Author Topic: Water Crisis In Uttarakhand : पानी की समस्या से जूझता उत्तराखण्ड  (Read 18044 times)

पंकज सिंह महर

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बारिश का आधा पानी ही बुझा देगा उत्तराखण्ड की प्यास

अब बात उत्तराखंड की, राज्य में औसतन 1250 मिलीमीटर वर्षा के हिसाब से 53483 वर्ग किमी क्षेत्र में सालभर में 6,68,537 करोड़ लीटर पानी बरसता है। सूबे की 90 लाख आबादी को प्रति दिन 100 लीटर के हिसाब से एक साल में 32850 करोड़ लीटर पानी चाहिए। अर्थात कुल वर्षा का महज 50 फीसदी। अगर इस पानी का संचय किया जाए तो इसके लिए 526 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की जरूरत होगी।

साभार- इंडिया वाटर पोर्टल

पंकज सिंह महर

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समस्या का समाधान खोजती यह रपट-

पर्वतीय विकास का चश्मा बदलिए
भारत डोगरा

पर्वतीय विकास की विसंगतियों की शुरुआत ही यहां से होती है कि इस अंचल को बाहरी असरदार लोगों ने या तो होटल के रूप में देखा है या संसाधनों के पिटारे के रूप में। अंगरेजों व राजे-रजवाड़ों के दिनों से लेकर आज तक यहां वनों की कटाई और खनिजों का दोहन बदस्तूर चलता रहा है। ऐसे पर्यटन स्थल बनते रहे, जो पहाड़ी लोगों से कटे हुए थे। इन वनों के साथ कितने गांव वासियों का अस्तित्व जुड़ा हुआ है, इससे ठेकेदारों या अधिकारियों को कोई मतलब नहीं रहा। खनन के जोरदार विस्फोटों से कुछ गांवों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा, इसकी चिंता ठेकेदारों को नहीं थी। उन्हें तो अधिक से अधिक खनिज पहाड़ से खोदकर ले जाना था। पहले तो पेड़ काटकर होटल बनाए गए, फिर पर्यावरण संरक्षण का शोर मचा, तो शेर बचाने के नाम पर गांव वालों को वनों के आसपास से खदेड़ दिया। जब वन-खनन दोहन बहुत हो चुका, तो निर्माण कंपनियां व इंजीनियर सरकार की सहायता से बांध बनाकर ज्यादा बिजली पैदा करने की संभावना तलाशने लगे। उन्हें यह देखने की फुरसत नहीं है कि वहां कितनी पीढ़ियों की मेहनत से सीढ़ीदार खेत व फलदार बगीचे तैयार हुए हैं, बच्चों की तरह यहां के पेड़ों को बड़ा किया गया है। शायद उन्हें यह सब देखने का प्रशिक्षण भी नहीं मिला है।

पर्वतीय गांवों में परंपरागत आजीविका की स्थिति इतनी कठिन हो गई कि गांव वासियों को रोजगार की तलाश में बाहर जाना पड़ा। जब उनमें असंतोष बढ़ने लगा, तो बाहरी अभिजात लोगों के साथ स्थानीय असरदार वर्ग को भी दोहन-शोषण की पुरानी नीतियों के साथ जोड़ लिया गया। पुरखों के बनाए घरों के खंडहरों को कृत्रिम जलाशयों में डुबोकर जब इनके ऊपर से पर्यटन विभाग की रंगीन किश्ती गुजरने लगी, तो इन विकास की तालियों के बीच विस्थापितों की आहें दब गईं। इस विकृत विकास से पर्वतीय गांव वासियों का विस्थापन हुआ। साथ ही देश भर में बाढ़ व सूखे का संकट बढ़ने लगा। उत्तराखंड के पहाड़ों में बहुत तोड़-फोड़ और कटाव हो, तो नीचे के गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ या सूखे का संकट खड़ा हो जाता है।

पानी के बड़े कृत्रिम जलाशय बनाने में अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं। लेकिन इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि पहाड़ों के चौड़ी पत्ती वाले स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों की पर्याप्त संख्या वाले वन वास्तव में बहुत बडे़ प्राकृतिक जलाशय हैं। वे वर्षा के जल का भंडारण जमीन के नीचे करते हैं। वर्षा के अतिरिक्त जल का सरंक्षण कर जहां ये पर्वतीय वन बाढ़ का संकट कम करते हैं, वहीं बाद में शुष्क मौसम में इसे झरनों के माध्यम से नदियों में पहुंचाकर जल की कमी दूर करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। वहीं, पहाड़ों में अंधाधंुध खनन से भूस्खलन बढ़ने लगता है। बहुत-सा मलबा नदियों व जल स्त्रोतों में भी गिर जाता है। चूना पत्थर एक ऐसा खनिज है, जो जल का भंडार एकत्र कर रखने में बहुत सक्षम है।

यदि पर्वतीय गांव वासियों को टिकाऊ जीविका देने वाली नीतियां अपनाई जाएं, तो इससे मैदानी क्षेत्रों को भी सूखे-बाढ़ का संकट हल करने में मदद मिलेगी। पर्वतीय गांव वासियों की टिकाऊ आजीविका के लिए वनों को बचाना जरूरी है। विशेषकर, चारा देने व जल-मिट्टी संरक्षण में जो पेड़ अधिक सक्षम हैं, उन्हें बचाना होगा। खेती व पेयजल के लिए छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों, झरनों व प्राकृतिक जल-स्त्रोतों की रक्षा जरूरी है। पर्यावरण बचाने के इस तरह के पर्वतीय प्रयास स्थानीय लोगों की जीविका का आधार हैं। ये नदियों के पानी का नियमन कर मैदानी इलाकों को भी राहत पंहुचाते हैं। हिमालय जैसी विशाल पर्वत श्रृंखला में घने वन होंगे, तो इसका समग्र असर जलवायु व वर्षा के लिए भी अच्छा होगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि वनों से तरह-तरह की लघु वनोपज प्राप्त करने, जड़ी-बूटी एकत्र करने और खेती व पशुपालन में टिकाऊ रोजगार उपलब्ध है, जबकि वन काटने व खनन में कुछ समय के लिए कम मात्रा में रोजगार प्राप्त होता है।

केंद्र सरकार को पर्वतीय वनों की रक्षा के लिए हिमालय क्षेत्र के राज्यों को विशेष अनुदान देना चाहिए। जैव-विविधता के संरक्षण के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं आ ही रही हैं। ध्यान यह रखना है कि बायो डायवर्सिटी बचाने के इस कार्य को ऐसे किया जाए कि वह लोगों की टिकाऊ आजीविका की रक्षा से अच्छी तरह घुल-मिल जाए। दुर्भाग्यवश आजकल बायो डायवर्सिटी व वाइल्ड लाइफ के नाम पर बहुत-सा देशी-विदेशी धन ऐसी परियोजनाओं के लिए आ रहा है, जो लोगों को विस्थापित करती हैं। इनसे बचना होगा। युवाओं को गांव के पास ही जैव-विविधता संरक्षण, लघु व कुटीर स्तर के उद्यमों में पर्याप्त रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होने चाहिए। लोक-संस्कृति व दस्तकारियों को बचाने के प्रयास होने चाहिए व इन्हें पर्यटन जैसे नए अवसरों से जोड़ना भी चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)


साभार – अमर उजाला

पंकज सिंह महर

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हमारे वरिष्ठ सहयोगी श्री अशोक पाण्डे जी का एक लेख-

परम्परागत विधिया टिकाऊ और कम खर्चीली तो हैं ही साथ ही साथ हमारे वातावरण के लिये भी अनुकूल हैं। इनको संचालित करने के लिये किसी भी तरह की ऊर्जा की जरूरत नहीं पड़ती है और यह हमेशा हर परिस्थिति में काम करती हैं बस जरूरत है तो इन्हें बचाने की।पहाडों में पानी संग्रहण करने की कुछ पारम्परिक पर वैज्ञानिक विधियां रहीं हैं जो आज लुप्त हो रही हैं। यदि उनके बारे में अच्छे से समझा जाये और उन्हें आज फिर अपनाया जाये तो पानी की समस्याआ से छुटकारा मिल सकता है।

नौले - हममें से कई लोग ऐसे हैं जो नौलों के बारे में बचपन से सुनते आ रहे हैं क्योंकि नौले हमारे गावों के अभिन्न अंग रहे हैं। नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर चारों ओर से सुन्दर चिनाई करके किया जाता था। ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मकता के साथ बनाया जाता था। इनमें देवी-देवताओं के सुंदर चित्र बने रहते हैं। यह नौले आज भी शिल्प का एक बेजोड़ नमूना हैं। चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला इसका प्रमुख उदाहरण है। इसके अलावा अल्मोड़ा के रानीधारा तथा द्वाराहाट का जोशी नौला तथा गंगोलीहाट में जान्हवी नौला व डीडीहाट का छनपाटी नौला प्रमुख है। गढ़वाल में टिहरी नरेशों द्वारा नौलों का निर्माण किया गया था। यह नौले भी कलाकारी का अदभुत नमूना हैं। ज्यादातर नौले उन स्थानों पर मिलते हैं जहां पानी की कमी होती है। इन स्थानों में पानी को एकत्रित कर लिया जाता था और फिर उन्हें अभाव के समय में इस्तेमाल किया जाता था।

धारे - पहाडों में अकसर किसी-किसी स्थान पर पानी के स्रोत फूट जाते हैं। इनको ही धारे कहा जाता है। यह धारे तीन तरह के होते हैं। पहला सिरपत्या धारा - इस प्रकार के धारों में वह धारे आते हैं जो सड़कों के किनारे या मंदिरों में अकसर या धर्मशालाओं के पास जहाँ पैदल यात्री सुस्ता सकें ऐसे स्थानों में मिल जाते हैं। इनमें गाय, बैल या सांप के मुंह की आकृति बनी रहती है जिससे पानी निकलता है और इसके पास खड़े होकर आराम से पानी पिया जा सकता है। इसका एक आसान सा उदाहरण नैनीताल से हल्द्वानी जाते हुए रास्ते में एक गाय के मुखाकृति वाला पानी का धारा है। दूसरा मुणपत्या धारा - यह धारे प्राय: थोड़ा निचाई पर बने होते हैं। इनका निर्माण केले के तने या लकड़ी आदि से किया जाता है। तीसरा पत्बीड़या धारा - यह कम समय के लिये ही होते हैं क्योंकि यह कच्चे होते हैं। नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि स्थानों में भी इस तरह के धारे पाये जाते हैं।

कूल व गूल - यह एक तरह की नहर होती हैं। जो पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के काम आती हैं। गूल आकार में कूल से बड़ी होती है। इनका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेतों में सिंचाई करने के लिये किया जाता है। आज भी यह सिंचाई विभाग में इसी नाम के साथ दर्ज हैं।खाल - खाल वह होते हैं जिन्हें जमीन को खोद कर पानी इकट्ठा किया जाता है या वर्षा के समय पर किसी क्षेत्र विशेष पर पानी के इकट्ठा हो जाने से इनका निर्माण हो जाता है। इनका उपयोग जानवरों को पानी पिलाने के लिये किया जाता है। यह जमीन की नमी को भी बनाये रखते हैं साथ ही पानी के अन्य स्रोतों के लिये भी पानी की कमी नहीं होने देते हैं। यह जल संग्रहण की बेहद आसान लेकिन अत्यन्त उपयोगी विधि है।

ताल-तलैया - किसी भी भूभाग के चारों ओर ऊंची जमीन के बीच में जो जल इकट्ठा होता है उसे ताल कहते हैं। यह ताल कभी कभार भूस्खलनों से भी बन जाते थे और इनमें वर्षा के समय में पानी इकट्ठा हो जाता था। इन तालों में सा्रेतों के द्वारा भी पानी इकट्ठा होता है और वर्षा का पानी भी भर जाता है। ताल का सबसे बेहतरीन उदाहरण है नैनीताल में पाये जाने वाले 12 ताल और पिथौरागढ़ में श्यामला ताल। इन तालों से पानी का प्रयोग पीने के लिये एवं सिंचाई के लिये किया जाता है। तलैया होती तो ताल की तरह ही हैं पर आकार में ताल से छोटी होती हैं।

जल कुंड - यह पानी के वह स्रोत होते हैं जिन्हें धारे, नौलों से रिसने वाले पानी को इकट्ठा करके बनाया जाता है। इनके पानी का इस्तेमाल जानवरों आदि के लिये किया जाता है। कुमाऊं मंडल में इन जल कुंडों की अभी भी काफी संख्या बची हुई है।

चुपटौला - यह भी जलकुंड के तरह की एक व्यवस्था और होती है। इसे उन स्थानों पर बनाया जाता है जहा पर पानी की मात्रा अधिक होती है। इसका पानी भी जानवरों के पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। छोटा कैलाश और गुप्त गंगा में इस तरह के कई चुपटोले मिल जाते हैं।

ढाण - इनका निर्माण इधर-उधर बहने वाले छोटे-बड़े नालों को एकत्रित करके किया जाता है और उसे तालाब का आकार दे दिया जाता है। इनसे नहरें निकाल कर सिंचाई की जाती है और इन स्थानों पर पशुओं को नहलाने का भी कार्य किया जाता है। ढाण का उपयोग अकसर तराई में ज्यादा किया जाता है।

कुंए - वर्षा के मौसम में पानी को एकत्रित करने के लिये जमीन में काफी गहरे कुए खोदे जाते थे जिनकी गहराई 25 से 35 मी . तक होती थी और इनमें नीचे उतरने के लिये सीढ़ियां बनी रहती थी। पिथौरागढ़ का भाटकोट का कुंआं तथा मांसूग्राम का कुंआं जिनमें 16 सीढ़ियां उतरने पर पानी लाया जा सकता है आज भी जल संग्रहण के रूप में अनूठे उदाहरण हैं। इन्हें कोट का कुंआ भी कहा जाता है।

सिमार - ढलवा जमीन में पानी के इकट्ठा होने को सिमार कहा जाता है। सिमारों का इस्तेमाल भी सिंचाई के लिये किया जाता है। यह भी मिट्टी को नम बनाये रखते हैं और वातावरण को ठंडा रखने में भी अपना योगदान देते हैं।इन प्राचीन जल संग्रहण विधाओं का महत्व सिर्फ इतना भर नहीं है कि इनसे पानी का इस्तेमाल किया जाता है। इनका एक और भी बहुत बड़ा महत्व है और वह है इनका सांस्कृतिक महत्व। इनमें एक भरी-पूरी संस्कृति मिलती है। आज जरूरत है इनके साथ-साथ अपनी संस्कृति को भी बचाने की। हमारी जल संग्रहण की यह प्राचीन विधि आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी की उस युग में थी जब इन्हें खोजा गया था। यह परम्परागत विधिया टिकाऊ और कम खर्चीली तो हैं ही साथ ही साथ हमारे वातावरण के लिये भी अनुकूल हैं। इनको संचालित करने के लिये किसी भी तरह की ऊर्जा की जरूरत नहीं पड़ती है और यह हमेशा हर परिस्थिति में काम करती हैं बस जरूरत है तो इन्हें बचाने की। वैसे भी जिस तरह से दिन-ब-दिन पानी की किल्लत होने लगी है और प्रदूषित पानी से जिस तरह प्रत्येक जीव का जीवन असुरक्षित होता जा रहा है तो इन परंपरागत विधियों के बारे में सोचना हमारी मजबूरी भी होगी क्योंकि यह तो तय है कि आने वाले समय में पानी की एक बहुत गंभीर समस्या हम सबके सामने आने वाली है।

साभार – कबाड़खाना

पंकज सिंह महर

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देश भर में पानी की समस्या और उसके समाधान की व्यापक जानकारी के लिये निम्न लिंक पर जांये-
इंडिया वाटर पोर्टल

हेम पन्त

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सबसे महत्वपूर्ण बात जो मेरे समझ में आती है वो यह है कि उत्तराखण्ड में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों (नदियों, जंगलों और जमीन) पर जनता का ’पहला हक’ होना चाहिये.

ये क्या बात हुई कि गंगा जल बोतलों में बन्द होकर महानगरों में बिक रहा है लेकिन गंगा घाटियों के ऊपर बसे पहाड़ी शहर के लोग प्यासे तड़प रहे हैं.

यदि सोनिया विहार में फिल्टर होकर पीने का पानी दिल्ली जैसे महानगर की प्यास बुझा सकता है तो पहाड़ों में रह रहे लोग भला पेयजल के बिना क्यों जी रहे हैं?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This is one of the main reasons. :


वनाग्नि से बढ़ रही है पानी की समस्या: नेगी

गोपेश्वर (चमोली)। पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए जय गोपीनाथ कला मंच ने ग्राम पंचायत सोनला में एक दिवसीय जागरूकता गोष्ठी का आयोजन किया। कार्यक्रम का शुभारंभ करते वन क्षेत्र अधिकारी एमएस नेगी ने कहा कि वनाग्नि से न सिर्फ वनों का नुकसान होता है बल्कि इसका दुष्प्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ता है। उन्होंने पानी की बढ़ती किल्लत को वनाग्नि का सबसे बड़ा कारण बताया।

बदरीनाथ वन प्रभाग के तत्वाधान में ग्राम पंचायत सोनला में आयोजित गोष्ठी का शुभारंभ 'जय गोपीनाथ वंदना' से किया गया। जय गोपीनाथ कला मंच के कलाकारों ने ग्रामीणों को नाटकों व गीतों के माध्यम से वनों के संरक्षण, संव‌र्द्धन की जानकारी दी। कार्यक्रम में 'है गोपीनाथ तेरी जय-जयकार', 'मनख्यालू पराण मी पर पीढ़ा कू आभास, मी ना काटा', 'सुणा मेरा भै-बेण्यों सुणा मेरी बात बोंण मां आग लगोण होंदू बुरु पाप', 'मालती घस्येरी तू मेरा बोण ऐ जा' गीतों व नाटकों के माध्यम से पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने का आह्वान किया गया। गोपीनाथ कला मंच ने विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीणों को विशेष जानकारी दी। कार्यक्रम में ग्राम प्रधान वीरेन्द्र ने ग्रामीणों को संबोधित करते कहा कि हमें वनों की सुरक्षा करनी होगी तभी हमारा वातावरण प्रदूषण मुक्त हो सकता है। इस अवसर पर सरपंच अनुसूया सजवाण, महिला मंगल दल अध्यक्ष माधवी देवी, संस्था के अध्यक्ष दिनेश कुमार, मुकेश प्रकाश, कुलदीप, लोकेन्द्र रावत, दीक्षा, ऊषा सहित कई ग्रामीण उपस्थित रहे।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6314876.html

Lalit Mohan Pandey

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पेयजल: योजना लागू करने में तीसरा स्थान
देहरादून: केंद्र पोषित पेयजल योजनाओं को लागू करने में उत्तराखंड देश में तीसरे स्थान पर रहा। राज्य ने शत प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया है। पेयजल सचिव एमएच खान ने केंद्रीय पेयजल सचिव श्रीमती राजवन संधू के समक्ष संपूर्ण स्वच्छता अभियान 10-11 के वार्षिक प्लान का प्रस्तुतीकरण किया। राज्य का प्लान 146 करोड़ का है। इस दौरान बताया गया कि नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम में राज्य तीसरे स्थान पर रहा। पहले स्थान पर रहे मध्य प्रदेश ने 104 प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया है, दूसरे स्थान पर रहे तमिलनाडु ने 100.4 प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया। उत्तराखंड शत प्रतिशत लक्ष्य के साथ तीसरे स्थान पर रहा। श्री खान ने बताया कि उत्तराखंड को रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर फोकस करने का लक्ष्य दिया गया है। यहां बड़ी पंपिंग योजनाओं को लागू होने में समय लगता है। रेन वाटर हार्वेस्टिंग के लिए योजना की बीस प्रतिशत राशि रखी गई है। श्री खान ने बताया कि 5-6 मई को दिल्ली में सभी राज्यों की पेयजल पर एक कांफ्रेंस होने वाली है।

Maharaj per sarkar ke aankare to kuch or hi kahte hai... bas inse itna hi poochne ka man karta hai ki bhaisahab se sab hua kaha pe hai


jagmohan singh jayara

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"क्योँ सूख गया पहाड़ का पानी"

पहाड़ पर जल संकट निवारण हेतु,
वर्षा जल  की बूँद-बूँद बचानी होगी,
पहाड़ की पुरातन जल सरंक्षण  पद्धति,
उत्तराखण्ड में फिर से अपनानी होगी.

पहाड़ जल के भंडार थे,
उसकी कदर हमने नहीं जानी,
कर रहे मूर्खता आज भी,
सुखा रहे जल स्रोतों का पानी.

घोर अपशकुन हो गया,
पहाड़ पर पी रहे हैण्ड  पम्प का पानी,
हो गई प्रकृति कुपित हम पर,
घोर अनर्थ की है ये निशानी.

बांज, बुरांश के वनों में घुसकर,
चीड़ का वृक्ष  कर रहा मनमानी,
जलते जंगल इसके कारण,
सूख जाता जल श्रोतों का पानी.

धरती के आवरण हैं वन,
देते हमको हवा और पानी,
लालची इंसान ने लील दिए,
कर दी कैसी नादानी.

धरती का ताप बढ़ गया,
देखना धीरे धीरे और बढेगा,
हवा पानी विहीन होकर,
क्या मानव का अस्तित्वा रहेगा?

देखा मैंने अपनी आँखों से,
पहाड़ के लोग बस रहे नदी किनारे,
प्रदूषित हो रही हैं नदियाँ,
जाकर देखो उनके किनारे.

पहाड़ पर अगर होता,
खेती के लिए भरपूर पानी,
तनिक सोचो! क्यों भागती,
पहाड़ से प्रवास को जवानी.

पहाड़ पर सब जगह,
कब्ज़ा किये हुए है माफिया और ठेकेदारी,
पहाड़ ही बिमार रहने  लगा,
कैसे करेगा पूरी जरूरतें हमारी.

प्रोजेक्ट बने व्यय हुआ,
लेकिन! दुर्लभ हो गया आज पानी,
हे पर्वतवासिओं करो प्रयास,
हो गई जो भी नादानी.


रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ७.४.२०१०)

Rajen

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पानी को डीएम कार्यालय पर प्रदर्शन (Jagran news)

गोपेश्वर (चमोली)। चार महीनों से पेयजल किल्लत से जूझ रहे पलेठी के ग्रामीणों ने गुरुवार को जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन किया। ग्रामीणों ने कहा कि जल्द पेयजल आपूर्ति नहीं की गई तो वह राष्ट्रीय राजमार्ग जाम करेंगे।

गुरुवार को विकास खंड दशोली स्थित पलेठी गांव के ग्रामीणों ने आनन्द सिंह नेगी के नेतृत्व में जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन कर लगभग चार सौ परिवारों के गांव में तत्काल पेयजल उपलब्ध कराने की मांग की। ग्रामीणों ने जल संस्थान के अधिकारियों पर अनदेखी करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पेयजल किल्लत पानी की कमी से नहीं, बल्कि पेयजल लाइन के क्षतिग्रस्त होने से हो रही है। ग्रामीणों का कहना है कि पिछले तीन-चार महीने से पेयजल लाइन क्षतिग्रस्त होने से उन्हें सात-आठ किलोमीटर दूर प्राकृतिक स्रोत से पानी ढोना पड़ रहा है। ग्रामीण विनोद सिंह फरस्वाण का कहना है कि पलेठी व कालीमाटी गांव में अनुसूचित जाति एवं सामान्य जाति के सैकड़ों परिवार रह रहे हैं। उन्होंने शीघ्र पेयजल आपूर्ति सुचारु न करने पर विभागीय कार्यालय एवं जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना प्रदर्शन करने के साथ-साथ राष्ट्रीय राजमार्ग जाम लगाने की चेतावनी दी।

Devbhoomi,Uttarakhand

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                       सुलगते हुए जंगल
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हमारे देश में जंगलों का फायर सीजन फरवरी से जून के बीच का माना जाता है। उत्तराखंड व हिमाचल के जंगलों में भयंकर आग लगती है। उत्तर प्रदेश व कर्नाटक में भी जंगलों में आग लगती है।

ऐसे में, पहले से जंगलों की आग रोकने या कम करने के लिए कार्ययोजना बनाकर उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। परंतु भ्रष्टाचार, लापरवाही, इच्छाशक्ति व कर्मचारियों की कमी के कारण ऐसा शायद ही होता है। दुखद तो यह है कि जंगलों की आग के संदर्भ में पिछली गलतियों से सीखने के संकेत भी नहीं मिलते। तो 1या इस बार भी उत्तराखंड के जंगल जलते रहेंगे?

दरअसल, ज्यादातर मामलों में वनों की आग अपने आप बुझती है या फिर स्थानीय लोग अपनी जान जोखिम में डालकर उसे बुझाते हैं। बरसात भी आग बुझा देती हैं। वर्ष २००९ में मई माह में लगी आग चार-पांच दिन बाद हुई बरसात से बुझ गई थी। किंतु जून में चंपावत, अल्मोड़ा, टिहरी व मसूरी में भी भयंकर आग लगी थी। विडंबना यह है कि बारिश से आग के बुझने के बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। इस बार भी शायद ही कुछ अलग होगा।

विद्रूप यह है कि आग बुझाने में जनसहयोग पाने के लिए हर साल लाखों रुपये के विज्ञापन उन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में दिए जाते हैं, जो शायद ही वन सीमाओं पर बसने वाले पहाड़ी गांवों में पहुंचते हों। फिर ग्रामीणों की ऐसी भी शिकायतें हैं कि कई बार जो लोग जंगल में आग बुझाने गए, उन्हीं पर आग लगाने के आरोप लगा दिए गए, जबकि जंगलों से फैलती आग से अपने खेत-खलिहानों व घरों को बचाने में ग्रामीण महिलाएं भी जल जाती हैं।

वन पंचायत वाले चीड़ के पेड़ के प्रति वन अधिकारियों के विशेष प्रेम को भी आग का मुख्य कारण मानते हैं। चीड़ से तरल लीसा निकलता है, जो बहुत ज्वलनशील होता है। यह व्यावसायिक रूप से उपयोगी होता है।

 लीसा के लिए चीड़ के पेड़ों पर किए गए खुले धावों से फैलने वाली आग और पिरुल के प्रबंघन की अपनी जवाबदेही से भी वन विभाग नहीं बच सकता है। जहां पहले लीसा दोहन का काम ठेकेदारों से कराया जाता था, वहां अब यह काम पूरी तरह सरकारी विभाग ही करता है। लीसा के नियंत्रित और खुले बाजार के दामों में भी भारी अंतर है। चीड़ के पेड़ों से अवैघ लीसा दोहन का यह एक प्रमुख कारण है।

प्राकृतिक कारणों, जैसे तेज हवा से पेड़ों या बांसों के बीच घर्षण या जंगल में बिजली गिरने से भी आग लगती है, परंतु गांव वाले मानते हैं कि जंगलों की ज्यादातर आग मानवीय कारणों से लगती है। कई बार जंगलों के पास के खेतों को साफ करने के लिए लगाई गई आग के हवा में फैलने से भी जंगलों तक आग पहुंचती है। जाहिर है, जंगल में फैलने वाली आग को रोकने के लिए वन क्षेत्रों में नमी बनाए रखने, जल-स्रोतों, तालाबों आदि के रखरखाव की जरूरत है।

 यदि वन क्षेत्र में नमी मौजूद रहेगी, तो आग में उग्रता नहीं आएगी। घटते जंगलों के बीच निश्चय ही आग सबके लिए चिंता का विषय है। लेकिन बिना सामुदायिक सहभागिता, पारदरर्शिता, सरकारी इच्छाशक्ति तथा वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान के इस पर काबू पाना संभव नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि हिमालय के जंगलों को आग से बचाना, विश्व घरोहर व नैसर्गिक विविधता को बचाना है।

 

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