संस्कृति को बढ़ावा देने का सरकार भले ही दावा कर ले, आज उत्तराखण्ड में सरस्वती देवी जैसे कई लोक कलाकार सरकार की उपेक्षा के कारण गुमनाम और कष्टमय जीवन बिताने को मजबूर हैं। देखिये दैनिक हिन्दुस्तान में आज के अंक में प्रकाशित यह खबर
जीवन भर मालिकों की मंगल कामना के लिए गीत गाए। उनके देवताओं को खुश करने के लिए जागर, भड़ौ, बदरी, केदार नाग सेम राजा की गाथाएं गाईं। चैती गीतों के जरिए नव विवाहिताओं को मायके का संदेश पहुंचाया। ऋतु बदलने पर पहाड़ के कठिन जीवन में उल्लास भरने के लिए जितनी सामथ्र्य थी, नाची। लेकिन आज जब बुढ़ापे और बीमारी ने आ घेरा तो सभी ने मुंह फेर लिया।
यह विडम्बना ङोल रही हैं, बेडा परम्परा की लोकगायिका सरस्वती देवी। एक जमाने में जिसके सुर सुनने और नृत्य देखने के लिए गांव के गांव जुट जाते थे, आज वह श्रीनगर के पास डांगचौरा में पीपल के एक पेड़ के नीचे जीवन के बचे हुए दिन गुजार रही है। किसी ने दे दिया तो खा लिया, नहीं तो भूखी ही सो गईं।
72 साल की यह लोकगायिका चैती, मांगल, बदरी, केदार, गंगोत्री माणिकनाथ, सेमनागराजा, गंगामाई एवं भड़ौ जैसी लोकगायिकी की विधाओं की लोकप्रिय गायिका रही है। एक जमाने में टिहरी के राजा इन्हें मेहनताना और ग्रामीण ‘डडवार’ दिया करते थे। लेकिन जमाना बदला और इन लोकगीतों के कद्रदान घटते चले गए। बदले हुए जमाने में इन गीतों और इनके गाने वालों की कोई पूछ नहीं रही। इसलिए सरस्वती देवी जैसे कई गायक रोजी-रोटी के लिए मोहताज हो गए।
राज्य सरकार की ओर से लोग गायकों को दी जाने वाली पेंशन भी सरस्वती देवी को नसीब नहीं हुई। सरस्वती देवी बताती हैं कि, इसके पास न रहने को घर है और न कोई सहारा। बस सड़क किनारे का यह पीपल जब तक आसरा दिए हुए हैं, जी लूंगी। गढ़वाल विवि के लोक कला केंद्र के निदेशक प्रो. डीआर पुरोहित बताते हैं कि सरस्वती देवी बेडा परंपरा के लोक गीतों की सबसे धनी कलाकार रही हैं।
1991 में उन्हें नार्थ जोन कल्चरल सेंटर द्वारा आयोजित सांस्कृतिक उत्सव में भाग लेने का मौका मिला। गढ़वाल विवि के अनेक प्रोजेक्ट में भी वह काम कर चुकी हैं। पुरोहित कहते हैं कि, यदि सरस्वती देवी की मदद के लिए सरकार आगे आए तो अब भी उनके पास बचे पहाड़ की संस्कृति के अनमोल खजाने में से कई बहुमूल्य मोती बचाए जा सकते हैं।