देहरादून, अरविंद शेखर। सब्जियों का राजा कहा जाने वाला आलू एक दिन पहाड़ को बर्बाद कर के रख देगा। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हो रही आलू की खेती आने वाले समय में पहाड़ के पर्यावरण और समाज के सामने संकट खड़ा कर देगी। आलू की खेती मिट्टी को भुरभुरा तो बना ही रही है साथ ही बारिश होने पर यह मिट्टी आसानी से बह जाती है। आलू और अन्य नगदी फसलों की वजह से पर्वतीय क्षेत्रों की परंपरागत फसलों का अस्तित्व भी संकट में है।
ये निष्कर्ष हैं हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय पौड़ी परिसर की उर्मिला राणा, गोविंद बल्लभ पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरमेंट ऐंड डेवलपमेंट श्रीनगर [गढ़वाल] के आरके मैखुरी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के केजी सक्सेना के एक संयुक्त शोध के।
उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों में आज भी कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय है। खेती का सीधा संबंध आज भी वनों और पशुपालन से है। पहाड़ की ज्यादातर खेती वर्षा पर निर्भर है। कुछ निचले इलाकों में ही सिंचाई की सुविधा है। आम तौर पर पहाड़ में गर्मी और जाड़े में खरीफ और रबी की फसलों के वक्त मिश्रित खेती होती है, जिससे जमीन की उपजाऊ क्षमता बनी रहती है। पारंपरिक फसलें मिंट्टी को भी खेत में बनाए रखती हैं। शोध के मुताबिक बिना सिंचाई की सुविधा के 20 डिग्री ढलान वाले क्षेत्रों में पारंपरिक फसलों को नगदी फसलों ने विस्थापित कर दिया है। नगदी फसलों के कुल क्षेत्रफल के 80 से 100 प्रतिशत क्षेत्र को आलू की फसल हड़प कर गई है। पिछले चार-पांच दशकों में पहाड़ में आलू, चौलाई या मरसा, कुटू या फाफर और सरसों जैसी फसलें ज्यादा उगाई जाने लगी हैं। आलू की खेती के लिए मिंट्टी को भुरभुरा रखना होता है और खेत की बार बार गुड़ाई करनी होती है, जिससे मिंट्टी का क्षरण बढ़ रहा है। आलू की मिंट्टी को जकड़े रहने की क्षमता भी कम है। इतना ही नहीं सालभर के समय पर आलू या नगदी फसलों के काबिज रहने से फसलों की विविधता भी खत्म हो रही है। आलू और सोयाबीन ने पहाड़ी भंट की दाल और रयांस आदि को लगभग विलुप्त कर दिया है। सरसों ने राई और लैया या लाई को खेतों से लगभग बाहर का रास्ता दिखा दिया है। आलू के साथ कोई अन्य फसल भी नहीं उगाई जाती। स्थानीय लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आ रहा है। शोध के मुताबिक खेती में यही प्रवृत्ति जारी रही तो एक दिन हिमालय को पर्यावरण संकट का सामना करना पड़ेगा।