीन
काग पद--
गरूड़ ! तसै बिन हरि भजना !
कटुकै जतन करो तुम खुचि खुचि यौ करम कलेश न कटना
मनकै मणिक अविद्या लागी ! विद्या तै हुणि हैं सपना।
कटुकै जनम नशै नर-नाचॅू नर देहकि कॉ करणि कलपना।
गरूड़ प्रगट भाषा-
गरूड़ राम सर्वो मेें रमी छन यो बात ज्ञानी अज्ञानी सब जणनी।
यै कारण अज्ञान काणि ज्ञानक च्वल पैरे हरि भजन छोड़ि
बेर जोग भ्रष्ट राजभ्रष्ट भूत प्रेतोंक रूप में भूतांगी नरों कणि
पूजनी और कैानी इनार धट में लग रामें रमी छन।
पेज- 10
हे गरुड़ ! जब इनुथै पुछी जाओ कि भगवान तो कण कण में छन। जब तुम ढुड़ पर मुनव फोड़ला? या ठोकर मारला पीड़ कै कैं हलि? ढुंग भगवान तो फोड़िबेर लग डाड़ नी मारन!
यैछ मोह - भरम जो मन कणि एक खाम् पर जस वादि द्यूॅ, तबलै सबुकै घट में यो बात ठीक ठीक नि भैढनि।
पर जैक घट में यो बात मणि मणि लग मैजे। वीक फिर माया आपण फेर खोलण लैजैं, उ भगवान कि तरफ मन कणि लगाण लागूॅ। फिर अविद्या जो माया छ पिड़ानि ना। यो कथा मै आज तुमुकै सुणानू।
जो मैल बता कि राम सॅचि भगवान हुॅनला् बस उनरि मायाक खेल चालु हैगो।
( काग कि एक, आदु 4 पाई - )
भरमित चकित राम मै देखी। हॅसी उठाई श्री राम विशेखी।
कागक एक पद - राग ( तीन ताल )
घुनॅन घैंसि पकड़न मैं लागीं।
भरि हुॅवार हरि हाथ बड़ानी, भरमत भई मति-मोह अजागी।। टेक।।
पलि पलि सरकनु मारि फटक में, देखुॅ पछिल हरि हाथा।
बेग बेग मै उड़ौ आगासम हाथ नि छोड़न साथा।
ज्ञान हुनॉ तो भाजि नि उड़नों। हरि हाथम हॅूनों भागी। घुनन0
3 हा -) जॉ लगि तड़िम तराण। सातों लोकन भेदि गयूॅ।
तै हरि हाथन देखि भय, मै अति विकल पराण।।10।।
थाको तन को तराण, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
अहो अब मै पकड़ी गयॅू। श्री राम मकणि मारनी भलै, छोड़नी भलै?
यो विचार करि मैल आख बन्द करी घुचुड़ुक् मै गयूॅ।
जब ऑख खोलनु, तो अरे! मै तो उनरै आगण में पड़ी छॅू।
पेज 11
वीं ननानान् बालक श्री राम, मैं द्येखि खित्त हैसनी।
काग - उनरि खित हॅसणि कतु भलि! अंहा,! तुम देखना
चइयै रै जाना। हे इष्टौ! तुमरि दयाल म्यार हिरदै में छु आजि लै
फिर - एक सॉस ली भितरॉ हंणि, मै स्वॉक्क, उनार मुख भितेर पण्सी गयॅू।
तुम सॉचिमानल हो पंछिराज! वॉ मैल के देखो के नि द्यख!
अणकस्सै लोग, अणकसै उनर रोंण - खाण - पैरण। वॉ कदु लोक, उनमें कदु ब्रह्मा - विष्णु महेश, गौरा लक्ष्मी कदु सरस्वती, सीता राम देखी,
लोकपाल काल - सूर्ज चन्रमा, तारा गाड़ - गध्यार। समुन्दुर हिमाल द्याप्त बड़ा बड़ा नाग, सिंह मुनि , पहाड़, नान तिना खितखिताट्, वामण जग्य हूम करन, राक्षसौकणि ज्यौनें भैसौंक मांस खाण् गोरु, बाछ्, भैस बाकरॉक लथाण।
13
काग 0 - सुणौ गरुड़ यसलग सोचौ धैं!
पाकी पकाई पकवान देखि उसिके मुखम पाणि ऐजॉ। जो तुमुहॉ खाओ जै कै द्यलो खाणै चाला! जब चाखला बिना लूणक बिना गूड़क भोजन कस लागल?। तसै मैल विचार करो। भगवान तो कौणे रई माङ - माङ कै। तू त भगती माङ। के कौणौ सरग पतावल!
कागकि - 3 हा- प्रभुकि किरप जो पाइ, खोजिन मिलि सुर साधु मुनि।
अविचइ भगती दीण प्रभु, वेद पुराणन गाइ ।। 13।।
प्रभु दयालु रघुराइ, सियावर राम चन्द्र की जै।।
कागकि - 4 पाई - तस्सै हौल ! कुनी रघुनाथा। अमिरत बचन सुणी सुख सॉथा।
सब सुख खाण भगति लिछ मॉगी। तेजस को दुसरो बड़-भागी।।
प्रगट - काग - तब मै थे श्री रामल कौ- आब् ते कणि मेरि माया नि सतालि, मै कणि भगत सदा पियार छन। भगति ज्ञान वैरागक ज्ञान तुकै हौल। मै, अब तिकणि आपण भजन करणक नेम बतानू।
आकाशवाणी वटी - 4 पाई श्री राम रिकार्ड पर
इज - बाबुक च्याल् कदुक प्रकारा। हुॅनि गुण कामाक् तौ सब न्यारा।
जो इज - बापुक सुख दुःख जाणू। तनरै सुख अपणै सुख मानूॅ।।
बापुक भगत बचन मन करमा। स्वींणा जाणुन दुसरो धरमा।
तो च्यल बापुक प्राण समाना। किलकि नि हो तौ सब सुॅ अयाना।।
मै सब संसारक मै - बापा। सबम बरोबरि छा म्यरि छापा।
100 रठा - जड़ चेतन हो कोइ, बाल-बुढव नारी पुरुष।
मै सूॅ तो प्रिय तौइ, कपट छाड़ि सतभाव भजॅु।।14।।
नौणि न, पाणि विलोइ, सियावर राम चन्द्र की जै।।
14
श्री राम प्रगट भाषा में - यो सारै संसार। जॉ जॉ तक जीव जॉ, और देखॅू, तौ सब म्यरी मायाक उपजाई छा। किड़ किरमव तुकणि जै देखण में औं। जे देखण में - नि ओन उस जीव लग छन। हे काग! मेरि माया मेरि छाया और मेरि दाया, सबु परि बराबरि छु। एक बात और समज।
भूख - तीस - रीश - डाह - काम - प्रेम - परवार, सन्तान पालणक सब जीवों में बरोबरि ज्ञान छ।
देव गंर्धव भूत प्रेतों कणि, अपण कर्म फल भोगण तकै कैं, सुख दुःख मिलुं।
(गरुड़ और काग मुनव हलोवाल्)
यैक कारण मैं कणि मनख जून अति प्रिय छा। और उन मनखों में जो धरमक मारग पर चलूॅ। औरन कणि चलॉ, उनुमें लग जो बैरागी छन, फिर उन बैरागीन में जो ज्ञानी छन। उन ज्ञानिन में जो विज्ञानी छ। जो म्यरि प्रकृतिकि खोज करुॅ। में तक पुजणकि धा पर रौछ।
तनु मजि लगे, म्यर तन मन धनल जो म्यर भगत छ। सेवा और म्यरि भगति दुसरन कणि द्यूॅछ उ अति प्रिय छा।
(काग मुनव हलोवल)
2 हा - मैं हुॅणि भगत छ प्राण प्रिय, कोंनूॅ तैहुॅणि काग।
आस भरोसो छोड़ि सब, सेवा पर मन लाग ।।15।।
मैं भजुॅ तौ बड़ भाग लाग काग चरणक शरणम्।
(काग ओर सब सिर नवाल)
कागभुसुण्ड़ि - हे गरुड़ मैं कणि भलि समजैबेर फिर खेल करण लागीं।
गरुड़ - हे काग! सुणाओ के खेल करीं फिर, श्री राम ज्यूल? म्यर मन मै सुणण हुॅ आतुरि लैरै।
15
काग0- श्री राम लुटपुट भाजण लागछीं, गुटुर - पुटुर - जाणि के के बुलाछीं। फिर एकाएक डाड़ हालण लांगी।
गरुड़- फिर तुमुल चुपाणैतै उनन कै खेल नि लगायो?
काग0- श्री राम ज्यूक रुण सुणिबेर - कौंशल्या ज्यू दौंड़नै आई। कूण लागी, अरे म्यर भाउ कैल मारौं? कि घुरिगो? कि भुख लैगे? पकड़ि बेर, च् च् च्! भुक लैगे भुक! अरे भौकैं भुख लैरै!
काग0- राग ललित - तीनलाल - गायन या वार्ता मैं:-
भौ की भाज भुका अब कैं छो।
मयड़ी भुकिं ली, गोदिम धरिंछो, ढकि ऑचल दूध पिवें छो।।भौ0।।
झुलकै कनम उठै धरिं नाचीं। आंगण दौड़ी नचै छो।
उभत्ति रुण उभति खित हैसण, शैलज मति भरमै छो।।भौ0।।
सुणौ गरुड़! यसि प्रभु की लीला, शारद कणि शरमें छो।।भौ0।।
काग0- 4 पाई
4 पाई0- गुपुत भेद सब तुमइ बतायो। मैं जस हरि मायाल नचायो।
राम किरप बिन गरुड़ गुसाई। रामकि महिमा जाणि नि जाई।।
का0 3 हा- बिन गुरु हूॅन न ज्ञान, ज्ञान निहॅुन बैराग बिन।
बिन हरि भगति न सुख मिलुॅछ, कोंनी वेद पुराण।।16।।
सैज न मिलिं भगवान, सियावर राम चन्द्र की जैं।।
4 पाई0- कौछ न मैं कुछ जुगुति बणाई। भुगती जो मैं तुमॅन सुणाई।
हे गरुड़ जी! हरि माया, सिसूॅणक पात। उल्ट सुल्ट द्वियै भॉत!
16
गरुड़ - हे कागभुसुण्डि ज्यू। मै परि यो कस रोग लाग -ः
एक कहावत छः- दुःख लाग कै कणि। पीड़ है कै कणि ।
गरुड़-4पाई- शंका स्यापल मै चटकायो। दुखकि लहर उठि कुतरक वायो।
कसि अणकसि भइ समजि न पायो। हरसिंग डॅस बिरसीङ उसायो।।
तुम जसि गारुड़ि दी, मै कागा! उतर सगल बिष भयॅु धन - भागा।
ज्ञान - ध्यान सब तुमरै पासा। श्री रामक छा तुम प्रिय - दासा।।
गरुड़ काग थे प्रगट-
हे काग भुसुण्ड़ि ज्यू! तुम इच्छा धारी छा, जब जस चॉछा उस रुप
धरि सकॅछा, पर पर तुमैल यो काग देह कसि पै? यो तुमन यतु प्यॉरि
किलकि छु? यो कथा सुणाओं, मै कन बड़ों अचरज है रौ।
मैल शिव ज्युक मुखल सुणौ कि पर्ल्लय हॅूण पर लग नाश निहॅुन- तुमर!
काग 0 गरुड़ थें-4 पाई -
सुन्दर पवितर तै छ शरीरा । ज्यैल भजी जैसकिं रघुबीरा।
कारण तन छोडुॅ न इछि मरणा। भजन, बिना तन होइ न सकना।।
छुटि न जून यसि जनम न जायो। मैल गरुड़ घुमि घुमि करि पायो।
पैलि मोह पड़ि जनम बिताणी। राम विमुख सुख सिति न पराणी।।
100 रठा - कोंनू सुणौ खगेश, पैल जनम म्यर कसिक बित।
नाशणि सगल कलेश, उपजि पिरिति हरिचरण मजि।।17।।
साखी उमा महेश, सियावर राम चन्द्र की जैै।।!
17
काग प्रगट में-हे गरुड़! तुमरि मति हुॅणि धन्य छ। तुमरि बात बड़ि प्यारी लैगे, मैकणि
आपणि, सब जनमों कि सुद ऐगे। आब् तुम मन लगैबेर सुणिया।
कदु जन्मोक पछा मैकन मनखी जून मिलि। वि में लै पैली बेर शूद्रक घर में म्यर जनम भय। सुणौं पेलिक तुमकणि शूद्रक भेद- समजानू-
पद - गायन
गारुड़! शूद्रक भेद बतानू।
सुणो! अपण मन गुणौ सभा सब, तुमरी शंक मिसानू।।टेक।।
मुख बामण छा हाथ छ छेत्री, पेटइॅ बणिया जाणौ।
खुट छन शूद्र सगल तन बोकणिं। सरग नरग को धाणौ।।गरुड़।।
वाणिक कपट, कुभोजन खाणी, मुख निछ ब्रह्म समाना।
तसै हाथ सब हूॅन न छेत्री, कदुकै हो बलवाना।।गरुड़।।
जो न बरोबरि करुॅ तन पोषण, वणियॉ पेट छ रोगी।
जो खुट कुवटॉ पड़ी सनातन। तैछ शूद्र - नर भोगी।।गरुड़।।
हे गरुड़! और लग सुणौ!:-
-: -
दुसरो गरुड़! सुणोंनू भेदा!
सृष्टिक चारै जात बणाई, विधिक विधान अछेदा।।टेक।।
पिण्ड़ल, पिण्ड पराण- सिजानी, क्वे छन अण्ड पराणा।
भियॉ फोड़ि जनमनि फिर बियुॅ बणि, उद्भिज सृष्टि तु जाणा।।दुसरो।।
अन्न फूल फल, सब वन्सापति, धरतिक जनमण भाई।
जो पराणि जीवक तन जनमी। स्वेदज वेद बताई।। दुसरो0।।
बामण - क्षेत्री बणिया शूद्रछ, तन मन करम भितेरा।
इनर भेद को आरोपण करि, समजूॅ वीछ चितेरा।।दुसरो0।।
काग - तब म्यर नाम छी दुर्दंम्भि - जस्सै म्यर नाम, उस्सै गुण काम।।
18
हे गरुड़! अब तुमुकें आपणि आघिल कथा सुणानू।
गरुड़ - सुणाओ! हम सब पंछी - जात सुणहुॅ भैटी छन।
काग भुशूण्ड़ि
2 हा - भौते पैलिक आछ जब, कलिजुग पापक मूल।
धरमकि इछि, नारि न पुरुष, अधरम की बगि कूल।।18।। जैल - जैल - हिलै करम की चूल, सियावर राम चन्द्र की ।। जै।।
राग देश- में सारे ग मे प ध नि सो, सा नि ध प मे ग रे सा।
सारे सा ग मे रे नि सा, या पकड़ - रेग रे सा, नि सा ध नि रे सा।
4 पाई- तै कलिजुग कोंशल पुर जनमा। शुद्र बिचारुॅक मनखक जनमा।
मातौ धन जोभन बैचाली। चन्ट बुदिध हिरदी अति काली।।
तौ कलि कालम भइॅ कस हाला। कस करिं कुबुधिल म्यरा बिहाला।
3 हा-
लोभ हड़पि शुभ कर्म, भई लोग कसि भोग बस। टेक। लोभ ह0।।
ज्ञानवान तुम गरुड़ सुणौ, कस भई तौ कलि धर्म ।।19।।
जै कणि सुणि ऐं शर्म। सियावर राम चन्द्र की जै।।
4 पाई0- मारनि गै वादनि धरि भूखी। मति गोपालुॅ कि कसि ख्वरि रुखी।
नामक केशव, करम कसाई । लोभि धनाक् सब - धरम नशाई।।
गरुड़ - राम राम हे रामः- हे काग! गैकणि माता बताई जॉ, तब के राजल् कैल के परबन्ध निकरों?
काग0- करो किलै निकर, उनल गोंरु - बाछाक् व्यौपार पर रोक लगै। ताकि
गैज्यान कसाई थे बचाई आवो।
गरुड़:- फिर के जो काम कसाइ्र करछी। उॅ खुद वी है लै
निर्दई किलै है - हुॅनाल? यो तौ महॉ पाप है गो-
राजक् - तै लै, मनख तैं लग।
के सन्त महात्मा लग चुप बैठी रयी?
19
काग0- सब गैरक्षा पर लगी छी, पर सब विवश हैगों छी।
पापकि मार भारि हे गेछी। पुण्य छींण हुॅण, वीक कारण लोग
कॉ गना हुॅछि कॉ डाम, धरणाकाम करण रछी। यो छी असल कारण। कलिकालल - राजा परजा सवों की मत्ति हरण करि हालि छी।
और-सुणौ:-
4 पाई0- पाप - पुण्य मजि समछी ज्ञानी। ईष्वर जीव ही एक बतानी।
सुरा पान बामण लगिं करणा। हूॅन न करम सुरा बिन बरणा।।
नामकि भगतिछ मान इॅ पाणा। अन्ध पधानक बीच छ काणा।
फोकनि छार लगानी अंगा। जोगिक भेख कुगुरु कै संगा।।
गरुड़ - य तै बड़ै अज्ञानता है गे, लोगों में। फिर के हौ अघिल? उ कलिकाल में।
काग0 - गरुड़ तुम समजदार छा, मैं सबौक सार सार सुणोंल। कलिकालाक हाल
सुणण में जनम बितजाल् मनखियक्।
100 रठा- तुम सूॅ हम ठुल जाणि, अबुझ कुनी तब, बूझ हुॅणि। ।।टेक।।
ऑख दिखानी ताणि, जाणॅू ब्रह्म सो बामण ।।20।।
वी बड़ ब्रह्मक ज्ञानि, सियावर राम चन्द्र की जै।।
4 पाई 0- गिरस्थि गरीब छलरु धनवाना। गरुड़! खेल कलि गणीन जाना।
जैकौ पाखण्डॅुक निछ अन्ता। सब कौनी तै हुणि बड़ सन्ता।।
गरुड़ - राम राम हरे राम ! संन्त लग हराण भई। संन्तान बिगड़िगे हुॅनलि? राजा तो प्रजाकन धर्म पर चलान्? राजा संन्तरी मंतरी लग धर्मक विपरीत है, गोछिया? सब हाल सुणाऔ।
काग - बैसी - छमासी यैक उदाहरण लेइ जै सकनी, जागर लगूॅण लग यै रुप मै देखी जै सकॅू ।
20
काग 0- छन्द - च्यल मानछिं बापु इजा तबलै। मुख देखि निभै तिय को जब लै।।
राज् पापि भई करिं धर्म न तौं। करनी नित तंग प्रजाकन ´ौं।।
यस तंत्र रचो मलि बै तलि कैं। सब लींछि चुहेड़ि तवै - पुर बै।
नत देखुॅन क्वे नत क्वे सुणनॉ। छॅन - ऑखिक अंध, भई कलि ऑ।।
धन लोभ बढौ उनमें उतुकै। राज् दीछि पगार बड़ै जदुकै।।
पर अन्त भलौ हुॅन ना तिनकौ। यस जाणि पछी, लत छूटि न तौ।
मिठि बाणि छुरी धरि धार लगै। दुनि मै इनरो अपणौ न सगै।।
गरुड़ - हे राम! हे शिवौ! बाड़ै खाण लागि उज्याड़। किलै बगि इनरि मत्ति गाड़।
फिर लै निमारी कैल डाड़?
काग0- क्याप्प कोंछाहा गरुड़! भुक मारनेर भै डाड़। मनमनें खननेर भै खाड़।।
उनर भरी मै लधौड़, चैनाचुपाड़, गुल्फिया ड्यौड़।।
2 हा0- सुणौ गरुड़ कलि कपट छल, इरिछा बैर जलेष।
लोभ मोह अर भोग मद, छाई कलिक कलेष।।29।।
ढॅूनि न मिलुछ हरेष, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
छन्द
मिलॅु आदर नें सुकवीन कथें। अकवी, कविता मिलु मान उथै।
कलि सालक साल अकाल पड़ी। बिन अन्न दुःखी मरी लोग सड़ी
गुड़ तेलक सागक दाम बड़ी। मिलॅु अन्न न पाणि तराहि पड़ी
वरसूॅ जल के सुक घोर पड़ुॅ। अति बर्खल कैं भुमि भ्योल रडॅू।
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आखें होने पर भी जो अन्धे हो जाते है।
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