Author Topic: Kashi Of Uttarakhand: Uttarkashi - उत्तराखण्ड की काशी: उत्तरकाशी  (Read 36502 times)

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
साथियो,
       आप सभी जानते हैं कि काशी महादेव शिव की नगरी मानी जाती है, उत्तराखण्ड के सीमान्त जिले का नाम है उत्तरकाशी। जो एक धार्मिक और पौराणिक नगर है,भारत में गुप्त काशी, गया काशी, दक्खिन काशी, शिव काशी जैसे कई अन्य काशी भी हैं, पर यह केवल पूर्व काशी (बनारस या वाराणसी) एवं उत्तरकाशी ही है जहां विश्वनाथ मंदिर अवस्थित है। माना जाता है कि कलयुग में जब संसार का पाप मानवता को परास्त करने की धमकी देगा तो भगवान शिव मानव कल्याण के लिये वाराणसी से हटकर उत्तरकाशी पहुंच जायेगें। यही कारण है कि उत्तरकाशी में वे सभी मंदिर एवं घाट स्थित है जो वाराणसी में स्थित है। इनमें विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, भैरव मंदिर (भैरव को भगवान शिव का रक्षक माना जाता है और भगवान शिव की पूजा से पहले इसे प्रसन्न करना आवश्यक होता है), मणिकर्णिका घाट एवं केदारघाट आदि शामिल हैं।
  आइये जानते हैं, इस पौराणिक और ऎतिहासिक शहर के बारे में।



पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
काशी शब्द का उद्भव कास शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ होता है चमकना। काशी को शिव एवं पार्वती द्वारा सृजित ‘मूल भूमि’ माना जाता है जिस पर प्रारंभ में वे खड़े हुए थे। यही वह भूमि है, जो भागीरथी, वरूणा एवं असी नदियों के संगम पर स्थित है। वरूणा एवं असी के मिलन स्थल होने से इसे वाराणसी कहा जाता है इसी कारण काशी को तपोभूमि (तप की भूमि) कहा जाता है एक स्थल जिसके कंपन से भी ज्ञान तथा शिक्षा में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है। अनंत काल से ही इस जगह को पवित्र माना गया है। स्कंद पुराणानुसार यह पवित्र भूमि पांच कोस विस्तृत था तथा उतनी ही लंबा, जो लंबाई, चौड़ाई में 12 मील थी।


उत्तरकाशी में स्थापित भगवान शिव का त्रिशूल

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
उत्तरकाशी पौराणिक वैधता से ओत-प्रोत है। महाभारत के एक वर्णनानुसार महान मुनि जड़ भारथ ने उत्तरकाशी में तप किया था। यह भी कहा जाता है कि महाभारत के एक प्रणेता अर्जुन की मुठभेड़ शिकारी रूप में भगवान शिव से यहां हुआ था। महाभारत के उपायन पर्व में उत्तरकाशी के मूलवासियों जैसे किरातों, उत्तर कुरूओं, खासों, टंगनासों, कुनिनदासों एवं प्रतंगनासों का वर्णन है। यह भी कहा जाता है कि उत्तरकाशी के चामला की चौड़ी में परशुराम ने तप किया था। भगवान विष्णु के 24वें अवतार परशुराम को अस्त्र का देवता एवं परशु धारण करने के कारण योद्धा संत के रूप में भी जाना जाता है। वे सात मुनियों में से एक हैं जो चिरंजीवी हैं।
       कहा जाता है कि परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि मुनि के आदेश पर अपनी माता रेणुका का सिर काट दिया था। उनकी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर जमदग्नि मुनि ने उन्हें एक वरदान दिया। परशुराम ने अपनी माता के लिये पुनर्जीवन मांगा एवं वे जीवित हो गयीं। फिर भी वे मातृ हत्या के दोषी थे एवं पिता ने उन्हें उत्तरकाशी जाकर प्रायश्चित करने को कहा। तब से उत्तरकाशी उनकी तपोस्थली बना।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
उत्तरकाशी में विराजमान "बाबा विश्वनाथ"



किसी समय में वाराणसी(काशी) कोकलयुग में यवनों के संताप से पवित्रता भंग होने क श्राप मिला था। इस श्राप से व्याकुल होकर देवताओं और ऋषि-मुनियों द्वारा शिव उपासना का स्थान भगवान शंकर से पूछा तो उन्होने बताया कि काशी सहित सब तीर्थों के साथ मैं हिमालय पर निवास क्रुंगा। इसी आधार पर वरुणावत पर्वत पर असी और भागीरथी संगम पर देवताओं द्वारा उत्तर की काशी यानि उत्तरकाशी बसाई गई।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
उत्तरकाशी का प्राचीन नाम बड़ाहाट था, अर्थात् बड़ा बाजार जो संकेत देता है कि प्राचीन समय में सम्भवत: यह एक उन्नतिशील बाजार रहा होगा। सम्भवत: तिब्बत एवं भारत के बीच यह मुख्य बाजार था।
हिमालय गजेटियर वोल्युम भाग-III, भाग-I (वर्ष 1882) में ई.टी. एटकिंसन बताता है कि वर्ष 1803 में हुए भूकंप के कारण 200 से 300 लोगों की मृत्यु हो गयी थी। एटकिंसन के अनुसार वर्ष 1816 में भी उत्तरकाशी में  5-6 मामूली घर ही थे।” फिर भी एटकिंसन यह बताता है कि परंपरागत रिकार्ड से साबित होता है कि ‘यह जगह उल्लेखनीय थी जहां 50-60 दूकानें थी।’


एटकिंसन द्वारा वर्णित कुछ प्राचीन स्थल विश्वनाथ मंदिर, परशुराम मंदिर तथा मुरली मनोहर को समर्पित एक अन्य मंदिर हैं। वह कहता है कि बड़ाहाट में “गंगोत्री जाते तीर्थ यात्रियों के लिये कई शुद्धि के लिये अभिषिक्त स्थल थे।” वह सुख का मंदिर के त्रिशूल का वर्णन भी करता है जो भगवान शिव के सम्मान में स्थापित हुआ। उसके अनुसार इसका आधार 3 फीट व्यास का एक तांबे का आकार था, जिसका पीतल का शाफ्ट 12 फीट लंबा था जो 6 फीट दांते के त्रिशूल पर आधारित था। यहां के वासियों का मत है कि इसे तिब्बतियों ने निर्मित किया जो पहले यहां के शासक थे तथा यह भी बताता है कि ह्वेन सांग ने बड़ाहाट को ब्रह्मपुरा भी कहा था।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
अन्य विद्वानों का मत है कि बड़ाहाट नाम उस प्राचीन त्रिशूल से आया है, जिसे 12 शक्तियों का श्रोत माना गया है और ‘बारह’ शब्द का अपभ्रंश है बड़ाहाट। प्राचीन ग्रंथों में बड़ाहाट से संबद्ध ‘चामला की चौड़ी’ का भी वर्णन मिलता है। आज चामला की चौड़ी को भैरों चौक कहा जाता है जहां भैरव, अन्नपूर्णा एवं परशुराम मंदिर हैं। चामला की चौड़ी का नाम एक चंपा पेड़ पर है, जिसके नीचे बनें चौक का इश्तेमाल ग्राम परिषद की बैठक, तीर्थ यात्रियों का एकत्र होकर प्रार्थना करने के लिये होता था, जो वे गंगोत्री की कठिन पैदल यात्रा से पहले करते थे।

उत्तरकाशी पर पाल या पंवार वंश के राजाओं की हुकूमत थी। इस वंश की स्थापना कनक पाल ने 9वीं शताब्दी में की जब उसने चांदपुर गढ़ी के सरदार की लड़की से शादी की। कनक पाल के 37वें वंशज ने गढ़वाल के 52 छोटे-मोटे राजाओं को परास्त कर, पंवार या पाल वंश को प्रबल किया और गढ़वाल के अधिकांश हिस्से पर राज्य करने लगा। उसने अपनी नई राजधानी 16वीं शताब्दी में श्रीनगर में स्थापित की। इसके बाद कई पंवार राजाओं ने श्रीनगर से राज किया। वर्ष 1803 में नेपाल के गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया जबकि प्रद्युम्न शाह राजा था। मुठभेड़ में प्रद्युम्न शाह मारा गया और उसका राज्य गोरखों ने हथिया लिया। वर्ष 1814 में गोरखों का संपर्क अंग्रेजों से हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं अंग्रेजों से सटी थी। सीमा की कठिनाईयों ने अंग्रेजों को गढ़वाल पर आक्रमण करने को बाध्य किया। अप्रैल, 1815 में गोरखों को गढ़वाल क्षेत्र से खदेड़ दिया गया एवं गढ़वाल को अंग्रेजों के जिले में मिला लिया गया तथा पूर्वी गढ़वाल तथा पश्चिमी गढ़वाल में इसे विभक्त कर दिया गया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने पास ही रखा और दून घाटी को छोड़कर अलकनंदा नदी के पश्चिम स्थित पश्चिमी गढ़वाल को गढ़वाल वंश के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह को दे दिया गया। इस राज्य को टिहरी गढ़वाल या टिहरी रियासत कहा गया तथा वर्ष 1947 में भारत की स्वाधीनता के बाद वर्ष 1949 में इसे उत्तर प्रदेश राज्य के साथ मिला दिया गया।
स्वाधीनता के बाद जब टिहरी गढ़वाल राज्य का विलय भारत के साथ हुआ तो वर्ष 1960 में उत्तरकाशी सीमा का जिला बनाया गया। नये जिले का महत्व दो बहुत महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्रों गंगोत्री एवं यमुनोत्री के कारण हैं जो गंगा (भागीरथी) एवं यमुना दो पवित्र नदियों के श्रोत स्थल हैं।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
युगों से भारतीयों द्वारा उत्तरकाशी की भूमि को पूजनीय माना गया है तथा यही वह जगह हैं जहां तपस्वियों तथा साधुओं ने शांति पायी है और तप किया है। एवं अन्य जगहों की अपेक्षा यहां वैदिक भाषा बेहतर ढंग से समझी एवं बोली जाती है इसलिए वैदिक भाषा तथा बोली सीखने लोग यहां आते हैं। उत्तरकाशी में आध्यात्म तथा धर्म की जड़ें गहरी हैं तथा इस क्षेत्र के लोग सामान्यतः अपने धार्मिक कार्यकलापों में परंपरावादी होते हैं जो धार्मिक अनुभवों के संपूर्ण विधियों से युक्त होती है। शिव एवं पार्वती की पूजा आम है तथा उनकी पूजा को समर्पित यहां कई मंदिर हैं।


भैरों चौक, उत्तरकाशी

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
जिले में उत्तरकाशी, कार्यकलापों का केंद्र हैं और ऊपरी स्थानों पर सामान यहीं से जाता है। गंगोत्री जाने वाले लोग साधारणतः यहीं अपनी यात्रा रोककर रात्रि विश्राम करते हैं। चढ़ाई एवं पर्वतारोही के उत्सुक लोग तथा नेहरू पर्वतारोहण संस्थान जाने वाले इसी जगह को आधार स्थल बनाते हैं।

उत्तरकाशी के कई रूप हैं प्रत्येक अलौकिक एवं प्रभावी। चाहे आप हिन्दु-भक्त हों या उत्साही पर्वतारोही या फिर मात्र एक यात्री, यह शहर केवल आपका ध्यान ही आकर्षित नहीं करेगा बल्कि आपकी कल्पना को भी जाग्रत करेगा। आप शहर की परिक्रमा कर कई मंदिर देख सकते हैं, घाटों पर समय बिता सकते हैं ऊजाली जा सकते हैं यह फिर नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में एक सर्वव्यापी म्युजियम जाकर आनंद उठा सकते हैं। प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी को माघ मेला निकट एवं दूर के लोगों के लिये अवसर प्रदान करता है कि उत्तरकाशी आकर भागीरथी में डुबकी लगायें।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
भागीरथी नदी के दाहिने किनारे पर स्थित उत्तरकाशी इस जिले का मुख्यालय होने के साथ-साथ गढ़वाल के बड़े शहरों में से एक है।

उत्तरकाशी मंदिरों एवं स्मारकों का शहर है, पर इससे भी अधिक यह भगवान शिव की नगरी है और ऐसी कहावत है कि यहां जितने कंकड़ हैं उतने शकंर हैं।  कभी यहां वर्ष के प्रतिदिन के लिये 365 मंदिर थे, पर अब केवल 32 मंदिर बाकी हैं। उत्तरकाशी की यात्रा खासकर विश्वनाथ मंदिर की यात्रा के बिना अर्थहीन है जो प्रत्येक वर्ष हजारों तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करता है और भगवान शिव को समर्पित है। गंगोत्री की तीर्थयात्रा अधूरी मानी जाती है अगर उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर या वाराणसी के रामेश्वरम मंदिर में पूजा अर्चना न की जाय उत्तरकाशी में शांतिपूर्ण वातावरण मिलता है। सभी देखने लायक जगहें आसानी से पैदल पहुंची जा सकती है। आप यहां के किसी भी मंदिर में बेधड़क जा सकते है। यहां आपकी भगवान की ओर आस्था और सशक्त होती है, और यहां के लोग आपको पौराणिक कहानियां और किस्से बांटने के लिये उत्सुक रहते है, जिससे आपकी आस्था और बढ़ती है।
यह शहर प्राकृतिक आपदाओं के लिये भी संवेदनशील है तथा वर्ष 1803 का भूकंप, वर्ष 1980 का बादल फटना, अक्तूबर 1991 का भूकंप तथा वर्ष 2003 का स्खलन से यहां काफी नुकसान हुआ है। फिर भी, उत्तरकाशी उन सबों को झेला है और सदियों से दैनिक जीवन सामान्य रूप से चलता आ रहा है।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
विश्वनाथ मंदिर

शहर के केंद्र में विश्वनाथ चौक पर स्थित विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी का सर्वाधिक श्रद्धापूर्ण मंदिर है जहां भारत के कोने-कोने से बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ वर्ष भर लगी रहती है।

यहां का शिवलिंग स्वयंभू है, अर्थात् अपने आप पृथ्वी से उदित हुआ है। यह तथ्य कि 60 सेंटीमीटर ऊंचा एवं 90 सेंटीमीटर व्यास के काले पत्थर का विशाल शिवलिंग बायीं ओर थोड़ा झुका है, यह प्रमाणित करता है कि इसे मनुष्य ने स्थापित नहीं किया तथा यह अनंत काल से स्थापित है। इसे प्रतिदिन स्नान कराकर धतूरे एवं अन्य मौसमी फूलों से सजाया जाता है। शिवलिंग का आधार पीतल से बना है और हाल ही में गर्भ गृह की दीवारों पर खपड़े लगाये गये हैं। इसके ऊपर कलश है जिससे पूजा स्वरूप जल या दूध शिवलिंग पर गिरता रहता है। एक बहुत नीची दीवाल में वर्गाकार रूप में शिवलिंग बंद है जिसके एक सिरे पर गणेश की प्रतिमा है। दाहिनी ओर दीवाल पर भगवान शिव की पत्नी पार्वती की मूर्ति स्थित है। ठीक गर्भ गृह के बाहरी भवन में नंदी बैल की विशाल प्रस्तर मूर्ति है। छत पर, शिवलिंग के ठीक ऊपर श्री यंत्र  बना है। 350 वर्ष पहले राजा प्रद्युम्न शाह द्वारा मंदिर का ढांचा पत्थर से बनाया गया। वर्ष 1910 में बाबा काली कमली ने इसका पुनरूद्धार दौलतराम नेपाली कल्याण न्यास द्वारा कराया।
मंदिर के महंथ, श्री जयेन्द्र पुरी के अनुसार पुजारियों द्वारा ही मंदिर की देखभाल की जाती है, इस कार्य के लिये किसी न्यास की स्थापना नहीं की गयी है। वे स्वयं 35 वर्षों तक मंदिर से संबद्ध रहे हैं, जैसे उनके पिता, दादा एवं परदादा रहे थे। टिहरी के राजा ही पुरी परिवार में से ही महंथ को नामित करते हैं।

आरती का समय

ग्रीष्म- 6 बजे सुबह तथा 8 बजे शाम
जाड़ा- 6 बजे सुबह तथा 6 बजे शाम
 

महंथ जी द्वारा की जाने वाली आरती शामिल होने योग्य है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ एवं भजन के साथ बजते घंटों की आवाज आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करते हैं।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22