मृकण्ड पत्नी बहुत दिनों पश्चात गर्भवती हुई। समय आने पर मरूद्धती के गर्भ से सूर्य सदृश तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। बुद्धिमान मार्कण्डेय के ग्यारहवें वर्ष के प्रारंभ होने पर मुनि मृकुण्ड का हृदय शोक से कातर हो उठा[/font][/b][/size], संपूर्ण इंद्रियों में व्याकुलता छा गई वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे।[/font]
[/size][/font][/b][/size] पिता को अत्यंत दुखी और करुण विलाप करते देख मार्कण्डेय ने उनसे शोक मोह का कारण पूछा। मार्कण्डेय के मधुर वचन सुनकर मृकण्डु ने शोक का कारण बताया और कहा कि पुत्र भगवान शिव ने तुम्हें केवल [/font][/b][/size]12 वर्ष की आयु ही दी है उसकी समाप्ति का समय आ गया है। अब मुझे शोक हो रहा है।[/font]
[/size]पितृवचन सुन मार्कण्डेय ने कहा कि आप मेरे लिए कदापि शोक न कीजिए। मैं ऐसा यत्न करूंगा कि जिससे अमर हो जाऊंगा। मैं भगवान शिव की आराधना करके अमरतत्व प्राप्त करूंगा। पुत्र की बात सुनकर मृकुण्ड हर्षित एवं संतुष्ट हो गए।[/font][/b][/size]तब मार्कण्डेय ने यमकेश्वर मणिकूट पर्वत के निकट जहां शतरुद्रा नदी का उद्गम स्थल है[/font][/b][/size], वहां पीपल के वृक्ष के नीचे बालू का लिंग बनाकर महामृत्युंजय का जप करने लगे। मृत्युंजय भगवान की कृपा से उनके उत्तर की ओर सात छोटे-छोटे जलपूर्ण तालाब बन गए जो आज भी प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होते हैं।[/font]
[/size] मृत्यु तिथि आने पर इसी स्थान पर यमराज आए और बलपूर्वक मार्कण्डेय का प्राण हरण करने लगे। पहले मार्कण्डेय और यम में वार्तालाप हुआ और उसके बाद प्रकट हुए शिव ने यम पर चरण प्रहार किया। यम से झगड़ा होने के कारण ही स्थान का नाम यमरार पड़ा जो कालांतर में यमराड़ी नाम से प्रसिद्ध हो गया।[/font][/b][/size]