सूर्य :
कुमाऊँ मंडल में सूर्य की उपासना व्यापक परम्परा थी। क्षेत्र का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर कटारमाल अल्मोड़ा में ही है। आदित्यथान से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमा न केवल क्षेत्र की बड़ी प्रतिमा है, वरन यह प्रतिमा भव्यता की दृष्टि से भी उचित स्थान रखता है।
आकाश में दिखाई देने वाले ज्योति पिंड के रुप में सूर्य की उपासना का क्रम वैदिक काल से चला आ रहा है। सूर्य और उसके विविध रुपों की पूजा उत्तर वैदिक काल में भी पल्लवित होती रही। वेदोत्तर काल में इसा और भी विस्तार हुआ। गुप्त काल और परवर्ती साहित्य से ज्ञात होता है कि सूर्य उपासकों का एक पृथक में सम्प्रदाय था। भविष्य पुराण में उल्लेखित कथा के अनुसार कृष्ण के जामवंती से उत्पन्न पुत्र सामब ने सबसे पहले चन्द्रभागा नदी (चिनाब) के तट पर मूल स्थान (वर्तमान मुल्तान) में ईरान से मगों को लाकर सूर्य मंदिर की स्थापना की थी। इस मंदिर को हेनसांग ने भी देखा था।
उत्तराखंड में प्राप्त अधिकांश सूर्य प्रतिमाऐं उत्तर भारतीय शैली की ही मिली हैं। आदित्य (महर), रमकादित्य (काली कुमाऊँ) बेलादित्य (बेलपत्ती) बड़ादिल (कटारमल) भीमादित्य (बागेश्वर) आदि की सूर्य प्रतिमाऐं उत्तरी परम्परा की हैं। इस परम्परा के अन्तरगत उपानह धारण किये द्विभुजी सूर्य पूर्ण विकसित सनाल पद्म धारण किये जाते हैं। सनाल कमल स्कन्धों से ऊपर प्रदर्शित होते हैं।
गुरुड़ से लगभग ६ कि.मी. पश्चिम में गरुड़-चौखुटिया मार्ग पर देवनाई ग्राम में कमलासन पर विराजमान उदीच्यव्लारी सूर्य की स्थानक प्रतिमा है। कन्धों तक उठे हुए उनके दोनों हाथों में पूर्ण कमल है। दोनों बाहों में घुटनें तक लहराता उत्तरीय तथा कमर में कटिसूत्र से बंधा ढ़ीला चोगा, घुटनों तले नीचे तक लटका हुआ है। वे सिर पर किरीट मुकुट, कानों में मकर कुंडल, गले में कंठहार तथा पाँवों में ऊँचे उपानह धारण किये हुए हैं। शीर्ष के पीछे पद्म प्रभामंडल विद्यमान है। उनके दोनों ओर उदीच्यवेष में दंड एवं पिंगल खड़े हुए हैं। यह प्रतिमा लगभग नहीं शती की है।
पावनेश्वर मंदिर पुभाऊँ से सूर्य की तीन प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं। इनमें लक्ष्मी मंदिर के गर्भ गृह में रखी सूर्य की रथारुढ़ प्रस्तरप्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। अत्यंत सुन्दर अलंकरणों से अलंकृत इस प्रतिमा को मुकुट, कंठहार, ग्रैवेयक, यज्ञोपवीत, कंकम, उदरबंध, कटिसीत्र, वनमाला, और उत्तरीय से सुसज्जित की गयी है। सूर्य की दो भुजायें दर्शायी गयी हैं। लम्बाचोलक पहने और उपानह धारण किये सूर्य के वक्ष पर कौस्तुभमणि दर्शित है। वनमाला की विशेषता है - इसके दोनों किनारों पर शंख का उत्कीर्ण होना। नीचे की ओर महाश्वेतादेवी अंकित है। सूर्य के अनुचर दंड और पिंगल भी उत्कीर्ण किये गये हैं। महाश्वेता देवी को अभयमुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। जबकि पिंगल को परम्परागत चिन्हों पुस्तक एवं लेखनी से सज्जित किया गया है। अश्विनी देवता अश्वमुखी हैं। परिकर खंड में ब्रह्मा और विष्णु दर्शाये गये हैं। ब्रह्मा और विष्मु भी क्रमश: अभयमुद्रा, स्रुक, पुस्तक तथा पात्र और पद्म, गदा चक्र एवं शंख से शोभित है। चरणचौकी में सप्ताश्व निरुपित किया गया है।
गढ़वाल और कुमाऊँ मंडल के विभिन्न भागों में सूर्य की प्रतिमाऐं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और ठंड के कारण प्रकाश और उष्मा के लिए भी सूर्यदेव पर अवलम्बित होना जरुरी था। यद्यपि हिमालयी क्षेत्र में १६वीं शती तक की प्रतिमाओं का क्रमिक विस्तार देखा जा सकता है। इस क्षेत्र से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमाऐं स्थानक, सम्पाद अथवा बैठी मुद्रा में प्रदर्शित हैं। सूर्यदेव की शास्रों में वर्णित सप्त अश्वों के रथ पर खड़ा अथवा बैठा दिखाया गया है। सूर्य को बौने रुप में भी विष्णु की भांति प्रदिर्शित करने का प्रयास हुआ है। गढ़सेर तथा बमनसुआल से प्रकाश में लायी गयी सूर्य की प्रतिमायें इसी प्रकार की हैं। इस प्रतिमा में मुकुट और शारीरिक बनावट का अनुपात अपेक्षाकृत छोटे आकार का जान पड़ता है। चोलक, उपनाह और कटार से विभूषित कन्धों तक उठे दोनों हाथों में पुष्पगुच्छ धारण किये सूर्य के साथ निचले पाश्वों में मिलने वाले दंड और पिंगल यहाँ नहीं हैं। ऐसी ही प्रतिमा अल्मोड़ा जनपद के खूँट गाँव में नौले की दीवार में जड़ी देखी गयी। सूर्य की प्रतिमाऐं नवग्रहों तथा देव प पर भी जड़ी देखी गयी हैं। बमन सुआल की सूर्य नीचे तक मोटे वस्रों से ढके हैं, जबकि उनके हाथों में पद्म जैसा ही पुष्पगुच्छ है।
भारत मौर्य काल से ही मानव रुप में सूर्य अंकन प्रारम्भ हो गया था। किन्तु कुमाऊँ क्षेत्र में लगभग आठवीं शती से सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया जान पड़ता है। यहाँ जो प्रतिमाऐं प्राप्त हुई हैं वे प्राय: आठवीं शती अथवा उसके बाद निर्मित जान पड़ती है। इस क्षेत्र में स्थानक के अतिरिक्त भी स्थानक रथारुढ़ सूर्य की प्रतिमाऐं बनाने की परम्परा थी। यद्यपि इन प्रतिमाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है। वर्तमान समय तक कटारमल, पुभाऊँ और बागेश्वर से ही रथारुढ़ सूर्य की प्रतिमाऐं प्राप्त हुई हैं। पूर्व मध्यकाल की प्रतिमाओं में प्राचीन परम्पराओं का प्रभाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। अलंकृत टोपी से युक्त शीर्ष के पृष्ठ भाग में पद्मपत्र एवं मुक्तावलियों आदि से सुसज्जित विशाल प्रभामंडल दोनों हाथों में विशाल पद्मगुच्च अथवा कोई स्थानीय पुष्प, अधोवस्र के रुप में ढ़ीला चोला तथा वाम पा में लटकटी कटार, सात स्थानीय पुष्प, अधोवस्र में जुता एक चक्र का रथा तथा ऊँचे उपानह कुषाम काल की प्राचीन परम्पराओं के द्योतक हैं। दोनों पाश्वों में दंड तथा पिंगल तथा प्रफुल्लित पद्मपुष्प गुप्तकाल की कला का प्रभाव दर्शाते हैं। मध्यकाल में सूर्य के परिवार में वृद्धि के परिणाम स्वरुप अश्विनी कुमार, ऊषा, प्रत्युषा, संज्ञा, भूदेवी, महाश्वेता, रेवन्त, सारथी अरुण आदि का अंकन प्रारम्भ हो गया। सूर्य की ऊषा में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देने लगा। किरीट मुकुच, चुस्त पाजामा, भारी चोगा, चौड़ी मेखला तथा शीर्ष के पीछे लघु प्रभामंडल बनने आरम्भ हुए।