"तबारी अर अबारी" सुविख्यात व्यंगकार नरेंद्र कठैत जी की गढ़वळि कविता संग्रै च जे मा उन्कु सरल सुभाव अर विलक्षण प्रतिभा दिखेणि च | जन कि सबि जांदा ह्वाला ही कि सबि कलाओं मा सबसे कठिन कला च कविता लिखण जै मा कवि तैं वस्तु अर विषय तैं खुद ही जीण पवडदु अर हरेक आखर दगडी अफु बचाळणु पवडदु तबि कुइ कविता कन्दणु बटि आत्मा मा यन उतरदी च जन बुल्यां पाठक ही वीन्ते जीणु ह्वाल | कठैत जी लोकभाषा का वु चबोड़ कवि छन जौन आधुनिक कविता शैली क उद्धार करि | यूंकि हरेक कविता संग्रे पाठकों कि जिकुड़ी मा खूब घंघतोळ मचांदी अर आत्म सुधारक बी बनौंदी , अर यी च उन्की सफलता का राज |
उन अपरी पोथी "तबारी अर अबारी" मा समाज की पीड़ा पण अलग -अलग स्थिति दियुं च , हरेक मनखी वास्ता अलग -अलग सन्देश दियुं च | सबि कविता मा एक तरफ व्यंग की पैनी धार च त हैंक तरफ मौल्यार शब्दों की बाहर च | यीं पोथी मा उंकी ४८ कविता छन जु सभ्या पाठकों तैं कचोटता छन अर दगडीम उन्ते प्रेरणा बि दींदी च | आपदा संस्कार ,छप्पर फाड़ी ,चाS ,तबारी अर अबारी, किरमोलु ,ढोल , दमौ , तुलपन , खरभागी सर्ग ,गंगा माँ ,प्याज आदि युंकू सबि कविता मा सबसे ज्यादा प्रभावित करदी रचना ज्वा कालजय रचना से कम नी व्हेय सकदी वे मा प्रमुख छन हमारी भाषा, खरभागी सर्ग अर बीज |
'हमारी भाषा ' एक बड़ी कविता च जैमा कवि कठैत जी न भाषा बनण मा आयी परेशानी की खूब खबर सार लीयुं च अर जु मनखी अपर भाषा से आँख चुराणा वून्ते वूंकी भाषा मा खूब चदगताल लीयुं च |
हमारी भाषा मा उन लेखी --
‘हमारि भाषा’
आखर ब्रह्म च /अर परमेसुर बि
पर बिगर / मनख्यूं का त
य भाषा
बणि नि ह्वलि ।
सबसि पैली / य द्वी मनख्यूं का
सुर मा ढळी ह्वलि
तब तौं दुंयू का / सुर बिटि
य हौरि लोग्वा बीच
हिली - मिली ह्वलि ।
पर यू बि / सोची कैन कबि
कि वे मनखी / जिकुड़ी मा
अपडि़ भाषौ तैं
वा
कन्नि ललक रै ह्वलि ।
जैन / भाषा बचैणू तैं
सबसि पैली
अपडि़ अंगुळी / कोरा - दरदरा
माटा मा रगडि़ ह्वलि ।
आखर- आखर
घिसि-पिटी तैं य भाषा
एक ही दिन मा / माटा बिटि
पाटी मा त
चढ़ी नि ह्वलि ।
ऐसास करा दि / वीं पिडौ
ज्वा ताम्र पत्र / सीला लेखू पर
आखर - आखर चढ़ौंदि दौं
यिं भाषन सै ह्वलि ।
याद करा दि
वूं पुरखौं कि खौरि
ज्याँ कि स्यवा मा/ वूंन रोज सुब्येर
अपडि़ पाटी घोटि ह्वलि ।
कन क्वे बिस्र जौला हम
वूं ब्वळख्यों कु दान
जौंन भाषा बणौणू / कमेड़ा दगड़ा
अपडि़ सर्रा जिंदगी
छोळी ह्वलि ।
क्य भूल ग्या
हमारि य भयात
वूं स्ये कि टिकड़्यूं कु त्याग
जु यिं भाषा तैं / ठड्योणू वूंन
दवात्यूं उंद
घोळी ह्वलि ।
याद करा दि
वु पंख / वु बाँसै कलम
वु प्यन-पैंसिल अर वू रबड़
जौंन भोज पत्र / अर कागज पर
यिं भाषौ तैं
अपडि़ सर्रा जिंदगी
रगडि़ ह्वलि ।
इथगा जण्न-समझण पर्बि
ब्वना छयां / क्या रख्यूं
यिं भाषा मा /क्वी रुजगार त
य देणी छ नी ।
अरे ! / य भाषै त छै
जैं कु हथ पकड़ी
तुमुन य दुन्या
देखी-पर्खी ह्वलि ।
फिर्बि!
छोड़ द्या
क्वी बंधन नी
अगर यिं /भाषा ब्वन मा
तुम तैं
भरि सरम औंणि ।
पर एक बात
बता भयूं!
क्य तुमुन यीं कुु
दूधौ कर्ज चुक्ये यलि ?
अरे ! दुख - दर्द
बिप्दा मा
जथगा दौं तुमुन
अपडि़ ब्वे पुकारि ह्वलि
उथगी दौं
वे एक ही/ ब्वेे सब्द बोली
तुमारि जिकुडि़ मा
सेळी प्वडि़ ह्वलि ।
आखर ब्रह्म च
अर परमेसुर बि
य बात त हमुन
साख्यूं बिटि
घोटि-घोटी तैं रट यलि।
पर न तुम ब्वल ल्या
अर न अगनै कि पीढ़ी
यिं भाषा ब्वनो तयार ह्वलि
त सोचा धौं /य भाषा अगनै
कैं उम्मीद पर
खडि़ ह्वलि ?
पूरी कविता भौत भावपरक अर प्रवाहमयी च | वूंकी सब्बि कविताओं मा भाषा कि समलौण च अर नयी पीढ़ी वास्ता भौत से नया प्रयोग हुयुं छन जु मनखी पढ़िक ही समझ सकदन | उन्कु यीं पोथी अर सभ्या कार्यों वास्ता बधाई दींदु अर उम्मीद करदु कि उन्की यीं प्रयास से सभी अपरी संस्कृति अर भाषा से प्रेम करल्या | विन्सर प्रकाशन भी बधाई के पात्र छन जौंण कि हरेक पृष्ट तैं सुंदर अर त्रुटि मुक्त राखी अर आदरणीय बी .मोहन नेगी जी कि आवरण चित्रकारी त बेमिसाल च |
आखिर मा बस इतगा कि आप रुकीं न , थकीं न , आप अग्ने चलो , ज़माना आपक पैथर चलल |
अपरी यीं पोथी वास्ता आपतैं सादर साधुवाद |
धन्यवाद
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