चम्पावत से लगभग ५० कि०मी० दूर अल्मोड़ा मार्ग पर स्थित है मां वाराही देवी का मंदिर और देवीधूरा कस्बा। यह शायद विश्व का एक मात्र ऎसा स्थान है, जहां श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मंदिर के प्रांगण में आज भी लोगों के बीच में पाषाण युद्ध होता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, जहां किसी समय में काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। इस प्रथा को कालान्तर में स्थानीय लोगों द्वारा बन्द कर दिया गया , इससे पूर्व देवीधूरा के आस-पास निवास करने वाले लोगों जावालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (वर्ग) के थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की एक ऎसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा। वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये नर बलि प्रथा बंद करवा कर चारों खामों ने इकट्ठे होकर पाषाण युद्ध शुरु करवाया, जिसे स्थानीय भाषा में “बग्वाल” कहा गया। बग्वाल शुरु करने के पीछे यह धारणा रही कि पत्थरों की चोट लगने से जो मानव रक्त बहेगा, उससे देवी और उसके गण प्रसन्न हो जायेगे। तभी से यह परम्परा चली और इस यु्द्ध का एक नियम यह भी है कि यह यु्द्ध तब तक चलता रहता है जब तक एक मानव के रक्त के बराबर रक्त ना निकल जाये।