Author Topic: Pilgrimages In Uttarakhand - उत्तराखंड के देवी देवता एव प्रसिद्ध तीर्थस्थल  (Read 65402 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

उत्तरांचल
 
मातृका प

--------------------------------------------------------------------------------
 
उत्तराखण्ड में मातृका पूजन की परम्परा का आधार बहुत प्राचीन लगता है।  ब्रह्माणी, माहेश्वरी, वैष्णवी, कौमारी, इन्द्राणी, चामुण्डा और वाराही का ही अधिकांश अंकन प्रस्तर पट्टों पर मिलता है।  गणेश कार्तिकेय आदि को भी मातृका पट्टों पर निरुपित किये जाने की परम्परा उत्तराखण्ड में थी।  मातृकाओं का क्रम यद्यपि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग मिलता है तो भी उनके रुप विन्यास में स्पष्ट मान्यता है।  वाराह पुराण में कहा गया है कि सप्त मातृकाऐं सात मानवीय गुणों की सूचक हैं।  अन्धकासुर कि शिव ने संहार किया तो दानव का रक्त जमीन पर गिरने से रोकने और उस रक्त से दानवों के प्रकट होने की क्रिया को समाप्त करने के लिए शिव आदि देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियों को उत्पन्न किया।  इन शक्तियों के वही आयुध दिखाये जाने की परम्परा है जो इन देवियों की पुरुष शक्ति के पास होते हैं।  कई बार इनका स्वत्न्त्र निरुपण भी मिलता है।  ये मातृकाऐं भी पुरुष शक्तियों का ही वाहन धारण करती हैं।  मातृका प में यह दो, तीन अथवा चार की संख्या में भी अधिक मिलती है।

नारायणकाली के मातृका प में वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी तथा चामुंडा एवं नारिसिंही का रुपायन किया गया है क्योंकि नारसिंही की प्रतिमाऐं उत्तराखंड में अत्यल्प हैं।  पाताल भुवनेश्वर से प्राप्त चामुंडा की जो प्रतिमा चंडिका मंदिर में है, वह भी शिल्प की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मनोहारी है।

नकुलेश्वर मंदिर से मिला मातृका प इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें वाराही, इन्द्राणी, चामुंडा के साथ वामावर्त गणेश का अंकन किया गया है।  गणेश लम्बोदर हैं।  परशु, त्रिशूल, और दन्त से सुशोभित इस गणेश की प्रतिमा को मुकुट, सपं यज्ञोपवीत आदि से सज्जित किया गया है।

 

नदी देवियाँ :

नदियों को भारतीय संस्कृति और वाङ्मय में अति महत्व दिया गया है।  नदी देवियों के रुप में गंगा और यमुना की पूजन परम्परा भारत में सदियों से चली आ रही है।  गंगा को पवित्रता का प्रतीय समझा जाता है जबकि यमना समपंण की प्रतीक मानी जाती है।  गुप्त काल में सबसे पहले गंगा-यमुना का निदर्शन हुआ।  गंगा-यमुना को तब ही स्री शक्तियों के रुप में मंदिरों में प्रवेश द्वार पर निरुपित करने की परम्परा प्रारम्भ हुई।  इसका आशय यह था कि मंदिरों में केवल वही प्रवेश के योग्य है जो पवित्र हों तथा जिनमें समपंण की भावना हो।  गंगा को मकर पर तथा यमुना को कूर्म पर पूर्णघट सहित निरुपित किया जाने लगा।

उत्तराखंड में भी भारत के अन्य भागों की तरह मंदिर भूषा के रुप में गंगा-यमुना का प्रचुरता से अंकन मिलता है।  प्राय: इनको द्वारदशा के निचले हिस्से में स्थापित किया जाता है।  बमनसुआल, नवलदेवल, जागेश्वर कटारमल से गंगा के मंदिर द्वारों पर लगी प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं।  यद्यपि गंगा की स्वतन्त्र प्रतिमाऐं अपेक्षाकृत कम हैं लेकिन कुमाऊँ क्षेत्र में दुर्लभ नही हैं।  इस क्षेत्र में ८वीं. शती तक की प्राचीन प्रतिमाऐं उपलब्ध हैं।

कटारमल के प्रसिद्ध सूर्य में दायीं ओर स्थानीय शैली के पंचायतन मंदिर हैं, उनमें एक मंदिर के द्वार पर ललितासन में गंगा दिखाई गयी है।  विशेषता यह है कि इस मंदिर के द्वारस्तम्भों पर गंगा-यमुना के स्थान पर केवल गंगा का ही अंकन है।

बमनसुआल का धर्मशाला के प्रवेश द्वार के निचले स्तम्भों में गंगा का अंकन मिलता है।  इस अलंकृत द्वार स्तम्भ में ऊपर फुल्लशाखा, इसके पश्चात नागशाखा और तब मणिवन्ध शाखा के अति सुन्दर अलंकरण किया गया है।  इस द्वार शाखा से नीचे की ओर दोनों पाश्वस्तम्भों में गंगा एवं यमुना का शैव द्वारपालों के साथ अंकन किया गया है।  दोनों नदी देवियाँ मंगल घट लिए हुए हैं।  द्वारपाल जटाजूट से सज्जित है।

नवदेवल मंदिर में गंगा-यमुना का अंकन है।  ये दोनों ही प्रतिमाऐं शीर्ष मुकुट, कानों में कमंडल, हाथों में बाजूबन्ध से सज्जित तथा अदोवस्र धारण किये हैं।

गंगा की स्वतन्त्र प्रतिमाऐं बानठौक जिला पिथौरागढ़, जागेश्वर, सोमेश्वर तथा अल्मोड़ा जनपद के सिरौली ग्राम से भी प्राप्त हुई हैं।  ये शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय हैं।  बानठौक की गंगा की प्रतिमा भग्न है।  सिरौली की प्रतिमा भी यद्यपि, भग्न है तो, भी अप्रितम है।  यहाँ परम्परागत लक्षणों के अनुरुप गंगा मरकस्थ हैं व त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है।  उनका दायाँ हाथ उठा हुआ है।  गंगा एवं उपासिका के हाथ में किस वस्तु का अंकन किया गया है, कहा नहीं जा सकता।  गंगा जिस छत्र के नीचे खड़ी है उका दंड एक अन्य उपासिका ने अपने हाथों में ले रखा है।  एक अन्य परिचारिका भी त्रिभंग मुद्रा में दर्शायी गयी है।  पूर्ण घट के अपने शीर्ष पर धारण किये भी एक अन्य स्री का अंकन मिलता है।

नटराज शिव के साथ भी गंगा यमुना का अंकन मिलता है।  र्तृज ग्राम के कपिलेश्वर मंदिर में शुकनास पर नटराज शिव गजहस्त मुद्रा में विराजमान हैं।  नटराज शिव के बायें पाश्व में निरुपित मकर वाहिनी गंगा का अंकन अत्यंत मनोहारी है।  उनके दायें पाश्व में यमुना का अंकन किया गया है।  दोनों नदी देवियाँ त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं।  कंधों तक उठे हाथों में मंगलघट अंकित किये गये हैं।  उनके पा में स्थूल-शरीरधारी एक मुरली वादक है।

 

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Girish

  • Newbie
  • *
  • Posts: 28
  • Karma: +3/-0
 Mata Purnagiri Devi Temple, Tanakpur, Champawat



One of the 108 Siddha Peeths, this Devi Temple is 21 kms from Tanakpur, Tunyas is 17 kms and from there 3 km trek leads to Purnagiri Temple.

According to an ancient legend, Daksha Prajapati organised a sacrificial ceremony, for which he invited everybody except Lord Shiva. Parvati on discovering that it was her father's trick to humiliate her husband immolated herself in the sacrificial fire. While her husband carried her body, the places where the parts of her body fell were recognized as Shakti Peeth. The Shakti Peeth holds the prime position among Malikagiri, Kalikagiri, and Himlagiri Peeths.

During Navratras, in the Chaitra month of the Indian calendar, devotees in large number come here to have their wishes fulfilled. After worshipping Mata Purnagiri, people also pay their tributes to her loyal devotee Bada Sidth Nath at Brahmadev and Mahendra Nagar in Nepal.

http://champawat.nic.in/pun.htm

sanjupahari

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 278
  • Karma: +9/-0
aahhhaaa...jai hoo jai hoo maaaan purnagiri kee...jai hoo.....
Mehta jew,,girish jew,,,bahut hi badiya kaam kiya hai aap logoon ne,,,sach main aapko bahut bahut dhanyawaad,,,

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Thanx Girish Da.

Jai Mata Ki. - 2 ..

Mata Purnagiri Devi Temple, Tanakpur, Champawat



One of the 108 Siddha Peeths, this Devi Temple is 21 kms from Tanakpur, Tunyas is 17 kms and from there 3 km trek leads to Purnagiri Temple.

According to an ancient legend, Daksha Prajapati organised a sacrificial ceremony, for which he invited everybody except Lord Shiva. Parvati on discovering that it was her father's trick to humiliate her husband immolated herself in the sacrificial fire. While her husband carried her body, the places where the parts of her body fell were recognized as Shakti Peeth. The Shakti Peeth holds the prime position among Malikagiri, Kalikagiri, and Himlagiri Peeths.

During Navratras, in the Chaitra month of the Indian calendar, devotees in large number come here to have their wishes fulfilled. After worshipping Mata Purnagiri, people also pay their tributes to her loyal devotee Bada Sidth Nath at Brahmadev and Mahendra Nagar in Nepal.

http://champawat.nic.in/pun.htm

Girish

  • Newbie
  • *
  • Posts: 28
  • Karma: +3/-0
Naina Devi Temple

 The Naina Devi temple is situated atop Naina hillock in Nainital. Thousands of pilgrims gather here every year around September to worship Goddess Parvati.

           Legend is that Sati, another name of goddess Parvati and wife of Lord Shiva, jumped into the sacrificial bonfire. To mourn the death of his beloved wife, Lord Shiva carried the body across the country. Parts of her body fell at various places which became sacred worship places for the Hindus. The temple here is said to have been built on the precise spot where Sati's eyes had fallen.The picturesque blue green Naini lake located near the temple is said to be the eyes of Sati.

          Though the temple is named after Naina Devi (another name for Sati), the biggest social occasion here is the festival held in honour of Nanda Devi, the patron goddess of Kumaon hills and a local princess Sunanda Devi. The original Naina Devi temple was destroyed in a landslide in 1880 and then rebuilt. Nanda Devi Mela is a fair of great religious and cultural significance.


हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
टनकपुर (चंपावत)। उत्तर भारत के सुप्रसिद्घ मां पूर्णागिरि धाम में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए एक अच्छी खबर है। प्रदेश सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पूर्णागिरि धाम में रोपवे लगाने को हरी झंडी दे दी है। विभाग ने पिछले दिनों इसे लेकर सर्वे किया था। हनुमान चट्टी से आगे ज्वाला मंदिर से कालिका मंदिर तक 903 मीटर लंबा रोपवे बनाने की योजना तैयार की जा रही है।

मां पूर्णागिरि धाम का उत्तराखंड के अन्य धामों से अलग ही महत्व है। मां की महिमा व चमत्कार के कारण ही प्रतिवर्ष बीस लाख तक श्रद्धालु शीश नवाने मां के दरबार पहुंचते है। पर्याप्त सुविधाएं न मिलने से श्रद्धालुओं को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हिंदूवादी संगठन व श्रद्धालु लंबे समय से वैष्णो देवी मंदिर की तर्ज पर पूर्णागिरि धाम को भी ट्रस्ट का दर्जा देने की मांग करते रहे है। लेकिन इसके लिए शासन स्तर से अभी तक कोई ठोस पहल नही की गयी है। ठूलीगाढ से कालिका मंदिर तक रोपवे बनाने की मांग एक दशक से उठाई जा रही है। पूर्व कृषि मंत्री महेद्र सिंह माहरा ने भी कांग्रेस शासन में इस मांग को प्रमुखता से उठाया था। भाजपा शासन की पहल पर पूर्णागिरि क्षेत्र में रोपवे लगाने के प्रयास शुरू हो गये है।  श्री उनियाल ने बताया कि ठूलीगाढ-भैरव मंदिर मोटर मार्ग स्थित ज्वाला देवी मंदिर से सीधे कालिका मंदिर तक 903 मीटर क्षेत्र को रोपवे लगाने के लिए चयनित किया गया है। केंद्र सरकार से इसकी अनुमति मिली तो 35 करोड़ रुपये की लागत वाले इस रोपवे से तीन सौ यात्री प्रति घंटा यात्रा कर सकते है। उन्होंने बताया कि पर्यटन विभाग उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पैंतीस स्थानों पर रोपवे लगाने की योजना बना रहा है। पहले चरण में यमनोत्री, केदार नाथ व नीलकंठ धामों में रोपवे लगाने की योजना है। इसके अलावा देहरादून से मसूरी तक एशिया के सबसे लंबे 11 किलोमीटर दूरी का रोपवे बनाने का काम जल्द शुरू होने जा रहा है। जिस पर एक हजार करोड़ का खर्च होने की संभावना है।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 2,865
  • Karma: +27/-0

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0



 
विश्वनाथ मंदिर

शहर के केंद्र में विश्वनाथ चौक पर स्थित विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी का सर्वाधिक श्रद्धापूर्ण मंदिर है जहां भारत के कोने-कोने से बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ वर्ष भर लगी रहती है।

यहां का शिवलिंग स्वयंभू है, अर्थात् अपने आप पृथ्वी से उदित हुआ है। यह तथ्य कि 60 सेंटीमीटर ऊंचा एवं 90 सेंटीमीटर व्यास के काले पत्थर का विशाल शिवलिंग बायीं ओर थोड़ा झुका है, यह प्रमाणित करता है कि इसे मनुष्य ने स्थापित नहीं किया तथा यह अनंत काल से स्थापित है। इसे प्रतिदिन स्नान कराकर धतूरे एवं अन्य मौसमी फूलों से सजाया जाता है। शिवलिंग का आधार पीतल से बना है और हाल ही में गर्भ गृह की दीवारों पर खपड़े लगाये गये हैं। इसके ऊपर कलश है जिससे पूजा स्वरूप जल या दूध शिवलिंग पर गिरता रहता है। एक बहुत नीची दीवाल में वर्गाकार रूप में शिवलिंग बंद है जिसके एक सिरे पर गणेश की प्रतिमा है। दाहिनी ओर दीवाल पर भगवान शिव की पत्नी पार्वती की मूर्ति स्थित है। ठीक गर्भ गृह के बाहरी भवन में नंदी बैल की विशाल प्रस्तर मूर्ति है। छत पर, शिवलिंग के ठीक ऊपर श्री यंत्र  बना है। 350 वर्ष पहले राजा प्रद्युम्न शाह द्वारा मंदिर का ढांचा पत्थर से बनाया गया। वर्ष 1910 में बाबा काली कमली ने इसका पुनरूद्धार दौलतराम नेपाली कल्याण न्यास द्वारा कराया।

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

शक्ति मंदिर

एक ही परिसर में विश्वनाथ मंदिर के ठीक विपरित शक्ति मंदिर देवी पार्वती के अवतार में, शक्ति की देवी को समर्पित है।

इस मंदिर के गौरव स्थल पर, 8 मीटर ऊंचा एक त्रिशूल है जो 1 मीटर व्यास का है (जैसा एटकिंसन ने सुख का मंदिर के त्रिशूल को बताया है) जिसे शक्ति स्तंभ भी कहते हैं। त्रिशुल का प्रत्येक कांटा 2 मीटर लंबा है।

इस पर सामान्य सहमति है कि उत्तराखण्ड में यह सबसे पुराना अवशेष है।

त्रिशूल के खंभे गाटे सजी चुनियों से ढंका हुआ है जो भक्तों की मन्नत का प्रतीक है।

स्तंभ के आधार पर (यहां पूजित देवी-देवता) भगवान शिव, देवी पार्वती एवं उनके पुत्र गणेश तथा कार्तिकेय की प्रस्तर प्रतिमा है।

     

शक्ति स्तंभ से संबद्ध कई रहस्य तथा किंवदन्तियां हैं। एक मतानुसार जब देवों तथा असुरों में युद्ध छिड़ा तो इस त्रिशूल को स्वर्ग से असूरों की हत्या के लिये भेजा गया। तब से यह पाताल में शेषनाग (वह पौराणिक नाग जिसने अपने मस्तक पर पृथ्वी धारण किया हुआ है) के मस्तक पर संतुलित है। यही कारण है कि छूने पर हिलता-डुलता है क्योंकि यह भूमि पर स्थिर नहीं है। यह भी कहा जाता है कि स्तंभ  धातु से बना है इसकी पहचान अब तक नहीं हो सकी है यद्यपि इसका भूमंडलीय आधार अष्टधातु का हजारों वर्ष पहले से है।

शक्ति स्तंभ से संबद्ध एक अन्य किंवदन्ती यह है भगवान शिव ने विशाल त्रिशूल से वक्रासुर राक्षस का बध किया था और यह जो त्रिशूल आठ प्रमुख धातुओं से बना था।

     

एक अन्य मतानुसार त्रिशूल पर खुदे संस्कृत लेखानुसार यह मंदिर राजा गोपेश्वर ने निर्मित कराया और उनके पुत्र महान योद्धा गुह ने त्रिशूल को बनवाया।

ऐसा भी विश्वास है कि उत्तरकाशी का पूर्व नाम बड़ाहाट शक्ति स्तंभ से आया है, जिसमें बारह शक्तियों का समावेश है। बड़ाहाट बारह शब्द का बिगड़ा रूप है।

आरती का समय
ग्रीष्म- 6 बजे सुबह से 8 बजे शाम
जाड़ा- 6 बजे सुबह से 6 बजे शाम


 

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22