मेहता जी,
यह अच्छा विषय है, सरकार ने महिलाओं को पंचायत चुनावों में ५० % आरक्षण तो दे दिया, ठीक है। पिछले चुनावों में भी कुछ सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित थीं, लेकिन कितनी महिलाओं ने अपना कार्य किया, यह विश्लेषण का विषय है। ऎसी महिला जनप्रतिनिधि मात्र हस्ताक्षर करने तक ही सीमित रहीं। शहरी क्षेत्रों मेम तो महिलायें राजनीति में सक्रिय रह्ती हैं, लेकिन मेरी पीड़ा उस पहाड़ की नारी, लछिमा देवी की है, जो अपना नाम लिखना नहीं जानती, जिसे ग्राम प्रधानी का बस्ता स्या होता है, ब्लाक की योजनायें क्या होती हैं भी पता नहीं है, वह पिछली बार भी ग्राम प्रधान थी और उसने अपना ग्राम प्रधान का दायित्व भी निभाया, लेकिन कैसे.......? जहां पर उसके पति ने अंगूठा लगाने को कहा, वहां लगा दिया और कई बार जब वह घास लाने ४ मील गई थी और जरुरी कागजों पर उसका अंगूठा चाहिए था, तो उसके पति ने अपनी ही अंगूठा लगा दिया।
मेरी चिन्ता उस हरुली देवी के लिये है, जो जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ रही है, लेकिन उसे यह पता ही नहीं कि जिला पंचायत होती क्या है, आज भी चमोली का जिला मुख्यालय गोपेश्वर उसके लिये "बजार" है, जहां वह अपने पति से साथ चूडि़यां लाने और जलेबी खाने ही जाती थी, जिलाधिकारी आज भी उसके लिये भौत बड़ा सैप है.....तो क्या वह जिला पंचायत में निर्वाचित होकर अपने क्षेत्र की समस्याओं को वहां उठा पायेगी? क्या वह जिला प्लान की बैठकों में प्लान और नान-प्लान के बजट पर बहस कर पायेगी?
सरकार अगर महिलाओं को आगे लाना चाहती है तो पहले उनको शिक्षित तो करे, उनको पता तो चले कि समाज क्या है, क्या उसके अधिकार हैं। मैं एक ऎसी ग्राम प्रधान को जानता हूं जो पिछले ५ साल गांव की प्रधान रही, वह एक अनुसूचित जाति की महिला हैं, लेकिन अगर उनसे पूछा जाय कि ब्लाक योजना क्या है, वहां पर बैठक में कौन आता है, कैसे योजना पास होती है, ग्राम प्रधान का बस्ता क्या होता है, ग्राम कल्याण अधिकारी क्या है, तो वह ऎसे मुंह ताकती हैं, जैसे मैंने उनके किसी और भाषा में बात की हो! तो यह है सच्चाई......देखते हैं इस बार क्या होता है।