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Mangal Chaupaiyan From Ramcharit Manas - मंगल चौपाइयां (श्री रामचरित मानस से)

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hem:
भरद्वाज  सुनु  जाहि जब होइ बिधाता  बाम |
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ||


[ {याज्ञवल्क्यजी कहते हैं} हे भारद्वाज ! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरुपर्वत के समान(भारी और कुचल डालने वाली), पिता यम के समान(कालरूप) और रस्सी सांप के समान (डसने वाली) हो जाती है.]

hem:
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि |
सो  पछ्ताइ  अघाइ उर   अवसि  होइ  हित हानि ||





(स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है.)

hem:
मातु पिता गुरु स्वामी सिख सिर धरि करहिं सुभायँ |
लहेउ  लाभु  तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ||

(जो लोग माता, पिता, गुरु, स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढा कर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है |)

hem:
सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल |
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ||


( अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ तहाँ प्रत्यक्ष देखा जाता है , विधाता की सभी करतूतें भयंकर है | जहाँ तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही [दिखाई देते] हैं: हंस तो केवल मानसरोवर में ही हैं.)

hem:
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुं एक |
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ||


{ तुलसीदासजी कहते हैं - (श्री राम जी ने कहा -)   मुखिया मुख के सामान होना चाहिए, जो खाने पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्ण सब अंगों का पालन पोषण करता है.}

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