Author Topic: Maa Buvaneshwari Devi Temple UK,माँ भुवनेश्वरी शक्तिपीठ पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड  (Read 11216 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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उत्तराखंड में भुवनेश्वरी शक्तिपीठ पहला ऐसा मंदिर है, जहां दिन की आरती रोजाना धूये8 के साथ होती है। इसके अलावा इस मंदिर के विशेषता यह है कि यहां देवी की श्रृंग के रूप में पूजा होती है।

ब्लाक कोट में सीता माता की धरती पर चन्द्रकूट नामक पर्वत की चोटरी पर आदि शक्ति मां भुवनेश्वरी का मंदिर स्थित है। इस चोटी से दूर तक के क्षेत्र ऐसे नजर आते हैं जैसे जगत की महारानी ऊंचे सिंहासन पर बैठ कर न्याय कर रही हों। इस मंदिर की कई विशेषताएं हैं।

 यहां श्रृंग की पूजा होती है और कहा जाता है कि यह दुनियां का अंतिम छोर है। मंदिर में पहाड़ की प्राचीन परंपराएं वर्तमान में भी विद्यमान हैं।
इस मंदिर में नित्य धूये8 होती है, यानि ढोल और दमाऊ के साथ देवी की दोपहर में आरती होती है।

ढोल-दमाऊ व शंख-घंटी के साथ मंदिर की 7-9 परिक्रमाएं होती है। विषम संख्या में परिक्रमा में स्थानीय लोगों की भी भीड़ जुटती है। स्कंध पुराण में उल्लेख आया है कि ब्रहमा के मानस पुत्र दक्ष प्रजापति के यज्ञ में पार्वती का शरीर शांत होने पर शिव ने हरिद्वार कनखल में प्रजापति को सबक सिखाया।

पार्वती के सती हो जाने पर उनका जला शरीर लेकर वे आकाश मार्ग से गुजरे और तब विष्णु ने जले शव के 51 टुकड़े कर दिए। इसके बाद शिव ने इस पर्वत पर विश्राम किया।

शरद व चैत्र के नवरात्र पर यहां धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही पूजा अर्चना व देवी स्तुति में माहौल आध्यात्म से सराबोर होता है। बुधवार को नवमी तिथि पर यहां विशेष पूजा अर्चना के साथ ही श्रद्धालुओं ने सुख एवं शांति की कामना की। भुवनेश्वरी शक्ति पीठ एक बार पहुंचने वाला बार-बार आता है।

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परिक्रमा मात्र से मनोकामनाएं पूर्ण
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उत्तराखण्ड में विश्व प्रसिद्ध श्री भुवनेश्वरी देवी के मंदिर के विषय में मान्यता है कि यहां मां भुवनेश्वरी का बीजमंत्र "ऐ हीं श्रीं हीं भुवनेश्वर्यैनम:" का उच्चारण करते हुए हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक परिक्रमा करने मात्र से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाती है।


उत्तरवाहिनी नारद गंगा की सुरम्य घाटी पर यह प्राचीनतम आदिशक्ति मां भुवनेश्वरी का मंदिर पौड़ी गढ़वाल में कोटद्वार सतपुली-बांघाट मोटर मार्ग पर सतपुली से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम विलखेत व दैसण के मध्य नारद गंगा के तट पर मणिद्वीप (सांगुड़ा)में स्थित है। इस पावन सरिता का संगम गंगा जी से व्यासचट्टी में होता है जहां भगवान वेदव्यास जी ने श्रुति एवं स्मृतियों को वेद पुराणों के रूप में लिपिबद्ध किया था।

मंदिर के दो कक्ष हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है एवं बाहर जाने का द्वार पश्चिम दिशा में है। मंदिर के अंत: गर्भगृह में एक छोटा "मातृलिंग" है, जिसकी ख्याति सर्वत्र है। भुवनेश्वरी कथानक के अनुसार अनंतकोटि ब्राह्माण्डों की नायिका हैं।

ब्राह्मा, विष्णु, महेश ने उनके बांये पैर के अंगूठे के नखदर्पण में अनेक ब्राह्माण्डों को ही नहीं देखा, अपितु अनेक कोटि संख्या में ब्राह्मा, विष्णु और शिव भी देखे। भुवनेश्वरी ने उन्हें ब्राह्मणो, वैष्णवी और माहेश्वरी शक्तियां प्रदान कीं। दुर्गा, काली, तारा आदि दस महाविद्याओं में भुवनेश्वरी अधिष्ठित हैं।



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यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार यहां दक्ष प्रजापति का "बृहस्पतिसव" नामक यज्ञ हो रहा था। यज्ञ को देखने की इच्छा से कैलास पर्वत से दक्ष प्रजापति की कनिष्ठ पुत्री दाक्षायणी भी आई। वहां किसी ने उसका आदर नहीं किया।

 पिता (दक्ष प्रजापति) के द्वारा आदर न किए जाने पर दाक्षायणी ने उत्तर दिशा की ओर मुंह कर कुशा के आसन पर बैठकर शिवजी के कमलरूपी चरणों का ध्यान किया। समाधिजन्य अग्नि से पापरहित होकर सती ने अपना शरीर जला दिया। इसका वर्णन श्रीमद्भागवद् के स्कंध 4 अध्याय 4 में विस्तार पूर्वक किया गया है।


उल्लेखनीय है कि शिव पुराण में भी बिल्व क्षेत्र का वर्णन है। यह बिल्व क्षेत्र "बिलखेत" है। दक्ष प्रजापति का छह महीने का निवास स्थान दैसण है। दक्ष का जहां गला कटा, वह निवास स्थल अथवा उत्पत्तिस्थल सतपुली हुआ। अत: सती का यह मंदिर भुवनेश्वरी का मंदिर कहलाया, ऐसा लक्षित होता है।

 चूंकि सती अग्नि समाधि अवस्था में उत्तर की ओर मुंह करके बैठी थीं, इसीलिए इस मंदिर का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है। इसी मंदिर के समीप अभी भी विशालकाय वट वृक्ष विद्यमान है जिसके नीचे बैठकर भगवान शंकर ने सती को अमर कथा सुनाई थी।


एक आम कथा के अनुसार देवी सती के 108 अवतार हुए। जब 107 अवतार हो गये और 108वें अवतार का समय आया तो नारद ने सती को शिव के गले में पड़ी मुण्डमाला के विषय में शिव से जिज्ञासापूर्ण प्रश्न करने के लिए कहा। देवी सती के पूछने पर शिवजी ने कहा- इसमें कोई शंका नहीं है ये सब तुम्हारे ही मुण्ड हैं। यह सुनकर सती बड़ी हैरान हुईं। उन्होंने फिर शिव से पूछा- क्या मेरे ही शरीर विलीन होते हैं? आपका शरीर विलीन नहीं होता?

आपका शरीर नष्ट क्यों नहीं होता? शिव ने उत्तर दिया देवी! क्योंकि मैं अमर कथा जानता हूं अत: मेरा शरीर पञ्चतत्व को प्राप्त नहीं होता। सती बोली- भगवान! इतना समय व्यतीत होने पर अब तक वह कथा आपने मुझे क्यों नहीं बताई? शिवजी ने कहा- इस मुण्डमाला में 107 मुण्ड हैं। अब एक मुण्ड की आवश्यकता है इसके बाद ये 108 हो जायेंगे। तब यह माला पूर्ण हो जायेगी अगर सुनना चाहती हो तो मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं किन्तु बीच-बीच में तुम्हें हुंकारे भी देने होंगे। कथा प्रारंभ हुई बीच-बीच में हुंकारे भी आते रहे।

 कुछ समय बाद सती को गहरी नींद आ गई। वहां कथा स्थान के पास वट वृक्ष की शाखा पर बने घोसले में तोते का साररहित एक अण्डा था, कथा के प्रभाव से वह सारयुक्त हो गया। उसमें से शुक शिशु उत्पन्न हुआ और युवा हो गया। सती को नींद में देख व कथा रस में आए व्यवधान को जानकर शुक शावक ने सती दाक्षायणी के स्थान पर हुंकारे देने शुरू कर दिए। कथा पूर्ण हुई और शुक शावक अमरत्व प्राप्त कर गया। जब सती जागी तो शिव से आगे की कथा के लिए प्रार्थना करने लगी। शिव ने कहा- देवी क्या तुमने कथा नहीं सुनी। देवी ने कहा- मैंने तो नहीं सुनी।

 शिव ने पूछा तो बीच में हुंकारे कौन भरता रहा? यहां तो इधर-उधर कोई दिखाई नहीं दे रहा है। इस बीच शुक शावक ने वट वृक्ष से उतर कर हुंकारे देने की बात स्वयं स्वीकार की। यही शुक शावक व्यासपुत्र "शुकदेव" हुए। व्यास जी का निवास स्थान यहां से लगभग 10 मील की दूरी पर है जिसे व्यास घाट कहते हैं, यहां पर गंगा और नारद गंगा का संगम है।

सती ने अपना शरीर त्याग दिया और नगाधिराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ में जन्म ले लिया। सती का मुण्ड शिव की मुण्डमाला में संलग्न हो गया। इस प्रकार 108 मुण्डों की माला पूर्ण हो गई एवं देवी के 108 अवतार हुए।

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ऐसी मान्यता है कि सांगुड़ा स्थान पर ही सती ने अपने शरीर का त्याग किया होगा। इस सिद्धपीठ में आकर सबकी मनोकामना पूर्ण होती है। मंदिर के दक्षिण-पश्चिम भाग में पहाड़ी की ऊंची चोटी पर लंगूरगढ़ी नाम से प्रसिद्ध "नाद बुद्ध भैरव" का एक मंदिर है।

यह नाद बुद्ध भैरव साक्षात् शिव है। यही दनगल नामक स्थान पर दक्ष की ग्रीवा काट कर यहां आए। देवताओं की इस घोषणा को सुनकर कि- सती ने देह त्याग कर दिया, तब शिव ने स्वयं वीर भद्र नामक अन्य रुद्र का रूप धारण किया। वीरभद्र का यह स्थान इसी गंगा के किनारे-किनारे लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर है।


इस मंदिर की यात्रा तभी पूर्ण मानी जाती है जब "दनगल" में शिव की पूजा कर लंगूरगढ़ी भैरों के दर्शन किया जाए। प्रतिवर्ष यहां मकर सक्रांति को गेंद का मेला लगता है और सैनार के ठाकुर मां को लाल "ध्वज" तथा कुटली/पटली के रावत बंधु सफेद "ध्वज" चढ़ाते हैं।

क्षेत्रीय जनता सहित दूर-दराज के लोग मनौती मनाने दशहरों में आते हैं। ब्याह-शादियों के बाद दीसा/ध्याणियां अपने बच्चों को मां भुवनेश्वरी का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर में आती हैं तथा पुरुष वर्ग अपनी नौकरी या सेना में आने-आने से पूर्व या पदोन्नति पाने पर मां के दर्शनार्थ मंदिर में अवश्य जाते हैं।

मंदिर समिति के अध्यक्ष डा. पुष्कर मोहन नैथानी ने बताया इस मन्दिर के तत्वावधान में पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ समाजोपयोगी अनेक प्रकल्प भी चल रहे हैं। मन्दिर की ओर से निर्धन एवं मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती है व नि:शुल्क स्वास्थ्य शिविर लगाए जाते हैं।

 वर्ष में दो बार नवरात्रि के समय यहां विशाल मेला और उत्सव का आयोजन होता है। इस दौरान बड़ी संख्या में दूर-दूर से भक्तगण आते हैं और इस दौरान विभिन्न प्रतियोगिताओं के आयोजन से भक्तों का उत्साह चरम पर होता है।




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आद्यशक्ति मां भुवनेश्वरी देवी प्यार की शक्ति सृष्टि व माया की रानी है, वह उगते सूरज की लाल किरणों की तरह है, उसके मुकुट के रूप में चाँद और तीन नेत्र है. इनके हाथों में अंकुश, पाश, वर और अभय है. भुवनेश्वरी देवी का मंदिर मणिकूट पर्वत की एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है।

 प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ मां भुवनेश्वरी देवी मंदिर वर्तमान में योग अध्यात्म व तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। उत्तराखण्ड का मुख्य द्वार कहे जाने वाले ऋषिकेश से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चन्द्रकूट पर्वत के शिखर  मां भगवती का यह सिद्ध शक्तिपीठ है।


आदि शक्ति भुवनेश्वरी भगवान शिव की समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। मां का स्वरूप सौम्य एवं अंग कांति अरूण हैं। भक्तों को अभय एवं सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। इस महाविद्या की आराधना से जहां साधक के अंदर सूर्य के समान तेज और ऊर्जा प्रकट होने लगती है, वहां वह संसार का सम्राट भी बन सकता है। इसको अभिमंत्रित करने से लक्ष्मी वर्षा होती है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं।


मां भुवनेश्वरी भगवती देवी के मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा शोभायमान है। तीनों लोकों की प्रजा का भरण-पोषण करने वाली वरदा यानी वर देने की मुद्रा अंकुश पाश और अभय मुद्रा धारण करने वाली भुवनेश्वरी तुंगकुचा यानी अपने तेज एवं विकास पूर्ण यौवन और तीन नेत्रों से युक्त हैं।

देवी अपने तेज से देदीप्यमान हो रही हैं। प्रलयकाल में जो भुवन जल मग्न हो गए थे, वे आज देवी की कृपा से विकासशील हो रहे हैं।ह्वल्लेखा विद्या और अन्नपूर्णा स्वरूपा मां भुवनेश्वरी की साधना से शक्ति, बल, सामथ्र्य, लक्ष्मी, संपदा, वैभव और उत्तम विद्याएं-भक्ति,ज्ञान तथा वैराग्य की प्राप्ति होती है

 

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