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Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख

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Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत -१४० : ध्वनि प्रदूषण बहुत खतरनाक समस्या 

     ध्वनि प्रदूषण अर्थात शोर (जोर की आवाज) समाज में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है | कुछ वर्ष पहले सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने इस समस्या पर ‘शोर’ नमक फिल्म भी बनायी थी जिससे लोगों का ध्यान इस समस्या के प्रति आकर्षित किया गया था और जनजागृति करने का प्रयास किया था | शोर से हम बहरे तो हो ही सकते हैं, इससे याददाश्त में कमी, अवसाद, सिरदर्द और तंत्रिका तंत्र में खलबली भी मच सकती है | ध्वनि प्रदूषण से व्यक्ति नपुंसकता और कैंसर का शिकार भी हो सकता है | चिकित्सकों का मानना है कि ध्वनि प्रदूषण से स्वास्थ्य को अपूरणीय क्षति भी हो सकती है |

     समाज में शोर करने वाले अर्थात ध्वनि प्रदूषण के कई कारक हैं | आये दिन हमारी इर्द- गिर्द कई धार्मिक कार्यक्रम होते हैं जैसे जगराता या जागरण अथवा धर्म संबंधी आयोजन | दीपावली में पटाखों का शोर और रासायनिक प्रदूषण के साथ ही शादी के सीजन में बारातघरों के पास पटाखों का शोर | बारातघर अक्सर आवासीय कालोनियों के पास होते हैं और बरात किसी न  किसी कारण से हमेशा ही देर रात तक पहुँचती है | बरात पहुँचते ही पटाखों के बॉक्स धड़ाधड़ खाली होने लगते हैं | शहरों में यह एक आम समस्या है | जागरण- जगरातों में तो पूरी रात बहुत जोर का शोर सहन करना पड़ता है | उस रात उस क्षेत्र के आस-पास कोई अपने घर में भी सो नहीं सकता चाहे वह वृद्ध हो या रोगी  |

    वाहनों के हौर्न के शोर से भी लोग बहुत दुखित हैं | रात को हौर्न बजाना मना है परन्तु अक्सर लोग बहुत जोर से हौर्न बजाते हैं | दुपहियों पर लोगों ने ट्रकों- बसों के हौर्न लगा रखे हैं ताकि लोग उस हौर्न के शोर से कम्पित होकर सड़क छोड़ दें | पुलिस को यह सब दिखाई –सुनाई देता है परन्तु वह देखे का अनदेखा करती है | जागरण के ऊँचे शोर और बारातघर में बजने वाले डी जे – पटाखों के शोर के बारे में पुलिस से शिकायत करने पर परिणाम कुछ भी नहीं  होता | पहले पुलिस आयेगी नहीं और आयेगी भी तो शोर मचाने वालों से समझौता करके चली जायेगी | ऐसा अक्सर देखा गया है | इसके अलावा रिहायसी क्षेत्रों में कल- कारखानों का शोर भी लोगों को बहुत दुखी करता है |

     कानून के हिसाब से शहरों में रात दस बजे के बाद पटाखे चलाना मना है | रात दस बजे से सुबह छै बजे तक ७५ डेसिबल (अर्थात एक कमरे में साधारण आवाज ) ( कान में धीरे से बोलने की आवाज १५ डेसिबल होती है ) से अधिक का शोर गैर कानूनी है | इस क़ानून का उल्लंघन करने पर एक लाख रुपये का जुर्माना या पांच साल तक की जेल अथवा दोनों सजा एक साथ हो सकती हैं | इसके लिए पुलिस में रिपोर्ट करनी पड़ेगी और मुकदमा दर्ज करना पडेगा |

     यदि पुलिस में रिपोर्ट की जाय तो जागरण, डी जे, हौर्न और कल-कारखानों के शोर से मुक्ति मिल सकती है | समस्या यह है कि लोग पुलिस का सहयोग नहीं मिलने और कानूनी पेचदगी से डर कर रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं करते जिसकी वजह से ध्वनि प्रदूषण निरोध कानून की खुलेआम अवहेलना होती है | कौन पहल करेगा ? हम सब तो मसमसाते रहते हैं | घर में बैठे बैठे अपनी बेचैनी बढ़ाने के बजाय इसके विरोध में पुलिस को सूचित करने का प्रयास तो हम कर ही सकते हैं | गली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०४.०१.२०१७

Pooran Chandra Kandpal:
दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रे ,

ज्यादै आत्म-विश्वास लै भल नि हुन

     २९ दिसम्बर २०१६ कि ‘भैम’ वालि चिठ्ठी जो एक संस्मरणात्मक चिठ्ठी छी उ पर कएक मितुरों ल आपणि कीमती टिप्पणी/ प्रतिक्रिया करी जो मिडिया में एक भलि बात हइ | लेखक कैं यहै ज्यादै और चैंछ लै क्ये ? तुमु बिचरां क भल हो जो तुमुल म्यर पुठ थपथपा | यसिक्ये थपथपूनै रया तब चिठ्ठी टैम पर भेजुल और दगाड में यौ लै कै दिनू की पैली आपण देह कि रक्षा शराब- धूम्रपान- गुट्क है करला तब हमरि खूस-खबर कि याद रौलि |
     भैम वाइ चिठ्ठी में त्याड़ि ज्यू क म्ये पर ज्यादै यकीन करण एक अति-आत्मविश्वास छी | उनूल मी हैं कभैं यौ पुछण कि जरवत नि समझि कि अचानक यूं सबूं कैं म्यर बौं खुट छ्वट क्यलै नजर आछ ? अगर ऊँ मीकैं कुरेदें छिया तो शैद मी उनुकैं सांचि बात बतै दिछी | उनूल कुरेद ना और मी लै चणी रयूं | उनर म्ये में चुपचाप यतू अति-आत्मविश्वास है गोय कि ‘मी उनुहैं मजाक नि करि सकन औ झुटि लै नि बलै सकन |’ आत्मविश्वास क बाद में अति-आत्मविश्वास पनपण लागूं जब क्वे लै आपण खुद क भरौस कैं लै गंभीरता ल नि ल्हीन |

     आत्मविश्वास और अति-आत्मविश्वास में भौत फरक छ | आत्मविश्वास हुण ठीक हय जबकि अति-आत्मविश्वास हुण ठीक बात नि हइ | आत्मविश्वास जां सृजनात्मक हुंछ वै अति-आत्मविश्वास घातक हुंछ | यैक कएक उदाहरण छीं | विष्णु शर्मा आपणी किताब ‘पंचतंत्र’ में हमुकैं खरगोश और कछुवे कि कहानि बतै गईं | खरगोश अति-आत्मविश्वास क कारण खुद कैं भौत तेज दौड़णी और कछु कैं फिसड्डी समझि बेर ऐराम करनै स्ये गोय और अचानक जब वीकि नीन खुली तो कछु तब तली जिति गोछी |

     उड़न सिक्ख प्रख्यात धावक मिल्खा सिंह क बार में लै  लोग कुछ यसै कौनी | उनुकैं अति-आत्मविश्वास है गोछी कि १९६० रोम ओलम्पिक में उनर  पदक पक्क हैगो और ऊँ पदक क नजीक पुजि लै गाछी | यौ ई दौरान उनूल पिछाड़ि गर्दन घुमै बेर आपण प्रतिद्वंदी कैं देखण चाछ और यौ ई पल ऊँ सेकेण्ड क दसूं हिस्स ल पदक है वंचित रै गईं | उनर बाद वाल खिलाड़ि यौ ई पल पदक ल्हीगो | अति-आत्मविश्वास में क्रिकेट क कएक खिलाड़ि लै  अनायास विकट गवै भैटनी या विकेट ल्हींण में असफल रौनी |

     वर्ष १६६२ में म्यार इस्कूल कि आठूँ दर्ज कि सालाना बोर्ड परीक्षा में म्यर मेरे एक आत्मविश्वासी सहपाठी कैं गणित क मासैपों ल इम्त्यान ख़तम होते ही एक जोर का थप्पड़ रसीद करि दे जैल उ चौद वर्ष क छात्र धड़ाम सै मुणि पड़ि गोय | गणित क प्रश्न पत्र कैं उ छात्र मात्र एक घंट में हल करि बेर भ्यार ऐ गोय | मासैपों कैं भल नि लाग क्यलै कि उ छात्र कक्षा में गणित में सबू है भल छी और उहैं बै मासैपों कैं भौत उम्मीद छी | प्रश्न पत्र कुछ कठिन लागैं रौछी | मासैपों कैं लागौ कि यतू जल्दी दस सवाल हल नि है सकन | छात्र क जल्दी भ्यार औण पर उनुकैं गुस्स ऐ गोय और उ गुस्स कैं थप्पड़ क रूप में छात्र पर उतारि दे | छात्र ल ठाड़ हुनै जबाब दे, “मासैप मीकैं आत्मविश्वास छ कि म्यार सब सवाल सही ह्वाल | परीक्षा परिणाम मंा वीक गणित में सौ प्रतिशत अंक छी अर्थात सबै दस सवाल सही | मसैपों ल वीक आत्मविश्वास कि तारिफ करि बेर उ दगै अंग्वाव किटनै दुःख जता पर इनाम क उ थप्पड़ उकैं आज लै याद छ |

     बस आखिर में यतुक्वे कौण चानू कि आत्मविश्वास हुण चैंछ और अति-आत्मविश्वास है बचन चैंछ |

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०५.०१.२०१७

Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत -१४१  : पौरुषत्व के लिए खतरनाक है मोबाइल ,११.०१.२०१७

     (शुक्राणुओं पर असर डालने वाले मोबाइल फौन की यह बिरखांत कुंवारे युवाओं को समर्पित है | ) मोबाइल फौन का अविष्कार वर्ष १९७३ में अमेरिका के मार्टिन कूपर ने किया | हमारे देश में इसका प्रचलन १९९५ में हुआ | वर्तमान में हमारे देश में मोबाइल फौनों के संख्या लगभग दो सौ करोड़ से अधिक बताई जाती है जो दिनोंदिन बढ़ते जा रही है | मोबाइल के फायदे तो हम सभी जानते हैं | आज मोबाइल फौन एक नितांत आवश्यक वस्तु बन गया है | हम अपने देश में एक साधारण आय वाले व्यक्ति के पास भी मोबाइल फौन देखते हैं | अब तो मोबाइल से अनेकानेक कार्य हो रहे हैं, यहाँ तक कि ‘मेरा बटुवा मेरा बैंक’ भी मोबाइल को बताया जा रहा है |

     किसी भी उपयोगी वस्तु का यदि दुरुपयोग हो तो वह हानिकारक भी होती है | ‘अति सर्वत्र वर्जेत’ भी कहा गया है | अत्यधिक मोबाइल के प्रयोग से स्पोंडिलाइटिस सहित कई बीमारियाँ बताई जाने लगी हैं | बच्चों की आँखों पर भी इसका दुष्प्रभाव बताया जा रहा है | इन सबसे भी बड़ी हानि प्रजनन चिकित्सा विशेषज्ञों ने मोबाइल उपयोग से पुरुषों में नपुंसकता (इन्फरटिलिटी) का खतरा बताया जा रहा है | मां बनने वाली महिलाओं को भी मोबाइल फौन का अधिक उपयोग गर्भ शिशु के लिए हानिकारक हो सकता है |

      एक समाचार के अनुसार डेड़ सौ से अधिक चिकित्सा विशेषज्ञों ने इस पर गहन चर्चा के बाद यह तथ्य बताया है | विदेश में की गयी एक सर्वे और शोध के आधार पर उन्होंने बताया है की प्रतिदिन चार घंटे से अधिक समय तक मोबाइल फौन का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या और उनकी गतिशीलता सामान्य से कम पायी गयी | इस बात का समर्थन ‘फर्टिलिटी एंड स्टर्लिटी’ में प्रकाशित एक अध्ययन ने भी किया | उन्होंने स्पष्ट किया कि मोबाइल फौन के कारण सेमिनल फ्लूड (बीर्य) की गुणवता में भी कमी आयी है | 

     ब्रिटेन में एक्सेटर विश्वविद्यालय में भी एक अध्ययन किया गया जहां एक शोध में पाया गया कि पतलून की जेब में मोबाइल रखने पर शुक्राणुओं की गुणवता में कमी आती है | भारत में इस कारण चालीस प्रतिशत मामलों में दम्पतियों में गर्वधारण में कठिनाई हुयी जिसे विभिन्न चिकित्सा के माध्यम से दुरुस्त किया गया |

     एक स्वस्थ युवा में शुक्राणुओं (स्पर्म) की संख्या चार करोड़ से तीस करोड़ प्रति मिली लीटर सेमिनल फ्लूड होनी चाहिए | इससे नीचे की संख्या कम अर्थात अस्वस्थ मानी जायेगी | सेमिनल फ्लूड का वौल्यूम भी ढाई मिलीलीटर होना चाहिए | यदि ये दोनों कम हैं तो युवाओं को पिता बनने के लिए चिकित्सकीय परामर्श लेना आवश्यकीय है | बचाव के बतौर कहा जा सकता है कि कुंवारे युवाओं को मोबाइल फौन पतलून की जेब में नहीं रखना चाहिए और स्वयं को स्वस्थ वैवाहिक जीवन से गुजरने देना चाहिए | कहा भी है (‘prevention is better than cure’ ) उपचार से बचाव उत्तम है | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,११.०१.२०१७ 

Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत – १४२ : कबूतरों से श्वसन रोग, १८.०१.२०१७

     अक्सर लोग पक्षियों को दाना- पानी डाल कर पुण्य कमाने की बात करते हैं | प्रकृति का एक नियम है कि यहाँ सबके लिए प्राकृतिक तौर पर भोजन- पानी उपलब्ध है | चिड़िया किसी से कुछ नहीं मांगती, खुद अपने लिए दाना- दुनका चुग लेती है | बाज किसी से नहीं मांगता, अपना शिकार ढूंढ लेता है | चील, उल्लू, चमगादड़ से लेकर कबूतर, गौरैया और हमिंग बर्ड तक सब अपना- अपना भोजन ढूंढ ही लेते हैं | इनकी संख्या प्रकृति से ही संतुलित रहती है | यदि कभी –गौरैया कम हुयी है तो वह भोजन की कमी से नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा दवा के नाम पर शिकार हुयी है | गिद्ध कम हुए तो किसी ने मारे नहीं बल्कि दवाओं के जहर से मृत पशु को खाने से मर गए | केवल आपदा को छोड़कर कर कुदरत में संख्या संतुलन हमेशा बना रहता है |

     शहरों में विशेषतः महानगरों में कबूतरों को देखा- देखी दाना- पानी डालने की होड़ सी लग गयी है | फलस्वरूप इनकी संख्या तेजी से बढ़ गयी है | इतिहास में भलेही कबूतर कभी डाक पहुंचाने का काम करते होंगे परन्तु आज कबूतर मनुष्य को बीमारी फैला रहे हैं | इनसे प्यार- दुलार मनुष्य के लिए दुखदायी हो सकता है | कबूतरों द्वारा घरों के आस-पास डेरा जमाये जाने से लोग दमा, ऐलर्जी और सांस सम्बन्धी लगभग दर्जनों बीमारियों के चपेट में आ सकते हैं | कबूतर के बीट जिसमें से बहुत दुर्गन्ध आती है, और हवा में फ़ैली उनके सूक्ष्म पंखों (माइक्रोफीदर्स) से जानलेवा श्वसन बीमारियाँ हो सकती हैं |

     दिल्ली विश्वविद्यालय स्थित ‘पटल चैस्ट इन्स्टीट्यूट’ के अनुसार कबूतर की बीट से ‘सेंसिटिव निमोनाइटिस’ होता है जिसमें बीमार को खांसी, दमा, सांस फूलने की समस्या हो सकती है | कबूतरों के पंखों से ‘फीदर डस्ट’ निकलती है जो कई बीमारियों की जड़ है | यह समस्या कबूतरों के सौ मीटर दायरे तक गुजरने वाले व्यक्ति पर पड़ सकती है | इसके बीट और फीदर डस्ट से करीब दो सौ किस्म की ऐलर्जी होती है | इनके पंखों की धूल से धीरे- धीरे फेफड़े जाम होने लगते हैं और छाती में दर्द या जकड़न होने लगती है |

     पर्यावरणविदों का मानना है कि कबूतरों की संख्या बढ़ने और इनसे जनित रोग लगाने के लिये इंसान ही जिम्मेदार है | जगह- जगह पुण्य के नाम पर दाना डालने से कबूतरों की प्रजनन शक्ति बढ़ रही है जो पर्यवरण  के लिए बेहद खतरनाक है | उनका मानना है कि पक्षियों को दाना खुद ढूढ़ना चाहिए | जब पक्षी अपना भोजन खुद ढूंढ रहा होता है तो उसकी प्रजनन क्षमता संतुलित रहती है | कबूतरों के लिए रखे गये पानी से भे बीमारियाँ फैलती हैं |

     अतः पक्षियों को अपना काम स्वयं करने दें तथा पर्यावरण के प्राकृतिक संतुलन में दखल न दें | कुछ लोग पेड़ों के तने के पास चीटियों को भी आटा डालते हैं | इससे पेड़ उखड़ते है क्योंकि चीटियाँ आटे को जमीन में ले जाती और बदले में मिट्टी बाहर लाती हैं | ऐसे पेड़ हल्के तूफ़ान से ही गिर जाते हैं  | चीटियाँ हमारे दिए भोजन की मोहताज नहीं हैं | वे अपना भोजन खुद तलाश लेती हैं | अबारा कुत्तों को भी लोग बड़े दया भाव से खाना डालते हैं परिणाम यह होता है कि वे भोजन की खोज में नहीं जाते और एक ही स्थान पर उनकी संख्या बढ़ते रहती है जिससे कुत्ते काटने के केस बढ़ते जा रहे हैं | कबूतर, चीटी या कुत्ते के बजाय किसी जनहित संस्था, वृक्ष रोपण, अनाथालय या असहाय की मदद पर खर्च करके भी पुण्य कमाया जा सकता है | अगली बिरखांत में कुछ और..

पूरन चन्द्र काण्डपाल, १८.०१.२०१७   

Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत- १४३ : ऐसा अखबार वाला ,२५.०१.२०१७

     जिन लोगों को प्रतिदिन अखबार पढ़ने की लत (आदत) लग चुकी हो  उन्हें सुबह होते ही कुछ मिले या न मिले अखबार जरूर चाहिए | यदि अखबार समय पर नहीं आया तो समझो बेचैनी बढ़ गयी | अड़ोस- पड़ोस में पूछताछ होने लगती है कि उनके पास अखबार पहुंचा कि नहीं ? अखबार का नशा लगना बहुत अच्छा नशा समझा जाता है | बच्चों में भी अखबार की आदत डाली जानी चाहिए | प्रत्येक पाठक के लिए अखबार का अपना महत्व है |

     मुझे भी अखबार पढ़ने का क्रोनिक( लाइलाज) नशा है | बिना अखबार के ऐसा लगता हे जैसे आज दिन ही नहीं निकला | रबर बैंड में गोलाई से लिपटा हुआ मेरा अखबार प्रतिदिन सुबह सात बजे हमारे दरवाजे पर टकराते हुए अपने पहुँचने की दस्तक देता है | टकराने की दस्तक (ठाssक.. ) सुनते ही मैं उस ओर तेजी से लपक कर जाता हूँ | जब तक में अखबार उठाता हूँ अखबार वाला दूसरी जगह अखबार सटकाते हुए नजर आता है | करीब बाईस- तेईस वर्ष का है वह | तेज- तर्रार- चटक- स्मार्ट पर बोलता कम है | बाज –चील जैसी आखें हैं उसकी और निशाना तो इतना सटीक कि जिस ओर अख़बार सटकाता है ठीक उसी जगह गिरता है | क्या जजमेंट है उसका, वाह !

     वह करीब पिछले चार –पांच वर्ष से अखबार ला रहा है | तब वह बारहवीं में पढ़ता होगा | पहले कोई और लाता था | उसकी चुस्ती-फुर्ती देख उससे बात करने की जिज्ञासा कई दिन से मन में पनप रही थी | एक दिन अपनी छटपटाहट शांत करने के लिए मैं उस जगह पर चला गया जहां वह करीब तीन सौ अखबारों का चट्ठा मोटर साइकिल में बाँध कर लाता है | मैंने एक साथ कई सवाल पूछ लिए उससे, जिनका उत्तर उसने बड़ी तेजी से बिना रुके हुए इस तरह दिया –

     “सर सुबह चार बजे उठाता हूँ और पांछ बजे अखबार डिस्ट्रीब्यूसन सेंटर पहुंचता हूँ | होलसेलरों से अपने अखबार उठाता हूँ और आठ बजे तक अखबार बांट कर वापस घर पहुँच जाता हूँ | सर, मैं गरीब घर से हूँ | बारहवीं के बाद आगे पढ़ना चाहता था पर घर की हालात सही नहीं होने से पढ़ नहीं सका | अखबार बांट कर कुछ पैसे कमा लेता हूँ | बी कौम कर लिया है अब एम कौम कर रहा हूं | दिन में एक सी ए के पास काम करता हूँ और सीखता भी हूँ | घर आकर पढ़ाई करता हूँ | एम कौम के बाद एस सी डी एल से एम बी ए करने की ठान रखी है |” सबकुछ बता कर “अच्छा सर देर हो रही है” कह कर किस्तों में उधार ली गयी सेकेण्ड हैण्ड मोटर साइकिल पर किक मार कर वह आँखों से ओझल हो गया |

     हमने सुना था कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन के बेटी चेल्सिया भी अपनी पाकेट मनी (खुद कमाकर खर्चना चाहती थी ) के लिए घर- घर अखबार पहुंचाती थी | हमारे पूर्व राष्ट्रपति कलाम (भारत रत्न) का आरंभिक जीवन भी धनुषकोटी (तमिल नाडू) में अखबार बाँटते हुए गुजरा | अपने अखबार वाले की कहानी सुनकर मैं उससे बहुत प्रेरित हुआ और उसकी तुलना उन परिवारों के बच्चों से करने लगा जो अत्यधिक सुविधा संपन्न होने के बावजूद भी उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाते या नहीं कर पाए बल्कि स्कूली शिक्षा भी बमुश्किल नक़ल मार कर ही उत्तीर्ण होते हैं | जाड़ा- गर्मी –बरसात, आंधी- तूफ़ान का प्रखर प्रहार इस अखबार वाले के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करता | वह निरंतर अपने निर्धारित गति से काम करता है, एक खुद्दार की तरह आगे बढ़ता है | इस कहानी की चर्चा घर के नौनेहालों से की जाय तो शायद कुछ प्रेरणा मिले | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, २५.०१.२०१७

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