नित्य-पूजा
मंत्र का अर्थ इस प्रकार है कि-जिसका मनन करने से संसार का यथार्थ स्वरूप विदित हो, भव-बन्धनों से मुक्ति मिले और जो सफलता के मार्ग पर अग्रसर करे उसे ‘मन्त्र’ कहते हैं। इसी प्रकार ‘जप’ का अर्थ है- ‘ज’ का अर्थ है, जन्म का रुक जाना और ‘प’ का अर्थ है, पाप का नाश होना। इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को ‘जप’ कहा जाता है। मन्त्र शक्ति ही देवमाता- कामधेनु है, परावाक् देवी है, विश्व-रूपिणी है, देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है। इस कामधेनु रूपी वाक्-शक्ति से हम जीवित हैं। इसके कारण ही हम बोलते और जानते हैं। मन्त्र-विद्या के महान सामर्थ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके और उसका समुचित प्रयोग किया जा सके तो यह आध्यात्मिक प्रयास, किसी भी भौतिक उन्नति के प्रयास से कम महत्वपूर्ण और कम लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता। मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है।
मन्त्रों की रचना विशिष्ट पद्धति से मन्त्र-शक्ति के विशेषज्ञ अनुभवी महात्माओं द्वारा की हुई होती है। उनका अर्थ गहन होता है और मन्त्र-शास्त्र के नियमों के अनुसार ही अक्षर जोड़कर मन्त्र बनाये जाते हैं और ये मन्त्र परम्परा जप के कारण से सिद्ध और अमोघ फलदायक होते हैं। ऐसे मन्त्रों को साम्प्रदायिक रीति से ग्रहण करके विशेष पद्धति से उनका जप करना होता है। पुस्तकों से मन्त्रों को पढ़ लेने मात्र से कोई विशेष लाभ नहीं होता। कुछ साधक पुस्तकों में से कोई भी मन्त्र पढ़कर कुछ दिन उसका जाप करते हैं और कुछ लाभ ना होता देखकर उसे छोड़ देते हैं और इसी तरह नये-नये मन्त्र जपते रहते हैं और फायदा ना मिलने पर निराश होते हैं। कुछ साधक कई मन्त्र एक साथ ही जपते हैं, पर इससे भी उन्हे कोई लाभ नहीं होता। कुछ साधक माला जपने को मन्त्र जाप समझते हैं और माला को यन्त्रवत् घुमाकर यह समझते हैं कि हमने हजरों या लाखों की सँख्या में जाप कर लिया, पर इतने जाप का प्रभाव पुछिये तो वह नहीं के बराबर होता है।
मन्त्र जाप में माला का महत्त्व अधिक नहीं होता। स्मरण दिलाना और जाप सँख्या का मालूम होना, ये ही दो काम ही माला के हैं। माला स्वयं में पवित्र होती है। इसलिए साधक इसे धारण भी करते हैं। कुछ साधक माला को सम्प्रदाय का चिन्ह और पाप-नाश का साधन भी मानते हैं।
मन्त्र जाप का अधिकार दीक्षा-विधि से ही प्राप्त होता है, यह वैदिक नियम है। इसलिये किसी योग्य गुरू से ही मन्त्र की दीक्षा लेकर ही जाप करना चाहिये। शैव-वैष्णवादि सम्प्रदायों में अनादि-काल से ही दीक्षा-विधि चली आ रही है। बहुत से व्यक्ति दीक्षा लेने को सही नहीं मानते, पर यह उनकी भूल है। कुछ साधकों कि तो यह हालत होती है कि वह मन्त्र तो किसी अन्य देवता का जपते हैं और ध्यान किसी अन्य देवता का करते हैं। इससे सिद्धि कैसे मिलेगी? यद्यपि भगवान तो एक ही है, तो भी उनके अभिव्यक्त रूप तो अलग-अलग हैं।
अपनी अभिरुचि के अनुसार, परन्तु शास्त्र-विधि को छोड़े बिना किसी भी मार्ग का अवलम्बन करने से हमें शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। इसलिऐ मन्त्र-दीक्षा, विधि-विधान से ही लेनी चाहिये। मन्त्र-दीक्षा के लिये शुभ-समय, पवित्र-स्थान और चित्त में उत्साह होने की बड़ी आवश्यकता है। मन्त्र-दीक्षा लेने के पश्चात मन्त्र-जाप को प्रतिदिन एक निश्चित संख्या में अवश्य जपें।
महर्षि-पातञ्जलि ने अपने योग-सूत्रों में मन्त्र-सिद्धि को माना है, और यह कहा है कि इष्ट-मन्त्र के जाप से इष्ट-देव के दर्शन सम्भव होते हैं। प्रणव(ॐ) मुख्य मन्त्र है और उसके अर्थ की भावना करते हुऐ उसका जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है, यह महर्षि-पातञ्जलि बतलाते हैं।
प्रणव-जाप का महत्व भगवान-मनु ने भी बतलाया है। कारण, प्रणव वेदों का मूल हैं। श्रुति में भी प्रणव की महिमा गायी गयी है। प्रणव के बाद गायत्री-मन्त्र का महत्व है। यह वैदिक मन्त्र है और सभी ने इसकी महिमा बतलाई है। यह मन्त्र सब सिद्धियों को देने वाला है, और द्विज-जातिमात्र को इसका अधिकार है।
इसके बाद विभिन्न मन्त्र आते हैं और इन्हीं का आजकल विशेष प्रचार-प्रसार है। कारण, इनका उच्चारण सुगम है और इनका अर्थ भी जल्दी समझ में आ जाता है। नियम-आदि भी कोई विशेष नहीं हैं। किन्तु इन मन्त्रो का जाप करने वाले ही बता सकते है कि उन्हे किताना फायदा मिला है। मन्त्र चाहे वैदिक हो, पौराणिक हो या तान्त्रिक हो, बिना नियम के किसी भी मन्त्र का कोई फायदा नहीं है। जो साधक निष्काम-भक्ति एवं मोक्ष-प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानते है, उन के लिऐ कोई विशेष नियम नहीं है, परन्तु जो साधक सकाम भक्ति, भौतिक सुखों कि प्राप्ति एवं सिद्धि प्राप्ति हेतु मंत्र-साधना करना चहाते हैं या करते हैं, उनके लिऐ नियम बहुत आवश्यक है।
मन्त्र-जाप में नियमों का अर्थ ये नहीं है कि आप हठ-योग के कठिन आसनों एवं मुद्राओं का प्रयोग करे। हमने अपने सालो के अनुभव में यह पाया कि साधक थोड़े से साधारण नियम और सबसे जरूरी- मन्त्रों का लयबद्ध होना, इसके द्वारा साधक बहुत कम समय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। हमने अनेकों साधकों को ये प्रयोग करवाये, जिससे उन्हे बहुत ही ज्यादा लाभ हुआ। पहले जो वो अपने तरीके से साधना करते थे, और उस साधना से अनेकों साधकों को अनेकों प्रकार कि मानसिक और शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। जहाँ वह लम्बे-चोड़े विधानों में उलझ हुऐ थे, वहीं हमारे द्वारा बताऐ हुऐ नियमों से उनकी तमाम परेशानी हमेशा-हमेशा के लिऐ समाप्त हो गई। सभी साधकों के हितों का ख्याल रखते हुऐ, पहली बार हम उन सभी नियमों और तरीकों को लिख रहे है, जो आज तक न तो कहीं लिखे गऐ और न ही कोई भी गुरू अपने शिष्यों को बताना चाहता है। हम अपने सभी साधकों के लिये सबसे सरल कुछ विधान लिख रहें हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार उनका चुनाव कर सकते है।
पहला विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
4 गणेश मंत्र का 5 बार जाप करें।
5 गायत्री मंत्र का 28/108 बार जाप करें।
6 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
7 अपने इष्ट देव की आरती करें।
8 क्षमा प्रार्थना एवं शान्ति पाठ करें।
दूसरा विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
4 गणेश मंत्र का 5 बार जाप करें।
5 रक्षा मंत्र का 11 बार जाप करें।
6 नवग्रह मंत्र का 3 बार जाप करें।
7 गायत्री मंत्र का 28/108 बार जाप करें।
8 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
9 अपने इष्ट देव की आरती करें।
10 क्षमा प्रार्थना स्तुति एवं शान्ति पाठ करें।
तीसरा विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 आचमन और संकल्प करें।
4 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
5 श्री संकटनाशन गणेशस्तोत्रम् का 1 बार पाठ करें।
6 श्रीबटुक भैरव अष्टोत्तरशत नामावलिः का 1 बार पाठ करें।
7 नवग्रह स्तोत्र का पाठ करें।
8 गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करें।
9 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
10अपने इष्ट देव की आरती करे एवं पुष्पाँजलि करें।
11 क्षमा प्रार्थना स्तुति एवं शान्ति पाठ करें।
पूजा से संबधित विभिन्न मन्त्र
आचमन मंत्र
निम्न मंत्र का जाप करके तीन बार जल पीये एवं हाथ धो ले।
॥शन्नो देवीर अभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्त्रवन्तु नः॥
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