Author Topic: Madua Bread Health Benefits - मडुआ के रोटी के फायदे  (Read 51429 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

Madua is one kind of grain which is grown in Uttarakhand hills.


Madua roti is considered to be good digestive related issues.
Mandua ki roti is a simple and nutritious chapatti made of wheat flour, mandua flour. Mandua ki roti is staple food in many parts of north India especially from the Kumauni cuisine which is the food of the Kumaon region of Uttarakhand,  India. Mandua ki roti in Uttarakhand is the local term used for chapattis which are made from the cereal called Mandua. Mandua ki roti is one of the principal types of main courses native to this region and representative of the local cuisine. It is the staple dish hence it remains obvious that the stress is given on a wholesome healthy diet which is rich in carbohydrate and food value.
M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Field of Madua..

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मंडुए की समूहिक खेती
 
                                            डा.  बलबीर सिंह रावत
 
 मंडुआ , क्वादु , रागी , कई नामो से जाने वाला यह साधारण अनाज , किसी जमाने में गरीबों का खाना माना जाता था, अपनी पौष्टिक गुणवता के मालूम होते ही, सब का चहेता अनाज बन गया है.  आज के उपभोक्ता बाजार में, गेहूं से महँगा हो गया है. एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी तो इसके बिस्कुट भी  बनाने लगी है.  विदेशों में जो भारत के उत्तराखंडी,कर्नाटकी  और विहार, महाराष्ट्र के कुछ भागों के लोग रहते हैं,  भारतीय स्टोरों में, उनके लिए मंडुये का आटा और साबुत दाना, आसानी से मिल जाता है।साबुत दाने को भिगो कर अंकुरित होने पर उसका दलिया, शिशुओं को दिया जाता है.
 कहने का तात्पर्य यह है की मंडुये की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है , तो इसके उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। इसी कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के किसानो के लिए यह एक सुनहरा अवसर आ गया है की व अपने खेतों में सामूहिक रूप से व्यावसायिक खेती करके मंडुए की आपूर्ति को पूरा करके लाभ उठायं।
 किसी भी व्यवसाय में आपूर्ति की निरंतरता का अहम महत्व है।

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चूंकि उत्तराखंड में किसी भी अनाज की फसल साल में एक ही बार होती है, तो मंडुए को इतनी मात्रा में उगाना आवश्यक है कि इसके आटे की , दाने की, बिक्री साल भर होती रहे। निरंतर उपलब्धि से, बिक्री के व्यापारिक सम्बन्ध बने रहते हैं, और आपूर्ति में व्यवधान के कारण टूट गए/ठन्डे पड़ गए संबंधों को  या नए सम्बन्ध बनाने के झंझट से बचाव भी रहता है। उदाहरण के लिए अगर किसी क्षेत्र से मंडुए की मांग , ५ क्विंटल प्रति दिन है, तो उत्पदान इसका ३६५ गुना यानी १,८२५ (२,०००) क्विन्टल मन्डुवे का उत्पादन वंचित है. मान लें की प्रति किसान उत्पादन २० क्विंटल होता है , तो इस व्यवसाय के लिए १०० किसानों को सामूहिक रूप से जुड़ने से ही यह व्यवसाय सफल होगा।
 बाजार में मंडुए के आटे का भाव २०/- प्रति किलो है। अगर, लदाई, ढुलाई, पिसाई और पकेजिंग ( एक एक किलो के पॉलिथीन के थैले) की लागत ८/- प्रति किलो आती है तो मडुवा उत्पादक को, १२/-  प्रति किलो के हिसाब से २० क्विंटल का मूल्य २४,०००/- रुपया मिल सकता है, अगर सारे उत्पादक अपनी कृषि उत्पादक कम्पनी को नए कम्पनी नियम भाग IX A के अंतर्गत पंजीकृत करा लें और उत्पादन से लेकर बिक्री तक का काम स्वयम अपनी कम्पनी द्वारा संचालित कर सकें तो पूर लाभ उनका अपना होगा।  जितने बिचौलिये उनके और उपभोक्ताओं के बीच लाये जायेंगे , वे अपना हिस्सा इसी मुनाफे से काटेंगे और किसानो के हिस्से से उतना लाभ कम हो जाएगा।  यही वोह बिचौलियों का लालच है जिसके कारण उपभोक्ता के खर्च किये हुए रूपये का केवल २० -२५ पैसे ही उपभोक्ता तक पहुन्चते हैं, और वे उत्पादन बढ़ाने में की हित नहीं पाते।  इस लिए सामूहिक खेती से ले कर भण्डारण, पिसाई  और विक्री के सारी काम  भी आसान हो जाते हैं।   

By Dr Balbir Rawat

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मंडुआ बरसात की फसल है, इसकी खेती की अपनी टेक्नोलॉजी है, जहां नलाई गुडाई से खर पतवार निकाला जाता है, वही दंडाला दे कर इसके जड़ों को हिला कर पुन्ह्स्थापित होने और कल्ले फोड़ने के लिए उकसाया जाता है, की एक ही पौधे के कई कल्ले फूटें और पैदावार बढे. फिर कटाई के बाद मंदाई से पहिले इसके गु
 को सिजाया जाता है एक ख़ास समय के लिए।  इस सिझाने से इसक रंग और स्वाद निर्धारित होता है. इस लिए अनुभवे खेतीहरों ( पुरुषों /स्त्रियों ) से सलाह ले कर ही सब काम करना श्रेय कर होता है.
 मंडुए की कटाई के बाद बचा पौधा , एक अच्छा पशु आहार है , अगर साथ साथ दुग्ध उत्पादन का धंदा भी व्यवसायिक स्तर पर शुरू किया जा सके तो , इस सूखे चारे का मूल्य भी आय का अतिरिक्त साधन बन जाता है।
 इस सलाह पर मनन कीजिये और आगे बढिए, कुछ नये तरीके से व्यवसायिक खेती करने की पहल कीजिए।
 dr.bsrawat28@gmail.com
मंडुए की समूहिक खेती डा.  बलबीर सिंह रावत मंडुआ , क्वादु , रागी , कई नामो से जाने वाला यह साधारण अनाज , किसी जमाने में गरीबों का खाना माना जाता था, अपनी पौष्टिक गुणवता के मालूम होते ही, सब का चहेता अनाज बन गया है.  आज के उपभोक्ता बाजार में, गेहूं से महँगा हो गया है. एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी तो इसके बिस्कुट भी  बनाने लगी है.  विदेशों में जो भारत के उत्तराखंडी,कर्नाटकी  और विहार, महाराष्ट्र के कुछ भागों के लोग रहते हैं,  भारतीय स्टोरों में, उनके लिए मंडुये का आटा और साबुत दाना, आसानी से मिल जाता है।साबुत दाने को भिगो कर अंकुरित होने पर उसका दलिया, शिशुओं को दिया जाता है. कहने का तात्पर्य यह है की मंडुये की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है , तो इसके उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। इसी कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के किसानो के लिए यह एक सुनहरा अवसर आ गया है की व अपने खेतों में सामूहिक रूप से व्यावसायिक खेती करके मंडुए की आपूर्ति को पूरा करके लाभ उठायं। किसी भी व्यवसाय में आपूर्ति की निरंतरता का अहम महत्व है।  चूंकि उत्तराखंड में किसी भी अनाज की फसल साल में एक ही बार होती है, तो मंडुए को इतनी मात्रा में उगाना आवश्यक है कि इसके आटे की , दाने की, बिक्री साल भर होती रहे। निरंतर उपलब्धि से, बिक्री के व्यापारिक सम्बन्ध बने रहते हैं, और आपूर्ति में व्यवधान के कारण टूट गए/ठन्डे पड़ गए संबंधों को  या नए सम्बन्ध बनाने के झंझट से बचाव भी रहता है। उदाहरण के लिए अगर किसी क्षेत्र से मंडुए की मांग , ५ क्विंटल प्रति दिन है, तो उत्पदान इसका ३६५ गुना यानी १,८२५ (२,०००) क्विन्टल मन्डुवे का उत्पादन वंचित है. मान लें की प्रति किसान उत्पादन २० क्विंटल होता है , तो इस व्यवसाय के लिए १०० किसानों को सामूहिक रूप से जुड़ने से ही यह व्यवसाय सफल होगा। बाजार में मंडुए के आटे का भाव २०/- प्रति किलो है। अगर, लदाई, ढुलाई, पिसाई और पकेजिंग ( एक एक किलो के पॉलिथीन के थैले) की लागत ८/- प्रति किलो आती है तो मडुवा उत्पादक को, १२/-  प्रति किलो के हिसाब से २० क्विंटल का मूल्य २४,०००/- रुपया मिल सकता है, अगर सारे उत्पादक अपनी कृषि उत्पादक कम्पनी को नए कम्पनी नियम भाग IX A के अंतर्गत पंजीकृत करा लें और उत्पादन से लेकर बिक्री तक का काम स्वयम अपनी कम्पनी द्वारा संचालित कर सकें तो पूर लाभ  उनका अपना होगा।  जितने बिचौलिये उनके और उपभोक्ताओं के बीच लाये जायेंगे , वे अपना हिस्सा इसी मुनाफे से काटेंगे और किसानो के हिस्से से उतना लाभ कम हो जाएगा।  यही वोह बिचौलियों का लालच है जिसके कारण उपभोक्ता के खर्च किये हुए रूपये का केवल २० -२५ पैसे ही उपभोक्ता तक पहुन्चते हैं, और वे उत्पादन बढ़ाने में की हित नहीं पाते।  इस लिए सामूहिक खेती से ले कर भण्डारण, पिसाई  और विक्री के सारी काम  भी आसान हो जाते हैं। मंडुआ बरसात की फसल है, इसकी खेती की अपनी टेक्नोलॉजी है, जहां नलाई गुडाई से खर पतवार निकाला जाता है, वही दंडाला दे कर इसके जड़ों को हिला कर पुन्ह्स्थापित होने और कल्ले फोड़ने के लिए उकसाया जाता है, की एक ही पौधे के कई कल्ले फूटें और पैदावार बढे. फिर कटाई के बाद मंदाई से पहिले इसके गु को सिजाया जाता है एक ख़ास समय के लिए।  इस सिझाने से इसक रंग और स्वाद निर्धारित होता है. इस लिए अनुभवे खेतीहरों ( पुरुषों /स्त्रियों ) से सलाह ले कर ही सब काम करना श्रेय कर होता है. मंडुए की कटाई के बाद बचा पौधा , एक अच्छा पशु आहार है , अगर साथ साथ दुग्ध उत्पादन का धंदा भी व्यवसायिक स्तर पर शुरू किया जा सके तो , इस सूखे चारे का मूल्य भी आय का अतिरिक्त साधन बन जाता है। इस सलाह पर मनन कीजिये और आगे बढिए, कुछ नये तरीके से व्यवसायिक खेती करने की पहल कीजिए। dr.bsrawat28@gmail.com height=225

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Health benefits

 - Sugar
 - Control Blood Pressure
 -



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Enjoy Madua kee Roti with Ghee



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जापान में मडुआ से बना बेबी फूड लोकप्रियचम्पावत, जागरण कार्यालय : जापान में जहां बेबी फूड के रूप में मडुआ लोकप्रिय हो रहा है, वहीं पर्वतीय क्षेत्र में इसके प्रति किसानों का रुझान कम होता जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों ने माना कि इसको बढ़ावा देने से पौष्टिक आहार तो मिलेगा ही, किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होगी। इधर, गेहूं की फसल कटने के साथ ही अप्रैल के अंत से इसकी बुवाई आरंभ हो जाती है, लेकिन इसको बढ़ावा देने के प्रति शासन का रवैया उदासीन बना हुआ है।विदित हो कि पर्वतीय क्षेत्र के अधिकांश गांवों में करीब दो दशक पहले तक औषधीय व पौष्टिक गुणों से भरपूर मडुआ की रोटी बड़े चाव से परोसी जाती थी। अब अधिकांश गांवों में इसका आटा भी मिलना मुश्किल हो रहा है। चम्पावत जिले में पांच वर्ष पहले तक 6772 हेक्टेयर में इसका उत्पादन होता था। जिला कृषि अधिकारी एके उपाध्याय ने बताया कि इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे है। कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक डा. एमपी सिंह ने माना कि इसके प्रति किसानों का रुझान कम हो रहा है। अभियान चलाकर किसानों को जागरुक किया जाएगा।विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. बृजमोहन पांडेय ने बताया कि इसकी गर्म तासीर डायबिटीज में लाभकारी है। महानगरों में इसकी रोटी व मादरे की खीर लोकप्रिय हो रही है। जापान की एक कंपनी इससे बेबी फूड बनाकर बेच रही है। अल्मोड़ा संस्थान में भी किसानों को इसके बेबी फूड बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।इधर, किल्यूड़ा के काश्तकार लक्ष्मण सिंह रावत ने बताया कि पिछले वर्ष से उनके गांव में भी किसानों ने मडुआ का उत्पादन कम कर दिया है। इसके लिए सुअरों का आतंक व अन्य कारण बताए। बहरहाल, औषधीय व पौष्टिक गुणों से युक्त मडुआ की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारी प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं।  इनसेट-मडुआ की नई प्रजाति बीएल 163 विकसितचम्पावत: जिले के पर्वतीय क्षेत्र में मडुआ की बीएल 163 समेत अनेक प्रजातियां बोई जा रही हैं। गेहूं कटाने के बाद अप्रैल अंत से मई अंत तक इसकी बुवाई की जाती है। विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में इसकी नई प्रजातियों के विकास पर निरंतर कार्य हो रहा है। वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. बृजमोहन पांडेय ने बताया कि संस्थान ने बीएल 347 प्रजाति का विकास किया है, जो आरंभिक परीक्षण में बेहतर साबित हो रही है। यह पर्वतीय क्षेत्र में सौ दिन में तैयार हो जाती है। प्रति नाली 40 किलो उत्पादन हो सकता है। इसके शीघ्र ही रिलीज होने की आशा जताई।

http://www.jagran.com/u

हेम पन्त

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बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है आपने.. अगर गम्भीर प्रयास किये जायें तो पहाड की कृषि को मडुए की खेती से रोजगारपरक बनाया जा सकता है..

joshibc007

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Dear Mehta Ji / Pant Ji / Upadhyay ji

Can anyone tell me, where / can we get the " MADUA ATTA " in Delhi or NOIDA ??

Thanks
BC JOSHI

 

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