खीम दा,
उत्तराखण्ड में ज्यादा प्रचलित और यहां के लोगों के लिये ज्यादा फायदेमंद कौन है, यह कहना तो मुश्किल है। यहां का पर्यटन ज्यादा तीर्थाटन पर ही निर्भर है, तीर्थाटन और पर्यटन दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं, जैसा आपने कहा कि पर्यटन मौज-मस्ती और तीर्थाटन आध्यात्मिक शांति का पर्याय है तो अब लोगों का नजरिया इसके प्रति भी बदला है। लोगों का अब सोचना है कि चलो बद्रीनाथ जी के दर्शन कर आते हैं और वापसी में मसूरी-देहरादून की सैर भी कर आयेंगे।
जहां तक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सुरक्षा की बात है तो सरकार को इसके प्रति गंभीर होकर सोच-समझक्र कार्य योजना तैयार करनी होगी। आज आप कोई भी हिल स्टेशन देखें छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा, जहां-जहां भी रिसार्ट बने हैं या हट्स बनीं हैं या होटल, स्थानीय लोगों की कोई भागीदारी उसमें नहीं है। इसे बढ़ाना पड़ेगा, अपनी संस्कृति का भी सहयोग हम इसमें ले सकते हैं, ग्राम्य स्तर पर एक सहकारी समिति का गठन करवाया जाय और उसे ऋण देकर वहां पर एक होटल/रिसार्ट का निर्माण करवा दिया जाय, स्थानीय लोग इसमें काम करें और यहां पर उत्तराखण्डी व्यंजन बनाये जांय, सायंकाल को ग्रामीण बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करें......इससे जो आय हो, उसका २५ % इसकी मरम्मत/देख-भाल के लिये सुरक्षित रख दिया जाय, १५ % आय को संबंधित गांव के विकास कार्यों में खर्च किया जाय और शेष राशि से कर्मचारियों की तनख्वाह दी जाय। कुमाऊ/गढ़वाल मंडल विकास निगम इन होटल/रिसार्ट में टूरिस्ट को लाने की व्यवस्था करे। पर्यटन या तीर्थाट्न का असली फायदा तभी होगा, जब सीधे गांव का और वहां के निवासियों की इसमें सहभागिता होगी।