शास्त्रों के मुताबिक स्वस्तिक परब्रह्म, विघ्रहर्ता व मंगलमूर्ति भगवान श्रीगणेश का भी साकार रूप है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा 'गं' बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्रीगणेश का स्थान माना जाता है। इसमें जो चार बिन्दियां भी होती है, उनमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानी कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है।
इसी तरह वेद भी 'स्वस्तिक' श्रीगणेश का ही स्वरूप होना उजागर करते हैं। देव पूजा-उपासना में बोले जाने वाले वेदों के शांति पाठ मंत्र में भी भगवान श्रीगणेश का 'स्वस्ति' रूप में स्मरण किया गया है। यह शांति पाठ है -
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु।।
माना जाता है कि इस मंत्र में चार बार आए 'स्वस्ति' शब्द के रूप में चार बार कल्याण और शुभ की कामना से श्रीगणेश के साथ इन्द्र, गरूड़, पूषा और बृहस्पति का ध्यान और आवाहन किया गया है।
स्वस्तिक बनाने के धर्म दर्शन में व्यावहारिक नजरिए से संकेत यही है कि जहां माहौल और संबंधों में प्रेम, प्रसन्नता, श्री, उत्साह, उल्लास, सद्भाव, सौंदर्य व विश्वास होता है, वहां शुभ, मंगल और कल्याण होता है यानी श्री गणेश का वास होता है। उनकी कृपा से अपार सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है। चूंकि श्रीगणेश विघ्रहर्ता हैं, इसलिए ऐसी मंगल कामनाओं की सिद्धि में विघ्रों को दूर करने के लिए स्वस्तिक रूप में गणेश स्थापना की जाती है। इसलिए श्रीगणेश को मंगलमूर्ति भी पुकारा जाता है।