Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles by Writer, Lyrist & Uttarakhand State Activitvist Dhanesh Kohari

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धनेश कोठारी:
उल्लू मुंडेर पर
            उल्लू के मुंडेर पर बैठते ही मैं आशान्वित हो चुका था। अपनी चौहदी में लक्ष्मी की पर्दार्पण की दंतकथाओं पर विश्वास भी करने लगा। शायद ‘दरबारी आरक्षी‘ की तरह उल्लू मुझे खबरदार करने को मेरी मुंडेर पर टिका था। खबरदार! होशियार!! प्रजापालक श्रीहरि विष्णु की अर्धांगनी ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी जी पधार रही हैं! मेरी आकाक्षायें खुशी से झूमने लगी।
            अब तक पत्थरों को बेरहमी से पीटते अपने हथौड़े को मैंने तब एक कोने में पटका। जहां वक्त ने मेरे बुरे दिनों के जाले बुने थे। यही जाले मेरी दरिद्रता के प्रमाण थे। तंगहाली के कोने में सरकाये हथौड़े की विस्मित दृष्टि से बेखबर, बेफिक्र था मैं। मैं तो लक्ष्मी की दस्तक का इंतजार कर रहा था। ‘लक्ष्मी‘ की अनुभूति में मेरी उत्तेजना बढ़ गई थी। भूल चुका था कि मैं नास्तिक हूं। उल्लुक आगमन शायद मेरे लिए आस्तिकता को लौटाकर लाया था। उसे शुभ मान बैठा था मैं।
            उस दिन श्रीयुक्त लक्ष्मी निश्चित ही मेरे घर तक आयी। किंतु मेरे दरवाजे पर दस्तक देेने नहीं। बल्कि उल्लू को डपटने के लिए......। उस वक्त वैभवशाली सौंदर्य के बजाय रौद्र काली रूप धारण किया था लक्ष्मी ने। उल्लू को डांटते हुए बोली, जब देखो अपने जैसे लोगों के यहां जा बैठता है। देखी है, उसकी मैली कुचैली धोती, पहनावा। बेहद गुस्से में थीं वह। देखी है, उसकी बदबूदार झोपड़ी...... मिट्टी का बिछौना, फूस का ओढ़ना। मुझे तो क्या, तुझे भी क्या रख पायेगा यह दरिद्र। पड़ोसी ‘धनपत‘ का घर नहीं दिखता तुझे। जहां छप्पन भोग महक रहे हैं। सोने, जवाहरात से सजे आसन लगे हैं। ‘सुरक्षा‘ के लिए मजबूत तिजौरियां हैं।
            उल्लू ‘लक्ष्मी‘ के इस रौद्र रूप से सहम गया था। कहने लगा, हे ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी! अमीर धनपत का घर मुझे रात में ही दिखता है। तब उसका घर रोशनी में अलग ही चमकता है। इस दोपहरी में तो मैं अंधा होता हूं। सो जहां-तहां बैठ जाना भी स्वाभाविक ही है। उल्लू के इस बहाने को भी लक्ष्मी समझ रही थी। तो, मैं भी लगभग झूठ ही मान रहा था। क्योंकि उजाला तो उसका बैरी है। फिर भला वह धनपत के उजाले से जगमगाते घर को कैसे देख पाता होगा। मुझसे उसकी मित्रता न सही, कभी करीबी न रही हो। तब भी शायद, कुछ अपनापा जरूर था। जो मेरी मुंडेर पर आ बैठा। कहने लगा, हे देवी! हां, यदि आप मिथक को तोड़ना चाहें तो.....। देवी लक्ष्मी ने उसे बड़ी जोर से डपटा, मूर्ख!!!
            अब तक लक्ष्मी के प्रचलित रूप से अलग इस रौद्र अवतरण को देख मैं भी अन्दर तक दहल उठा। वाकई मेरी झोपड़ी में बरसों से चौका बुहारा तक न हुआ था। कल ही बनिये की ‘आखरी ताकीद‘ के साथ मैं अपने दुधमुंहे के लिए अन्नप्रासन का उधार लाया था। मन ही मन मैंने अस्थाओं के दीप जलाये थे। उजाला महसूस करने लगा था मैं अपने अन्दर। जबकि अपने ‘स्टेटस‘ के एकदम विपरीत मेरी झोपड़ी में दीवाली को नकार चुकी थी लक्ष्मी। उसे खुली आजादी से ज्यादा तिजोरियों की परतंत्रता में रहना कबूल था। शायद इसलिए भी कि समाज का नैतिक चरित्र अब आतंकित करने वाला हो चुका है, और ‘लक्ष्मी‘ कतई ‘रिस्क‘ नहीं लेना चाहती है।
इस बीच जहां धनपत का अमीर अमरत्व मुझे चिढ़ा रहा था। वहीं कोने में सरका दुबका बेरहम हथफड़ा हंस रहा था। बाहर पत्थर अपने दरकने की पीड़ा के अहसास के बाद भी मेरी रोटी के लिए हथौड़े को फिर-फिर आमंत्रित कर रहे थे। उस दिन उल्लू की ओट में लक्ष्मी की दुत्कार सुन मैं आत्मग्लानि में शायद बिखर ही जाता। लेकिन हर बार पत्थरों के टुटने की संभावनाओं ने मुझे ‘उल्लुक वृति‘ का हिस्सा बनने से रोक लिया।         

Devbhoomi,Uttarakhand:
कोठारी जी आपके लेख बहुत सराहनीय है, मेरा पहाड़ परिवार में हार्दिक स्वागत है

dramanainital:
sab lekh evam kavitaein stareeya hain.dhanesj jee aapko jaankar bahut achchaa lagaa.

धनेश कोठारी:
  विकास का सफर  विकास का सफर ढ़ोल ताशों की कर्णभेदी से शुरू होकर शहनाई की विरहजनित धुन के साथ कार्यस्थल पर पहुंचता है। बाइदवे यदि यात्रा के दौरान निर्धारित समय व्यतीत हो गया तो वह अवमुक्ति के बगैर ही उलटे बांस बरेली की बतर्ज लौट पड़ता है। यों दूर के ढोल की मादक थाप पर मंजिल पर बैठा इन्तजार करता आदमी उसके आने की उम्मीद में अभिनंदन की मुद्रा में तरतीब हो जाता है। मगर रूदन भरी दशा से मुखातिब होते ही उसे शोकसभा आहूतकर बिस्मिल्लाह कहना पड़ता है।
वह जब सत्ता की देहरी से विदा होता है तो पतंगे शिद्दत से इतराते हैं। मर्मज्ञ कथावाचक उसकी देहयष्टि का रेखांकन इस मादकता से करते हैं कि भक्तगण बरबस इठलाये बिना नहीं रह पाते। विकास मार्निंग वाक पर निकल टहलते-टहलते प्रियजनों से भरत मिलाप करते हुए, खुचकण्डि का कलेवा बांटते हुए लक्ष्यभूमि में उसकी हकीकत नुमाया हो जाती है। जैसे ‘को नहीं जानत है जग......’की भांति कि, वह किस प्रयोजन से और किसके लिए उद्घाटित होता है। भूखा-प्यासा थका-मांदा मांगता है। किंतु-परंतु में नियति देखिए कि वहां राजा हरिश्चंद्र की भूमिका में संभावना टटोली जाती हैं। कभी-कभी उसे गुंजाइश के बिना भी झपट लिया जाता है। आधा खपा-आधा बचा की भाव भंगिमा में कहीं स्वर्णमयी आभा के तो कहीं कृष्णमुखी छटा के दर्शन होते हांे, किंतु उसकी त्रिशंकु मुद्रा से भी आशायें मरती नहीं और वह भी सहजता से अपने दया भाव को भी नहीं खोता है। अमूर्त अवस्था के बावजूद सपनों का यह सौदागर मांग आधारित अवयव है। गैर आमंत्रण की पनाह में जाना उसका मजहब नहीं। इसलिए स्वस्थ सहारे पर उसी का होना उसकी काबलियत मा नमूना है। इस बात से भी ऐतराज नहीं कि वह अक्सर मंजिल से पूर्ववर्ती तिराहों-चौराहों पर ‘भटक भैरु’ बन जाता है। सौभाग्यशाली विकास का गौरव हालांकि अवमुक्ति में ही निहित है। लेकिन कदाचित परिस्थितियों से भी उसे परहेज नहीं रहता है। उसे कभी भी डोमोसाइल या लालकार्ड की जरूरत नहीं पड़ी। गरीबी रेखा पर पहुंचने के बाद भी रचने-बसने में उसे दिक्कत नहीं आती। विकास हुआ तो वाहवाही और न हुआ तो लांछन का हकदार भी नहीं। परजीवी अवश्य उसके नियंता बना बैठते हैं। जहां वह आश्वासन की भूमिका में मंचासीन कर दिया जाता है। तेज फ्लड लाइटों में रैप म्यूजिक के साथ रैंप पर कैटवाक करता खुलेपन की हवा में उसकी चाल चहक उठती है। और कहानी की डिमांड पर तनबदन नमूदार होता है। वह डग उसी स्टाइल में भरता है जिस शैली को अंगूठा छाप तय करता है। काबलियत के तो क्या कहने चुनावों में वह प्रत्याशी तो नहीं होता, मगर प्रत्याशी के प्रति प्रत्याशा का संचार अवश्य करता है। जाति, धर्म, क्षेत्र व दल निरपेक्षता का धुर समर्थक विकास यदि खुद कैंडीडेट बन जाये तो कौन माई का लाल है जो जीत का जामा स्वयं पहन ले। बस उसकी असहायता ही कहूंगा कि कंधे पर बंदूक रखने वाले उसे कभी प्रत्याशी के किरदार में नहीं आने देते। नतीजा, मांग आधारित होने के कारण सदैव निराशा की कारा में कैद रहा। फिलहाल मैं निराश नहीं, क्योंकि सरकारी तख्त की आशाओं को बांधने की अपेक्षा मैं बौद्धिक विकास की जुगाली में व्यस्त हूं।
http://bolpahadi.blogspot.com/2010/09/blog-post_18.html

धनेश कोठारी:
  पहाड़
 

मेरे दरकने पर
तुम्हारा चिन्तित होना वाजिब है
अब तुम्हें नजर आ रहा है
मेरे साथ अपना दरकता भविष्य
लेकिन मेरे दोस्त! देर हो चुकी है
अतीत से भविष्य तक पहुंचने में
भविष्य पर हक दोनों का था
आने वाले कल तक हमें
कल जैसे ही जुड़े रहना था
लाभ का विनिमय करने में चुक गये तुम,
दोस्त!
तुम्हारा व्यवहार उस दबंग जैसा हो गया
जो सिर्फ लुटने में विश्वास रखता है
जिसके कोश में ’अपराध’ जैसा कोई शब्द नहीं
बल्कि अपराध उसकी नीति में शामिल है
लिहाजा अपने दरकते वजूद के साथ-
तुम्हारे घावों का हल मेरे पास नहीं
यह भी तुम्हें ही तलाशना होगा
मैं अब भी
तुम्हारे अगले कदम की इन्तजार में हूं।
 
  http://pawaan.blogspot.com/2010/09/blog-post_22.html

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