Author Topic: Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख  (Read 62459 times)

Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै २८.०७.२०१६

चनरदा क चौथूं औप्सन   

     यूं चनरदा को छीं हो ? सत्यनारायण कथा में क्विज कांटेस्ट वालि चिठ्ठी (कुर्मांचल अखबार ११ जुलाई २०१६ ) में लै चनरदा कि चर्च करि चुकि गोयूं | समाज में अंधविश्वास और भ्रष्टाचार क विरोध में गिच खोलण कि हिम्मत करणी हरेक कर्म-पुजारि ‘चनरदा’ छ | चनरदा भ्रष्टाचार और अंधविश्वास क विरोध हर जागि करनीं पर उनुकैं समाज क उतू  सहयोग नि मिलन जतू उनुकैं उम्मीद हिंछ | लोग भ्रष्टों देखि डरनी पर गिच खोलण क बजाय मसमसाते रौनी | घूस ल्हींण, बिना काम करिए तनखा ल्हींण, आपण कर्त्यव्य कैं भुलि जाण, यूं सब भ्रष्टाचार कै रूप छीं | सरकारि कर्मचारियों कि छवि हमार देश में ठीक न्हैति | उनुहैं कुछ लोगों द्वारा ‘सरकारि सांड’ या ‘सरकारि जवै’ कैते हुए सुणी जांछ | कर्म करि बेर तनखा ल्हिणियां और भ्रष्टों क दगड़ नि करणियाँ कैं य बदनाम भौत चुभौं | पुलिस में भाल लोग लै छीं पर कुछ पुलिसियाँ ल पुर महकमें पर दाग लगै रौछ |

     कुछै दिन पैली बदेलि है बेर आई चनरदा कैं आपण नई दफ्तर भल नि लाग | वां हरामखोरी त छी पर कएक क़िस्म क भ्रष्टाचार लै फ़ैली हुई छी | एक दिन ड्यूटी क टैम क बाद चनरदा आपण बौस हुणि मिलि बेर कौण लाग, “सैब म्यार लिजी यां काम करण भौत मुश्किल छ | खुलेआम सब कुछ हूं रौ यां, हाम लै बदनाम है गोयूं | पुर विभाग कलंकित हैगो | आपूं कैं पत्त छ या न्हैति ? चनरदा कि पुरि बात सुणण बाद बौस ल जबाब दे, “देख भइ चनर मीकैं यां ज्ये लै हूंरौ सब पत्त छ और माथ वलां कैं लै सब पत्त छ | य लाइलाज बीमारी आजकल सब जागि छुतिय रोग कि चार फैलि गे | आपण काम कर और टैम पास कर, टैनसन नि लै |” चनरदा बलाय, “सैब, य सब म्यार कैल बरदास्त नि हूं रय | लोग सबूं हैं चोर, नमक हराम और पत्त न क्ये क्ये गाई दी जानी | म्यर दम घुटें रौ यां |”

     य दफ्तर क बौस भ्रष्ट नि छी पर भ्रष्टों कैं रोकण में वील हात ठाड़ करि हैछी | जब भौत समझूण पर लै चनरदा नि मान तो बौस बलाय, “देख भइ चनर, अब तू नि मानै रयै  तो त्यार सामणि तीन आप्सन (विकल्प) छीं | पैल- तू इनू दगै ख़ुशी- खुशी मिलि जा, दुसर- इनुकैं देखिय क अणदेखी करि बेर पुठ फेरि लै और तिसर- तू यां बै आपणि बदेलि करै लै जमें मैं त्येरि मदद करण कि कोशिश करुल, ल्ही- दी बेर सब काम है जांछ | बर्ना न दुखी हो और न दुखी कर | अच्याल सब जागि यसै चलि रौ |” भौत देर है गेछी | बौस कैं यकलै छोड़ि बेर चनरदा आपण मूड ऑफ करि बेर घर हुणि निकलि गो |

      दुसार दिन रत्ते रोज कि चार चनरदा टैम पर दफ्तर पुजि गोय | बौस ल आते ही चनरदा हुणि सीध सवाल करौ, “हाँ भइ चनर, बता पै को औप्सन पर टिक करौ त्वील ? मूड त ठीक छ त्यर ? रात भली नीन ऐ छ नि आइ ? खुश रई कर यार, य यसिके चलते रौल | कयेकों ल यैकैं रोकण क वैद करीं और कोशिश लै करी पर उई ढाक क तीन पतेल |”  चनरदा ल जेब बै एक कागज़ निकालनै बौस उज्यां बढ़ा, “सैब, एक चौथूं औप्सन लै छ | लेखि बेर दीं रयूं आपूं कैं य काग़ज में |” बौस ल कागज पढ़ि बेर एक लामि सांस खैंचण क बाद भृकुटी ताणनै कौ, “ य क्ये छ रै चनरिया ? तू त चीफ हुणि दफ्तर कि पुरि बिरखांत लेखैं रौछे | यास में त हमार दफ्तर कि इन्क्वारी बैठि जालि | मी त मरुल, तू लै सबूं क अखां में ऐ जालै |” “सैब, घुटन में ज्यौंन रौण है अखां में औण भल | देखि ल्युल ज्ये ह्वल,” चनरदा ल विनम्रता क साथ कौ | बौस सानी- सानि बलाय, “मीकैं एक मौक दै | मी यूं निगुरी क ढाटों कैं समझूल | य कागज़ आपण पास धर | जरवत पड़ण पर त्यहू बै ल्ही बेर  चीफ हुणि भेजि द्युल |”

     य लामि बिरखांत कैं नानि करण चानू | चनरदा क य हिम्मत ल दफ्तर में भौत कुछ बदलि गो | य बिरखांत सांचि छ, काल्पनिक बिलकुल न्हैति | आखिर में सबूं हैं कौण चानूं  कि चनरदा बनो, मसमसाण ल जरूर घुटन हिंछ और घुटन ल बी पी बिगड़ि जांछ जो घातक लै सकूं | आपूं कैं डरौ ना बल्कि ललकारो पर यैक लिजी ईमानदार बनण पड़ल | इतिहास साक्षी छ, कुछ ईमानदारी क पहरुओं ल य सब करि बेर देखै रौछ | 

पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
२८.०७.२०१६         


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१०६ : हिमाचल प्रदेश से सीखे उत्तराखंड
 
        भारत के ग्यारह पहाड़ी राज्यों में दो राज्य उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश भी हैं | हिमाचल प्रदेश को अस्तित्व में आये ४५ वर्ष ( २५ जनवरी १९७१ ) हो गए हैं जबकि उत्तराखंड को अस्तित्व मैं आये अभी १६ (९ नवम्बर २००० ) वर्ष ही हुए हैं | इन दोनों राज्यों की भू-संरचना, जलवायु, रहन- सहन, संस्कृति और वनाच्छादन लगभग एक जैसा है | जब इन दोनों राज्यों के विकास की तुलना होती है तो एक ही बात से सबकुछ समझाने का प्रयास होता है कि हिमाचल बहुत पुराना राज्य है इसलिए उत्तराखंड से हर क्षेत्र में आगे है | उत्तराखंड भलेही देर में बना परन्तु वहाँ के जन-प्रतिनिधि तो स्थानीय ही थे जैसे राज्य बनने के बाद के हैं | पिछड़ने का कारण हमेशा ही नीति निर्माण और दूरदर्शिता की कमी, भ्रष्टाचार, निज- स्वार्थ तथा क्रियान्वयन में अकर्मण्यता ही रही |
 
       एक समाचार के अनुसार हिमाचल प्रदेश के वर्तमान राज्यपाल देवव्रत जी ने राज्य में एक त्रिकोणीय जनहित कार्यक्रम चलाया है जिस पर ना-नुकुर के बाद राज्य सरकार ने क्रियान्वयन आरम्भ कर दिया है | इस त्रिकोणीय कार्यक्रम में सबसे पहला कदम है राज्य की अफीम और गांजे की फसल को नष्ट करना | यह कदम पंजाब की तरह हिमाचल प्रदेश को नशे की गिरफ्त में आने से बचाने के लिए उठाया गया है | नारकोटिक्स विभाग के अनुसार राज्य में अफीम और चरस का व्यापार तेजी से फ़ैल रहा है | इस हिमालयी राज्य में पनप रही नशे की खेती को नष्ट करने का कार्यक्रम अब बड़ी तेजी से गतिमान बताया जा रहा है |
 
       राज्यपाल महोदय का दूसरा कदम बेटी बचाओ से सम्बंधित है | इस कार्यक्रम के अंतर्गत राज्य में जब किसी के घर बेटी जन्म लेती है तो उस घर में मंगल गीत गाने के लिए महिलाओं की टोली भेजी जाती है और उस परिवार को एक पालना भेंट किया जाता है | तीसरा काम पर्यावरण और हरियाली बचाने सम्बंधी है | इस कार्यक्रम में बच्चों के जन्मदिन या माता- पिता के स्मृति दिवस पर पौध रोपण किया जाता है | बताया जाता है कि राज्यपाल ने अपनी पत्नी के ५२वे जन्मदिन पर ५२ पौधे रोपित कर इस अभियान को आरम्भ किया | रोपित पौधों के देखरेख की जिम्मेदारी कुछ युवाओं को दी गयी है जिन्हें नौकरी पर रखा जा रहा है | प्रत्येक पौधे का रिकार्ड रजिस्टर में अंकित होता है ताकि किसी प्रकार की कोताही न हो और पौधा पेड़ बन कर फूले- फले | राज्यपाल हिमाचल प्रदेश को सिक्किम की तरह ( देश का पहला जैविक राज्य ) जैविक खेती वाला राज्य बनाना चाहते हैं तथा राज्य को विकास की ओर अग्रसर करना चाहते हैं | अब राज्यपाल महोदय राज्य में दलितों को मंदिर प्रवेश दिलाने का प्रयास कर रहे हैं |
 
        देश के २७वां राज्य उत्तराखंड में इस तरह के कर्यक्रम जमीनी तौर पर नहीं दिखाई देते | नशा और अंधविश्वास को सिंचित होते वहां जरूर देखा गया है जब समाचारों में था कि भांग की खेती को रेसे के लिए बढ़ावा मिलेगा और संस्कृति –प्रथा- परंपरा के नाम पर गणतुओं तथा जगरियों- डंगरियों को पैंसन मिलेगी | कुछ दिन पहले यह चर्चा उत्तराखंड में जोरों पर थी | वैसे भी खरीफ की फसल के साथ खेत के तीरे या किनारों पर भांग के बड़े- बड़े पेड़ वहां देखे जा सकते हैं जिनसे चरस और गांजा निकाला जाता है | देखा गया है भलेही किसी भी दल की सरकार राज्य में रही हो उसकी चिंता विकास या प्रगति पर कम बल्कि वोट पर अधिक होती है | वोट के खातिर कोई भी योजना या स्कीम चलाना उसकी प्राथमिकता होती है भलेही उससे जनहित हो या न हो | दूसरी समस्या यह है कि जनहित की योजनाओं का नियमित निरीक्षण नहीं होता जो शराब- पोषित मिलीभगत से पनपे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं | अंत में राज्य को ‘देवभूमि’ कहते हुए किसी भी देवता का नाम लेने के बाद उसपर छोड़ दिया जाता है | अपने पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश से उत्तराखंड की सरकारों को कुछ तो अवश्य सीखना चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और ...
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल,
३०.०७.२०१६


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१०७ : इसे ‘इज्जत लुट गई’ मत कहो

    समाज में नरपिसाचों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है | उन्हें सजा या क़ानून का डर नहीं होता | शिशु कन्या से लेकर वृद्धा तक इनसे असुरक्षित हो गयी हैं | बलात्कार के नित ने कांडों से हैवानियत भी शर्मसार हो रही है | रात्रि ही नहीं दिन में स्त्री- जात सुरक्षित नहीं है | दुष्कर्मी बेखौप घूमते हैं | इन वहशियों के अपने कोई रिश्ते नहीं होते | ये नरपिसाच देखने में आम आदमियों जैसे ही होते हैं जो अपनों के बीच में भी देखे गए हैं और जिनकी पहचान करना कठिन है | बलात्कार का मर्ज नरपिसाचों की हैवानियत ग्रस्त  लाइलाज बीमारी है तभी तो ये एक छोटी सी गुड़िया से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्धा तक को अपना शिकार बनाते हैं |

     आज हम सदमे में हैं, हम दुखित हैं, हम कंपायमान हैं क्योंकि हमारे  इर्द-गिर्द रोज बलात्कार की घृणित घटनाएं हो रही हैं जिनमें प्रति दस में केवल एक ही घटना पुलिस तक पहुंचती है | समाज विज्ञानियों का मानना है कि ९०% रेप केस पुलिस अविश्सनियता, न्याय में देरी और सामाजिक सोच (सोसियल स्टिग्मा) के कारण अदृश्य घुटन में छटपटाते हुए लुप्त हो जाते हैं | देश को २००५ के दिल्ली गेट रेप काण्ड, २०१० के धौलाकुआ दुष्कर्म केस, २०१२ के निर्भया हैवानियत काण्ड, इस बीच अनगिनत अन्य रेप कांडों और २९ जुलाई २०१६ के बुलंदशहर हाइवे रेप- लूट काण्ड ने दहला कर रख दिया |

     बढ़ते हुए रेप केसों के मध्यनजर पुलिस या क़ानून की और देखकर दुःख और निराशा होती है | बताया जा रहा है कि २९ जुलाई २०१६ की रात्रि को जिस हाइवे पर यह घृणित कुकृत्य हुआ उस दिन पुलिस रजिस्टर में उस क्षेत्र में छै पीसीआर वाहन ड्यूटी पर थे | यदि ये वाहन ड्यूटी पर होते तो ऐसी जघन्य बारदात नहीं होती | नरपिसाचों को पुलिस का रवैया पता होता है इसलिए वे बेडर ऐसे संगीन अपराध करते हैं | पता नहीं हमारी सुप्त पुलिस कब जगेगी ? जो भी कारण हों हमारे देश में न्याय में देरी भी एक अभिशाप है | दिसंबर २०१२ के निर्भयाकांड के चार वर्ष बीतने पर भी उस काण्ड में लिप्त नरपिसाच सजा सुनाये जाने के बाद में फांसी पर नहीं चढ़े हैं | कभी अपील, कभी पुनर्विवेचना, कभी लूपहोल का लाभ लेते हुए न्याय को लंबित किया जा रहा है | निर्भया २९ दिसंबर २०१२ को तड़प-तड़प कर चल बसी परन्तु उसकी सिसकती आत्मा की आवाज आज भी हमारी कानों में गूंजती है,  “कब मिलेगी उन दरिंदों को फांसी ? कब मिलेगा मुझे न्याय ?” 

     बलात्कार की शिकार स्त्री- जात का असहनीय शारीरिक और मानसिक पीड़ा से मुक्त होना बहुत कठिन है | इससे भी बढ़कर है सामाजिक दंश की पीड़ा | हमारे समाज में स्त्री के साथ इस तरह की घटना होने पर ‘इज्जत लुट गई’ कह दिया जाता है जो सर्वथा अनुचित और शर्मनाक है | इस सामाजिक दंश की पीड़ा इतनी भयानक और अकल्पनीय है की कुछ पीड़ितायें तो आत्म-हत्या तक कर लेती हैं | यह ठीक नहीं है और समाज के लिए शर्म की बात है | पीड़ित को तो इसमें कोई दोष ही नहीं है फिर वह स्वयं को क्यों सजा दे ? यदि उस समय वह उस दंश के सदमे से उबर जाए तो आत्म- हत्या से बच सकती है | उस समय उसे सामाजिक, चिकित्सकीय और मनोवैज्ञानिक उपचार के अत्यधिक जरूरत होती है |

     दुष्कर्म पीड़िता को यह सोचकर हिम्मत बांधनी होगी कि वह स्वयं को क्यों सजा दे ? उसने तो कोई अपराध नहीं किया और न उसका कोई कसूर | सिर्फ स्त्री -जात होने के कारण उसका शिकार हुआ है | उसे स्वयं को समझाना होगा कि वह एक नरपिसाच रूपी भेड़िये का शिकार हो गयी थी | उसे अपनी  पीड़ा को सहते हुए, टूटे मनोबल को पुनः जागृत कर जीना होगा और नरपिसाचों को सजा दिलाने में क़ानून की मदद करनी होगी जो बिना उसके सहयोग के संभव नहीं हो सकेगा | यों भी जंगली जानवरों द्वारा काटे जाने पर हम उपचार ही तो करते हैं | हादसा समझकर इसे भूलने के साथ- साथ इन भेड़ियों के आक्रमण से बचाव का हुनर भी अब प्रत्येक महिला को  सीखना होगा और हर कदम पर अपनी चौकसी स्वयं करनी होगी | बलात्कारियों को शीघ्र कठोरतम दंड मिले, यह पीड़ित के लिए दर्द कम करने की एक मरहम का काम करेगा | साथ ही अब समाज के बड़े- बुजर्गों, बुद्धिजीवियों, धर्म गुरुओं, पत्रकर- लेखकों, सामाजिक चिंतकों और महिला संगठनों को जोर-शोर से कहना पड़ेगा के इसे ‘इज्जत लुटने’ या ‘इज्जत तार तार होने’ वाली जैसी बात नहीं समझें और ‘उक्त शब्दों’ से मीडिया और टी वी चैनलों को भी परहेज करना होगा ताकि दर्द में डूबी निर्दोष पीड़िता को जीने की राह मिल सके | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०३.०८.२०१६ 

Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै

फिल्म ‘उड़ता उत्तराखंड’ (व्यंग्य)

     कुछ दिन पैली देश में एक फिल्म प्रदर्शित हैछ “उड़ता पंजाब” जैक रिलीज हुण है पैलिकै भौत हो-हल्ल है गोय | पंजाब में जो कुर्सी में छी उनूल कौ य पिक्चर ल पंजाब कि बदनामी ह्वलि कि पंजाब नश में वड़ा रौ | पंजाब कसिक नश क शिकंज में फंसौ य जग जाहिर छ फिर नश क विरोध में जनजागृति करण क लिजी फिल्म बनी तो उ पर बेकार क रुण शुरू है गोय | सेंसर बोर्ड ल लै य पर छियासी कट लगै दी और ‘पंजाब’ शब्द कैं हटूण कि  बात लै कै दी | यैक विरोध में देश एकजुट है गोय क्यलै कि फिल्म देशहित में छी | अंत में फिल्म ‘ए’ प्रमाणपत्र क साथ रिलीज हैछ और फिल्म ल  बॉक्स आफिस पर भौत भल प्रदर्शन करि बेर रुपैंनों क लुट लगा |

     फिल्म रिलीज होते ही उत्तराखंड क एक जानीमानी फिल्मकार (नाम बतूण क लिजी धमकै बेर मना करि गईं ) म्यार पास आईं और यई तर्ज पर उत्तराखंड क बार में क्वे फ़िल्मी पटकथा लेखण कि बात कौण लागीं | मील उनूहैं भौत विनम्रता ल पुछौ ( मन में डर छी कि बड़ि मुश्किल ल एक फिल्मकार म्यर जस टटपुजिय लेखक क पास ऐरौ, कैं नाराज है बेर न्हें झन  जो और पटकथा लेखण क चांस म्यार हात बै रपटि बेर क्वे दुसर लेखक झन झपटि ल्यो ), “सैब आपूं पैलिकै बतै दियो कि फिल्म में क्ये मुद्द कि चर्चा करण न्हैति ताकि सेंसर बोर्ड बटि एक्कै झटक म प्रमाणपत्र उछइ बेर तुमार जेब में ऐ जो |”

     फ़िल्मकार भृकुटी ताननै -मूंछें डौरूनै बलाय, “होय यार त्वील ठीक कौ, भलि याद द्यवे वरना फिल्म बनूण क बाद मीकैं ‘उड़ता पंजाब’ कि चार सबूं क साथ लै नि मिलवा |” मील पुछौ, “सैब, आपूं यस कसी कूं रौछा ?” ऊं बलाय, “म्यार सुणण में ऐछ कि देश कि राजधानी महानगरी दिल्ली में उत्तराखंडियों कि संख्या १५ बटि २५ लाख तक बतायी जैंछ जनार सैकड़ों  संस्था लै बनी हुई छै बल पर यूं नेतागिरी क वजैल एकजुट नि हुन बल |” पटकथा म्यार हात बे रपटि झन जो मील मुदद बदलि दे, “सैब आपूं स्पष्ट बतै दियो कि पटकथा में क्ये बात कि चर्चा नि हुण चैनि ताकि मी उ हिसाब ल कलम घैंसाई करुल |”

       फिल्म निर्माता बलाय, “भैया ध्यान लगै बेर सुणि लै जे मुद्द मी तिकैं बतूं रयूं उनरि चर्चा नि करते हुए त्वील एकदम हिट हुणी पटकथा लेखण छ | सुण- सबूं है पैली त तू राज्य बनते ही सही आदिम कैं मुख्यमंत्री कि कुर्सी में नि भटाव यैकि चर्चा झन करिए और राज्य आन्दोलनकारियों एवं ४२ शहीदों क नाम लै झन ल्हिये और आज तलिक क आठ मुख्यमंत्रियों कि क्ये लै कमियों कि बात झन करिए | राज्य में व्याप्त अन्धविश्वास, पशु बलि, दास- डंगरियों, गणतुओं, पुछारों, तांत्रिकों और जागर- मसाण कि चर्चा लै नि हुण चैनि | शराब, धूम्रपान, नश, गुटका, अत्तर, चरस, गांजा सहित सूर्य अस्त- पहाड़ मस्त वालि बात लै झन करिए | शिक्षा, रोजगार, पाणि, सड़क, बिजुलि, बाँध और स्वास्थ्य क ज़रा लै जिगर नि हुण चैनि | स्कूलों में मास्टरों कि कमी और शिक्षा कि गुणवता कि कमी लै झन बते और शिक्षा विभाग पर क्वे किस्म क कटाक्ष या चुहुलबाजी नि हुण चैनि |”

     एक लामि सांस खैंचनै ऊँ बतूनै गईं, “राजधानी गैरसैण बनूण और पलायन क मुद्द पर त गलती क साथ लै झन लेखिये | जल- जंगल- जमीन और खनन माफिया, आग माफिया सहित दिनोदिन बिगड़णी पर्यावरण पर लै क्ये झन लेखिये | कागजी एन जी ओ और पुलिस सहित सरकारी दफ्तरों एवं पंचायती राज क तीनै स्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लै चुप रे | रेलमार्गों क निर्माण, पर्यटन स्थलों में लूट और जां- तां अवैध कब्ज पर बिलकुल चुप रे   | सुवर- बानर- नीलगाय- मनखीबाग़ –गुलदाड़ पर लै गिच खोलण या कलम चलूण कि जरवत न्हैति | दलित और महिला शोषण पर लै कोई बात नि हुण चैनि |  उत्तराखंडी भाषाओँ कैं मान्यता दिलूण सहित क्वे लै ज्वलंत मुद्द पर क्ये लै झन लेखिये | झिमौड़ कि पूड़ पर खचक मारण क्ये जरवत न्हैति | क्ये हूं कौण है रौ ‘आ बलदा मीकैं मार ?”
     यतू कै बेर फिल्मकार ज्यु कुतिकि गाय | मी तब बटि लगातार सोचै रयूं कि उत्तराखंड क को मुद्द पर पटकथा लेखी जो ताकि फिल्म कैं सेंसर बोर्ड क सार्टीफिकेट लै मिल जो और फिल्म हिट लै है जो, क्ये कनी उ ‘स्याप लै मरि जो और लट्ठ लै नि टुटो |’ है सकल त क्वे बतूंण क कष्ट करिया, पटकथा पर जो लै रौयलटी मिललि उमें हिस्सदारी दिई जालि |

पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
 ०४.०८.२०१६

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१०८ : दलित क्यों बन रहा है रॉबर्ट या अली 

      एक समाचार चैनल के अनुसार दक्षिण भारत के एक राज्य में कुछ दलित अपना धर्म परिवर्तन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मंदिर में प्रवेश होने से वंचित कर दिया गया | अधिकतर मंदिर हिन्दुओं द्वारा ही संचालित होते हैं और दलित भी हिन्दू हैं पर उन्हें चौथे वर्ण का हिन्दू माना गया है | संविधान में तो सब बराबर हैं पर आज भी दलित सामाजिक न्याय के लिए तरस रहे हैं | जब इन दलितों को हिंदू सम्प्रदाय वाले ही राम की तरह गले लगाना तो दूर, राम के मंदिर (या किसी भी मंदिर) में ही प्रवेश नहीं होने देंगे तो ये कहां जायेंगे ? व्यथित होकर वे धर्म बदलकर ‘रॉबर्ट या अली’ बनने  को मजबूर होंगे | जब अपने ही धर्म में उन्हें अछूत समझा जाता है तो वे उस धर्म में रहेंगे क्यों ? आजादी के ६९ वर्ष बाद भी इस तरह की कएक शर्मनाक घटनाएं हमारे देश में आये दिन घट रही हैं |

     हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल देवव्रत आचार्य नशा मिटाओ, बेटी बचाओ और हरियाली बनाओ के बाद अब राज्य के मंदिरों में दलित प्रवेश का बीड़ा उठा रहे हैं जहां दलितों को मंदिरों में पूजा करने की मनाही बतायी जाती है | कहा जाता है कि राजनीति से दूरी बनाए रखने वाले आचार्य रुढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ने के लिए मशहूर हैं | इसी तरह उत्तराखंड में भी कुछ दिन पहले एक मंदिर में दलित परिवार को प्रवेश नहीं होने दिया गया जिस पर जिलाधिकारी ने कानूनी कार्यवाही के आदेश दिए | कुछ महीने पहले चित्रकूट में भी एक मूर्ति को छूने पर एक दलित महिला को प्रताड़ित किया गया | देश के किसी भी भाग में आये दिन इस तरह की शर्मनाक घटनाएं समाचार पत्रों और समाचार चैनलों की सुर्खियाँ बनते रहती हैं |

     प्रवचनों में तो शबरी और निषाद की तरह दलितों को गले लगाने की बात हम सुनते हैं परन्तु जमीन में अभी भी सामाजिक न्याय बहुत दूर है | देश में दलित आबादी हमारी कुल जनसँख्या के लगभग १६ % हैं जिनमें ४५ % निरक्षर और ५४ % गरीब –कुपोषित हैं | हम सब देख रहे हैं कि कुंआ, मंदिर, घर, चौखट और चौपाल से दलितों को दूर रखा जाता है | दलितों में एक वर्ग मैला ढोने वालों का भी है जो आज इस वैज्ञानिक युग में देश के लिये बड़े शर्म की बात है | एक आन्दोलन इनके लिए क्यों नहीं चलाया जाता ? देश में कई यात्राएं निकलती हैं | एक यात्रा इनके नाम पर भी तो निकालो, मिलकर इनके पक्ष में आवाज तो उठाओ | धर्म के सच्चे रक्षक निर्दोषों पर अमानवीय व्यवहार कभी नहीं कर सकते परन्तु हम यह सब देख रहे हैं |

     इस दौरान एक सुखद क्षण की भी अनुभूति हुई कि जब ३२ वर्ष से मैला ढोने की कुप्रथा के उन्मूलन हेतु आन्दोलन करने वाले कर्नाटक के पचास वर्षीय बेजवाड़ा विल्सन को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार- २०१६ (एशिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ) से सम्मानित किया गया | विल्सन के अनुसार, ‘मैला ढोना भारत में मानवीयता पर कलंक है | मैला ढोना शुष्क शौचालयों से मानव मल-मूत्र को हाथ से उठाने और उस मल- मूत्र की टोकरियों को सिर पर रखकर निर्धारित निपटान स्थलों पर ले जाने का काम है जो भारत के ‘अस्पृश्य’ दलित उनके साथ होने वाली संरचनात्मक असमानता के मद्देनजर करते हैं |’

      मैला ढोना एक वंशानुगत पेशा है और जिसे देश के १.८ लाख दलित परिवार देश भर में करीब ७.९ लाख सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत शुष्क शौचालयों को साफ़ करते हैं | मैला ढोने में अधिकांश महिलायें या लड़कियां हैं जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है | संविधान एवं क़ानून शुष्क शौचालयों और मानव से मैला ढोने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं लेकिन इन्हें लागू नहीं किया गया है | मैला ढोने वालों को भी अब इस अमानवीय कर्म को त्याग कर अपने गुजारे हेतु कुछ अन्य मजदूरी करने का प्रण करना होगा तभी वे इस कलंक से छुटकारा पा सकते हैं | साथ ही समाज के सभी वर्गों- सम्प्रदायों को  दलित समाज के साथ कोई भी घृणित व्यवहार नहीं करना चाहिए ताकि कोई दलित राबर्ट या अली बनने के नहीं सोचे | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
०७.०८.२०१६   


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत- १०९ : रिइवैलुयेशन का फेर 

    रिइवैलुयेशन अर्थात पुनर्मूल्यांकन का तात्पर्य हम सब जानते ही हैं | नाम का रिइवैलुयेशन तो है पर चलेगी उनकी ही | पढ़िए रिइवैलुयेशन की एक कहानी, चनरदा की ज़ुबानी | चनरदा बताते हैं, “मेरे मित्र के पुत्र ने इस साल १२वीं कक्षा उत्तीर्ण की परन्तु विद्यार्थी परिणाम से संतुष्ट नहीं हुआ | छै में से पांच विषयों में उसके औसत अंक ९०% थे परन्तु गणित में मात्र ३६ अंक ही पाए थे उसने | गणित के अंक देखते ही उस मेधावी छात्र को बड़ा धक्का लगा | अभिभावक भी हक्का-बक्का रह गए | जिसकी कल्पना भी नहीं थी वो अनहोनी कैसे घट गई | सभी दंग रह गए थे | गणित के ३६ अंक किसी को भी नहीं पच रहे थे | घर से लेकर विद्यालय तक जो भी सुने किसी को भी विश्वास नहीं हुआ परन्तु मार्कशीट में भी यही था | निराशा से उभर कर सबने रिइवैलुयेशन की सलाह दी |”

     आश्चर्य में डूबे हुए चनरदा बताते गए, “रिइवैलुयेशन के भंवर में घुसना अभिभावकों के मजबूरी थी | उन्हें बेटे के अधिक अंक आने का पूरा विश्वास था | रिइवैलुयेशन का तीन स्तरीय भंवर कुछ अधिक ही घुमावदार था | पहले स्तर में केवल अंकों की पुनर्गणना अर्थात रिकाउन्टिंग होनी थी जिसकी फीस  तीन सौ रुपये थी | दूसरे स्तर में उत्तरपुस्तिका (आंसरशीट) देखी जा सकती थी जिसके लिए सात सौ रुपये देना था और तीसरे स्तर में उत्तरपुस्तिका के विद्यार्थी द्वारा बताये गए मात्र दस प्रश्नों का पुनर्मूल्यांकन होना था जिसकी फीस देनी थी एक हजार रुपये | सब मिलाकर दो हजार रुपये रिइवैलुयेशन  का खर्च तो छात्र को उठाना ही था | फीस अदायगी के पापड़ ऑन लाइन ही बेलने- झेलने का नियम था |” 

    रिइवैलुयेशन की बिरखांत चनरदा ने जारी रखी, “मेरे मित्र के पुत्र ने सबसे पहले तीन सौ रुपये भुगतान कर पहला स्टैप उठाया | देखा तो अंकों का योग ३६ ठीक था | दूसरे चक्र में सात सौ रुपये देकर उत्तर पुस्तिका देखी | प्रश्नपत्र के सभी २६ प्रश्न छात्र ने हल किये थे | उत्तर पुस्तिका देखने पर पता चल की २६ में से मात्र ८ प्रश्न निरीक्षक ने देखे थे जबकि शेष १८ पर कुछ न कुछ तकनीकी कारणों से क्रॉस लगा दिया था | इन १८ प्रश्नों में से किन्हीं १० का पुनर्मूल्यांकन किये जाने का नियम बताया गया | विद्यार्थी ने एक हजार रुपये भुगतान देकर १० प्रश्नों का रिइवैलुयेशन कराया गया जिसमें मात्र १९ अंक बढ़े | दो हजार रुपये खर्च करने और गहरे मानसिक तनाव से गुजरने के बाद अब उसके ५५ अंक हो गए थे जो छात्र के मूल्यांकन के अनुसार अब भी कम से कम ३० अंक कम थे | विद्यार्थी के अनुसार उसके गणित में कम से कम ८५ % अंक आने की पूर्ण संभावना थी |”

     चनरदा के अनुसार इस प्रक्रिया में छात्र को परीक्षा बोर्ड के शर्तों के अधीन ही रहना होता है | निरीक्षक कुछ भी करे उसे छूट है जिसे कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती | सबसे अधिक अखरने वाली बात है की सभी १८ प्रश्नों का रिइवैलुयेशन क्यों नहीं करने दिया गया ? रिइवैलुयेशन की सीमा का प्रावधान मात्र १० प्रश्नों तक ही क्यों सिमित है,  यह प्रश्न अनुतरित है | ऐसा कई विद्यार्थियों के साथ होता है जो वक्र नियमावली के कारण रिइवैलुयेशन नहीं कराते | क्या देश की परीक्षा लेने वाली सभी संस्थाएं इस नियमावली को अधिक तर्कसंगत अथवा लचीला बनाने की ओर कदम उठायेंगी ? अगली बिरखांत में कुछ और ....

पूरन चन्द्र काण्डपाल
११.०८.२०१६


Pooran Chandra Kandpal

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 दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै

 कारगिल क रणबांकुर ( विजय दिवस : २६ जुलाई ) 

     हर साल २६ जुलाई हुणि हम ‘विजय दिवस’ १९९९ क कारगिल युद्ध में जीत कि याद में मनूनू | कारगिल भारत क जम्मू-कश्मीर राज्य में श्रीनगर बटि २०५ कि. मी. दूर श्रीनगर -लेह राष्ट्रीय राजमार्ग पर शिंगो नदी क दक्षिण में समुद्र सतह बटि दस हजार फुट है ज्यादै ऊँचाई पर स्थित छ | मई १९९९ में हमरि सेना कैं कारगिल में घुसपैठ क पत्त चलौ | घुसपैठियों कैं खदेड़ण क लिजी १४ मई हुणि आपरेशन ‘फ़्लैश आउट’ एवं २६ मई हुणि आपरेशन ‘विजय’ और कुछ दिन बाद भारतीय वायुसेना द्वारा आपरेशन ‘सफ़ेद सागर’ आरम्भ करी गो | यूं द्विये आपरेशनों ल कारगिल बटि उग्रवादियों क वेश में आयी पाकिस्तानी सेना क सफाया करी गो | य युद्ध क वृतांत मील आपणी किताब ‘कारगिल के रणबांकुरे’ ( संस्करण २०००) में लेखण क प्रयास करौ |

     य युद्ध ११००० बटि १७००० फुट कि ऊँचाई वाल दुर्गम रणक्षेत्र मश्कोह, दरास, टाइगर हिल, तोलोलिंग, जुबेर, तुर्तुक और काकसर सहित कएक दुसार ह्यूं ल ढकी ठुल पहाड़ों पर लड़ी गो | य दौरान सेना कि कमान जनरल वेद प्रकाश मलिक और वायुसेना कि कमान एयर चीफ मार्शल ए वाई टिपनिस क हात में छी | य युद्ध में भारतीय सेना ल निर्विवाद युद्ध क्षमता, अदम्य साहस, निष्ठा, बेजोड़ रणकौशल और जूझण कि भौत अद्भुत शक्ति क परिचय दे | हमरि सेना में मौजूद फौलादी इराद, बलिदान कि भावना, शौर्य, अनुशासन और स्वअर्पण कि अद्भुत मिसाल शैदै दुनिय में कैं और देखण में मिलो | य युद्ध में भारतीय सेना क जांबाजों ल न केवल बहादुरी कि पुराण परम्पराओं कैं बनै बेर धरौ बल्कि सेना कैं देशभक्ति, वीरता, साहस और बलिदान कि बेमिशाल बुलंदियों तक पुजा | य युद्ध में हमार पांच सौ है ज्यादै सैनिक शहीद हईं जमें उत्तराखंड क ७३ शहीद छी और करीब एक हजार चार सौ सैनिक घैल लै हईं |

     कारगिल युद्ध क दौरान हमरि वायुसेना ल लै आपरेशन ‘सफ़ेद सागर’ क अंतर्गत अद्वितीय काम करौ | शुरू में वायुसेना ल कुछ नुकसान जरूर उठा पर शुरुआती झटकों क बाद हमार अगास क रखवाल झिमौडू कि चार दुश्मण पर चिपटि पणी | हमार पाइलटों ल  अगास बै दुश्मण क पड्याव में यस बज्जर डावौ जैकि कल्पना दुश्मण ल लै कभै नि करि हुनलि जैल य लडै कि दशा और दिशा में पुरि तौर पर बदलाव ऐगो | वायुसेना कि सधी और सटीक बम- वर्षा ल दुश्मण क सबै आधार शिविर तहस-नहस है गाय | हमार जांबाज फाइटरों ल नियंत्रण रेखा कैं लै पार नि कर और जोखिम भरी सनसनी खेज करतब देखै बेर अथाह अगास में छेद करण क करशिमा करि बेर देखा | हमरि वायुसेना ल सैकड़ों आक्रमक, टोही,  युद्धक विमानों और हेलिकोप्टरों ल नौ सौ घंटों है लै ज्यादै कि उड़ानें भरी | युद्ध क्षेत्र कि विषमताओं और मौसम कि विसंगतियों क बावजूद हमरि पारंगत वायुसेना ल न केवल दुश्मण कैं मटियामेट करौ बल्कि हमरि स्थल सेना क हौसला अफजाई लै करी |

     कारगिल युद्ध में असाधारण वीरता, कर्तव्य क प्रति आपूं कैं न्योछावर करण क लिजी १५ अगस्त १९९९ हुणि भारत क राष्ट्रपति ज्यू ल ४ परमवीर चक्र (कैप्टन विक्रम बतरा (मरणोपरांत), कैप्टन मनोज पाण्डेय (मरणोपरांत), राइफल मैन संजय कुमार और ग्रेनेडियर योगेन्द्र यादव ( पुस्तक ‘महामनखी’ में इनरि लघु वीर-गाथा तीन भाषाओं में दगडै छ ), ९ महावीर चक्र, ५३ वीर चक्र सहित २६५ है लै ज्यादै पदक भारतीय सैन्य बल कैं प्रदान करीं | कारगिल युद्ध है पैली जम्मू -कश्मीर में छद्मयुद्ध दगै लड़ण क लिजी आपरेशन ‘जीवन रक्षक’ चल रौछी जमें उग्रवादियों पर नकेल डाली जैंछी और स्थानीय जनता कि रक्षा करी जैंछी |

     हमरि तीनों सेनाओं क मनोबल हमेशा कि चार आज लै भौत उच्च छ | ऊँ दुश्मण कि हर चुनौती दगै बखूबी जूझि बेर उकैं मुहतोड़ जबाब दीण में पुरि तौर पर सक्षम छ | उनर एक्कै लक्ष्य छ, “युद्ध में जीत और दुश्मन क मटियामेट |” हाम विजय दिवस क अवसर पर आपण अमर शहीदों कैं विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करि बेर शहीद परिवारों क सम्मान करनै आपण सैन्य बल और उनार परिजनों कैं भौत- भौत शुभकामना दीण चानू और हर चुनौती में उनू दगै डटि बेर ठाड़ रौण क बचन दीण चानू |
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
 ११.०८ .२०१६ 


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बिरखांत-११० : हम स्वतंत्र हैं (व्यंग्य ) 

     स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, अपने इर्द- गिर्द की अनचाही तस्बीर को समर्पित है आज की यह व्यंग्य बिरखांत | लगभग दो सौ वर्ष फिरंगियों की गुलामी के बाद देश १५ अगस्त १९४७ को स्वतंत्र हुआ | २६ जनवरी १९२६ को हमारा संविधान लागू हुआ जिसमें आज तक १२२ संसोधन भी हो चुके हैं | संविधान ने हमें जो स्वतंत्रताएं दे रखी हैं उन पर हमने नहीं सोचा क्योंकि हमारी मस्तिष्क में अपनी स्वतंत्र संहिता पहले से ही डेरा डाले हुए है | हमारी इस अलिखित स्वतंत्र संहिता की न कोई सीमा है और न कोई रूप | बिना दूसरों की परवाह किये जो कुछ हमें अच्छा लगे या हमारा मन करे वही हमारी असीमित स्वतंत्र संहिता है भलेही इससे किसी को परेशानी हो, कोई छटपटाये  या किसी का नुकसान हो |

     चर्चा करें तो सबसे पहले बोलने की स्वतंत्रता को लें | हमें किसी भी समय, कुछ भी, कहीं पर भी बिना सोचे- समझे बोलने की छूट है | न छोटे- बड़े का ख्याल और न स्त्री- पुरुष का ध्यान | भाषा जितनी भी अभद्र या अश्लील हो बेरोकटोक निडर होकर उच्चतम उद्घोष के साथ बोलने पर भी हमें कोई रोक नहीं सकता | वैसे हमारी संसद में भी कुछ लोगों को असंसदीय भाषा बोलने की छूट है | गन्दगी फैलाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है | हम कहीं पर भी- गली, मोहल्ला, सड़क, कार्यालय, सार्वजनिक स्थान, प्याऊ, जीना-सीड़ी, रेल, बस में बेझिझक थूक सकते हैं | बस में बैठकर बाहर किसी राहगीर पर, दो-पहिये सवार या कार पर थूकिये, खुल्ली छूट है | कार चला रहे हैं तो क्या हुआ, कहीं पर भी पच्च से थूकिये कोई कुछ नहीं कहेगा |

     मल-मूत्र विसर्जन की भी हमें पूरी छूट है | रेल की पटरी, नहर- नदी-सड़क के किनारे, कहीं पर भी करिए | कोई देखता है तो देखने दीजिये, आप अनदेखी करिए | कोई बिलकुल ही पास से गुजरता है तो गर्दन घुटनों के अन्दर घुसा दीजिये, देखने वाला थूकते हुए चला जाएगा | मूत्र विसर्जन आप कहीं पर भी कर सकते हैं | दीवार पर, पेड़ की जड़ या तने पर, बिजली- टेलेफोन के खम्बे पर, खड़ी बस या कार के पहियों पर, सड़क के किनारे या कोने अथवा मोड़ पर या जहां मन करे वहां पर | अपने घर को छोड़कर कहीं पर भी कूड़ा- कचरा फैंकने की भी हमें पूरी स्वतंत्रता है | फल- मूंगफली या अंडे के छिलके, बचा हुआ भोजन, पोस्टर- कागज, प्लास्टिक थैली, गुटका- पान मसाला पाउच, माचिस तिल्ली, बीडी-सिगरेट के डिब्बे- ठुड्डे, डिस्पोजेबल प्लेट- गिलास, बोतल, नारियल आदि कहीं पर भी लुढ़का दीजिये | झाडू लगाओ कूड़ा पड़ोस की ओर धकाओ | कूड़े के ढेर ऐसी जगह लगाओ जहां वह दूसरों की समस्या बने | घर में सफेदी कराओ, मलवा या बचा हुआ वेस्ट पार्क, सड़क या गली में फैंको, कोई रोकने वाला नहीं |

      हमें अपने जानवरों को सड़कों पर खुला छोड़ने की पूरी छूट है | गाय, भैंस या सूवर के झुण्ड से सड़क के बीच कोई टकराए हमारी बला से | हमने कुत्ते पाले हैं तो उन्हें सड़क या पार्क में ही तो घुमायेंगे | मल- मूतर करवाने के लिए ही तो हम उन्हें वहां ले जाते हैं | पार्क-सड़क तो सभी का है, लोगों को देखकर अपने जूते –चप्पल बचा कर चलना चाहिए | हमारी यातायात समबन्धी आजादी तो असीमित है | बिना संकेत दिए मुड़ने, रात में प्रेशर हार्न बजाने वह भी किसी को बुलाने के लिए, तेज गति से वाहन चलाने, दु-पहिये में पांच -छै जनों को बिठाने, दूसरे की या किसी भी जगह वाहन पार्क करने, प्रार्थना पर बस न रोकने, बस में धूम्रपान करने, महिला- सीटों पर बैठने, भीड़ के बहाने बस में महिलाओं के शरीर से स्वयं को रगड़ते हुए आगे बढ़ने, वरिष्ठ जनों के अनदेखी करने, शराब- नशा लेकर वाहन चलाने तथा निर्दोष नागरिकों को टक्कर मारते हुए रफूचक्कर होने की भी हमें पूरी छूट है  |

     कहाँ तक बताऊँ, हमारी स्वच्छंदता के असीमित छूट का हम आनंद ले रहे हैं | महिलाओं को घूरने, उनपर कटाक्ष करने, द्विअर्थी संवाद बोलने, बहला-फुसला कर उन्हें अपने चंगुल में फ़साने, उनका यौन शोषण करने तथा उनका बना- बनाया घर बिगाड़ने की हमें खुल्ली छूट है | हमें झूठ बोलने, कोर्ट में बयान बदलने, बयान से मुकरने, घूस देने, धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर विषवमन करने, असामाजिक तत्वों को संरक्षण देने, क़ानून की अवहेलना करने, रात को देर तक पटाखे चलाने, कटिया डाल कर बिजली चोरने, सार्वजनिक स्थानों पर नशा -धूम्रपान करने, किसी का चरित्र हनन करने, अश्लीलता देखने और पढ़ने, कन्याभ्रूण की हत्या करने, कालाबाजारी- मिलावट और तश्करी करने, फर्जी डिग्रीयां -प्रमाण पत्र लेने,  फुटपाथ खोदने, सड़क पर धार्मिक काम के नाम पर तम्बू लगाने, बिना बताये जलूस या रैली निकालने, यातायात जाम करने, गटर के ढक्कन और पानी के मीटर चुराने, पार्कों की सुन्दरता नष्ट करने, विसर्जन के नाम पर नदियों में रंग-रोगन युक्त मूर्तियाँ डालने और धार्मिक कूड़ा फैंकने, राजनीति में बेपैंदे का लोटा बनने, शहीदों और राष्ट्र भक्तों को भूलने और सरकारी दफ्तरों में बिना काम की तनख्वा लेने सहित हमारी अनेकानेक स्वतंत्रताएं हैं | ये सभी स्वतंत्रताएं हमें कहाँ ले जायेंगी ? क्या इन्हीं के लिए हमारे अग्रज शहीद हुए थे ? क्या मनमर्जी के  तांडव करने के लिए ही हम पैदा हुए हैं ? क्या हमें दूसरों की तनिक भी परवाह है ? हम अपना व्यवहार कब बदलेंगे ?  इन प्रश्नों को हम अनसुना न करें और इस व्यंग्य में वर्णित आजादी के बारे में स्वयं से जरूर सवाल करें  | स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, १५ अगस्त २०१६

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै 

 हिमाचल प्रदेश हैं बै क्ये त सिखों 
 
        देशा क ग्यारह पहाड़ि राज्यों में द्वि राज्य उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश लै छीं | हिमाचल प्रदेश कैं अस्तित्व में आयी ४५ वर्ष ( २५ जनवरी १९७१ ) है गईं जबकि उत्तराखंड कैं बनि आजि १६ (९ नवम्बर २००० ) वर्ष है रईं | यूं द्विये राज्यों कि भू-संरचना, जलवायु, रहन- सहन, संस्कृति और पाणी- जंगव- जमीन ( वनाच्छादन ) लगभग एकनसै छ | जब यूं राज्यों क विकास कि तुलना हिंछ तो एक्कै बात ल सबकुछ समझूण क प्रयास हुंछ कि हिमाचल भौत पुराण राज्य छ यैक वजैल उत्तराखंड है हर क्षेत्र में अघिल छ | उत्तराखंड भलेही देर में बनौ पर वांक जन-प्रतिनिधि त वैंकै छी जस राज्य बनण क बाद क छीं | पिछड़ण क कारण हमेशा ई नीति निर्माण एवं दूरदर्शिता कि कमी, भ्रष्टाचार, आपण स्वार्थ, निठ्ठल्लपन और क्रियान्वयन में अकर्मण्यता ई रैंछ |
 
       एक समाचार क अनुसार हिमाचल प्रदेश क वर्तमान राज्यपाल देवव्रत आचार्य ज्यू ल राज्य में एक त्रिकोणीय जनहित कार्यक्रम चलै रौछ जै पर ना-नुकुर करण क बाद राज्य सरकार ल क्रियान्वयन शुरू करि दे | य त्रिकोणीय कार्यक्रम क सबूं है पैल कदम छ राज्य में अफीम और गांज कि फसल कैं नष्ट करण | य कदम पंजाब कि चार हिमाचल प्रदेश कैं नश क गिरफ्त में औण है बचूण क लिजी उठाई गो | नारकोटिक्स विभाग क अनुसार राज्य में अफीम और चरस क व्यौपार भौत जोर ल फैलं रौ |  बतायी जांरौ कि य  हिमालयी राज्य में पनपणी नश कि खेति कैं नष्ट करण क कार्यक्रम आब भौत तेजी क साथ अघिल बढें रौ |
 
       राज्यपाल महोदय क दुसर कदम ‘बेटी बचाओ’ संबंधी छ | य  कार्यक्रम क अंतर्गत राज्य में जब क्वे घर में च्येलि क जन्म हुंछ तो उ घर में मंगल गीत कौण क लिजी स्यैणियां कि मंडली ( टोलि ) भेजी जैंछ और उ परिवार कैं एक चवर ( पालना ) भेंट करी जांछ | तिसर काम पर्यावरण और हरियाली बचूण सम्बंधी छ | य कार्यक्रम में नना क जन्मदिन या इज- बौज्यू  क स्मृति दिवस पर पौध रोपण करी जांछ | बतायी जारौ कि राज्यपाल ज्यू ल आपणि घरवाइ क ५२उ जन्मदिन पर ५२ डाव- बोट रोपि बेर य अभियान कैं शुरू करौ | रोपि हुई डाव- बोटों कि देखभाल कि जिम्मेदारी कुछ युवाओं कैं दीई गे जनूं कैं नौकरी में धरी जांरौ | हरेक डाव- बोट क रिकार्ड रजिस्टर में धरी जांछ ताकि क्वे लै किस्म कि कोताही नि हो और बोट पेड़ बनि बेर फूलो - फलो | राज्यपाल ज्यू हिमाचल प्रदेश कैं सिक्किम कि चार ( देश क पैल जैविक राज्य ) जैविक खेती वाल राज्य बनूण चानीं और राज्य कैं विकास कि तरफ भौत तेजी क साथ धकूण चानीं | आब राज्यपाल महोदय राज्य में दलितों कैं मंदिर प्रवेश दिलूंण क प्रयास करें रईं बल |
 
        देश क २७उ  राज्य उत्तराखंड में यास किस्मा क कर्यक्रम जमीनी तौर पर देखण में नि औं राय | नश और अंधविश्वास कैं पनपण वां जरूर देखण में औं रौ क्यलै कि समाचारों में य देखण- सुणण में आछ कि भंग कि खेति ल रेसा मिलल और संस्कृति –प्रथा- परंपरा क नाम पर गणतुओं एवं  जगरियों- डंगरियों कैं पैंसन मिललि | कुछ दिन पैली य चर्चा उत्तराखंड में जोरों पर छी | उसी लै खरीफ कि फसल क दगाड़ खेता क तिराव या उण- कुणा पर भंगा क ठुल- ठुल बोट देखी जै सकनी जनूं  पर बै अत्तर और गांज निकाई जांछ |

       देखण में औंछ कि भलेही क्वे लै दल कि सरकार राज्य में रैछ वीकि चिंता विकास या प्रगति पर कम बल्कि वोट पर ज्यादै रैंछ | वोटों क खातिर क्वे लै योजना या स्कीम चलूण वीकि प्राथमिकता हिंछ भलेही उ स्कीम ल जनहित हो या नि हो | दुसरि समस्या य छ कि जनहित कि योजनाओं क नियमित निरीक्षण लै नि हुन जो शराब- पोषित मिलीभगत ल पनपी भ्रष्टाचार कि भेट चढ़ि जानी | अंत में राज्य कैं ‘देवभूमि’ कौने या बतूनै क्वे लै द्यप्त क नाम ल्हींबेर वीक नाम पर छोड़ि दिई जांछ | आपण पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश हैं बै उत्तराखंड कि सरकारों ल कुछ त जरूर सिखण चैंछ |
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
१८.०८.२०१६



Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१११  : मिनकिटॉव (भदुवे, टेडपोल )

     चनरदा कभी कभी आलोचक के रूप में भी नजर आते हैं | वैसे आलोचना सही हो, प्रेरक हो, त्रुटियों को रेखांकित करती हो, नवजागृति या चेतना प्रदत हो तो अच्छी बात है | यदि आलोचना केवल गटर ढूँढने ( जानबूझ कर कमियाँ निकालने ) के लिए ही की गयी हो तो वह आलोचना के नाम पर निरर्थक बतंगड़ बनाने वाली बात होगी | आलोचक को यथार्थ सम्मुख लाना चाहिए वह भी सुधार के साथ | चनरदा बताते हैं, “बचपन की बात है | गाँव से कुछ ही दूर एक छोटी सी नदी में कुछ हमउम्र बच्चे मछली पकड़ने चले गये | सभी बच्चों ने अपने-अपने प्रयत्न से कुछ मछलियाँ पकड़ी | विभिन्न प्रकार की छोटी –छोटी मछलियाँ थी उस नदी में |”

     वक्त के पहिये को पीछे की ओर घुमाते हुए चनरदा बोलते गए, “मछ्ली  पकड़ने के बाद जब बच्चे घर पहुंचे तो सबने एक साथ बैठी अपनी- अपनी माताओं को मछलियाँ दिखाई जिन्हें सभी ने मिलजुल कर देखा | छोटे बच्चों द्वारा पकड़ी गयी छोटी छोटी मछलियां देख सभी माताएं खुश हुईं | एक बच्चे ने पहचान नहीं होने के कारण मछली समझ कर मिनकिटॉव अर्थात भदुवे (मेढक के बच्चे- टेडपोल) पकड़ लिए | भदुवे कम पानी में नदी के किनारे ही मिल जाते हैं | जब अन्य मांओं ने उस बच्चे की मां से ‘तुम्हारा बेटा तो मिनकिटॉव लाया है’ कहा तो उस बच्चे की मां तुरंत बोली ‘म्यार च्यला क मिनकिटॉव भाल’ ( मेरे बच्चे के भदुवे ही ठीक हैं ) | एक अन्य मां बोली, ‘ठीक है इसने कोशिश तो की परन्तु इसे मछली और भदुवे में क्या अंतर है वह तो समझा दो अन्यथा ये हमेशा भदुवे ही पकड़ लाएगा |’’

     थोड़ा रुक कर गंभीर मुद्रा में भृकुटी तानते हुए चनरदा ने बात को मुद्दे के तरफ मोड़ते हुए कहा, “मछली और मिनकिटॉव वाली बात हर जगह लागू होती है और साहित्य लेखन में भी | सभी लोग लिख नहीं सकते | मन करता है परन्तु भाषा में पकड़ का अभाव के कारण या खिल्ली उड़ने का डर कलम को कागज़ पर टिकने नहीं देती | एक व्यक्ति साहित्य की किसी भी विधा में कुछ शब्द लिखता है | लिखने के बाद वह उसके द्वारा मान्य किसी लेखक के सामने उन शब्दों को रखता है | इस लेखक में यदि उन शब्दों को परखने का ज्ञान है तो उसे सत्य कहना होगा कि यह मछली है या मिनकिटॉव | मां ने तो मिनकिटॉव को मछली बता कर अपने लाडले को निराश नहीं करना चाहा जबकि वह भी जानती थी के उसका बेटा मछली नहीं भदुवे पकड़ लाया है | एक पारखी सुजन को नौसिखिये को हतोत्साहित नहीं करते हुए सत्य तो कहना ही होगा | वह बच्चा दूसरे दिन भदुओं की जगह कित्ती- पिद्दी छोटी छोटी मछलियां लेकर मां को देते हुए बोला, “ये लो, आज मिनकिटॉव नहीं, मछलियाँ हैं परन्तु हैं छोटी |”

     चनरदा मछली और मिनकिटॉव की कहानी से सत्य समझाने का प्रयास कर गए | आजकल हर क्षेत्र में लोग चाहते हैं कि वे रातों- रात शिखर पर पहुँच जाएं परन्तु ऐसा नहीं हो सकता | ‘करत करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान, रसरी आवत- जात से सिल पर पड़त निशान’ कोई हमसे बहुत पहले ही कह गया है |  साहित्य में भी यही बात लागू होती है | कुछ लोग चाहते हैं वे कुछ भी लिखें उसे तुरंत स्वीकारा जाना चाहिए और उस पर कवि, लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, गायक का लुप्पा लग जाना चाहिए भलेही उसके शब्दों में साहित्य के पुर्जे ( रस, अलंकार, समास, कहावत, मुहावरे, शैली आदि ) हों या न हों | प्रत्येक हलवाई अपनी जलेबी को उत्तम बताता है | कुर्सी या स्टूल तो लकड़ी के टुकड़े ठोक- ठाक कर जुगाड़ से भी बन जाते है परन्तु सही स्टूल तो तब बनेगा जब वह सही लकड़ी को ठीक से मिला- सजा कर रंधा लगा के बनाया जाय | उत्तमता की सीमा नहीं होती | इन पंक्तियों के लेखक ने विगत तीन दसकों में जो भी कलम घिसाई की उसमें सुधार या उत्तमता की गुंजाइश आज भी महसूस होती है | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
१९.०८.२०१६

 

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