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Districts Of Uttarakhand - उत्तराखंड के जिलों का विवरण एवं इतिहास

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Devbhoomi,Uttarakhand:
चैती मंदिर-

चैती मंदिर का नाम माता चैती देवी ने नाम पर रखा गया है। यह मंदिर उधमसिंह नगर के प्रमुख स्थानों में से एक है। मार्च माह के अवसर पर यहां चैती मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले का आयोजन बहुत बड़े स्तर पर किया जाता है। नवरात्रों के दौरान लाखों की संख्या में श्रद्धालु चैती देवी के दर्शनों के लिए यहां पर आते हैं। यह मंदिर काशीपुर-बैजपुर मार्ग पर स्थित है जो कि काशीपुर बस स्टैंड से 2.5 किलोमीटर की दूरी पर है।

 नानक माता धाम-

 यह बहुत ही बड़ा धाम है। नानक माता का निर्माण सरयू नदी पर किया गया है। नानक माता धाम केवल धाम नहीं है बल्कि यह जगह पिकनिक स्थल के रूप में जानी जाती है। यहां का शांत वातावरण और झीलों से बहता पानी इस स्थान की खूबसूरती को ओर अधिक बढ़ाता है। यहां बोटिंग का भी मजा लिया जा सकता है। यह धाम रूद्रप्रयाग से 56 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।नानक माता-सिखों के पहले गुरू, गुरू नानक देव जी इस जगह पर घूमने के लिए आए थे।
उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम नानक माता रखा गया। नानक माता सिखों के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। यह बहुत ही खूबसूरत गुरूद्वारा है। इसके सामने ही नानक माता धाम है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में भक्तगण इस जगह पर आते हैं। नानक माता में ही टूरिंस्ट रेस्ट हॉउस की सुविधा भी उपलब्ध है। इसके अलावा श्रद्धालुओं के लिए गुरूद्वार में रहने की सुविधा भी उपलब्ध है। नानक माता रूद्रप्रयाग-तंकपुर मार्ग पर स्थित है। यह स्थान रूद्रप्रयाग से 56 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

Devbhoomi,Uttarakhand:
04-चमोली

चमोली भारतीय राज्य उत्तरांचल का एक जिला है ।बर्फ से ढके पर्वतों के बीच स्थित यह जगह काफी खूबसूरत है। चमोली अलखनंदा नदी के समीप बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। यह उत्तराचंल राज्य का एक जिला है। यह प्रमुख धार्मिल स्थानों में से एक है। काफी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं।
 चमोली की प्राकृतिक सुंदरता पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। पूरे चमोली जिले में कई ऐसे मंदिर है जो हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
चमोली में ऐसे कई बड़े और छोटे मंदिर है तथा ऐसे कई स्थान है जो रहने की सुविधा प्रदान करते हैं। इस जगह को चाती कहा जाता है। चाती एक प्रकार की झोपड़ी है जो अलखनंदा नदी के तट पर स्थित है।



मुख्य आकर्षण,

बद्रीनाथबद्रीनाथ देश के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। यह चार धामों में से एक धाम है। श्री बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। इसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। इसके बाद इसका निर्माण दो शताब्दी पूर्व गढ़वाल राजाओं ने करवाया था। बद्रीनाथ तीन भागों में विभाजित है- गर्भ गृह, दर्शन मंडप और सभा मंडप।

तपकुण्ड
अलखनंदा नदी के किनार पर ही तप कुंड स्थित कुंड है। इस कुंड का पानी काफी गर्म है। इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले इस गर्म पानी में स्नान करना जरूरी होता है। यह मंदिर प्रत्येक वर्ष अप्रैल-मई माह में खुलता है। सर्दियों के दौरान यह नवम्बर के तीसर सप्ताह में बंद रहता है। इसके साथ ही बद्रीनाथ में चार बद्री भी है जिसे सम्मिलित रूप से पंच बद्री के नाम से जाना जाता है। यह अन्य चार बद्री- योग ध्यान बद्री, भविष्य बद्री, आदि बद्री और वृद्धा बद्री है।

हेमकुंड साहिब
 हेमकुंड को स्न्रो लेक के नाम से भी जाना जाता है। यह समुद्र तल से 4329 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां बर्फ से ढके सात पर्वत हैं, जिसे हेमकुंड पर्वत के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त तार के आकार में बना गुरूद्वारा जो इस झील के समीप ही है सिख धर्म के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। यहां विश्‍व के सभी स्थानों से हिन्दू और सिख भक्त काफी संख्या में घूमने के लिए आते हैं। ऐसा माना जाता है कि गुरू गोविन्द सिंह जी, जो सिखों के दसवें गुरू थे, यहां पर तपस्या की थी। यहां घूमने के लिए सबसे अच्छा समय जुलाई से अक्टूबर है।
गोपेश्‍वर शहर में तथा इसके आस-पास बहुत सारे मंदिर है। यहां के प्रमुख आकर्षण केन्दों में पुराना शिव मंदिर, वैतामी कुंड आदि है।
गोपेश्वर का इतिहास गोपीनाथमन्दिर से निकट से जुड़ा है, जिसके इर्द-गिर्द यह शहर बसा है। मन्दिर परिसर में पाये गये एक लोहे के त्रिशूल पर खुदे लेख वर्तमान 6-7वीं सदी के हैं। चार लेख संस्कृत की नागरी लिपि में हैं, जिनमें स्कंदनाग, विष्णुनाग तथा गणपतनाग जैसे शासकों का वर्णन है। वर्ष 1191 से एक अन्य लेख में नेपाल के सामान्य वंश के शासक अशोक माल्ला का वर्णन है।


प्राचीन काल में शासकों द्बारा अपनी प्रभुता की घोषणा करने का एक सामान्य तरीका होता था विजय के प्रतीक के रूप में एक त्रिशूल गाड़ देना। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण, जो वर्ष 1970 से ही मंदिर की देखभाल कर रहा है, के अनुसार मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासन के दौरान 9-11वीं सदीं के मध्य हुआ।मूलरूप से प्राचीन काल में यह गांव मन्दिर से 280 मीटर दूर था तथा उसे रानीहाट या कश्मीरहाट कहते थे।
जैसा कि नाम से पता चलता है, यह एक बाजार था जो निपुण मूर्तिकारों के लिये प्रसिद्ब था, वे मुलायम पत्थरों से धार्मिक मूर्तियां गढ़ते थे और केदारनाथ-बद्रीनाथ जाने वाले पैदल तीर्थयात्रियों को बेचते थे। तीर्थ यात्रा के पथ पर गोपेश्वर बद्रीनाथ एवं केदारनाथ से समान दूरी पर था
और इसीलिये तीर्थ यात्रियों का प्रिय था। शहर की मान्यता का दूसरा कारण यह था कि जो कोई भी तीर्थ यात्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिरों तक नही पहुंच पाता था, वह यहां गोपीनाथ मन्दिर में पूजा कर अपनी तीर्थ यात्रा पूर्ण कर लेता था। यह एक ऐसा क्षेत्र था, जहां साधु-संत जगह की शांति एवं सुंदरता से अभिभूत होकर यहां पूजा एवं तप के लिये रूक जाते थे।
पंच प्रयाग में गढ़वाल हिमालय से निकलने वाली पांच प्रमुख नदियों का संगम होता है। ये पांच नदियां विष्णु प्रयाग, नंद प्रयाग, कर्म प्रयाग, रूद्र प्रयाग और देव प्रयाग है।

यहां दो प्रमुख नदियों अलखनंदा और भागीरथी आपस में मिलती है। इसके अलावा यहां कई प्रसिद्ध मंदिर और नदी घाट भी है। ऐसा माना जाता है कि देव प्रयाग में भगवान विष्णु ने राजा बाली से तीन कदम भूमि मांगी थी। यहां रामनवमी, दशहरा और बसंत पंचमी के अवसर पर मेले का आयोजन किया जाता है।
यहां अलखनंदा और धौली गंगा नदियों का संगम होता है। यह समुद्र तल से 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। विष्णु प्रयाग से जोशीमठ सिर्फ 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

फूलो की घाटी


प्राकृतिक प्रेमियों के लिए यह जगह स्वर्ग के समान है। इस स्थान की खोज फ्रेंक स्मिथ और आर.एल. होल्डवर्थ ने 1930 में की थी। इस घाटी में सबसे अधिक संख्या में जंगली फूलों की किस्में देखी जा सकती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार हनुमान जी लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा के लिए यहां से संजीवनी बूटी लेने के लिए आए थे। इस घाटी में पौधों की 521 किस्में हैं। 1982 में इस जगह को राष्ट्रीय उद्यान के रूप मे घोषित कर दिया गया था। इसके अलावा यहां आपको कई जानवर जैसे, काला भालू, हिरण, भूरा भालू, तेंदुए, चीता आदि देखने को मिल जाएंगें।

औली
 बहुत ही खूबसूरत जगह है। अगर आप बर्फ से ढ़के पर्वतों और स्की का मजा लेना चाहते हैं तो औली बिल्कुल सही जगह है। जोशीमठ के रास्ते से आप औली तक पहुंच सकते हैं। जो कि लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सर्दियों में कई प्रतियोगियों का आयोजन किया जाता है।
यह आयोजन गढ़वाल मंडल विकास सदन द्वारा करवाया जाता है। इसके अलावा आप यहां से नंदा देवी,कामत औद और दुनागिरी पर्वतों का नजारा भी देख सकते हैं। जनवरी से माच के समय में औली पूरी तरह बर्फ की चादर से ढ़का हुआ रहता है। यहां पर बर्फ करीबन तीन फीट तक गहरी होती है। औली में होने वाले स्की कार्यक्रम यहां पर्यटकों को अपनी ओर अधिक आकर्षित करते हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand:
05-चम्पावत
चम्पावत , उत्तरांचल का एक जिला है ।उत्तराखंड का ऐतिहासिक चंपावत जिला अपने आकर्षक मंदिरों और खूबसूरत वास्तुशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। पहाड़ों और मैदानों के बीच से होकर बहती नदियां अद्भुत छटा बिखेरती हैं। चंपावत में पर्यटकों को वह सब कुछ मिलता है
 
 जो वह एक पर्वतीय स्थान से चाहते हैं। वन्यजीवों से लेकर हरे-भरे मैदानों तक और ट्रैकिंग की सुविधा, सभी कुछ यहां पर है।समुद्र तल से 1615 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चंपावत कई सालों तक कुंमाऊं के शासकों की राजधानी रहा है। चांद शासकों के किले के अवशेष आज भी चंपावत में देखे जा सकते हैं।
चम्पावत की संस्कृति को आकार यहां के इतिहास से मिला है। यह एक प्राचीन शहर है जिसे 10वीं सदी में कुमाऊं के चंद वंश के राजाओं द्वारा बनवाया गया था। स्थानीय आकर्षणों में सुंदर मंदिर परिसरों के अवशेष तथा कुछ पौराणिक तौर पर जुड़े स्थल जैसे गोरिल देवता तथा नागनाथ के मंदिर शामिल हैं।
यह शहर चीड़ पेड़ के वनों तथा समतल हरे-भरे खेतों से घिरा है एवं यहां का शांतिपूर्ण वातावरण तथा यहां के मित्रवत लोग आपके हृदय में जगह बना लेंगे। शहर के आस-पास घूमने योग्य स्थानों में प्राचीन घटोत्कच्छ मंदिर तथा मायावती में स्वामी विवेकानंद से जुड़ा आश्रम शामिल हैं।
 चम्पावत,मुख्य आकर्षण
बालेश्रवर मंदिर
यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण चांद शासन ने करवाया था। इस मंदिर की वास्तुकला काफी सुंदर है। ऐसा माना जाता है कि बालेश्रवर मंदिर का निर्माण 10-12 ईसवीं शताब्दी में हुआ था

मीठा-रीठा साहिब
 यह सिक्खों के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। यह स्थान चम्पावत से 72 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि सिक्खों के प्रथम गुरू, गुरू नानक जी यहां पर आए थे। यह गुरूद्वारा जहां पर स्थित है वहां लोदिया और रतिया नदियों का संगम होता है। गुरूद्वार परिसर पर रीठे के कई वृक्ष लगे हुए है। ऐसा माना जाता है कि गुरू के स्पर्श से रीठा मीठा हो जाता है। गुरूद्वारा के साथ में ही धीरनाथ मंदिर भी है। बैसाख पूर्णिमा के अवसर पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है।
पूर्णनागिरी मंदिर
यह पवित्र मंदिर पूर्णनागिरी पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर तंकपुर से 20 किलोमीटर तथा चम्पावत से 92 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पूरे देश से काफी संख्या में भक्तगण इस मंदिर में आते हैं। इस मंदिर में सबसे अधिक भीड़ चैत्र नवरात्रों ( मार्च-अर्प्रैल) में होती है। यहां से काली नदी भी प्रवाहित होती है जिसे शारदा के नाम से जाना जाता है।
श्यामलातल
 यह जगह चम्पावत से 56 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके साथ ही यह स्थान स्वामी विवेकानन्द आश्रम के लिए भी प्रसिद्ध है जो कि खूबसूरत श्यामातल झील के तट पर स्थित है। इस झील का पानी नीले रंग का है। यह झील 1.5 वर्ग किलोमीटर तक फैली हुई है। इसके अलावा यहां लगने वाला झूला मेला भी काफी प्रसिद्ध है।
पंचेश्रवर
यह स्थान नेपाल सीमा के समीप स्थित है। इस जगह पर काली और सरयू नदियां आपस में मिलती है। पंचेश्रवर भगवान शिव के मंदिर के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। काफी संख्या में भक्तगण यहां लगने वाले मेलों के दौरान आते हैं। और इन नदियों में डूबकी लगाते हैं।
देवीधुरा
यह जगह चम्पावत से 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह खूबसूरत जगह वराही मंदिर के नाम से जानी जाती है। यहां बगवाल के अवसर पर दो समूह आपस में एक दूसरे पर पत्थर फेकते हैं। यह अनोखी परम्परा रक्षा बन्धन के अवसर की जाती है।
लोहाघाट
यह ऐतिहासिक शहर चम्पावत से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान लोहावती नदी के तट पर स्थित है। यह जगह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी काफी प्रसिद्ध है। इसके अलावा यह स्थान गर्मियों के दौरान यहां लगने वाले बुरास के फूलों के लिए भी प्रसिद्ध है।


अब्बोट माउंट बहुत ही खूबसूरत जगह है। इस स्थान पर ब्रिटिश काल के कई बंगले मौजूद है। यह खूबसूरत जगह लोहाघाट से 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा यह जगह 2001 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
ग्वेल जी को न्याय का देवता भी कहा जाता है। माना जाता है कि जिस किसी के भी साथ राज दरबार में गलत न्याय हुआ हो, न्याय में भेदभाव हो गया हो तो वह इनके दरबार में अपनी करुण पुकार कहकर या लिखकर इनके समक्ष करता है, इसी विश्वास के साथ कि ग्वेल देवता अवश्य ही मेरे साथ हुये अन्याय को देखते हुये,
 त्वरित न्याय करेंगे। यहां आकर उन्हें न्याय भी मिलता है। ऎसे कई उदाहरण हिअं ग्वेल जी के न्याय के, अन्यायी को दंड देने के तथा दुःखियों का दुःख दूर करने के लिये।
 माना जाता है कि ग्वेल जी जब राजा थे, तब वह राज्य में घूम-घूम कर जन अदालत लगाकर त्वरित न्याय दिया करते थे। आज भी लोक अदालतों के माध्यम से जनता को तुरंत न्याय दिलाने का प्रयास दिया जाता है। ग्वेल जी इस आवश्यकता को समझते हुये लिक अदालतों द्वारा न्याय कार्य आरम्भ कर चुके थे।.
 घटोत्‍कच का मंदिर
 यह शहर से 2 किमी, की दूर चम्‍पावत तामली माटर मार्ग के किनारे पर बसा है यह भीम पुत्र् घटोत्‍कच का मंदिर है महाभारत की लडाई में घटोत्‍कच का सिर धड से कट कर यहां पर गिरा यह क्षेत्र् एक जलाशय के रूप में था पांडव अपने पुत्र् के सिर को न देखकर बहुत दुखी हुए तो स्‍वप्‍न में स्‍वंय घटोत्‍कच ने बताया कि मेरा सिर अमुक क्षेत्र् में है तो पांडव लोग डुढते हुए यहां आये व जलाशय को देखकर घबरा गये कि कैसे सिर को निकाला जाय उन्‍होंने मॉ भगवती अखिल तारणी से प्रार्थना की तथा भीम ने गदा प्रहार कर जलाशय को तोड डाला घटोत्‍कच का श्राद्व किया जिसके चिन्‍ह, हवन कुन्‍ड, नेदी,दीपे आदि आज भी खण्‍डहर के रूप में विद्यमान है जिस स्‍थान पर श्राद्व किया वह शिला धर्म शिला के नाम से नाम से जानी जाती है धार्मिक पर्वो पर आज भी यहां पर स्‍नान करने का महत्‍व है
व्‍यानधुरा
आस्‍था का केन्‍द्र व्‍यानधुरा विभिन्‍न प्रकार के वन्‍य जन्‍तुओं से भी भरा पूरा है यह मंदिर मनोहारी प्राक़तिक सौन्‍दर्य से भरपूर्व है तथा टनकपुर से 25 कि,मी दूर अवस्थित है इस मंदिर की बनावट अन्‍य मंदिरो से भिन्‍न है जिसमें छत और कलश नहीं है इसमें धनुश –वाण, ि‍त्रशूल इकठठे है
ऐडी को अर्जन का अवतार तथा व्‍यान को धर्मराज युधिष्टिर का अवतार मानते है मान्‍यताहै कि पांडव की तपोभूमि होने से भगवती व्‍यान, देव ,ऐडी ने तुर्क आक़मणकारी को जिसे माल का भराडा कहते है को रोका पांडवो ने व्‍यानधुरा में अज्ञातवास के समय भगवती की आराधना की ओर अस्‍त्र् शस्‍त्रों को इसी स्‍थान पर छिपाया भीम ने कीचक का वद्य भी इसी क्षेत्र् मे किया था दस क्षेत्र् में मुगल कालीन लेख भी मिला है
एडी व व्‍यान राजांशी देव के रूप में पूजयनीय है और न्‍याय केप्रतीक माने जाते है इसकी कई शाखायें है एक शाखा चम्‍पावत से 3 किमी, चम्‍पावत – ललुवापानी मोटर मार्ग से मात्र् 1.50 किमी पर है तथा एक अन्‍य शाखा गहतोडा फटक्‍ शिला के नाम से सेन धुरा में अवस्थित है इन मंदिरों में पशु बलि वर्जित है जन मानस में ऐडी व्‍यानधुरा की महीमा बहुत है

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06-टिहरी गढ़वाल




टिहरी गढ़वाल , उत्तरांचल का एक जिला है ।टिहरी गढ़वाल भारतीय राज्य उत्तराखंड का एक जिला है। इसके अतिरिक्त टिहरी उत्तराखंड का सबसे बड़ा जिला है। पर्वतों के बीच स्थित यह जगह काफी खूबसूरत है। हर वर्ष काफी संख्या में पर्यटक यहां पर घूमने के लिए आते हैं। यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में भी काफी प्रसिद्ध है। यहां आप चम्बा, बुदा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग आदि स्थानों में घूम सकते हैं। यहां की प्राकृतिक खूबसूरती काफी संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर खिंचती है।

टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्‍द ‘त्रिहरी’ से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्‍थान जो तीन तरह के पाप (जो जन्‍मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्‍द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला।
सन्‌ 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्‍य करते थे जिन्‍हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था।ऐसा कहा जाता है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो आजकल चमोली जिले में है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्‍य भी उन्‍हें दे दिया।

टिहरी गढ़वाल , उत्तरांचल का एक जिला है ।टिहरी गढ़वाल भारतीय राज्य उत्तराखंड का एक जिला है। इसके अतिरिक्त टिहरी उत्तराखंड का सबसे बड़ा जिला है। पर्वतों के बीच स्थित यह जगह काफी खूबसूरत है। हर वर्ष काफी संख्या में पर्यटक यहां पर घूमने के लिए आते हैं। यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में भी काफी प्रसिद्ध है। यहां आप चम्बा, बुदा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग आदि स्थानों में घूम सकते हैं। यहां की प्राकृतिक खूबसूरती काफी संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर खिंचती है।
टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्‍द ‘त्रिहरी’ से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्‍थान जो तीन तरह के पाप (जो जन्‍मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्‍द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला।

सन्‌ 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्‍य करते थे जिन्‍हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था।ऐसा कहा जाता है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो आजकल चमोली जिले में है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्‍य भी उन्‍हें दे दिया।

 धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्‍य बड़ाती गयीं। इस तरह से सन्‌ 1803 तक सारा (918 सालों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके कब्‍जे में आ गया।उन्‍ही सालों में गोरखाओं के नाकाम हमले (लंगूर गढ़ी को कब्‍जे में करने की कोशिश) भी होते रहे, लेकिन सन्‌ 1803 में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस वक्‍त छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिये गये। धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्‍व बढ़ता गया और इन्‍होनें करीब 12 साल राज्‍य किया। इनका राज्‍य कांगड़ा तक फैला हुआ था,

फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्‍ट इंडिया कम्‍पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्‍य पुनः छीन लिया।ईस्‍ट इंडिया कंपनी ने फिर कुमाऊँ, देहरादून और पूर्व (ईस्‍ट) गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्‍चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया।

राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्‍द्र शाह ने इस राज्‍य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्‍द्र नगर स्‍थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन्‌ 1949 तक राज्‍य किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी काफी बढ चढ कर हिस्‍सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्‍त होने की इच्‍छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना मुश्‍किल होने लगा था।

और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्‍द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन्‌ 1949 में टिहरी राज्‍य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में 24 फरवी 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया


पर्यटन स्थल
बुदा केदार मंदिर
इस स्थान पर बाल गंगा और धर्म गंगा नदियां आपस में मिलती है। टिहरी से इस जगह की दूरी 59 किलोमीटर है। ऐसा माना जाता है कि दुर्योधन ने इसी जगह पर तर्पण किया था। पौराणिक कथा के अनुसार, भिरगू पर्वत पर पंडावों और ऋषि बालखिली के बीच लड़ाई हुई थी।
देवप्रयागदेवप्रयाग

एक प्राचीन शहर है।यह भारत के सर्वाधिक धार्मिक शहरों में से एक है। इस स्थान पर अलखनंदा और भागीरथी नदियां आपस में मिलती है। देवप्रयाग शहर समुद्र तल से 472 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गृद्धाचल के नाम से जाना जाता है।
यह जगह गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि के रूप में भी जानी जाती है। माना जाता है कि इस स्थान पर ही भगवान राम ने किन्नर को मुक्त किया था। इसे ब्रह्माजी ने शाप दिया था जिस कारण वह मकड़ी बन गई थी।
नगतिबा

यह जगह समुद्र तल से 3040 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आप हिमालय की खूबसूरत वादियों के नजारों का लुफ्त उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त यहां से देहरादून की घाटियों का नजारा भी देखा जा सकता है। नगतिबा ट्रैर्क्‍स और पर्वतारोहियों के लिए बिल्कुल सही जगह है।
 इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता यहां पर्यटकों को अपनी ओर अधिक आकर्षित करती है। नगतिबा पंतवारी से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान अधिक ऊंचाई पर होने के कारण यहां रहने की सुविधा नहीं है। इसलिए ट्रैर्क्‍स पंतवारी में कैम्प में रहा करते हैं। इसलिए आप जब इस जगह पर जाएं तो अपने साथ टैंट व अन्य सामान जरूर ले कर जाएं।
चम्बा

मंसूरी से 60 किलोमीटर और नरेन्द्र नगर से 48 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान समुद्र तल से 1676 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से बर्फ से ढके हिमालय पर्वत और भागीरथी घाटी का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। चम्बा अपने स्वादिष्ट सेबों के लिए भी प्रसिद्ध है।
चंद्रबदनी
यह स्थान देवप्रयाग से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंद्रबदनी पंहुचने के आपको कांडीखाल से 10 किलोमीटर तक पैदल यात्रा करनी होगी। ऐसा माना जाता है कि राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाने के कारण माता सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इसके पश्चात् भगवान शिव ने सती को हवन कुंड से निकाल कर अपने कंधों पर रख लिया। इस प्रकार वह कई वर्षो तक सती को लेकर इधर-उधर घूमते रहे।
इसके बाद भगवान विष्णु ने माता सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र द्वारा 52 हिस्सों में कांट दिया। माता सती के शरीर का निम्न हिस्सा इसी स्थान पर गिरा था। इसके अतिरिक्त मंदिर के आसपास कई अन्य छोट-छोटे मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष अप्रैल माह में इस स्थान पर बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
सेम मुखेम
 यह जगह समुद्र तल से 2903 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर नाग राज का है। यह मंदिर पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है। मुखेम गांव से इस मंदिर की दूरी दो किलोमी.है। माना जाता है कि मुखेम गांव की स्थापना पंड़ावों द्वारा की गई थी।
धनौलटीg]
एक गांव है। जो कि चम्बा से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह गांव ऑक, देवदार और सदाबहार पौधों (गुलाब जसे दिखने वाला) से घिरा हुआ है। यह गांव छुट्टिया बिताने और पिकनिक स्थल के रूप में बिल्कुल उचित जगह है। यह गांव चारों ओर से जंगलों और बर्फ से ढके पर्वतों से घिरी हुई है। यह जगह काफी शान्तिपूर्ण स्थल के रूप में भी जानी जाती है जिस कारण यहां पर्यटकों की भीड़ अधिक रहती है।
नरेन्द्र नगर
नरेन्द्र नगर मुनि-की-रीति से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह समुद्र तल से 1,129 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
हवाई अड्डा
सबसे नजदीकी हवाई अड्डा जोलीग्रांट हवाई अड्डा है। टिहरी जोलीग्रांट से 93 किलोमीटर की दूरी पर है।
रेल मार्ग
ऋषिकेश सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। ऋषिकेश से टिहरी 76 किलोमीटर दूर स्थित है।
सड़क मार्ग
 नई टिहरी कई महत्वूर्ण मार्गो जैसे देहरादून, मसूरी, हरिद्वार, पौढ़ी, ऋषिकेश और उत्तरकाशी आदि जगहों से जुड़ा हुआ है। आस-पास की जगह घूमने के लिए टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

Devbhoomi,Uttarakhand:
07-देहरादून(Dehradoon)
देहरादून शहर, दिल्ली से २३० किलोमीटर दूर दून घाटी में बसा हुआ है। 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश राज्य से अलग कर जब उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया था, उस समय इसे उत्तरांचल की राजधानी बनाया गया। देहरादून नगर पर्यटन, शिक्षा, स्थापत्य, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है,मान्यता है कि द्वापर युग में गुरु द्रोणाचार्य ने द्वारागांव के पास देहरादून शहर से 19 किमी पूर्व में देवदार पर्वत पर तप किया था।
 इसी से यह घाटी द्रोणाश्रम कहलाती है।[१]. केदारखंड को स्कंदपुराण का एक भाग माना जाता है। इसमें गढ़वाल की सीमाओं का वर्णन इस तरह है- गंगाद्वार-हरिद्वार से लेकर श्वेतांत पर्वत तक तथा तमसा-टौंस नदी से बौद्धांचल-बघाण में नन्दा देवी तक विस्तृत भूखंड जिसके एक ओर गंगा और दूसरी तरफ यमुना नदी बहती है। तमसा का प्रवाह भी देहरादून से होकर है।
 रामायण काल से देहरादून के बारे में विवरण आता है कि रावण के साथ युद्ध के बाद भगवान राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण इस क्षेत्र में आए थे। अंग्रेज लेखक जीआरसी विलियम्स ने मेमोयर्स आफ दून में ब्राह्मण जनुश्रुति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि लंका विजय के पश्चात् ब्राह्मण रावण को मारने का प्रायश्चित करने और प्रायश्चित स्वरूप तपस्या करने के लिए गुरु वशिष्ठ की सलाह पर भगवान राम लक्ष्मण के साथ यहां आए थे।


तपस्या वाले स्थान पर भरत मंदिर बनाया गया था। कालांतर में इसी मंदिर के चारों ओर ऋषिकेश नगर का विकास हुआ। पुरातत्व की दृष्टि से भरत मंदिर की स्थापना सैकड़ों साल पुरानी है। स्कंद पुराण में तमसा नदी के तट पर आचार्य द्रोण को भगवान शिव द्वारा दर्शन देकर शस्त्र विद्या का ज्ञान कराने का उल्लेख मिलता है। यह भी कहा जाता है कि आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वात्थामा द्वारा दुग्धपान के आग्रह पर भगवान शिव ने तमसा तट पर स्थित गुफा में प्रकट हुए शिवलिंग पर दुग्ध गिराकर बालक की इच्छा पूरी की थी। यह स्थान गढ़ी छावनी क्षेत्र में स्थित टपकेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर बताया जाता है।
महाभारत काल में देहरादून का पश्चिमी इलाका जिसमें वर्तमान कालसी सम्मिलित है का शासक राजा विराट था और उसकी राजधानी वैराटगढ़ थी। पांडव अज्ञातवास के दौरान भेष बदलकर राजा विराट के यहां रहे। इसी क्षेत्र में एक मंदिर है जिसके बारे में लोग कहते कि इसकी स्थापना पांडवों ने की थी। इसी क्षेत्र में एक पहाड़ी भी है जहां भीम ने द्रौपदी पर मोहित हुए कीचक को मारा था। जब कौरवों तथा त्रिगता के शासक ने राजा विराट पर हमला किया तो पांडवों ने उनकी सहायता की थी।

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