Author Topic: Yamkeshwar Mahadev mandir Pori Uttarakhand,यमकेश्वर महादेव मंदिर,यमकेश्वर पौड़ी  (Read 10374 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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उत्तराखंड में गढ़वाल मंडलान्तर्गत पौड़ी जनपद है इस जनपद में हरिद्वार तथा कोटद्वार, गढ़वाल के दो प्रवेश द्वारों के मध्य पर्वतीय अंचल में यमकेश्वर नामक स्थान है।

यहां यमकेश्वर महादेव के नाम से भगवान शिव का अत्यंत प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर ऋषिकेश लक्ष्मण झूला कोटद्वार मार्ग के मध्य अमोका नामक स्थान से तीन किमी नीचे पर्वतों की उपत्यिका में स्थित है।


 कोटद्वार से मंदिर की दूरी लगभग अस्सी किमी है
, जबकि लक्ष्मण झूला से पचास किमी है। विभिन्न पुराणों में वर्णित मार्कण्डेय की मृत्यु पर विजय की कथा से संबंधित यह स्थल अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं जनमानस की श्रद्धा का केंद्र है।

 बद्री-केदार के मुख्य मार्ग से दूर होने के कारण यमकेश्वर मंदिर प्रकाश में नहीं आ पाया। इस मंदिर से संबंधित कुछ लोक प्रचलित कथाएं हैं।

ब्रह्मा जी के पुत्र कुत्स ऋषि तथा ऋषि कर्दम पुत्री के मृगश्रृंग नामक पुत्र हुए। मृगश्रंृग की सुवृता नामक पत्नी से मृकण्ड नामक एक तेजस्वी पुत्र हुआ। मृकण्ड वृद्धावस्था को प्राप्त हो गए पर उनके कोई संतान नहीं हुई।

संतान विहीन मृकण्ड और उनकी धर्मपत्नी मरूद्धती ने काशी में जाकर तप किया। पत्नी के साथ तपस्या और नियमों का पालन करते हुए उन्होंने भगवान शिव को संतुष्ट किया। प्रसन्न होने पर शिव भगवान ने पत्नी सहित मृकण्ड से वर मांगने के लिए कहा।

मुनि ने कहा- परमेश्वर संतान विहीन मुझे एक पुत्र का वर दीजिए। भगवान शंकर ने कहा कि तुम्हें उत्तम गुणों से हीन चिरंजीव पुत्र चाहिए अथवा केवल बारह साल की अल्पायु वाला एक ज्ञान एवं गुणवान पुत्र चाहिए। महर्षि मृकण्ड ने ज्ञान एवं गुणवान पुत्र का वरण ही श्रेयकर समझा। भगवान शिव तथास्तु कहकर अंर्तध्यान हो गए।






साभार श्री अजय तोमर जी

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मृकण्ड पत्नी बहुत दिनों पश्चात गर्भवती हुई। समय आने पर मरूद्धती के गर्भ से सूर्य सदृश तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। बुद्धिमान मार्कण्डेय के ग्यारहवें वर्ष के प्रारंभ होने पर मुनि मृकुण्ड का हृदय शोक से कातर हो उठा[/font][/b][/size], संपूर्ण इंद्रियों में व्याकुलता छा गई वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे।[/font]
[/size][/font][/b][/size] पिता को अत्यंत दुखी और करुण विलाप करते देख मार्कण्डेय ने उनसे शोक मोह का कारण पूछा। मार्कण्डेय के मधुर वचन सुनकर मृकण्डु ने शोक का कारण बताया और कहा कि पुत्र भगवान शिव ने तुम्हें केवल [/font][/b][/size]12 वर्ष की आयु ही दी है उसकी समाप्ति का समय आ गया है। अब मुझे शोक हो रहा है।[/font]
[/size]पितृवचन सुन मार्कण्डेय ने कहा कि आप मेरे लिए कदापि शोक न कीजिए। मैं ऐसा यत्न करूंगा कि जिससे अमर हो जाऊंगा। मैं भगवान शिव की आराधना करके अमरतत्व प्राप्त करूंगा। पुत्र की बात सुनकर मृकुण्ड हर्षित एवं संतुष्ट हो गए।[/font][/b][/size]तब मार्कण्डेय ने यमकेश्वर मणिकूट पर्वत के निकट जहां शतरुद्रा नदी का उद्गम स्थल है[/font][/b][/size], वहां पीपल के वृक्ष के नीचे बालू का लिंग बनाकर महामृत्युंजय का जप करने लगे। मृत्युंजय भगवान की कृपा से उनके उत्तर की ओर सात छोटे-छोटे जलपूर्ण तालाब बन गए जो आज भी प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होते हैं।[/font]
[/size] मृत्यु तिथि आने पर इसी स्थान पर यमराज आए और बलपूर्वक मार्कण्डेय का प्राण हरण करने लगे। पहले मार्कण्डेय और यम में वार्तालाप हुआ और उसके बाद प्रकट हुए शिव ने यम पर चरण प्रहार किया। यम से झगड़ा होने के कारण ही स्थान का नाम यमरार पड़ा जो कालांतर में यमराड़ी नाम से प्रसिद्ध हो गया।[/font][/b][/size]

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तब यमराज ने वर्तमान यमकेश्वर नामक स्थान में आकर भगवान शिव के रूद्र रूप की स्तुति प्रारंभ कर दी। भगवान शिव प्रसन्न हो गए। और यमराज से कहा कि जहां मेरा मृत्युंजय जप होता हो वहां तुम्हें नहीं जाना चाहिए।

 अंत में यमराज की स्तुति से प्रसन्न होकर शिव ने कहा कि जिस स्थान पर तुम हो उस स्थान पर मेरी स्वयं भू लिंग रूपी मूर्ति उत्पन्न हुई है। उसकी तुम पूजा अर्चना करो। यह शिवलिंग तुम्हारे नाम से ही प्रसिद्ध होगा। इस शिवलिंग का जो पूजन करेगा वह बड़ी-बड़ी अपमृत्यु एवं अकाल मृत्यु को टाल देगा।

जिन-जिन कामनाओं को लेकर मनुष्य यहां मेरी पूजा करेगा उसकी वह कामना अवश्य पूर्ण होगी। यमराज ने एक वर्ष तक इस शिवलिंग के सामने घोर तपस्या की। भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उसी दिन से यमकेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। मंदिर के सामने बहने वाली छोटी नदी का नाम शतरुद्रा था।


सत्य मामा है इसका उद्गम यमराड़ी है जहां मार्कण्डेय ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी जहां सात कुंड वर्तमान में भी विद्यमान हैं।यमकेश्वर के निकट ही कांडा नामक गांव है इस गांव की वृद्धा ने सर्वप्रथम यमकेश्वर शिव लिंग का साक्षात्कार किया था। उस समय यमकेश्वर के आस पास झाडियों और वनों की अधिकता थी एक दिन उक्त बुढिय़ा वाराही कंद लेने इस स्थल पर आई।

 झाडिय़ों में गीढ़ी खोदते समय एकाएक कुदाली की नोंक एक पत्थर पर लगी। पत्थर पर खरोंच लगते ही उससे दूध की धार फूट पड़ी। यह देखकर बुढिय़ा घबरा गई। तब शिव भगवान ने प्रकट होकर कहा कि तुम यहां क्या लेने आई हो।

 मुझे गीढ़ी (कंद) चाहिए। उन्होंने कहा कि जाओ घर में ही तुम्हें इच्छित वस्तु मिल जाएगी। बुढिय़ा ने घर जाकर देखा कि उसका आंगन। गंढी से भरा पड़ा था। तब बुढिया ने क्षेत्र के लोगों को उस स्थान के बारे में बताया फिर स्थल का निर्माण शुरू हुआ।

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यमकेश्वर महादेव के बाएं पाश्र्व में महाकाली मंदिर भी है यह मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसकी स्थापना के संबंध में भी वयोवृद्ध लोग एक बहुत रोचक व आश्चर्यजनक वृतांत सुनाते हैं। यह विश्वसनीय घटना अधिक प्राचीन नहीं है यमकेश्वर मंदिर में किसी समय एक सिद्ध तांत्रिक बाबा जोगेन्द्र गिरि आए।


 उनकी सिद्धि व भक्ति भावना से स्थानीय लोग प्रभावित थे, परंतु कुछ लोग उनकी चमत्कारिक शक्ति का प्रदर्शन देखना चाहते थे। अत: उन लोगों ने बाबा से निवेदन किया कि बाबा यदि आपमें कुछ सिद्धि या शक्ति है तो यहां मां काली को बुलाकर स्थापना कर दीजिए।

 बाबा ने कहा कि काली का आह्वान तो में कर लूंगा परंतु कुछ व्यक्ति जो निर्भीक और दृढ़ हृदय के हों वे मेरे निकट बैठ जाएं। इस साधन में बैठने के पश्चात में अनुष्ठान के पूर्ण होने तक आसन पर ही बैठा रहूंगा अन्यथा क्रिया खंडित हो जाएगी और भयंकर अनिष्ट भी सकता है। मां काली को अर्पण करने हेतु जो जो सामग्री में आपसे मांगूंगा आप मुझे देते रहना।

सहर्ष ही कुछ लोग इस कार्य के लिए तैयार हो गए। पूजन हवन एवं अर्पण की संपूर्ण सामग्री मंगाकर बाबा ने अपने चारों ओर रख ली और आसन जमा कर बैठ गए और बोले कि तुम लोग भयभीत मत होना और मेरे संकेतानुसार सामग्री मुझे देते जाना। और अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया।

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बाबा ये मंत्रों से मां महाकाली का पूजन स्तवन एवं जप प्रारंभ कर दिया। शनै: शनै: काली के आह्वान मंत्रों का उच्चारण किया। क्षणभर पश्चात घाटी में भयंकर घाटी में भयंकर तूफान तथा विचित्र अट्टाहास युक्त आवाजें सुनाई देने लगी। वातावरण भयावह हो रहा था।

 और लोगों का साहस क्षीण होता जा रहा था सुदूर स्थित क्षेत्र से एक भयंकर किलकारी की ध्वनि ने उन लोगों के साहस को बिल्कुल तोड़ दिया एक-एक करके सब लोग भाग गए। व बाबा अकेले अनुष्ठान करते रहे। क्षण भर पश्चात मां महाकाली बाबा के समक्ष उपस्थित हो गई। बाबा ने विभिन्न भोग सामग्री मां काली को अर्पित की।

जहां तक उनका हाथ पहुंचा उन्होंने सारी सामग्री प्रदान कर दी। आसन से उठना निषद्ध था अत: उन्होंने काली का भोग पूरा करने के लिए अपने शरीर का मांस काट-काट कर अपना ही बलिदान कर दिया। भक्त की अगाध श्रद्धा, अदम्य साहस एवं शरीरार्पण देख मां काली प्रसन्न हो गई और बाबा से वर मांगने को कहा।

 नश्वर शरीर का मोह त्याग कर उन्होंने मां काली से कहा कि आपका दर्शन हो गया यही मेरे लिए बहुत है, अगर आप मुझ पर प्रसन्न हें तो मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कर इस स्थान पर प्रतिष्ठित हो जाइए। तथाअस्तु कह कर मां काली उस स्थान पर प्रतिष्ठित हो गई। मां काली के पाश्र्व स्थल में बाबा की समाधि के ऊपर एक छोटा सा स्थान मंदिर आज भी उनके त्याग मय बलिदान का स्मारक है।

 

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