Author Topic: Dr Vidhya Sagar Nautiyal, पहाड़ का प्रेमचंद - विद्यासागर नौटियाल  (Read 10916 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are sharing here information about a great poet, literate who was known as "Munsi Prem Chand of Pahad - Dr Vidhya Sargar Nautiyal.

पहाड़ का प्रेमचंद - विद्यासागर नौटियाल





चला गया पहाड़ का प्रेमचंद

-शिवप्रसाद जोशी


 अपनी कहानियों और अपने उपन्यासों से एक ठेठ ग्रामीण जीवन की व्यथा और यातना को स्वर देने वाले अग्रणी कथाकार उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल नहीं रहे. इस साल सितंबर में वो 79 वर्ष के हो जाते. विद्यासागर नौटियाल हिंदी में मोहन राकेश कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की त्रयी के बाहर उन गिनेचुने रचनाकारों में थे जिन्होंने एक रोमानी पैनेपन के साथ आंचलिक अंधेरो को पाठकों के सामने पेश किया. उनकी टिहरी की कहानियां, हिंदी में बेजोड़ मानी जाती हैं. वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल मानते हैं कि उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है.


 विद्यासागर नौटियाल ने कम्युनिस्ट आंदोलन और टिहरी में सामंतशाही विरोधी आंदोलन में भाग लिया. वो अपने इलाक़े के प्रति इस क़िस्म के अगाध और अनिर्वचनीय प्रेम से बंधे रहे कि उनकी हर रचना उसी ऊबड़ख़ाबड़ और बदक़िस्मती और ज़ुल्मोसितम के शिकार भूगोल में भटकती रही. विद्यासागर नौटियाल पहाड़ की स्त्रियों और दलितों के जीवन, पहाड़ के पाखंडो और विस्थापन जैसे सवालों से हमेशा बात करते रहने वाली एक भटकती रूह सरीखे थे.


 फट जा पंचधार, उत्तर बायां हैं, झुंड से बिछुड़ा, बाग़ी टिहरी गाए जा, भीम अकेला, मोहन गाता जाएगा और सूरज सबका है जैसी रचनाएं अपने शीर्षकों में जितना कौतुहल और ड्रामा और संघर्ष, वेदना और उल्लास के जो शेड्स दिखाती हैं वे अपने पाठ में उतने ही बड़े अंधेरों उजालों और उतराइयों और चढ़ाइयों की व्यापक दास्तानें हैं. उनकी भाषा हिंदी के शोरोगुल के बीच एक नई भाषा है. उसमें पहाड़ की रंगतें थीं, वहां की छवियां और उसमें एक निराली किस्म की आधुनिकता है.


 विद्यासागर नौटियाल हिंदी में एक ख़ामोश किनारे के लेखक रहे हैं. उन्हें पहल सम्मान मिला था, वो आयोजन देहरादून में ही हुआ था. और वरिष्ठ हिंदी लेखक ज्ञानरंजन और बाक़ी सहयोगी रचनाकार देहरादून में ही जुटे थे. विद्यासागर नौटियाल ने इस पुरस्कार पर बहुत गहरी ख़ुशी और तसल्ली ज़ाहिर की थी. ख़राब स्वास्थ्य के बीच दिल्ली में उन्हें पिछले दिनों पहला श्रीलाल शुक्ल स्मृति पुरस्कार मिला था.


 विद्यासागर नौटियाल की आलोचना अक़्सर इसलिए की जाती थी कि वो एक ही जगह के बारे में बार बार लिखते हैं. वे दोहराते हैं. इसके जवाब में नौटियाल ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक के साथ बातचीत में कहा था कि उनकी रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि वहां दोहराव की गुंजायश नहीं है. उनके मुताबिक मेरा वो इलाक़ा छोटा भले ही है लेकिन वो ज़ुल्म संघर्ष और किसान समाज के एक दौर की अहम जानकारियां बताता है. वहां कथाएं भरी पड़ी हैं. वे पुराने कहे जा रहे मूल्य अभी लोगों ने जाने ही कहां है. उस पुरानेपन की गाथा कहने वाला भी कोई होना चाहिए. सागर के मुताबिक वो वही हो सकते हैं. सागरजी ने इस बातचीत में ये भी कहा था कि नए लेखक मुझे अपने साथ लेकर चलें. हिंदी साहित्य में मैं पुरानी पीढ़ी में गिना नहीं जाता हूं.


 विद्यासागर नौटियाल एक बड़े महाआख्यान क़िस्म के नॉवल की तैयारी कर रहे थे. उनके मस्तिष्क में उसकी रूपरेखा बनी थी. वो भूमंडलीकरण और विकास के नए तनावों और अपने उन वंचित लोगों की उलझनों और मुश्किलों को जोड़कर कुछ नया काम करना चाहते थे. वे बहुत सक्रिय लेखक थे. और ये सक्रियता इसलिए भी असाधारण थी कि तीस साल के लंबे विराम के बाद आई थी. 60 से 90 तक. वो टिहरी बांध से हुई विभिन्न बरबादियों पर लिखना चाहते थे.


 उत्तराखंड बनने के बाद सत्ता राजनीति की मारकाट को उन्होंने गहरी वितृष्णा से देखा. उनका कहना था कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफ़िया ने ले ली. यही हुआ यहां. “बिराळा बाघ अर कताल्डा नाग.”
(source http://kabaadkhaana.blogspot.in/2012/02/blog-post_6138.html)

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M S Mehta

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 विद्यासागर नौटियाल का जाना   
[size=130%]विद्यासागर नौटियाल के निधन से हिन्दी ने एक समर्थ भाषा-शिल्पी और अप्रतिम गद्य लेखक को खो दिया है.29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियालजी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंसकाकट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे hibernation के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है".आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
 वे एक प्रयोगशील कथाकार थे.
सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनकेयहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.[/size]
 नवीन कुमार नैथानी

http://likhoyahanvahan.blogspot.in/2012/02/blog-post_12.html

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प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन
आईएसबीएन: 81-7016-776-0
प्रकाशित: मार्च ०३, २००६
पुस्तक क्रं:3298
मुखपृष्ठ:सजिल्द
सारांश:
  प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश   ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा जगत् के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
 इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों, तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये ऐसी कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
 ‘किताबघर’ प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज के महत्त्वपूर्ण कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं; ‘उमर कैद’, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’, ‘फट जा पंचधार’, ‘सुच्ची डोर’, ‘भैंस का कट्या’, ‘माटी खायँ जनावराँ’, ‘घास’, ‘सोना’, ‘मुलज़िम अज्ञात’ तथा ‘सन्निपात’।
 
 हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक विद्यासागर नौटियाल की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
  पात्रों का दबाव, पाठकों की मंशा   ज़िंदगी की कहानी से बड़ी कोई कहानी नहीं हो सकती। कहानी लिखना कोई बहुत आसान काम नहीं होता। लेकिन अपनी कहानियों के बारे में कुछ लिखना बेहद कठिन लगता है (मुझे)। एक दुष्कर कर्म। कहानी लिखना और कहानी के बारे में लिखना-दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है. अपनी रचनाओं की भूमिका लिखने के मामले में मैं जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का अनुकरण करना अपने वश की बात नहीं समझता। मेरा मानना है कि लेखक को अपनी पूरी बात अपनी रचना में दे देने की कोशिश करनी चाहिए। उसके नुक्स निकालने, भाष्य करने का भार (या कहीं ज़िक्र तक न करने का सुख, मजे लूटने की स्वतंत्रता !) विद्वान् समीक्षकों-आलोचकों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। पाठकों के सामने सही बातों का खुलासा कर देने में मुझे कोई हर्ज नहीं मालूम होता।
 
 मैंने साहित्य के गुप्त, सजे-धजे सुवासित शांत बैठकखाने में ढीले, मोटे कुर्ते के ऊपर की जेब में एक कलम लटकाकर खरामा-खरामा चलते हुए प्रवेश नहीं किया, खतरनाक राजनीति के खुले मैदानों को पार करता और तंग गलियारों से बच-बचकर निकलता हुआ वहाँ तक पहुँच पाया था। पूरे भारत पर अंग्रेज़ काबिज था और उत्तर भारत के जिस पहाड़ी भाग, टिहरी-गढ़वाल रियासत में 29 सितंबर, 1933 को मेरा जन्म हुआ उस पर पुश्तैनी तौर पर एक अंग्रेज़-भक्त सामंत का खानदानी राज चल रहा था। अंग्रेज़ को मुल्क हिंदुस्तान से अपना टाट-पलाम समेटने से पेश्तर अपना दिल थोड़ा कड़ा कर देना पड़ा था। अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी वफादारी में लिप्त नवाबों-महाराजाओं की कतार फरियाद ठुकरा देनी पड़ी कि भारत को हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बाँटने के बजाय तीन खंडों में बाँटा जाए। कि कुल देशी रियासतों को वह एक तीसरे मुल्क ‘राजस्थान’ के रूप में मान्यता देता जाए।
 
 अपने आश्रितों-सहायकों की हताश, सूजी हुई आँखों से बह रहे आँसुओं की अविरल धारा से आखिर उस महाप्रभु का दिल भी पसीज उठा था। वह उनको एक अलग मुल्क के रूप में तस्लीम-तकसीम नहीं कर पाया लेकिन उसने उन्हें यह स्वतंत्रता दे दी कि वे अपनी इच्छानुसार नए बनाए जा रहे ‘हिन्दुस्तान’ या ‘पाकिस्तान’ नामक देशों में जिसमें चाहें शामिल हो सकते हैं। किस रूप में शामिल होंगे, यह बात कतई स्पष्ट नहीं की गई। कहाँ हैदराबाद जाएगा और कहाँ कश्मीर जाएगा, इस प्रश्न को गोल छोड़ दिया, जानबूझकर । दूसरे शब्दों में कहें तो उस तरह का कोई प्रश्न ही नहीं उठाया गया। अंग्रेज़ के सत्ता छोड़ते ही नवाब हैदराबाद, महाराजा कश्मीर, दीवान त्रावनकोर और अनेक दूसरी रियासतों के सामंती शासकों की तरह महाराजा टिहरी-गढ़वाल ने भी अपने को रातों-रात ‘स्वाधीन’ घोषित कर दिया था।
 
 स्वाधीन माने हम न हिंदुस्तान में हैं, न पाकिस्तान में। हम अपनी मर्ज़ी से अलग रहेंगे। तब पाकिस्तानी कबीलों ने एक अलग अस्तित्व की घोषणा करने वाले कश्मीर पर हमला बोल दिया। उसके नतीजे हमारे मुल्क को आज दिन तक भुगतने पड़ रहे हैं। टिहरी-गढ़वाल रियासत के प्रजामंडल ने भी उसी दिन 15 अगस्त, 1947 को ‘पूर्ण स्वतंत्रता तथा भारत में विलय’ के महान् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंतिम संघर्ष छेड़ने की घोषणा कर दी थी। उस घोषणा के पहले से ही काफी छोटी आयु में मैं क्रूर सामंती शासन से सीधे-सीधे टक्कर लेने वाले सिरफिरों की कतार में शामिल हो चुका था। गिरफ्तारी, दमन, फरारगी सभी कुछ से गुज़रने के बाद जब अंतत: 14 जनवरी, 1948 को हमारी रियासत आजाद हो पाई तो मुझे अपने राजनीतिक विचारों के कारण नए शासकों के कोप का भाजन भी होना पड़ा। प्रजा ने असीम कुर्बानियाँ देकर जिस सामंत को सत्ता से हटाया था, कांग्रेस ने राज-पाट हाथ में लेते ही उसे अपने दल का सदस्य और संसद में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया। हमारे रास्ते बहुत जुदा हो गए।
 
 सिर से पाँव तक राजनीति में डूबे रहते हुए मुझे आम चुनाव भी लड़ने पड़े। आजीवन। काशी से टिहरी तक। कभी जीता, कभी हारा। समझ में सिर्फ इतना आ पाता था कि आम मतदाता जिसे ठीक समझता है उसे अपना प्रतिनिधि चुन देता है। कलमकारों की जमात में सन् 1949 से ही शामिल होने की कोशिशें करने लगा था। अपने शहर की एक नव-विवाहिता की आकस्मिक मौत से दु:खी होकर मैंने एक कहानी लिखी ‘मूक बलिदान’। वह प्रताप इंटर कॉलेज, टिहरी की मैग्ज़ीन में प्रकाशित हुई थी। शुरु-शुरु में कुछ-कुछ कवियाने भी लगा था। पढ़ाई के सिलसिले में पहाड़ों के घेरे से निकलकर दो-तीन वर्षों के अंदर ही सन् 1952 में काशी जा लगा। मैं भगवानदास छात्रावास, काशी में रहने लगा था। वहाँ कवि केदारनाथ सिंह मेरा सहपाठी होने के अलावा निकटतम पड़ोसी भी था।
 
 उसकी कविताओं को सुनने व पढ़ने का मौका मिलने लगा। त्रिलोचन शास्त्री से उनकी कविताएँ सुनने लगा। इन कवियों के सामने कभी अपनी यह बताने की भी हिम्मत नहीं हुई कि मैं भी कविता लिखता हूँ। निराला, रवि ठाकुर, नाजिम हिमकत और पाब्लो नेरूदा जैसे महान् कवियों की रचनाओं से भी परिचय होने लगा। तब अच्छी कविताओं ने तुकबंदी करने की मेरी प्रवृत्ति पर खुद ही रोक लगा दी। और सबसे अधिक प्रभाव पड़ा केदार की संगत का। मेरे मुख से किसी शेर का पहला ही मिसरा निकल पाता था-‘‘रेख़्ते के उस्ताद तुम्हीं नहीं हो ग़ालिब’’ कि केदार खटाक से टोक देता-‘‘आँ-आँ, कर दिया न तुमने गुड़-गोबर !’’ गुड़ और गोबर-ये दोनों एकदम अलग-अलग चीजें होती हैं, जिन्हें शरीर को तकलीफ दे रहे किसी न पक रहे फोड़े को पकाने के लिए सिर्फ पुटलिस बनाने में एक साथ इस्तेमाल किया जाता है। अन्यथा नहीं। कई बार जरूरत पर गोबर के गणेशजी बना लिए जाते हैं, पर उसमें भी गुड़ नहीं मिलाया जाता। निकटतम पड़ोसी कवि की रोज़-रोज़ की टोकाटाकी। होस्टल तो मैं छोड़ नहीं सकता था। कहाँ जाता ? तंग आकर मैंने सदा के लिए कविता का रास्ता ही छोड़ दिया था।
 
 तब अपना ध्यान पूरी तरह कहानी लिखने पर ही केंद्रित करने लगा। काशी नगरी ने मेरे जीवन में साहित्य की दुनिया के नए दरवाज़े खोल दिए। और त्रिशूल नगरी में कदम रखते ही दिमाग ठिकाने पर आ लगा कि कविता करना मेरे वश की बात नहीं। उसके लिए कोई और मेधा चाहिए। मुझे लगा कि सम्मेलनी कवि बनने में कोई तुक नहीं। गद्य लिखना हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। गद्य की दुनिया से तो मुझे कोई नहीं हटा सकता। अपने मन में मैंने खुद ही भाई-बाँट भी कर ली थी-लो केदारनाथ सिंह ! अब से तुम गुड़, मैं गोबर।
 
 बनारस में मैंने एक-दो कहानियाँ लिखीं। उन्हें किसी जानकार को दिखना चाहता था। अपने पुराने संस्मरणों के कुछ कागज़ात इस बीच मेरे हाथ लगे हैं। एक जगह मैंने कभी ऐसा दर्ज किया था-‘‘तो हम अड़ोस-पड़ोस के होस्टलों के निवासी थे। सिंह की चाल। न्यू होस्टल्स (राधाकृष्ण, भगवानदास, गुर्टू) सामने चौड़ी, कच्ची सड़क के किनारे रोज़ चलने वाला छरहरा व्यक्ति। धोती, कुर्ता। सफेद, उजले। पांव में सादी चप्पलें। तीन-चार दिनों से मैं उस व्यक्ति को आते-जाते देख रहा था। आज सामान्य हिंदी की क्लास में गया। श्रीमन् हमारी क्लास ले रहे हैं। किसी सहपाठी ने हल्के से मेरी जिज्ञासा शांत की-नामवर सिंह। रिसर्च स्कॉलर हैं। श्रोता खामोश। मूर्तिवत्। जादू वाणी का था। विद्यार्थियों के दिमागों पर पकड़ कथ्य की थी। कुछ नई बात बोली जा रही थी, नए ढंग से बोली जा रही थी। निर्मल झरने की तरह अनमोल शब्दों, वाक्यों की झड़ी लग गई थी। भाषा सरल, आडंबरहीन। शब्द भारी नहीं थे। उनका अर्थ भी बोझिल नहीं था। भीड़। सेंट्रल हिंदू कॉलेज की निचली मंज़िल। खूब चौड़ा बरामदा, जहाँ राह चलते छात्र भी खड़े होने लगे थे। वे वहाँ पहुँचते ही एक फुट ज़मीन से चिपक जाते थे। वे दरवाज़ों खिड़कियों से अंदर खड़े व्यक्ति का भाषण सुन रहे थे। कमरे के अंदर लगाई गई सभी सीटों पर विद्यार्थी बैठे थे। सीटों के बाद जो खाली जगह थी वहाँ भी छात्र खड़े थे। छात्र समूह अवाक् था। नामवर सिंह की वाणी ने उनकी चेतना को झकझोरना शुरू कर दिया था।
 
 ‘‘शाम को मैं डॉ.भगवानदास होस्टल के गेट पर खड़ा था। सामने की सड़क पर प्रोफेसर नामवर सिंह को जाते देखा। वे गुर्टू में रहते थे। यह जासूसी मेरी आँखों ने दो-तीन दिन पहले ही कर ली थी। मैंने होस्टल गेट से बाहर निकलकर सड़क पार की और देहरादूनी लहजे में ‘गुरुजी प्रणाम कहा।’ प्रणाम तो हो गया। अब क्या बात की जाए ? बहुत साहस बटोरकर मैंने कहा-मैंने एक-दो कहानियाँ लिखी हैं, क्या आप उन्हें देख सकते हैं ?
 
 ‘‘मैंने प्रणाम पीछे से किया था। संस्कार ऐसे थे कि अपने से बड़ो के आगे या बराबरी पर नहीं चलते। नामवर सिंह ने एक बार कनखियों से पीछे की ओर नज़र घुमाई थी। फिर आगे बढ़ गए। यह आभास था कि मैं साथ लगा हूँ। थम नहीं गया हूँ। मेरे प्रणाम ने उन्हें रोक दिया। मैंने संक्षिप्त परिचय दिया-टिहरी गढ़वाल का निवासी हूं, देहरादून से इंटर किया है। थर्ड इयर जनरल हिंदी में आपका विद्यार्थी हूँ।
 
 ‘‘हाँ, हुई कि मैं कमरे की ओर लपका। कहानियों की कॉपी उठाई। नामवर सिंह गुर्टू होस्टल में अपने कमरे का ताला खोल रहे थे कि मैं हाजिर हो गया। कमरा खुला। वहाँ चारों ओर किताबें ही किताबें थीं। मैंने कॉपी मेज़ पर रख दी। रात अपने बिस्तर पर (तख्त के ऊपर, जिसका प्रावधान महामना ने बी.एच.यू. के छात्रों के लिए करवाया था) लेटे-लेटे मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि उस विद्वान को मेरी कहानियाँ पढ़ने की फुरसत मिल भी पाएगी या नहीं ? मैंने कल्पना की कि मेरी कहानियों के पात्र बारी-बारी से नामवर सिंह के सामने हाजिर हो रहे हैं। और मैं यह भी सोचता रहा कि अगर नामवर सिंह मेरी कहानियों की गलतियों को ठीक कर दें (कक्षा के निबंधों की तरह) तो कितना अच्छा होता। मुझे कहानियाँ लिखना सिखा दें तो क्या कहने।’’
 
 दूसरे दिन, शाम के मौके पर, मैं नामवर सिंह के कमरे में पहुँचा तो वहाँ पहले से ही एक भारी-भरकम दिव्य व्यक्ति विराजमान थे। मेरे कमरे में पहुँचते ही नामवर सिंह ने उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर कहा-शिवप्रसाद जी ! मैं आपको एक सिद्धहस्त कहानीकार से मिलवा रहा हूँ। ये हैं विद्यासागर नौटियाल।
 नामवर सिंह द्वारा दिए गए उस परिचय को शिवप्रसाद सिंह सीधे भाव से नहीं ले पाए थे। वे उखड़ गए। उनकी मौजूदगी में एक नौसिखिए, थर्ड इयर के विद्यार्थी, सींकिया पहलवान को (जो कि मैं वास्तव में था) सिद्धहस्त कहकर परिचित कराना उन्हें खल गया। उन्होंने मेरी काया पर ऊपर से नीचे तक एक सरसरी पैनी निगाह फेरी (ठाकुर की आँख !) अपने आसन (मोढ़े) से उठे और बिना कुछ कहे तत्काल कमरे से बाहर निकल गए। उनके जाने के बाद नामवर सिंह ने मेरी कहानी के बारे में अपनी बात कही। उसके सही होने का प्रमाण दे दिया। तब तक मैं सही और गलत दो ही चीज़ें जानता था। आलोचना की कूटनीतिक भाषा ‘‘आपकी रचना तो बहुत दमदार है, लेकिन...’’ आज भी समझ में नहीं आती। उस वक्त तो उसे कहीं छपा हुए देखने का सौभाग्य भी नहीं मिला था।
 
 मेरी नोट-बुक में दर्ज है कि ता.10-7-53 को मैंने ‘भैंस का कट्या’ कहानी ‘हिंदुस्तान साप्ताहिक’ को भेजी  थी। वहाँ से उसे लौटा दिया गया था। कुछ दिन बाद प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में मुझे उस कहानी ‘भैंस का कट्या’ का पाठ करने का मौका मिला। नामवर सिंह उसे पहले ही पढ़ चुके थे। गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों को कहानी बहुत अच्छी लगी जगत शंखधर, चंद्रबली सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचंद्र शर्मा, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, ठाकुरप्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह और काशी के अनेक दूसरे रचनाधर्मी गोष्ठी में उपस्थित थे। शिवप्रसाद सिंहजी ने भी होस्टल में अकेले मिलने पर भी उसकी बहुत तारीफ की। (शिवप्रसाद सिंहजी हमें छोड़कर जा चुके हैं। विनीत श्रद्धांजलि) कहानी ‘कल्पना’ के पते पर हैदराबाद भेज दी गई। लेकिन ‘कल्पना’ में प्रकाशित होने से पहले ही उस कहानी के माध्यम से मेरा नाम काशी की सीमाएँ लाँघकर प्रयाग के साहित्य-जगत् तक जा पहुँचा था। उसके छप जाने के बाद प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र-कथाकार मार्कंडेय ने उसे एक संकलन में लेने की योजना बनाई।
 
 चौक से आगे एक और नवयुवक कथाकार रहता था, जिसका नाम कमलेश्वर था। मेरे प्रयाग पहुँचने पर वह रात्रि-विश्राम के लिए मुझे अपने घर ले गया। मेरे परिचित साहित्यकारों का दायरा बढ़ने लगा। देश के विभिन्न शहरों से पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मुझसे कहानी की माँग करने लगे।
 
 ‘भैंस का कट्या’ 1953 में लिखी गई और अक्टूबर, 1954 में प्रकाशित हुई। सोवियत संघ के प्राच्य विद्या संस्थान में अकादमीशियन डॉ.वी.चेर्निशोव ने इस कहानी का रूसी अनुवाद किया और अपनी लंबी टिप्पणी के साथ एक कहानी-संकलन में सम्मिलित किया, जिसका शीर्षक था-‘दीती इंदी’ (भारतीय बच्चे)। उस संकलन में जिन अन्य कथाकारों की कहानियाँ ली गई थीं, उनके नाम थे- प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामवृक्ष बेनीपुरी, सुदर्शन, जैनेद्र, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भारती, सियारामशरण गुप्त, भगवतीप्रसाद बाजपेयी, सत्यवती मलिक, मोहन राकेश, भीष्म सहानी और सत्येन्द्र शरत। उसी दौरान प्रसिद्ध कहानीकार विनोदशंकर व्यास ने हिंदी कहानियों का ‘मधुकरी’ नाम से चार भागों में एक वृहद संकलन भी संपादित और प्रकाशित किया। ‘भैंस का कट्या’ को उसमें भी सम्मिलित किया गया। काशी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने कुछ वर्ष पूर्व हम अनेक ज़िंदा, लगातार साँसें (या उसाँसें) भरते जा रहे लेखकों को सूचित तक किए बगैर (स्वीकृति लेना तो दूर की बात) ‘मधुकरी’ का नया संस्करण प्रकाशित कर दिया। इस ज़िंदगी में अभी पता नहीं और क्या-क्या देखना होगा !
 
 देश-विदेश के विद्वानों, आलोचकों, समीक्षाकारों व पाठकों ने ‘भैंस का कट्या’ को अपने-अपने नजरिए से देखा और परखा। ज़्यादातर को उसमें करुणा-रस रिसता दिखाई दिया और कुछ ने एक अबोध बालक की मन:स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन पाया। करीब पचास बरसों के अंतराल के उपरांत 4 जून, 2000 को इस कहानी के आदि-पाठक (अब डॉ.) नामवर सिंह ने देहरादून में आयोजित ‘पहल सम्मान’ समारोह के अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में ‘भैंस का कट्या’ के मूल तत्व की ओर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करते हुए स्पष्ट किया कि इसमें प्रमुख तत्व करुणा नहीं है, सामंत-विरोध है। उस सुहावनी शाम देहरादून के टाउन हॉल में बैठे-बैठे उनके श्रीमुख से उस विश्लेषण को सुनते हुए मेरे अशांत मन को परम शांति मिल रही थी कि इस कहानी के तथा मेरी अधिकांश रचनाओं के मूल तत्व को अंतत: पहचान लिया गया है। देर से ही सही। किसी रचना के मूल्यांकन में आधी सदी का समय लग जाना यों भी कोई ज्यादा मायने नहीं रखता। शुरु में कह चुका हूँ कि मैं एक रियासत में पैदा हुआ था। होश सँभालने के बाद से मैं उस सदेह सामंतवाद के रक्त, मज्जा, मांस और उन सामंती प्रवृत्तियों के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहा, जो हमारे भारतीय मानस पर सनातन तौर पर हावी रहती आई हैं। जीवन में भी और अपनी रचनाओं में भी उन प्रवृत्तियों से लोहा लेता रहा। मेरी राजनीति का यह एक मुख्य अंश है।
 अब ठीक त्रेपन वर्षों के अंतराल के बाद, इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लेने पर मुझे लगा कि इस कहानी को कुछ मामूली संशोधन दरकार है। आखिर कहानी तो मेरी है। अपनी ज़िम्मेदारी से जीते-जी मैं कैसे भाग सकता हूँ ? इस संग्रह की पांडुलिपि तैयार करने से पेश्तर मैंने कहानी के शुरूआती अंश में कुछ मामूली संशोधन भी कर दिए। ‘भैंस का कट्या’ कहानी अपने संशोधित रूप में पहली बार इस संग्रह में प्रकाशित हो रही है।
 
 इस संग्रह के लिए कहानियों का चयन करते वक्त मैंने अपने राजनीतिक चुनावों की याद करते हुए वही फॉर्मूला अपनाना बेहतर समझा। कोई प्रत्याशी अपने को कितना ही योग्य समझता हो, मतदाता भी योग्य समझेगा तभी तो वह निर्वाचित हो पाएगा। इसीलिए अपनी पसंद को गौण मानते हुए मैंने अपने पात्रों के दवाब और पाठकों की पसंद का ध्यान रखना ही बेहतर समझा। फिर भी अपनी पसंद की एक, मात्र एक, कहानी देने के लोभ से मैं अपने को रोक नहीं पाया। वह कहानी ‘सुच्ची डोर’ है। उस कहानी की अपनी एक अलग कहानी है और मैं उसे बयान कर रहा हूँ।
 
 मेरे पिता वन विभाग में रेंज ऑफीसर थे। रेंज कार्यालय डाँगचौंरा में था। घाटी में होने के कारण वहाँ गर्म होने लगता था। लिहाज़ा गर्मी से निजात पाने के लिए हमारा परिवार गर्मियों में एक ऊंचे पहाड़ चंद्रबदनी पर चला जाता था। उन दिनों (शायद सन् 1953 में) गर्मियों की छुट्टियों में मैं बनारस से घर आया था। पिता बहुत अच्छे घुड़सवार थे और अच्छे घोड़े रखने का उन्हें बहुत शौक था। हमारे पास एक लाल रंग का बलिष्ठ घोड़ा था, जिसकी ऊँचाई औसत घोड़ों से कुछ ज़्यादा थी। घोड़े को जंगल में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था। कई बार घास चरते रहने में वह इस तरह मगन हो जाता कि रात में घर लौटना ही भूल जाता था। पिता ने वह घोड़ा किसी गूजर से खरीदा था। उसके संस्कार गूजरों के घोडों के जैसे थे, जो मैदानी क्षेत्र से एक बार ऊंचे चरागाहों में पहुँचा लिए जाने के बाद अपने डेरों पर नहीं लौटते। न रात में, न दिन में। दो महीनें तक खुले घूमते रहते हैं। गूजरों के घोड़े तो झुंड में रहते हैं।
 
 फिर भी कई बार बाघ उन पर हमला कर बैठता है। कुछ साल पहले गूजरों के घोड़ों के साथ पँवाली बुग्याल में भेज दिए गए हमारे एक घोड़े को भी बाघ ने मार गिराया था। यह अकेला घोड़ा है। इस पर कहीं बाघ की नजर पड़ गई तो वह उसे छोड़ेगा नहीं। हमारा पूरा परिवार चिंतित हो उठता। रात पड़ते-पड़ते हम चंद्रबदनी के उस घने, लंबे-चौड़े जंगल में अपने घोड़े की तलाश में निकल पड़ते। वह किसी ऐसी ऊंची चट्टान पर बनी गुफा में नजर आता जहाँ पहुँचने की शायद बाघ भी हिम्मत नहीं कर सकता था। कभी-कभी ऐसा भी हो उठता था कि वह हमें कहीं दिखाई ही न देता। तब निराश होकर हम रात में घर लौट आते। अगले दिन सुबह रात खुलते ही फिर उसकी तलाश में निकल जाते। यह रोज़ का किस्सा हो गया। रोज़-रोज़ उसकी तलाश में भटकते रहने के कारण एक दिन मेरा जूता टें बोल गया। जूते की मरम्मत करवाने के लिए मैं किसी मोची की तलाश में चल दिया। बनारस लौट जाने पर अपने उस दिन के अनुभव को काफी वर्षों के बाद मैंने ‘सुच्ची डोर’ कहानी में परिणत कर दिया। कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी पत्रिका के पास भेज दी। वह छप भी गई। कहानी का भाग एक समाप्त।
 
 कहानी का दूसरा भाग। सन् 1959 में मैं काशी से अपने घर टिहरी लौट आया और पहाड़ों पर कम्युनिस्ट पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगा। ज़्यादातर पैदल चलता हुआ मैं पहाड़ी गाँवों की खाक छानने लगा। मेरी लिखाई-पढ़ाई पूरी तरह ठप हो गई। करीब पच्चीस वर्षों के बाद मेरे दिमाग में आया कि मुझे बनारस के ज़माने में लिखी अपने कहानियों का एक संग्रह छपवा देना चाहिए। पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों में अपनी कहानियों की तलाश जारी करवा दी। कुछ कहानियाँ मिल गईं। ‘टिहरी की कहानियाँ’ शीर्षक से उनकी पांडुलिपि तैयार कर ‘राजकमल प्रकाशन’ को सौंप दी। ‘सुच्ची डोर’ कहानी उपलब्ध नहीं हो पाई। मैं यह भी भूल गया कि वह किस पत्रिका में छपी थी। वह मेरी एक अत्यंत प्रिय कहानी थी। उसका कथानक ऐसा था कि उसे भूल जाने का सवाल ही नहीं उठ सकता था।
 
 और उसका मुख्य पात्र मोची लगातार मेरे भीतर बैठा रहता था। कई बार वह मुझसे संवाद करता लगता-हाँ जी ! तो मेरा क्या हुआ ? मुझे यों ही अधबीच में छोड़ दिया ? उस कहानी को संग्रह में न दे पाने का दु:ख मुझे सालता रहता था। मैंने हिम्मत की और उसे दुबारा लिखने का निश्चय कर लिया। पच्चीस वर्षों के अंतराल के बाद, अपनी याददाश्त के आधार पर, उसे नए सिरे से लिख डाला। लिख लेने के बाद फिर अपने दैनिक कामों में कदम-कदम चलते हुए इस पहाड़ के शिखर पर इस ओर से ऊपर चढ़ो, उधर से नीचे उतरो, उलझ गया। आज, कल, आज, कल करते-करते समय बीतता चला। उसकी नकल कर कहीं प्रकाशनार्थ नहीं भेज पाया। साहित्य के प्रति मेरी बेरुखी भाँपकर वह लाचार कहानी अंतत: टिहरी में मेरे दूसरे कागजात के ढेर में कहीं आराम फरमाने लगी और लुक गई। कहानी का दूसरा भाग समाप्त।
 
 कहानी सुच्ची डोर का तीसरा भाग यों शुरु होता है कि मैंने देहरादून में एक घर खरीदा और वहाँ आकर रहने लगा। बूढ़े, कृषकाय मोची की याद फिर मुझे कोंचने लगी, जो युगों से मेरे भीतर जमकर बैठा था। मेरी बेचैनी फिर बढ़ने लगी। अपनी ज़िंदगी में तीसरी बार मैंने हिम्मत की और नए सिरे से उसकी कहानी लिख डाली। ले बुढ़ऊ ! तू इन कागजों में आबाद हो जा। अब निकल मेरे दिल से बाहर। मैं इसके कथानक से खुद इतना प्रभावित रहता था कि इसे अपने जीवन की कथा-पूँजी से यों ही गायब नहीं होने दे सकता था। कहानी को पूरा लिख लेने के बाद मैंने इसे देहरादून की साहित्यिक संस्था ‘संवेदना’ की गोष्ठी में पढ़कर सुनाया। मित्रों को कहानी बहुत पसंद आई।
 
 लेकिन उसके कुछ अंशों को घटाने-बढ़ाने की बात प्रमुखता से उठाई गई। घर पहुंचते ही मैं टाइपराइटर पर बैठ गया और मित्रों की सम्मत्तियों, सुझावों के आधार पर पूरी कहानी को नए सिरे से लिख डाला। उसे जनसत्ता ने प्रकाशित किया था। समझदार संपादक मंगलेश डबराल ने लेखक की जगह सिर्फ मेरा ही नाम छापा था। कहानी को परिष्कृत कर अंतिम रूप देने में जिन-जिन मित्रों के विचारों का समावेश किया गया था उनके नाम कभी उजागर नहीं हो पाएँगे। रचनाओं के साथ ऐसा ही अन्याय होता रहता है। यह कथा मुख्यता दो पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है-एक राजा और एक मोची। राजा एक पौराणिक पात्र है। दक्ष प्रजापति। वह कभी सामने नहीं आता। राजे-महाराजे अपने दरबारों में रहते हैं। वे प्रजा के सामने क्यों आने लगे ? मोची हमारे बीच का एक अछूत है, जिससे अजीब स्थिति में मेरी भेंट हुई थी। उसी दिन वह मोची मेरे दिल के भीतर जमकर बैठ गया और उसने अपनी कहानी मुझसे ज़बर्दस्ती लिखवा ही डाली। एक बार नहीं, तीन-तीन बार (कायदे में चार बार)। हर बार उसे लिख लेने के बाद मेरे दिल को शांति मिल जाती थी।
 
 इस कहानी का किसी भी समीक्षक ने कहीं जिक्र तक नहीं किया। अधिकांश हिंदी आलोचकों शोधकर्ताओं के गाइडों की प्राइवेट लिमिटेड सूची में यों भी मेरे नाम का कोई कहानीकार है ही नहीं। इस कहानी के बारे में किसी पाठक तक ने कोई पत्र नहीं लिखा। लेकिन मैं ‘सुच्ची डोर’ को अपने जीवन की एक बेहतरीन कहानी मानता आया हूँ। इसलिए अपनी रुचि (और अपने एक पात्र की मंशा) अपने निरीह, कृपालु पाठकों पर थोपने की धृष्टता कर रहा हूँ। आखिर दस कहानियों में एक कहानी अपनी ओर से देने का हक़ तो मुझे मिलना ही चाहिए। टेन परसेंट का हक। निर्माण-कार्यों में तो, सुनता हूँ दस की जगह अब फ़िफ़्टी परसेंट तक लिए जाने का आम रिवाज प्रचलित हो गया है।
 
 आठ बरस तक मैं काशी-वासी होकर रहा। काशी को मैं अपने पुनर्जन्म की भूमि मानता आया हूँ। मेरी कहानियों में अधिकांश काशी में रहते हुए लिखी गईं या उनको लिखने का विचार वहीं रहते हुए पनपने लगा था। ‘भैंस का कट्या’ के अलावा इस संग्रह में दी जा रही अन्य कहानियों में ‘सोना’, ‘सुच्ची डोर’ तथा ‘घास’ भी वहीं लिखी गईं ‘फट जा पंचधार, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’ तथा ‘सन्निपात’ के बीज मेरे दिमाग में काशी से ही अंकुरित होने लगे थे।
 
 ‘सोना’ कहानी का सर्वप्रथम अनुवाद गुजराती में मनहर चौहान ने किया। एक गुजराती दैनिक ने अपने साहित्यिक परिशिष्ट में उसे प्रकाशित किया था। बाद में डॉ.वी.चेर्निशोव ने रूसी में अनूदित किया, जिसे सन् 1958 में मास्को के ‘लिटरेरी गजेट’ पत्रिका ने प्रकाशित किया। मंजूसिंह ने ‘एक कहानी’ सीरियल के अंतर्गत 80 के दशक में एक टेलीफिल्म का निर्माण किया, जिसे दूरदर्शन ने अनेक बार प्रदर्शित किया। इस फिल्म को आम दर्शक ‘नथ’ नाम से जानने लगे। भारत के विभिन्न शहरों में यह फिल्म मेरी पहचान का माध्यम बन गई। छोटे बच्चों से लेकर आम लोग, यहाँ तक कि साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता न रखने वाली घरों की सभी उम्रों की महिलाएँ भी मुझे इस फिल्म का नाम लेते ही पहचानने लगती हैं।

(Source  - http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3298)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मूल्य: $ 15.95 
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
आईएसबीएन: 81-7119-824
प्रकाशित: फरवरी ०३, २००३
पुस्तक क्रं:3227
मुखपृष्ठ:सजिल्द
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश  ‘अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है...’’ (विद्यासागर नौटियाल)
 ‘उत्तर बायां है’ हिमाच्छादित बुग्यालों और ऊँचे, विस्तृत चरगाहों में बरसात के दौरान बर्फ के पिघलने के बाद उग आने वाली मखमली घास और असंख्य खूबसूरत फूलों की खुशबू के बीच अपने पशुओं के साथ विचरण करने वाली घूमन्तु जाति गूजर और पर्वतीय क्षेत्र के भेड़पालकों और भैंसवालों के समूहों के आपसी संबंधों और परिधि पर बसर कर रहे लोगों के जीवन का साक्षात्कार है। पर्वत श्रृंग पर बसे भेड़ पालकों के गाँव चाँदी और उसकी घाटी में बसे रैमासी के निवासियों के पेशों, रीतियों और प्रथाओं में पर्याप्त भिन्नता हो जाती है। चाँदी के आकाश में चाँद खुलकर प्रकृट होकर कभी अपनी आभा नहीं फैला पाता। चाँदीवासियों का आदिकाल में यह विश्वास चला आया है कि कुछ दुष्ट ग्रह, जो उनके आकाश में विचरण करते हैं, उनके चाँद को हमेशा अपने दबाव में रखते आये हैं, जैसे राहु पूर्णमासी के चाँद को अपने दबाव में कर लेता है। उन दुष्ट ग्रहों के संचालक रैमसी में निवास करते हैं। दिन-रात अक परिश्रम करने वाले चंदवालों की कमाई को सदियों से निठल्ले रैमासीवाले हड़प करते आये हैं। सदरू, करणू, हुकम के जीवन में खीजी, कन्हैया, देवीप्रसाद, धनसिंह और रथी सेठ जैसे लोग हमेशा संकट पैदा करते आये हैं, और इन निरीह चंदवालों की कीमत पर राजकीय कर्मचारियों, अधिकारियों की मौजमस्ती, बेकसूर लोगों पर सत्ता के अत्याचार, न्यायालयों की हास्यापद भूमिका, भेड़पालकों, ग्रामवासियों, गूजरों के पशुवत् जीवन की झलकियाँ, आयशा, सकीना और हसीना की बेबस जिंदगी के चित्र, हाशिए पर पड़े लोगों के अनवरत संघर्ष, गरीबी, उनके सपने, सभ्य तथा कथित विकसित समुदायों द्वारा उनका बाहरी-भीतरी विनाश ! ‘उत्तर बायां है’ में अपने मर्मांतक वर्णन से विद्यासागर नौटियाल इन घूमन्तू और सीमांत लोगों के जीवन का प्रामामिक तथा जिंदगी से भरपूर संधान करते हैं।
 उपन्यास बेचैन करने वाले यथार्थ और जमीनी सच्चाइयों, आपसी रिश्तों को मानवीय गरिमा देने के बीच एक संयत भाषा में आमदोलित होता रहता है और इन ‘उपेक्षितों’ की पीड़ा से ‘मुख्यधारा’ को आत्यन्तिक मार्मिकता से साक्षात्कार कराता है।


 ‘‘अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है, बेटी रश्मि सेमवाल की टीस-भरी याद को अर्पित, जो लगातार आश्वस्त रहती थी कि उसका इलाज चल रहा है और रोगमुक्त होकर वह एक बार फिर अपनी पुरानी दिनचर्या शुरू करेगी, जिसके चेहरे की सतत् मुस्कान को मौत भी गायब नहीं कर पाई थी।
 दो चट्टानों के बीच
 कन्याकुमारी में मेरे देश का सूर्यास्त होता है
 और पांडिचेरी में सूर्यास्त
 मैं
 महाबलिपुरम का विशाल रथ हूं
 जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक
 अनवरत
 दो पाटों के बीच से साबुत चला जा रहा है   
विष्णुचन्द्र शर्मा   जो कि नहीं है उसका ग़म क्या...
 आकाश विभाजित है
 
 सदरू हड़बड़ा कर जागा। लेटने के बाद उसे काफी देर तक नींद नहीं आई थी। सोने की कोशिश करता रहा पर नींद ही नहीं आ रही थी। वह एक के बाद एक कई चीजों के बारे में सोचने लगा था। उन चीजों के बारे में वह यों ही नहीं सोच रहा था, वह गहरी चिन्ता में डूब गया था। अब आधी रात में उसकी नींद अचानक टूटी। वह बैठ गया। उसने पंखी उठाई, अपनी ऊनी चादर। दोनों हाथों से उसे थामा जैसे की पंखी एक बच्चा हो। तंबू के अंदर से बैठे ही बैठे ही वह बाहर निकला। बाहर निकल आया तो अपनी पूरी ताकत को मुंह के पास समेटते हुए उसने आवाज़ दी—ओ...ओ, ओ...ओ...ओ..ओ।
 कुत्ते कहीं दूर जा चुके थे। गहरे खड्ड के अन्दर से उनकी आवाज़ें आ रही थीं। अब वह क्या करे ? सदरू चिंता में डूब गया। रात के वक़्त अकेले आदमी का डेरे से दूर जाना ठीक नहीं। डेरा छोड़कर जाने में भेड़-बकरियां बेहिफाजत छूट जाएंगी। और वह जाए तो कहां जाए ?
 तेज हवा का एक झोंका। सदरू को थपेड़ा लगा। उसे चेतना हुई कि उसने पंखी ओढ़ी नहीं है। उसे दोनों हाथों से थामे उसने पंखी पीठ पर डाली। एक झटके में उसे छाती से आगे लपेटते हुए उसके दोनों छोर बाएं-दाएं कंधों पर पीछे की ओर फैला दिए। फिर से उसने आवाज़ दी—रि खू..ऊ...ऊ...., ला लू...ऊ...ऊ...ऊ...।
 जंगल के अंदर भोंकने की आवाज़ अभी भी आ रही थी। पर अब सिर्फ एक कुत्ते की आवाज़ सुनाई दे रही थी। दूसरे की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी। ऊंची, संकरी धार के दोनों ओर फैले पहाड़ों की गहराइयों से बहुत से कुत्ते बोलने लगे थे। दूर-दूर से उनके भोंकने की आवाज़ें घाटी में गूंजने लगी थीं। पर सदरू को लालू की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी। लालू भूरे रंग का कुत्ता है। लोग उसे भोटू कहते हैं। सदरू लालू कहता है। लालू, उस कुत्ते को सदरू का दिया हुआ नाम है। प्यार का नाम। एक प्यारा नाम।

 यह पल्लीधार है। धार की इस ऊंचाई पर खड़े ढलुवा पहाड़ की बनावट का सिलसिला बदल गया है। पहाड़ की इस चोटी पर करीब पचास कदम लम्बा और तीस कदम चौड़ा भू-भाग समतल हो गया है। इसे दो हिस्सों में बांट दिया गया है। इस समतल जमीन के क्यार्की बुग्याल की तरफ के आखिरी छोर पर सदरू रहता है। छः कदम चौड़े और करीब इतने ही कदम लंबे जमीन के टुकड़े पर रहता है। बाकी समतल जमीन पर उसकी भेड़-बकरियां रहती हैं। उसकी अपनी नहीं, वे भेड़-बकिरायां रहती हैं जिनका वह पालसी है। हेरवाला। भेड़-बकरियों के असली मालिकान तो इस वक़्त कपाट बन्द कर, गर्म घरों के अन्दर, अपनी औरतों को बगल में दबाए उनके साथ सो रहे होंगे। सदरू का डेरा एक तंबू के अन्दर है। छः कदम लंबी जमीन के दोनों छोरों पर लकड़ी के दो छोटे-छोटे चार-चार फुट ऊंचे खंबे गाड़े गए। खंबों के ऊपरी सिरे दो-फाड़ के हैं। दो-फाड़ जगहों पर एक सीधी, लंबी लकड़ी के छोर पर टिका दिए गए हैं। खंबों पर टिकी लकड़ी को ऊपर से एक तिरपाल ओढ़ा दिया गया। अकेली लकड़ी के ऊपर फैले तिरपाल के दोनों तरफ के किनारे जमीन की ओर झूलने लगे। उन झूलते हुए किनारों को डोरियों से बांधा गया। जमीन पर छोटी-छोटी, मजबूत खूंटियां गाड़ी गईं। तिरपाल पर बंधी डोरियों को इन खूंटियों से जकड़ दिया गया। तिरपाल तंबू बन गया। एक मजबूत तंबू। पहाड़ की सबसे ऊंची धार पर खड़े किए गए इस तंबू को तेज से तेज हवाएं नहीं उखाड़ सकतीं। चार फुट ऊंचा यह तंबू पालसी का डेरा है। तंबू के बाहर चारों ओर सदरू ने चपते-चपते पत्थरों को धरती में गाड़ दिया है। तरतीबवार। पत्थर धरती पर एक-एक फुट ऊपर उठे हैं। तंबू की चौहद्दी। मौसम सर्दी के शुरू होने पर वे उस डेरे को छोड़कर वहां से जाने लगते हैं, तब तंबू के हटा लिए जाने पर ऐसा लगता है जैसे वहां पर कोई खलियान रहा होगा।

 अगल-बगल के हिस्सों को डोरियों-खूंटियों के जरिए धरती पर जकड़ दिए जाने के बाद तिरपाल के दो भाग खुले छूट गए। एक आगे, एक पीछे। सदरू ने इनका भी इलाज किया। इनके माध्यम से तेज हवाओं का इलाज किया। दूर-दूर से चौड़ी, ऊंची पठालें लाई गईं। मकानों की छंवाई के उपयोग में लाए जाने वाले चपते पत्थर। पठालों को खड़े में गाड़कर तिरपाल के खालीपन को भरने की कोशिश की। तंबू के अन्दर, बाहर से खड़ी की गई पठालों से अन्दर, उस तरफ सामान रख दिया गया। सामान की पीठ बाहर खड़ी पठालों पर टिकी हैं। यहां आकर भी हवा हार जाती है। आखिरी भाग, प्रवेश द्वार पर एक चादर का परदा डाल दिया गया। इससे थोड़ी-सी राहत मिलती है। इस तरह हवा और बारिश से बचाव कर लिया जाता है। मोटा-मोटा बचाव। कुदरत के थपेड़ों से हलका-सा बचाव। भेड़ चराने वाले खडवाले को इससे ज्यादा बचाव की जरूरत नहीं पड़ती। आम तौर पर वह अपने आपको कुदरत के साथ हमरूप बनाकर रहता है। ठंड है तो है। बरखा हो रही है तो हो रही है। खडवाला वैसे ही रहने का आदी होता है जैसे उसकी भेडें रहती हैं। भेड़ों की खाल मोटी होती है। खड की खाल मोटी होती है।

 पालसी का तंबू। पालसी धार पर रहता है। धार के एकदम ऊपर। पहाड़ों के मस्तक पर मीलों तक फैली हुई बुग्यालों में कहीं भी चले जाएं पालसी का डेरा चोटी पर मिलेगा। धार के ऊपर। एकदम खुले हुए। पेड़ों के इलाके से दूर। पेड़ कहीं नीचे, बहुत नीचे छूट जाते हैं। समुद्रतल से आठ-नौ हजार फुट की ऊंचाई से ऊपर पेड़ नहीं उगते। बहुत छोटी-छोटी झाड़ियां कुछ ऊंचाई पर दिखाई देती हैं। और बाद में, जब इन पहाड़ों पर कुछ और अधिक ऊंचाई पर चले जाएं सिर्फ बुग्यालें दिखाई देती हैं। धरती के सीने पर अन्तहीन लंबाई-चौड़ाई तक फैला हुआ बुग्गीदार घास और रंग-बिरंगे फूलों का एक मोटा गलीचा। बुग्यालों की घास खाकर मवेशियों की तन्दुरुस्ती खिलने लगती है।
 गाय-भैंस के दूध की मात्रा बढ़ जाती है। निचले स्थानों पर की गई मट्ठा में उतना मक्खन नहीं बनता जितना बुग्यालों में की गई मट्ठा में मिलता है। गूजर अपनी भैंसों और खडवाले अपनी भेड़-बकरियों को लेकर वहां पहुंच जाते हैं। सावन-भादौं के महीने बुग्याल में आदमी और उसके पालतू पशुओं के रहने-रमने के महीने होते हैं। फूलों के महीने, फूलों के खिलने के महीने।

 बुग्यालों की धरती देखकर लगता है वह जादुई धरती है। मध्य जेठ तक वहां ठसाठस बर्फ भरी रहती है। बर्फ की मोटी परतें जमा रहती हैं। उस दौरान जब मैदानी गर्मी से निजात पाने के लिए बहुत से लोग पहाड़ों की ओर भागने लगते हैं, बुग्यालें बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती हैं। जब बरसात होती है तब वहां के वातावरण में कुछ गर्मी पैदा होने लगती है। तब बरखा का पानी धरती पर गिरता है तो वहां की बर्फ पिघलने लगती है। बर्फ के पिघलते-पिघलते धरती के सीने पर बर्फ की ऐंठन भरी शीत के द्वारा जला दी गई बुग्याल घास की बुग्गियों का रंग बदलने लगता है। अपना कोयला जैसा काला रंग छोड़कर वे गहरा हरा और मखमली रूप धारण करने लगती हैं। उनका वह विकास और बदलाव रोज-ब-रोज महसूस किया जा सकता है। मात्र पन्द्रह दिनों के अन्दर वे पौधे जन्म लेते हैं, अंकुरित होते हैं, बड़े हो जाते हैं और तब अचानक उन पर फूल भी खिल उठते हैं। ऐसी उतावली में और कहीं किसी दूसरी वनस्पति का विकास नहीं होता।

 बुग्यालों में सावन अपनी अलग छटा लेकर प्रकट होता है। उस वक़्त वहां की हरियाली और रंगों को देखकर कोई यह अन्दाज नहीं लगा सकता कि पन्द्रह दिन पहले यह धरती पूरी तरह बर्फ की अथाह राशि से ढंकी रही होगी। उन फूलों और नर्म घास की मोटी बुग्गियों का भादौं के आखीर तक वहां अपना साम्राज्य फैला रहता है। यही दो महीने होते हैं जब मनुष्य रूपधारी भेड़पालक और पशुपालक, सैलानी, तीर्थयात्री और शिकारी वहां पहुंचते हैं। भादौं के खत्म होते ही बुग्यालों की ऊंचाई से नीचे उतर आना जरूरी हो जाता है। तब वहां वर्षा नहीं होती, सिर्फ बर्फ गिरने लगती है और उस क्षेत्र में बेहद शीत बढ़ जाता है। बुग्यालों की शीतकाल के दौरान वहां निवास करने वाली प्रजातियों के पशु-पक्षी तब अपनी गुफाओं, छुपने के स्थानों से बाहर निकल आते हैं और स्वच्छंद रूप से वहां विचरण करने लगते हैं। जब तक बुग्यालों में मनुष्य और उसके पालतू पशु मौजूद रहते हैं तब तक उनके डर के मारे वे प्राणी कहीं अगम्य स्थलों पर दुबके पड़े रहते हैं। सावन और भादौं के दौरान बुग्यालों में अनगिनत, बहुरंगी छोटे-बड़े फूल धरती को पूरी तरह से ढंक देते हैं। उनकी आयु कम होती है। वे जल्दी उगते हैं, जल्दी नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जितने दिन जीवित रहते हैं वे जीवन्त लगते हैं। जीवन की सफलता के असली प्रतीक। असली जीवन के प्रतीक।

 पालसी उस कुदरती, रंगीन गलीचे के क्षेत्र में रहता है। वह निश्चिंत होकर रहना चाहता है। बुग्यालें आम तौर पर पेड़ों की पंक्तियों से काफी दूर और बेहद ऊंचाई पर होती हैं। बाघ जैसे हिंश्र जानवर वहां नहीं जाते। ऐसे इलाके में भेड़-बकरियों का जीवन पूरी तरह सुरक्षित रहता है। पालसी को सबसे ज्यादा चिन्ता अपनी भेड़ों की सुरक्षा की रहती है। लिहाजा वह धार के ऊपर यानी पर्वतों के सबसे ऊंचे शिखरों के ऊपर रहने का आदी हो जाता है। पहाड़ों के निचले इलाकों के मुकाबले धार पर खूब-खूब तेज हवाएं चलती हैं। वहां कोई ओट नहीं होती। पर हवाएं चलती हैं तो चलें, हवा का मुकाबला कर लिया जाएगा। वहां बाघ तो नहीं आएगा। आराम से पांव पसारकर सो तो सकते हैं।

 पालसी के डेरे से, आसमान के साफ रहने पर, दूर-दूर तक के नज़ारे दिखायी देते हैं। बहुत दूर के पहाड़ों पर कहीं कोई पशु चर रहा है, वह दिखाई देगा। कोई आदमी है, वह दिखाई देगा। साफ-साफ दिखाई देगा। अपने डेरे पर बैठा पालसी अपने चारों ओर मीलों दूर तक के क्षेत्रों की चौकसी कर लेता है। छोटे-छोटे पौधे, रंग-बिरंगे फूल और बुग्याल की घास के बुग्गे। इनके बीच में वहां जो भी पहुंच जाय वह बखूबी पहचान लिया जाता है। बुग्यालों का हिरण, जिसे बरड़ कहते हैं, अलग से पहचानने में आ जाता है। वह कुलांचे भरता है। सफेद भालू। अपने भरसक आदमी से पर्याप्त दूरी कायम कर रहने वाला एक डरपोक जानवर। उसे सिर्फ बर्फीला क्षेत्र पसन्द आता है। कभी-कभार कस्तूरा मृग घने जंगलों से बाहर निकलकर उधर की ओर आ जाता है और लुकाछिपी करते हुए वहां घूमने लगता है। और इन सबके ऊपर अक्सर एक बेहद खूबसूरत पक्षी हवा में डुबकियां लगाता रहता है। उसका जोड़ा घूमता है। मुनाल पक्षी। बाज़ जितना बड़ा। मोर के रंग से ज्यादा रंगीला, उससे कहीं ज्यादा सजीला। गहरे नीले रंग का पक्षी। उड़ता हुआ आएगा, आदमी के देखते-देखते घनी वनस्पति के बीच कहीं गायब हो जाएगा। यों छुप जाएगा कि यकीन नहीं होता कि अभी-अभी हमने उस जोड़े को हवा में उड़ान भरते हुए, गोता लगाते हुए देखा था। मुनाल मनुष्य से आतंकित और भयभीत रहता है। मनुष्य के सामने इठलाएगा तो अपनी मौत को निमन्त्रण देगा। लोग उसे मारकर उसका मांस खा जाते हैं, खाल को संभालकर अपने पास रख लेते हैं। मुनाल घोंसले बनाता है तो विकट ढंगारों के ऊपर, अगम्य चट्टानों की चोटी पर, जहां मनुष्य नाम का दुष्ट जानवर किसी हालत में पहुंच न सके। पालसी और उसकी भेड़ें उन ढंगरी चट्टानों के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। वे उन चट्टानों के ऊपर न पहुंच सकें, ऐसी सुरक्षित जगह चुनकर मुनाल पक्षी अपनी नई पीढ़ी को जन्म देने के लिए घोंसला बनाता है। उन चट्टानों पर या उनके ढलानों पर बुग्याल घास नहीं उगती। पालसी के कुत्ते तक उन चट्टानों पर नहीं पहुंच सकते। पालसी को पत्थर की नहीं, घास की जरूरत होती है।

 गूजर पालसी से एकदम भिन्न होता है, बनावट में भी और स्वभाव में भी। वह बाघ-भालू से नहीं घबराता। वह हट्टा-कट्टा इंसान होता है। गूजर के बेटे के हाथ में एक लाठी होनी चाहिए, वह बाघ को मार गिराएगा। उसमें साहस और बल किसी का भी अभाव नहीं होता। गूजर की भैंसों पर बाघ हमला नहीं कर सकता। वे भैंसें रहती भी झुण्ड में हैं। रात को सोते वक़्त वे ख़ुद ही एक गोल घेरा बना लेती हैं और अपने नवजात और कम उम्र के बच्चों को उस घेरे के बीच में रख लेती हैं। उस मजबूत घेरे को तोड़कर बाघ उन बच्चों तक पहुंच ही नहीं सकता।
 गूजर कहीं भी धार पर नहीं रहता। वह पहाड़ की ओट लेकर रहता है। धार से बहुत नीचे, झोंपड़ी बनाकर रहता है। गूजर की झोपड़ी, एक पूरा भवन। ऊंचा, हवादार, सुरक्षित। घने वृक्षों से भरे वन के अन्दर एक खूबसूरत, साफ-सुथरा आवास।
 उन बुग्यालों में पहुंच जाने के बाद भैंसे अपने मालिकान गुजरों के डेरों के पास नहीं रहतीं। वे जंगलों में, बुग्यालों में, वीरान चरागाहों में चरते-चरते जहां रात पड़ जाय, वहीं रात्रिवास कर लेती हैं। पालसी एक रात के लिए भी अपनी भेड़ों से जुदा होकर नहीं रह सकता। अपने चरागाहों में पहुंचने के बाद गूजर अपनी भैंसों की ओर से बेखबर हो जाता है। वह अपने घोड़ों को बुग्यालों में चरने की खुली छूट दे देता है। घोड़े जहां चाहें घूम लें, जिधर चाहें चर लें, चरते रहें। जहाँ पसन्द आए या जहां रात पड़ जाय वहां रात गुजार लें। अपनी थोड़ी-सी बकरियों, गायों और उनके बछड़े-बछियाओं को गूजर अपने डेरे के काफी पास, अलग से झोपड़ियां बनाकर उनके अन्दर रखता है। वहाँ उनके कुत्ते पशुओं के उन बच्चों की हिफ़ाजत करने में मुस्तैद हो जाते हैं।

 गूजर की भैंस बन्धहीन होकर रहती है। उसे कभी बांधा नहीं जाता। उसका कोई खूंटा नहीं होता। उसके गले में किसी रस्सी से, किसी दावें से बांधे जाने के कोई निशान नहीं होते। वे भैंसे खुले बुग्यालों में दूर-दूर तक फैलकर घास चरती रहती हैं। नीचे के इलाके में रहने वाले स्थानीय ग्रामवासी भी बरसात के दिनों में अपने मवेशियों को लेकर ऊंचाइयों पर स्थित जंगलों में चले आते हैं। इन जंगलों में उनकी पुश्तैनी छानें बनी होती हैं। बरसाती झोपड़ियां। घास-पत्तियों की तलाश में ये सभी लोग अपने पशुओं को साथ लेकर चरागाहों में घूमते रहते हैं। हरेक की इच्छा होती है कि उसके कब्जे के वन-क्षेत्र का विस्तार होता रहे। सभी लोग उन चरागाहों से दूसरों को हटाकर वहां की घास पर अपना कब्जा करना चाहते हैं।

 वह घास भैंस के जीवन के लिए जरूरी होती है
 उस घास पर गूजर की नज़रें लगी रहती हैं।

 वह घास भेड़ के जीवन के लिए जरूरी होती है।
 उस घास पर खडवाले की नज़रें लगी रहती हैं।

 वह घास पशुओं के जीवन के लिए जरूरी होती है।
 उस घास पर किसानों की नज़रें लगी रहती हैं।

 वह घास गूजरों, खडवालों, भैंसवालों को बांटती है। उन्हें लड़ाती है।
 वही घास गूजरों, खडवालों, भैंसवालों को जोड़ती है। उन्हें मिलाती है।
 दो महीने की घास।
 जिन्दगी भर की आस।

 गूजर हर साल शिवालिक की घाटियों से या उसके पास-पड़ोस के मैदानी इलाक़ों से अपने मवेशियों को लेकर पहाड़ों की ऊंचाइयों पर आते हैं। पिछले करीब एक सौ सालों से वे लगातार पहाड़ों पर आते रहे हैं। उनके परिवारों और पशुओं की संख्या सालोसाल बढ़ती रहती है। स्थानीय ग्रामवासियों के लिए यह विशेष चिन्ता का कारण बना रहता है।
 टिहरी गढ़वाल रियासत की आज़ादी से पहले गूजरों को रियासत की बुग्यालों, वनों, चरागाहों के अन्दर पशु चराने के अनुमतिपत्र बहुत कंजूसी के साथ, बेहद सतर्क होकर दिए जाते थे। स्थानीय ग्रामवासियों के अलग-अलग गांवों के अलग-अलग वन-क्षेत्रों में चरान-चुगान के हक-हकूक सरकारी कागजात में दर्ज किए जाते थे। उस दौरान बहुत थोड़े, सीमित गूजर परिवारों को चरान-चुगान के परिमिट जारी किए जाते थे। पशुओं की गिनती करने में भी सख्ती बरती जाती थी। जब भारत आज़ाद हुआ उस वक़्त गूजर, खडवाले और भैंसवाले अपने-अपने चरागाहों, वनों और बुग्यालों में अपने पशुओं को चरा रहे थे। 15 अगस्त, 1947 को टिहरी गढ़वाल रियासत की हुकूमत ने भारत के आज़ाद हो जाने के बाद अपनी स्थिति जाहिर करने के लिए टिहरी शहर के पोलोग्राउण्ड में एक विशेष दरबार आयोजित किया। उस दरबार में घोषणा की गई कि मुल्क हिन्दुस्तान से अंग्रेज चले जाने के बाद टिहरी-गढ़वाल रियासत पूरी तरह स्वाधीन हो गई है। और महाराजा सार्वभौम। मतलब कि रियासत अब भारत का भाग नहीं, उससे एकदम अलग, एक स्वाधीन देश है। प्रजामण्डल ने रियासती हुकूमत की इस गीदड़ धमकी के उत्तर में रियासती प्रजा की आज़ादी के लिए अपना संघर्ष नए सिरे से छेड़ने का ऐलान कर दिया। उस वक़्त खडवालों, भैंसवालों और गूजरों को उस सामन्ती घोषणा या प्रजामण्डल के आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वे तब अपने-अपने मवेशियों के साथ अपने चरागाहों की गहरी-गाढ़ी हरियाली और वहां छाए घने कुहरे में डूबे हुए थे। प्रजामण्डल की घोषणा के जारी होते ही राजशाही की ओर से आज़ादी की मांग कर रहे प्रजामण्डल के कार्यकर्ता पर दमन शुरू कर दिया बड़े पैमाने पर उनकी गिरफ्तारियां की जाने लगीं। उन्हें जेल के अलावा पुलिस थानों पर भी क़ैद किया जाने लगा। थाने दुर्व्यवहार और मारपीट के अड्डे बन गए। वहां प्रजामण्डल के बन्दी कार्यकर्ताओं को, उनका मनोबल तोड़ने के लिए, मिट्टी का तेल और रेत मिला खाना दिया जाता था। वे दुर्गन्ध से भरी कोठरियों में ठूंसे जाते। बाद में जेल के अन्दर अदालतें लगाई जातीं। वहां सुनवाई का नाटक होता और उन्हें लम्बी-कठोर क़ैद और भारी जुर्माने की सज़ाएं सुनाई जातीं।

 उसी दौरान, आज़ादी मिलते ही, पड़ोसी हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक दंगों की शुरूआत हो गई। पाकिस्तान में हिन्दुओं और भारत में मुसलमानों का सामूहिक संहार किया जाने लगा। बड़े पैमाने पर लूट-पाट शुरू हो गई। चरागाहों में जो गूजर थे, वे सब मुसलमान थे। टिहरी-गढ़वाल रियासत के बाहर पड़ोसी आज़ाद हिन्दुस्तान के मैदानी भागों में मुसलमानों के कल्तेआम की शुरूआत हो जाने की उड़ती-उड़ती, दिल दहलाने वाली खबरें गूजरों के कानों में भी पहुँचने लगीं।
 रफीक, शफीक, हबीब तीन भाई गूजर। छुट्टन के बेटे। छुट्टन की पैदाइश पंचाली बुग्याल में हुई थी। उस वक़्त छुट्टन का दादा दाऊद जिन्दा था। उसके जीवन काल में पशु चराने का परमिट दाऊद के नाम जारी होता था। दाऊद के बाद उसके बाप मूसा के नाम परमिट जारी होने लगा। सालोसाल यह परिवार गर्मियों के मौसम की शुरूआत के साथ अपनी भैंसों और दूसरे जानवरों को लेकर पंवाली कांठे पर पहुंच जाता। वे ऋषीकेश के रास्ते पहाड़ों पर आते। ऋषिकेश से पंवाली पहुंचने में उन्हें पन्द्रह-बीस दिन लग जाते। अब कुनबा बढ़ गया था और भैंसो की संख्या भी बढ़ गई थी। छुट्टन ने जंगलात विभाग के हाकिमान की खुशामदें करके और उनसे मेल-जोल स्थापित करके अपने तीनों बेटों—रफीक, शफीक और हबीब के नाम अलग-अलग परमिट जारी करवाने में सफलता हासिल कर ली। छुट्टन और उसकी बुढ़िया जेबू को लेकर हमेशा तीनों भाइयों में झगड़े होते रहते। गूजर के पास जबसे ज्यादा कमी आदमी की होती थी। तीनों भाई इस कोशिश में रहते कि बुग्याल के पहुंचने के बाद मां-बाप मेरे साथ रहें। बूढ़ा और बुढ़िया बंट जाते। एक परिवार में बूढ़ा रहता और दूसरे के साथ मां। तीसरे परिवार से पन्द्रह-बीस दिनों के बाद कोई-न-कोई नाती अपने दादा-दादी को किसी-न-किसी बहाने बुला लेना जाता। पंवाली, क्वीनी और माट्या। भलंग, हिन्दाव और लस्या पट्टियों के पहाड़ों की ऊंचाइयों पर बीस मील लंबे इलाके में फैली तीन बुग्यालें। स्थानीय गांववासी कहते थे बुग्यालों पर तो छुट्टन ने कब्जा कर लिया है, हम कहां जाएं।
 हिन्दुस्तान की आजादी के सिर्फ पन्द्रह दिनों के बाद ऊंचे पर्वतों पर होने वाले मौसम के बदलाव के कारण गूजरों को हमेशा की तरह वहां से उतरकर मैदानों के निचले इलाकों की ओर चले आना था। गुजर अकेला नहीं चलता, उसका कुनबा उसके साथ चलता है, उसके पशु साथ चलते हैं। पंवाली की बुग्यालों में गूजरों को यह सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था कि हिन्दुस्तान से फिरंगी को भगा दिया गया है और कि मुल्क आज़ाद हो गया। पर उसकी समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि आज़ाद हो जाने पर मुसलमानों का कत्लेआम क्यों किया जा रहा है। उनका कसूर क्या है।

 रफीक ने अपने छोटे बेटे मसूद को बुलाकर कहा—तू बेटे, मेरे चाचा शफीक के पास क्वीनी चला जा। उससे कहना कि रियासत से बाहर मुसलमानों पर हमले होने की खबरें सुनाई दे रही हैं। इसलिए बेहतर हो कि हम लोग यहां से नीचे साथ-साथ जाएं। हमें यहां से चलने की तैयारी कर लेनी चाहिए। शफीक को कहना वह अपने बेटे जुम्मन को माट्या भेज कर वहां तेरे छोटे चाचा हबीब को भी यह बता बता दे। कल वे पांच-छः लोग यहां पहुंच जाएं। परसों हम घोड़ों को पकड़ने चलेंगे।
 रफीक के तीसरे बेटे वहीद ने बीच में टोका—अब्बा, घोड़ों को पकड़ने के लिए मैं भी जाऊंगा।




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प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
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प्रकाशित: जनवरी ०१, २००५
पुस्तक क्रं:4935
मुखपृष्ठ:सजिल्द
[/size][/color] प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश प्रसिद्ध कथाकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास ‘झुण्ड से बिछुड़ा’ पर्वतीय जन-जीवन की त्रासदी को बड़े ही विश्वसनीय ढंग से उजागर करता है-विशेषकर गढ़वाली ग्रामीणों के संघर्ष और उनकी अदम्य जिजीविषा को लेखक ने तमाम प्रचलित मिथकों, किंवदन्तियों, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों को सामने रखते हुए एक नयी कथाशैली और प्रविधि के साथ उपन्यास में प्रस्तुत किया है, जो अपने आप में नये जीवन के द्वार खोलने जैसा है। बेशक ‘झुण्ड के बिछुड़ा’ लघु उपन्यास है लेकिन इसके कथ्य का फलक विस्तृत है। कथा के केन्द्र में जहाँ ‘शान्ति’ जैसी निरुपाय और निस्सहाय एक पहाड़ी महिला है, जिसे अपनी गाय और ‘भोली’ बछड़ी के प्रति अपार वात्सल्य है तो दूसरी ओर है एक भयानक बाघ, जिसके रूप में मानो काल ही जंगल में घूमता रहता है।  उपन्यास में मुख्य कहानी के ईर्द-गिर्द फैला पहाड़ी जीवन ही नहीं, बाघ के आतंक से लोगों को सुरक्षा देते पात्रों का दुर्दम्य साहस भी चित्रित है। वहाँ के आम जीवन में बाघ एक पहाड़ी मिथक भी है और हकीकत भी। श्रीधर प्रसाद जैसे पात्र भी पहाड़ी समाज में बाघ जैसे ही हैं। सत्ता और नौकरशाही के आतंक को जिस तरह उपन्यास की विषय वस्तु के साथ पिरोया गया है उससे यह कृति इस पूरे ताने-बाने का जीवन्त पाठ बन जाती है।  भारतीय ज्ञानपीछ ‘झुण्ड से बिछुड़ा’ उपन्यास प्रस्तुत करते हुए आशा करता है कि अपनी यह विषयवस्तु और नये कथाशिल्प से पाठकों को आकर्षित करेगा।  पहाड़ के आदमी और उसके जीव-जगत के अनोखे जानकार जिम कार्बेट श्रीराम शर्मा प्रेम और मुकुन्दीलाल बैरिस्टर को सादर समर्पित [/size] [/color]-विद्यासागर नौटियाल झुण्ड से बिछुड़ा [बघ्वा= कई लोगों को बाघ के दिखाई देने पर, या कहीं आस-पास से उसके शरीर से निकलने वाली तीखी, नाक के रास्ते प्रवेश कर पूरे शरीर को फाड़ने, पस्त कर देने वाली दुर्गन्ध को सूँघते ही बघ्वा लग जाता है। जिसे बघ्वा लगता है वह अपने होश-हवाश गवाँ बैठता है। बघ्वा के प्रभाव में डर के मारे कुछ दिल के कमजोर लोग बेबस हो जाते हैं और उनके मुख से ‘ह्या ऽऽ ह्या ऽऽ ह्या ऽऽ’ जैसी इकहरी, कतार, ऊलजलूल आवाजें निकलने लगती हैं। और कइयों की बोलती बन्द हो जाती है। लोग ऐसे किस्से को सुनते हैं कि कई बार ऐसा भी हुआ कि बघ्वा-प्रभावित बाघ की ओर खिंचता चला गया। मस्त चाल से चल रहे बाघ के पीछे-पीछे उसे खुद ही दौड़ लगाते देखा गया।] सुबह वह बहुत तड़के जग गया था। कल रात बिस्तर पर लेटे-लेटे शतरू इस बात पर विचार करता रह गया कि अल-स्सुबह किस दिशा में प्रस्थान करना ठीक रहेगा। सोचते-सोचते वह कई तरह की समस्याओं में उलझने लगता। वह कोई ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पा रहा था। इस विषय में किसी दूसरे से पूछ लेने या मदद लेने की कोई गुंजाइश नहीं होती। ऐसे कार्य को सम्पन्न करने के लिए खुद ही निर्णय लेना होता है। अकेले में। एकदम एकान्त में। प्रस्थान करते वक्त किसी दूसरे को, करीबतर दोस्त को भी नहीं बताया जाता। बताना ज़रूरी नहीं माना जाता। किसी दुश्मन को तो हर्गिज नहीं। उसे तो पता न लग सके इस बात की पूरी कोशिश करनी पड़ती है। ऐन मौके पर किसी के मुँह से कोई टेढ़ी-मेढ़ी, अगड़म-सगड़म उल्टी-सीधी बात निकल बैठे। या आप घर से बाहर बटिया पर पाँव धर रहे हैं, कहीं आधे रास्ते में हैं, और तब तक कहीं से किसी की ‘आँक्छीं !’ हो गया न गुड़ गोबर ! आँक्छीं नहीं होना चाहिए। उससे पूरे दिन के ही नहीं, पूरी यात्रा के ही गड़बड़ हो जाने की आशंका पैदा हो जाती है। वह उद्देश्य जिसके लिए घर छोड़ कर प्रस्थान किया जा रहा है, उसके सफल होने में कोई भारी अड़चन पैदा हो सकती है। वह अकेली छींक मन में सन्देह पैदा कर देती है-कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। दिन भर भटको, हासिल कुछ भी नहीं।  ऐसे अवसर पर घर से प्रस्थान करते समय किसी भी तरह पैदा हो जाने वाली छोटी से छोटी विघ्न बाधा की याद में, घर से निकल कर दूर पहुँच जाने पर, रह-रह कर आने लगती है। पाँव आगे धरे जा रहे हैं और दिमाग गाँव में ही पहुँचता जा रहा है। दिमाग पर लगातार हथौड़े मारने लगती है किसी की नाक से बाहर निकली उस भयानक आँक्छीं की याद। भुलाए नहीं भूलती। किसी और चीज में मन ही नहीं लगता। कोशिश करो कि किसी और चीज की, किसी सुन्दर स्थान की, अपने किसी प्रिय-जन की, किसी सुन्दर घटना की, किसी चीज की, बार-त्यौहार की याद आए। लेकिन नहीं। वैसा क्यों होना है। दिमाग में तो वहीं छींक भर गयी है। याद तो बस उसी बदशकुनी छींक की आती जा रही है। और अगर वह अपना कोई बैरी-दुश्मन हुआ तो उसकी छींक की याद तो और भी बुरी लगने लगती है और बेवजह सताने लगती है। परेशान करने लगती है। जानबूझकर छींक की गोली दाग जाने वाला वह बैरी, हो सकता है, इस वक़्त मज़े में अपने घर पर बैठा होगा। अपने बाल-बच्चों के बीच होगा। छज्जे के ऊपर ठाठ से हुक्का गुड़गुड़ा रहा होगा या तिवारी में खूब भरे हुए, छुलबुल गिलास को हाथ में उठाए गरम-गरम, मीठी-मीठी चाय सुड़क रहा होगा। अपने दुधमुँहें बेटे या नाती को गोद में लेकर उसे मुलमुल हँसाते हुए मज़े में खुद भी हँसता जा रहा होगा। लेकिन उसकी अकेली छींक की याद तलवार का काम करने लगी है। काट कर रख देती है पूरी देह को। मिटाए नहीं मिटती। वह बैरी, गाँव भर का वह अकेला, कुख्यात बैरी, अच्छी तरह जानता है कि उसकी वैसी हरकत का क्या असर हो सकता है। दुश्मन के कहीं प्रस्थान करते वक़्त वह जानबूझकर उधर आ जाता है। बोलेगा कुछ नहीं, कोई रामा-कृष्णा नहीं। रामा-कृष्णी तो उससे है ही नहीं। आएगा और जानबूझकर, सोची समझी चाल के मुताबिक पाँच नपे-तुले, लम्बे कदम चल उसका रास्ता काट जाएगा। ए-ए-ए-क, दो-ओ-ओ-ओ-, ती-ई-ई-न, चा-ऽ-ऽ-ऽ र, पाँ ऽ ऽ ऽ च। और उसके बाद अपनी योजना को अन्जाम देने के बाद, खुशी-भरे तन-बदन को लहराता हुआ वहाँ से अपने घर की ओर लौट जाएगा। दस बिल्लियों के एक साथ रास्ता काटने का वैसा मारक, तारी प्रभाव नहीं हो सकता जैसा कि बटिया की चौड़ाई के दोनों छोरों को छू जाने वाले उसके पाँच डगर पैदा कर जाते हैं। उससे यह नहीं पूछा जा सकता कि तू इस वक़्त यहाँ क्यों आया था, अब कहाँ जा रहा है। कहीं और आगे जाने के लिए इधर आया था तो अब और आगे क्यों नहीं जा रहा है ? यहीं से वापस क्यों जा रहा है ? कुछ पूछने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मालूम है कि अपने स्वभाव से मजबूर है और कि इस वक़्त उधर क्यों प्रकट हुआ है। वह तो जानबूझकर आता है और रास्ते को एक बार काटकर निकल जाता है। उसे घर से बाहर कहीं प्रस्थान थोड़े ही करना है यह बात उसे बहुत अच्छी तरह मालूम है कि गाँव भर में, गाँव के कुल निवासियों के मन में उसे अपशकुनी माना जाता है। उसके पास कोई एक सद्गुण नहीं। अपशकुनी है तो अपने अपशकुनी होने का फायदा उठाने की फिराक में लगा रहता है। उसका तो एकमात्र उदेश्य यह होता है कि जिसका रास्ता काट रहा है उसका कार्य सिद्ध न होने पाए। कोई-न-कोई बिघ्न-बाधा खड़ी हो जाए। किसी के काम में बाधा पैदा हो जाने से उसे बेहद खुशी होती है। दूसरों के दुःखी हो जाने से और अतीव सुख और आनन्द मिलता है। सुबह-सुबह किसी का रास्ता काटकर उसे अपना पूरा-का-पूरा दिन सुधरता हुआ नज़र आने लगता है। दुष्ट ऐसा कि अगर किसी के शुभ-प्रस्थान के मौके पर वह उस रास्ते के इतना नजदीक नहीं हुआ कि बिल्ली की तरह सिर्फ पाँच कदम चलने के बाद अगले का रास्ता काट सके तो ऐन मौके पर काफी दूरी से ही अपनी नाक की गुफाओं से उबालकर एक ज़ोर की ‘आँक्छीं’ उधर भेज देगा। ऐसे मौके पर जानबूझकर पठायी गयी उसकी एक छोटी-सी, कृत्तिम छींक भी बहुत बड़ा काम कर जाती है। एक असली गोली की मार। गोली भी तो दूर ही दागी जाती है। कभी-कभी कभी दूर से। कच्ची सुबह के मौके पर कई घण्टे पहले दागी गयी छींक की वह गोली खास तौर पर उस ऐन मौके पर दिमाग पर हथौड़े बजाने लगती है जब साँस रोककर बन्दूक के घोड़े के हलके-से दबाए जाने से पेश्तर काफी देर से ताके जा रहे शिकार को अचानक कोई भनक लग जाती है और चौकड़ी भरता हुआ आनन फानन में वह नज़रों से ओझल हो उठता है। दुश्मन को अपने गाँव से काफी दूर जाना होता था। गाँव के बहुत करीब या उससे थोड़ा दूर के इलाके में उसे कुछ खास नहीं मिल सकता। गाँव से काफी दूर, आबादी क्षेत्र से बाहर, खेत के इलाके से बाहर, गाँव के लोगों के घास-लकड़ी के जंगलों और पशुओं के चरान-चुगान के इलाके से भी बाहर। इतना दूर निकल जाने के बाद ही कुछ हाथ लग सकता था। कोई ठीक तरह का शिकार। घने, बन्द-जंगल में पहुँच जाने के बाद। दो मील की खड़ी चढ़ाई चढ़कर उसे रिखागैर पहुँचना था। आपस में कुछ स्थायी फासला छोड़कर एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े आकाश को बेंध रहे दो पहाड़ों के बीच कुदरती तौर पर घोड़े की पीठ की तरह दिखाई देने वाली एक सँकरी घाटी, जिसे लोग रिखागैर नाम से जानते हैं। उस सँकरी राह पर खड़े होकर पहाड़ के दोनों ओर के नज़ारे देख लो। दोनों ओर की घाटियों के ऊपर से नीचे तक के नज़ारे। और वहाँ से सिर्फ वही से, उन पहाड़ों की चोटियों को पार किया जा सकता है वहाँ से बाहर से निकला जा सकता है या घर की ओर लौटा जा सकता है। रिखागैर पहुँच जाने के बाद उन दो पहाड़ों के पीछे की ओर उतरा जा सकता है। रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे अपनी आंखें बन्द किये वह पहले अपने घर से बाहर निकला। फिर चलते-चलते उसने गाँव के आबाद क्षेत्र को भी पीछे छोड़ दिया। रिखागैर की चढ़ाई के उस बिन्दु पर पहुँच जाने के बाद कहीं और आगे बढ़ने के बजाय वह वहीं पर थम गया था।  अब वहाँ से दूसरी ओर नीचे उतरने की बात थी। उतरने से पहले उसे यह अहम निर्णय लेना था कि वह किस दिशा में आगे बढ़े। बायें हाथ की ओर या दाहिनी दिशा में। किधर को पाँव बढ़ाए ? तोपची को अपने सब काम खूब अच्छी तरह सोच-विचार कर करने होते हैं ? गोली हवा में नहीं चलाई जा सकती। किसी जंगली जानवर को डराकर वहाँ से भगा देने के लिए नहीं चलाई जाती गोली। शिकार को तो पता भी नहीं चलना चाहिए कि उसे निशाना बनाया जा रहा है। कि दिल थामकर, अपने सीने के भीतर उठती-गिरती साँसों को जब्त कर, अपना सब-कुछ भुला कर, बेहद सतर्क नज़रों से कोई उसे ताक रहा है। अपने तन को छुपाकर, उस पर नज़रें गढ़ाए, घात लगाए कहीं दुबका बैठा है।  शिकार के बदन पर दागनी होती है गोली। तन्न से। सीधे बदन पर। और शिकार इस इन्तजार में बैठा नहीं रहता कि आ तोपची। उठा बन्दूक। कर ले अपनी एक आँख को बन्द। अब रोक ले अपनी साँस और धैर्यपूर्वक, ध्यान लगाकर, बन्दूक की नोक को और मेरे शरीर को एक-रूप, एक-बराबरी पर देखते हुए साध ले मुझ पर निशाना। और हाँ ! ठीक, ठीक शाबाश ! अब दाग दे तू गोली। ऐसी फुरसत की तलाश में रहे तो हो चुका शिकार। इधर बन्दूक उठी नहीं कि उधर शिकार नज़रों से ओझल। उसी फुर्ती से गायब जिस फुर्ती से तोपची उस पर गोली दागना चाहता था। कई शिकार तो यों ओझल हो जाते हैं कि यह भी पता नहीं लग पाता कि उस स्थान से हटकर वे आखिर गये तो किस ओर गये। इस वीरान पर्वत पर कोई जादू हो गया भाई ? अभी-अभी तो वह मेरी नज़रों के एकदम सामने था। उस पर ठीक तरह से नज़रें टिकाकर उस पर निशाना, साधने के लिए मैंने बन्दूक हाथों के बीच में टिकाकर सीधी करनी चाही थी। और मेरे पलक मारते ही गायब ? घर से मेरे प्रस्थान से पहले सुबह-सुबह मेरे बैरी ने छींक जो दिया था। रिखागैर पहुँच जाने के बाद वह वहीं पर थम गया था। स्थिर हो गया था। आगे की राह तय कर पाना उसे कठिन लग रहा था। बाएँ हाथ की ओर चलने पर नीचे घाटी में पहुँचा जा सकता है। वहाँ मरगदना पार करना होगा। आमने-सामने खड़े दो विराट पर्वतों के बीच आदिकाल से सीमा-रेखा का काम करता हुआ, उनके तल पर बहता जा रहा ठण्डे पानी का एक गधेरा। एक मामूली नाला। यह सिर्फ पर्वतों को नहीं बाँटता, दोनों तटों पर रहने वाले गाँवों को, वहाँ की बस्तियों को,पट्टियों को और यहाँ तक उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बोलियों, रहन-सहन, वेश-भूसा और उनके दैनिक व्यवहार और सभ्यताओं तक को बाँट देता है। उनके बीच की सीमाओं को निर्धारित करता है। गधेरे को खुद नहीं मालूम कि उसके बहते पानी को पार करने की कोशिश में अपने पाँवों से जानबूझकर वहाँ आकर फिसल जाने वाले या गलती से उसके अन्दर गिर जाने या जबर्दस्ती फेंक दिये जाने वाले अनगित, मर्द औरतों, पशु-पक्षियों के जिन्दा-मुर्दा शरीरों को और बहुत सारी दूसरी चीजों को बहाते रहने के अलावा वह और कितनी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ निभाता रहता है।  उस दिन सुबह-सुबह पंचम जंगल जा रहा था। सामने के गाँव से, पाली से इस ओर के पूरे नज़ारे दिखाई देते रहते हैं। आमने-सामने बसे हुए दो गाँव हैं पाली और दाली। दोनों के बीच में हरदम मौजूद रहता है मरगदना। एक गवाह भी और जामिन भी। मरगदना के आर-पार एक ओर पाली गाँव की शुरूआत हो जाती है, दूसरी ओर दाली की। दोनों गाँवों से एक दूसरे के घरों की एक-एक चीज, एक-एक आदमी या औरत, बच्चे और यहाँ तक कि कुत्ते और मवेशी भी खूब अच्छी तरह पहचानने में आ जाते हैं। एक गाँव में कोई ज़रा ज़ोर से बोल दे वह आवाज़ सामने बसे दूसरे गाँव में वहाँ के कुल निवासियों को साफ-साफ सुनाई दे जाती है। अचानक वहाँ घिमतू आ पहुँचा था अपनी राह पर सीधे भाव से चलते जा रहे पंचम के पास बीच रास्ते में खड़ा हो गया घिमतू-बोल ! है कुछ मर्जी ? पीछे-पीछे पंचम की घरवाली भी आ रही थी। वे दोनों वन की ओर जा रहे थे। पंचम कुछ बोल सके उससे पहले घिमतू ने धक्का मारकर पंचम को जमीन पर गिरा दिया। पीछे से पंचम की औरत हल्ला मचाती हुई आगे बढ़ी और अपने पति के पास आकर खड़ी हो गयी। जमीन से उठने की कोशिश में लगे पंचम को घिमतू धमकाने लगा था।  -बेटे ! कछेड़ी में हेरने को भी जाएगा तो यह बात याद रख ले, वहाँ से सही सलामत घर नहीं लौट पाएगा।  घिमतू के खिलाफ चल रहे एक फौजदारी मामले में पंचम का नाम सरकारी गवाहों की सूची में शामिल है। वकील ने उसे कुल गवाहों के नाम गिनाये थे। वकील को कोई सपना थोड़े ही होता है कि मामले में कौन-कौन गवाह होंगे। हमारे गाँव वालों के नाम कचहरी में बैठने वाला वकील कैसे जान सकता है ? वकील को चुपके नहीं हुई थी जानकारी। उसके वकील को बाकायदा अदालत की ओर से कागज दिया गया है, जिस पर गवाहों के नाम दर्ज थे। मामला पिल्ला पटवारी के क्षेत्र का है। उस मामले में पटवारी सिल्ला कुछ नहीं कर सकता। सिल्ला-पिल्ला के दोनों पटवारियों की आपस में कोई अनबन नहीं। दोनों को पुलिस की पावर मिली हैं। थानेदार का रूतबा है दोनों का। लेकिन अपनी-अपनी पट्टियों को दोनों अपने अपने ढंग से सँभालते हैं। पटवारी पिल्ला देवेश्वर जोशी बहुत अच्छी तरह जानता है कि घिमतू सिल्ला पट्टी के पटवारी रुघुवीरसिंह का खास आदमी है। इसलिए उसने घिमतू के खिलाफ एक फौजदारी केस दायर कर दिया है।  इस पार किसी आदमी औरत बच्चे का कत्ल किया गया, चोरी हुई या कि जारी की गई या किसी तरह का कोई गैरकानूनी काम किया गया या चीन से मिलने वाले सीमान्त इलाके की जनता के बीच किसी स्थानीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ने प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी, नादिरशाही हरकतों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाने की जुर्रत कर दी तो पटवारी सिल्ला उसकी तफतीश करेगा। तफतीश के बाद कार्यकर्ता के खिलाफ रिपोर्ट वैसी ही जाएगी जैसी लखनऊ में बैठे मन्त्रीजी भिजवाना चाहते हैं। उसे मामले की असलियत का बयान नहीं करना है, अपनी नौकरी को बचाए रखने की चिन्ता करनी है। और अपने मामले में मुलजिम घिमतू भी निश्चिंत है। उसे पूरा भरोसा है, थोड़े दिनों की परेशानी होगी। लेकिन उसका बाल बाँका नहीं हो सकता। मामले का निपटारा उसके हक में ही होगा। पटवारीजी घिमतू के अपने आदमी हैं। या वह पटवारीजी का खास आदमी है। वह जो कुछ भी करता है पटवारी की मरजी से, उसके (और अपने साझे) फायदे के लिए, उनके आदेश के मुताबिक करता है। और गधेरे के उस पार की घटना है तो पटवारी सिल्ला चाहते हुए भी अपने परम प्रिय पात्र घिमतू की रक्षा नहीं कर पाएगा। मामला पटवारी पिल्ला के क्षेत्र का है। तफतीश वही करेगा। मुलजिम को बाँधकर सीधे जेल के भीतर पहुँचाए जाने के लिए पटवारी का चपरासी सुबह-सुबह हथकड़ियाँ और रस्सी लेकर घिमतू के घर के आँगन में आकर खड़ा हो गया है।  मरगदना-मरा हुआ नाला। लेकिन इस नाम से किसी को कोई मुग़ाल़ता नहीं होना चाहिए। वैसा एकदम मरा हुआ, मृतप्राय नहीं है मरगदना जैसा कि उसके नाम से जाहिर होता है। मर का मतलब मरा हुआ नहीं है, मारक है। मारने वाला। अपार शक्ति का धारक। परम शक्तिशाली है मरगदना। सभी प्रकार की शक्तियों का स्त्रोत। सबकी शक्तियों का उद्गम मरगदना से होता है। सबको शक्ति उसे देखकर प्राप्त होती है। मरगदना सिर्फ जमीन पर नहीं बहता, सरकारी कागजात में, आलमारियों में बन्द कर दिए गये नक्शों के भीतर भी बहता रहता है। कागज को फैलाते ही, नक्शे को खोलते ही देखने के जरूरतमन्द लोगों को दिखाई दे जाता है मरगदना। आगे की बातें उसे देख लेने के बाद शुरू हो पाती हैं। मरगदना बताता है कौन इस ओर का हाकिम, कौन उस ओर का। कोई संशय की बात नहीं। कोई तरकरार हो ही नहीं सकती। मरगदना बीच में बह रहा है तो जंगलों की सीमाएँ धरती पर मजबूती से गड़ी हुई हैं। सीमा को निर्धारित करने के लिए वहाँ अलग से कोई सीमा-पत्थर लगाने की ज़रूरत नहीं सरकारी कागजात में हर गाँव के वन सम्बन्धी हकूक, आज़ादी से भी पहले से, राजाओं के जमाने से ही पूर्व निर्धारित हैं। सरकारी कागजात में मरगदना के इस ओर और मरगदना के उस ओर रहने वालों के जंगल बँटे हुए हैं। उनके घास के रकबे, काश्त की लकड़ी के क्षेत्र, पठालखानें, माटाखानें सब कुछ अलग-अलग दर्ज हैं। किस गाँव के लोग कहाँ-कहाँ तक, लम्बाई-चौड़ाई में कहाँ से कहाँ तक घास-लकड़ी काटने, अपने मवेशियों से चरान-चुगान करवाने के कानूनी तौर पर हकदार हैं, किस वन से सम्बन्धित अधिकारों से लैस हैं-इस बात के लिए किसी और से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती। फैले हुए नक्शे पर बहता हुआ मरगदना सब कुछ बता देता है।  मरगदना को पार कर लेने के बाद सामने की चोटी तक की चढ़ाई चढ़नी होती है। कुछ ऊँचाई पर पहुँचने के बाद ही अपनी डार से बिछड़ जाने वाले, अकेले छूट जाने वाले किसी घोल्ड1 की तलाश की जा सकती है। एक ऐसा घोल्ड जिस पर शिकारी बेधड़क होकर गोली दाग सकता है। डार में रहने वाले, साथियों के साथ शामिल होकर चलने, मौजूद रहने वाले घोल्ड पर गोली नहीं दागी जा सकती। पहाड़ों के उन शिखरों में डार पर गोली चलाना शिकारियों के सर्वमान्य परम्परागत कायदे के खिलाफ होता है। डार पर गोली चलाओगे। तो बन्दूक रूठ ----------------------------------- 1. हिरन जाएगी। हमेशा-हमेशा के लिए रूठ जाएगी। तुम्हारी अपनी बन्दूक हो जाएगी तुम्हारे खिलाफ। बन्दूक ही रूठ गयी तो और कौन सहारा दे सकता है ? तब किस बात के तोपची ? बन्दूक का रूठ जाना तोपची के लिए सबसे बुरी सज़ा है। मौत जैसी सज़ा। बन्दूक के भी अपने कायदे होते हैं। बन्दूक की सहायता से अपना काम सिद्ध करना चाहते हो तो कायदों को पूरी तरह मानते रहना पड़ेगा। हर मौके पर उनकी रक्षा करना होगी। तोपची की मजाल नहीं कि घोल्ड़ों की डार पर गोली दाग सके या किसी ऐसे घोल्ड पर गोली दाग सके जो अपनी डार में, बाकायदा अपनी जमात में शामिल है। डार से अलग होकर रहना किसे पसन्द होता है ? जुदा कौन होता है ? डार से जुदा वही होता है जिसकी औरों से ज्यादा, बहुत ज्यादा खाने की चाह हो। जो दूसरों को चरते न देख सकता हो। जो चर-चर कर अकेले ही मोटाना चाहता हो। जिसकी अकेले ही अकेले चरते रहने की मंशा हो। वह बिलग जाता है डार से। या वह छिटक पड़ता है जो अपने मद में चूर हो कर औरों को हिकारत की नज़रों से देखने लगता है। जो औरों की, अपने चारों ओर फैले हुए समाज में, अपने जैसों की, रत्ती भर परवाह नहीं करता। रिखागैर से बायें हाथ की ओर जाने के बजाय अगर दाहिने हाथ की ओर चला जाय तो पहाड़ी बटिया पर चलने वाला कुछ ही दूर के बाद एक विकट, अगम्य इलाके में पहुँच जाता है, जहाँ कहीं-कहीं इक्के-दुक्के पेड़ खड़े मिलते हैं। बस, और कुछ नहीं। आपस में खूब-खूब दूरी पर खड़े उन अकेले-अकेले पेड़ों के अलावा पेड़ों के अलावा और कहीं कोई हरियाली नहीं। कोई छाँह देने वाली वन्सपति नहीं। वे पेड़ भी लगता है, डार से बिछड़े हुए हिरन हैं जो दूसरों की कोई परवाह नहीं करते। अपनी जमात की ओर से मिलने वाली सुरक्षा को वे ठेंगा बताते रहते हैं। घना जंगल ना जाने कहाँ गायब हो गया है। पहाड़ के ढलानों पर खडे उन पेड़ों के अलावा वहाँ चट्टानें दिखाई देती हैं। चट्टानें ही चट्टानें। दुर्गम। भयानक, अगम्य ढंगारों के सीने पर अटकी हुई विकट चट्टाने। सदियों से, सहस्त्राब्दियों से आसमान से सीधी, तीखी, गर्म किरणों के गोलों की मार झेलती आई काली, चिकनी चट्टानें। मनुष्यों के लिए, मनुष्यों के बीच के शिकारियों के लिए जो उस ओर जा पहुँचते हैं, वे फिसलन-भरी होती हैं। किसी शिकार का पीछा करते समय उन पर चढ़ने की कोशिश में शिकारी अचानक उन पर अपना पाँव रखे तो वह यों फिसलेगा कि उसकी देह ढंगार में लुढ़कती हुई नीचे की ओर कहीं दूर जा गिरेगी। और हिरन हैं कि उनके खुरों पर चट्टानों की फिसलन का कोई असर ही नहीं होता। हिरनों की डार उनके ऊपर भी आसानी से कुलाँचें भरती रहती हैं। आदमी पर नज़र पड़ते ही, शिकारी को देखते ही कुलाँचें भरने लगते हैं हिरन। एक चट्टान से दूसरी चट्टान। ऐसे कि जैसे वे किसी एकदम समतल जमीन पर घास के ऊपर दौड़ रहे हों। उन विकट चट्टानों पर उस आसानी से चढ़ पाना किसी शिकारी के वश का नहीं रह जाता।  अपने बिस्तर पर लेटा हुआ दुश्मन सोचता ही रह गया। अपने दिमाग में अपने घर से रिखागैर तक ही राह आसानी से पार कर ली। सार्वजनिक बटिया। लेकिन रिखागैर पहुँच जाने के बाद कहीं आगे की ओर नहीं बढ़ सका। न दायें। न बायें किसी भी ओर नहीं। किसी निर्णय पर पहुँच पाना उसके लिए बहुत कठिन हो उठा। आखिर में उसने सोचना बन्द कर दिया और नींद लाने की कोशिश करने लगा। इस वक़्त मुझे सो जाना चाहिए। सुबह जल्दी उठना पड़ेगा। और गाँव के किसी भी आदमी-औरत के जागने से पहले, किसी और के दिशा-फिराकत के लिए गाँव की बटिया पर पहुँचने से भी पेशतर बस्ती से बाहर निकल जाना चाहिए। नहीं तो सुबह-सुबह पता नहीं किस भले या मनहूस आदमी या औरत की शक्ल सामने दिखाई दे जाय। बैरी के अलावा। इस वक़्त जल्दी नहीं सो पाया तो नींद पूरी नहीं होगी और जंगल में पहुँच जाने पर आँखें दर्द करने लगेंगी।  वहाँ, जगंल में आकाश में घूम रहे सूरज के सिर के ऊपर सरक आने के बाद पथरीले इलाके में धूप चमकने लगेगी तो उनींदी आँखें दर्द के कारण ठीक तरह से काम नहीं कर पाएँगी। शिकार के मामले में सबसे महत्त्वपूर्ण काम तो अन्त में उन्हीं के भरोसे छोड़ देना होता है। ऐन मौके पर निशाना तो आँखों को ही साधना होता है। आखीर के निर्णायक क्षणों में तोपची की आँख और तर्जनी इन्हीं दोनों को काम अंजान देना होता है। तर्जनी, जिसके अन्दर बातचीत में बाकी झुकी हुई उँगलियों के बीच से फौरन अलग होकर और खुद जरा-सा उठकर कोई महत्त्वपूर्ण, लाचार या लाजवाब कर देने वाला, भय पैदा कर देने वाला प्रश्न खड़ा कर देने को सामर्थ्य भरी होती है इहँ कुम्हड़ बतिया केऊ नाहीं/जे तर्जनि देखि डरि जाहीं। तर्जनी हलके से दबाती है उतनी बड़ी बन्दूक के उस छोटे से घोड़े को, जिसके दबते ही गोली कहीं बेहद दूर पर मौजूद अपने शिकार के बदन के आर-पार हो जाती है। घोड़े को, जिसके दबते ही गोली कहीं बेहद दूरी पर मौजूद अपने शिकार के बदन के आर-पार हो जाती है। घोड़े को धीरे से दबाने वाली, अपनी जमात से विलगी, ए छोटी-सी उँगली। शिकारी के हाथ की बाकी उँगलियों के साथ उसके फिर से शामिल होने से पेश्तर गोली की मार हो चुकी होती है। अकबका जाने वाला शिकार घायल हो कर जमीन पर छटपटाने और दम तोड़ने लगता है। (http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4935)[/size]

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश  ‘भीम अकेला’ में हमारे देश की कई छायाएँ एक साथ उभरती हैं-इन छायाओं में जातीय स्मृति की कौध है और अपनी सामाजिक आस्थाओं के मलीन पड़ते जाने का दर्द भी। यह एक यात्रा है  जो उपन्यास में ढल गयी है। जाहिर है कि यात्रा में सिर्फ रास्ते नहीं होते,यात्री के साथ चल रहा एक पूरा परिवेश भी होता है अनुभवों के बदलते हुए रंग भी होते हैं और स्मृतियों की एक पोटली भी होती है। इस उपन्यास में भी एक स्मृति है। शहीद भोलाराम सरदार और तेजसिह सरदार की स्मृति जिसके साथ कई पीड़ाएँ जुड़ी है। आजाद हिन्दुस्तान में शहीदों को भुला देने का जो चलन चल पड़ा है उसकी तकलीफ इस उपन्यास में है। इसके अतिरिक्त गाँव, देश और पहाड़ की कई मुश्किलों और विसंगतियों से यह पुस्तक हमारा सामना कराती है। भीम अकेला अपने छोटे कलेवर में एक बड़े कैनवस का चित्र हमारे सामने रखता है।   भूमिका   ‘भीम अकेला’ दो दिन की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा वर्षों पहले की गई थी जबकि मैं उत्तर प्रदेश विधान सभा में सदस्य के रूप में कार्यरत था। इसे लिखने की प्रेरणा मुझे अपने बन्धु नेत्रसिंह रावत की पुस्तक ‘पत्थर और पानी’ को पढ़ने से मिली। वह भी एक यात्रा-संस्मरण था। उस पुस्तक ने मुझे बेहद प्रभावित किया।
 ‘भीम अकेला’ को मैं सुबह चार बजे उठकर लिखता था। मेरे पास समय की कमी रहती। लिखने में समय बीत गया। दिल्ली के एक मित्र के पास एक दैनिक पत्र के साप्ताहिक साहित्यिक संस्मरण में प्रकाशित करने हेतु यह संस्मरण करीब एक साल तक पड़ा रहा। एक प्रति रावत जी के पास थी। उन्होंने इसे पढ़कर इसकी प्रशंसा की और यह भी कहा कि दिल्ली के दैनिक में इसे स्थान नहीं मिल पायेगा चूँकि हमारे मित्र को अपनी नौकरी का भी बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। मैं ‘भीम अकेला’ को उनके पास से वापस ले आया।

 नैनीताल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पहाड़’ के सम्पादक का पत्र आया कि उन्हें मेरी कोई रचना चाहिए। मैंने ‘भीम अकेला’ भेज दिया। बाद में यह भी लिखा कि वे चाहें तो इसे संक्षिप्त कर उसी रूप में छाप लें। ‘पहाड़’ के 1989 के तीसरे अंक में यह छपा। शेखर जोशी में उस रूप में उसे पढ़कर अपनी सम्मति इस तरह प्रकट की-‘भीम अकेला’ जातीय स्मृति का अद्भुत दस्तावेज है। मेरे लिए यह वाक्य एक प्रमाणपत्र है। व्यक्तिगत भेंट होने पर अनेक साहित्य प्रेमियों ने संस्मरण की प्रशंसा की।


 नेत्रसिंह रावत हमें छोड़कर चले गए। मुझे तो सपने में भी यह आभास नहीं था कि ऐसा होगा। उनकी बिदाई का मुझ पर बहुत बुरा असर पड़ा। बेहद धीमी गति से जो कुछ लिखता था वह भी ठप्प हो गया। बाद में ‘भीम अकेला’ को देहरादून से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘युगवाणी’ ने आद्योपान्त छापा। कुछ पाठकों ने उसकी तारीफ की।

 अब इसे पुस्तक के रूप में छापा जा रहा है। इस संस्मरण के लिए जाने के बाद शहीद मोलाराम की विधवा के साथ प्रदेश के शासन द्वारा किया गया हृदयहीन, घृणित व्यवहार लगातार मेरे मन पर चोटें मारता रहा। मैं सूरमा देवी को एक जीवित शहीद मानता आया हूँ। शासन के नाम लिखी उनकी चिट्ठी जिसका अंश यथावत् छापा जा रहा है, अपने में एक दस्तावेज है। यह अंधी वीरांगना समाज के कुल जहर को घोल-घोल कर पी गयी है। महाशिवरात्रि के दिन मैं उसकी गाथा लिखने बैठा हूं। गरल पीकर शिव नीलकंठ हो गये, सतुरी अंधी। सतुरी देवी (सूरमा देवी) की यह कथा ‘भीम अकेला’ का उपसंहार है।
  10-2-93  -विद्यासागर नौटियाल  वृहस्पतिवार, ता. 1 फरवरी, 1984 :

 17.55 मैंने अपना मग पानी की उस धारा के नीचे रख दिया है जो इस राह से गुजरते यात्रियों के लिए धारी से सेरा तक प्यास बुझाने का एक मात्र सहारा है। धारा से पानी लगातार गिर रहा है, बूंद-बूंद करके नहीं, पर पानी की धार बहुत बारीक है। राह सूनी है। जंगली राह। पेड़ व वनस्पति सभी तरह के हैं जो पहाड़ की गर्म घाटियों में पैदा हो सकते हैं। एक आम, पीपल का पेड़ भी पानी के पास ही खड़े क्लान्त पथिक को छांह देने का दायित्व निभा रहे हैं। इस मुकाम पर नदी की ओर से ऊपर चढ़ता हुआ पथिक तो निश्चित तौर पर बैठ जाता है। अनायास बैठता है। प्यास भी बुझाता है और घनी छाँह में अपनी थकान भी मिटाता है। लेकिन सिर्फ वे ही नहीं बैठते जो चढ़ाई चढ़ते रहते हैं। चोटी से नदी की ओर उतराई में लुढ़कते हुए यात्री को भी काफी दूर से इस स्थान पर बैठकर सुस्ताने की तलब शुरू हो जाती है। यह पहाड़ है। यहाँ चढ़ो या उतरो। रास्ता चढ़ाई का है। लगातार चढ़ाई और लौटते समय लगातार उतराई। ऐसी उतराई कि घुटनों की टोपियाँ दर्द करने लगें। कभी इस विकट राह पर पांडव भी चढ़े होंगे जरूर चढ़े होंगे वे हिमालय में गलने आए थे। अपने पापों का प्रायश्चित करने आए थे। बन्धु-बान्धवों का महावध करने के बाद आये थे।
    आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
 मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबधिनिस्तथा।
  सबका वध करने के बाद उन्होंने अपनी ओर देखा था। जीवन निस्सार लगा। उपदेशक कृष्ण के उपदेशों का भण्डार चुक गया था। अर्जुन ने पहले ही कहा था-  एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नोऽपि मधुसूदन।

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यमुना के बागी बेटे


प्रकाशक
:
सामयिक प्रकाशन
आईएसबीएन
:
81-7138-110-3
प्रकाशित
:
मई २३, २००६
पुस्तक क्रं
:
5721
मुखपृष्ठ
:
सजिल्द



प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह एक दमदार उपन्यास तो है ही, पर इससे भी बढ़कर एक अन्यायी सत्ता तथा अंग्रेजों और अंग्रेजी सभ्यता के पिट्ठुओं के खिलाफ, निहत्थी हिंदुस्तानी जनता की लड़ाई का एक ऐसा मार्मिक और जलता हुआ दस्तावेज भी है जिसे पढ़कर रोंगटे खड़े होते हैं। ‘यमुना के बागी बेटे’ पहले शब्द से अखिरी शब्द तक एक बेचैनी से लड़ता हुआ उपन्यास है, पर यह लड़ाई पचहत्तर बरस पहले, टिहरी–गढ़वाल रियासत के खिलाफ लड़ी गई जनता या ‘मुल्क’ की लड़ाई नहीं, एक ऐसी लड़ाई है जिसकी जड़ें एक ओर पौराणिक काल की शांतनु की कथा और ऋषि पत्नी रेणुका के मानसिक द्वंद्व तक जाती है, तो दूसरी ओर आज-समूचे आज को अपनी जद में लेती जान पड़ती हैं, जहाँ एक बड़ा ‘युद्ध’ हर घड़ी हमारी आँखों के आगे हो रहा है।
 
 सच कहूं तो विद्यासागर नौटियाल ने यह सब कह दिया है, जिसे कहने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे। उन्होंने मोर्चे पर खड़े एक शेरदिल लेखक की तरह आज की नई बनती ‘त्रिकूण सभ्यता’ जिसका अगुआ अमेरिका है—का सही, सच्चा और धारदार अक्स पेश कर दिया है और साथ ही साथ यह भी कि तमाम ‘किंतु-परंतु’ वाली फिसलन–पट्टी पर बैठे ‘हां-हां-छाप’ लेखकों के बीच की पहचान और कसौटी क्या है।
 
 यह नौटियाल जी की कलम का कमाल ही है कि नरेंद्रशाह और पदमदत्त के पचहत्तर साल पुराने चेहरों में आज के अमेरिका परस्त नव-धनिकों की तमाम चालाकियां नजर आ जाती हैं और उनके तर्क भी कामोबेश वही हैं, जो आज के तमाम चिकने-चुपड़े ‘सभ्यों के मुखारविंद से टपकते हैं—शहद-घुले विषय  की तरह। अगर यह उपन्यास न पढ़ पाता तो यकीन मानिए, एक बेशकीमती रचना को पढ़ने के सुख से वंचित रह जाता। विद्यासागर नौटियाल ने इस उपन्यास में ‘यमुना के बागी बेटे’ की तरह इस उथल-पुथल भरे भ्रम दौर में, एक लेखक के रूप में ‘स्वाभिमान से अपना सिर ऊंचा रखा है।’’
  प्रकाशमनु    हिन्दी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल कलम से भी उसी गहराई से जुड़े रहे हैं जिस तरह राजनीति से। वस्तुतः वे मात्र कलम के योद्धा नहीं हैं राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़नेवाले योद्धा भी। स्वतंत्रता मिलने के बाद गढ़वाल रियासत के सामंतविरोधी आंदोलन के कारण पहली बार वे तेरह बरस की आयु में जेल गए। ऑल इंडिया स्टूडेंटस फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर उ.प्र. विधानसभा के सदस्य रहे। टिहरी रियासत के समस्त शिविरों, घाटियों, गांवों का कई-कई बार भ्रमण किया। नौटियाल के पास जीवन के विपुल अनुभवों की कमी इसलिए भी नहीं है क्योंकि ले लगातार जन-संघर्षों में भागीदारी करते रहे हैं।
 
 अपने लेखन में अब तक उन्होंने कहानी में उपन्यास में या फिर अपने संस्मरणों में टिहरी-गढ़वाल को अनेक रूपों, अनेक छवियों, अनेक बिंबों में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि दूर का पहाड़ बिल्कुल खिसककर पाठकों के सामने साक्षात् खड़ा हो जाता है। और जिस तरह टिहरी बांध के कारण आज पूरा शहर डूब गया। उसी तरह पहाड़ के दुःख से पाठक।
 
 प्रस्तुत उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ का मूल स्रोत है 1930 के आसपास टिहरी-गढ़वाल रियासत में जन-विद्रोह की आग से उत्पन्न सामंत की छोटी-बड़ी क्रूरता, यातना और यंत्रणा की घटनाएं। उपन्यास छोटा है लेकिन इसका फलक बड़ा। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का यह दुःखद अध्याय-तिलाड़ी कांड-ओझल ही रह जाता है, यदि नौटियाल इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं करते। पुराख्यान से उठते इस आख्यान का वृत्तांत यदि मार्मिक है तो इसलिए भी कि यह एक ऐसी सामंती क्रूरता की कहानी है जिसके नीचे दबे पहाड़ का जन-जीवन कराह रहा था। इतिहास की घटनाओं को कोई लेखक अपनी कल्पना-शक्ति से कितना रोमांचक और दिलचस्प बना सकता है इसका अप्रतिम उदाहरण है यह उपन्यास।   साधना अग्रवाल    तिलाड़ी कांड के उन शहीदों को, जिनके चेहरों पर राजशाही ने यमुना तट पर तारकोल पोतकर पहचान करना असंभव कर दिया था और उन रवांल्टों को, जिन्होंने जीवन के अंतिम पल तक माफी मांगकर टिहरी की नरकीय जेल से रिहा होने के बजाय मृत्यु का आलिंगन कर, भावी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल कायम कर देना अधिक श्रेयस्कर समझा था। उनके साहस और शौर्य की अनगढ़ जुबान में लिखी गई यह वीरगाथा पूर्ण सम्मान के साथ उन सबको समर्पित    आभार     इस उपन्यास के तथ्यों का संग्रह व विश्लेषण करने में मुझे समय-समय पर श्री सुंदरलाल बहुगुणा, जयपालसिंह-नगाणगांव, बुद्धिसिंह रावत—बड़कोट, राजेन्द्र राना ‘नयन’ मुरारि—नौगांव, महावीर रवांल्टा, विक्रम कवि, वीरेन्द्र खंडूड़ी और गोविंद चातक से विशेष सहायता प्राप्त हुई। इन सबके प्रति आभार
 
 फर्ज और कर्ज की अदायगी
 
 यह लघु-उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व सन् 1930 ई. के आसपास घटित कुछ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है, जिनको इतिहास की पुस्तकों ने कभी दर्ज ही नहीं किया।
 
 भारत के अंग्रेजी राज के दौरान मध्य हिमालय के काफी बड़े भू-भाग में फैली एक देशी रियासत-टिहरी-गढ़वाल। भागीरथी और यमुना दोनों नदियों का उद्गम-स्थल। पुराणों के अनुसार—देव-भूमि। वहां के शासक ने दरबारियों, चाटुकारों के माध्यम से अपने को ‘बोलांदा बद्री’ (बोलता हुआ बदरीनाथ) घोषित करवा दिया था। उस देव-भूमि के एक भाग यमुना घाटी (रवाईं) में रहने वाले साधारण मनुष्यों-रवांल्टों-को पशुवत्, नारकीय जीवन बिताना पड़ता था। जल, जंग और जमीन पर मालिकाना हक दरबार का होता था। प्रजा के लोग दरबारियों की इजाजत के बगैर उन जंगलों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। ऊंचे, हिममंडित शिखरों व घाटियों के जंगलों, चरागाहों में सदियों से पशुपालन कर किसी तरह अपना गुजारा करते आए थे। वे न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति हो जाने पर संतुष्ट हो जाने वाले लोग थे। बहुत अच्छे जीवन की उनकी कल्पना की उड़ान कभी पहाड़ों-जंगलो-नदियों के घेरे से बाहर-घाटी से चोटियों तक की परिधि से बाहर—नहीं जा सकती थी। उनके सपने भी इसी तरह के होते थे कि वे अपने पशुधन को लेकर मुक्ती (ढेर सारी) पत्तियों से लदे किसी घने जंगल में या कहीं हरे-भरे, लंबे-चौड़े चरागाह में बेरोकटोक घूम रहे हैं। उससे ज्यादा-अपने जंगलों और चरागाहों में स्वच्छंद होकर घूमते रहने से ज्यादा रंवाल्टो और किसी चीज की कामना या याचना नहीं कर सकते थे।
 
 लेकिन अपने राजमहल के स्वर्ग में निवास करने वाला उनका राजा उनके जैसे मामूली सपने नहीं देखता था। उसकी वफादारी गुलाम प्रजा के प्रति नहीं, लंदन में बैठने वाले अंग्रेज महाप्रभु के प्रति रहती थी। उसका मन उन पहाड़ों की वीरानगी से निकलकर यूरोप के सजीले-रंगीले देशों की सैर करने लगता था। उसकी राजसी आकांक्षाओं की पूर्ति में कुछ अंग्रेज-भक्त दरबारियों को प्रजा के सपने बाधा देते मालूम होने लगे। सपनों की उस टकराहट के फलस्वरूप वे वन-उपजों का व्यापारिक दोहन करने के मकसद से चरवाहों, वनवासियों को उनके पारंपरिक वनों से बेदखल करने लगे। प्रजा में बेचैनी फैलने लगी। दरबारियों ने उनके विद्रोह को कुचलने के लिए पलटन का उपयोग करना चाहा। लेकिन रियासती पलटन का मुखिया अपनी फौज का उपयोग प्रजा को कुचलने के लिए किए जाने के खिलाफ था। दरबारियों को सत्ता सौंपकर राजा यूरोप भाग चला। उसके पलायन के बाद निहत्थे रवांल्टों को गोलियों से भून डाला गया। जो जिंदा रह गए उन्हें लंबी-लंबी कैद की सजाएं सुनाई गईं।
 उस जमाने में सूदूर रवाईं के समाचार महीनों बाद देहरादून पहुंच पाते थे। समाचारों को प्रकाशित करने के ‘मुलजिम’ साप्ताहिक ‘गढ़वाली’ के सम्पादक विश्वंभरदत्त चंदोला ने अदालत में अपने संवाददाता का नाम बताने से इंकार कर दिया था। अंग्रेज भारत की अदालत ने उन्हें एक साल सश्रम कैद की सजा दी थी। युगों-युगों तक पत्रकार की नैतिकता और साहस को रोशनी प्रदान करते रहने वाले कलम के उस निर्भीक योद्धा को विनम्र श्रद्धांजलि।
 
 ‘गढ़वाली’ की पुरानी, तत्कालीन फाइलों को देखने की अनुमति व अवसर प्रदान करने के लिए लेखक ‘विश्वंभरदत्त चंदोला शोध संस्थान, देहरादून’ की अध्यक्ष श्रीमती ललिता वैष्णव के प्रति कृतज्ञ है।
 
 मेरा जन्म एक जंगलाती परिवार में हुआ था। यमुना की घाटी का अन्न, जल व वायु मेरे बचपन की हिफाजत करते रहे। अपने जन्म से तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएं मेरे दिल को एक भारी पत्थर के मानिंद दबाती लगती थीं। उन स्वाभिमानी रवांल्टों की वीरगाथा लोक को सुनकर मैं उस ऋण से उऋण होने की योजनाएं बनाता रहता। इस छोटे-से उपन्यास की सामग्री मैं सन् 1964 से ही एकत्र करने लगा था। जब कुछ भुक्तभोगी रंवाल्टों सैनिक कार्यवाहियों में शामिल एक सिपाही और कुछ अन्य प्रत्यक्षदर्शियों से भेंटकर मैंने अपनी डायरी में उनके साक्षात्कार दर्ज किए थे।
 
 तिलाड़ी कांड की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के ऐतिहासिक अवसर पर लिखित उस अनोखे प्रतिरोध की यह गाथा शायद उन चंद देशवासियों के किसी काम आ सके जो विपरीत व विकट परिस्थियों के बावजूद जल, जंगल और जमीन पर वनवासियों के अंधकारों की लड़ाई भी जारी रखे हैं।   -विद्यासागर नौटियाल    यमुना के बागी बेटे     योजनगंधा
 मत्स्यगंधा।
 गंधकली।
 सत्यवती।
 
 -राजकन्या के अनेक नाम थे, सरदार साहब ! उसकी माँ कोई मानवी नहीं, एक मछली थी ! वह महाराजा वसु के वीर्य से जन्मी थी। यह भेद उसे खुद ही वहां पर नामौजूद अपनी सौतन के जाए बेटे के सामने प्रकट करना पड़ा था। इस भेद और इससे जुड़े कुछ दूसरे भेद। अनेक घटनाओं से भरे हुए उसके जीवन में एक ऐसा भी विकट मौका आया जबकि अपने देश को संरक्षण प्रदान करने और उस पर अपने कुल का शासन जारी रख सकने के हित में उसे समस्त मर्यादाओं तथा शालीनता की सीमाओं का खुद उल्लंघन करना पड़ा था। उसके सामने लाज-हया छोड़कर कुंआरी अवस्था से जुड़े निजी जिंदगी के अनेक रहस्य और कुछ कड़वे भेद, जिनके बारे में और किसी को पता नहीं था, उस बेटे को खोलकर बताने की मजबूरी उपस्थित हो गई। उसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था। जो भेद कभी अपने पति तक के सामने जाहिर नहीं होने दिए, दिल के भीतर से जुबान पर आ गई बातों को ओंठों से बाहर निकलते-निकलते अपने को किसी तरह जबरन रोक लिया, उनका खुलासा पराई कोख से जाए पुत्र के सामने करना पड़ रहा था।
 
 -अपनी कोख के जाए दोनों बेटे लाऔलाद मर गए। उनके असमय विदा हो जाने के बाद राजगद्दी का कोई वारिस बाकी नहीं बचा, सिवा एकांत में विमाता के मुख से कही जा रही कहानी को सुन रहे उस जेठे बेटे को जो हमउम्र लगता था, लेकिन उससे बड़ा था। इतना बड़ा कि उसके हाथ बूढ़े राजा को सौंपने का वायदा करने से पहले सत्यवती के पिता के मन में उसी को अपना दामाद बना लेने की इच्छा बलवती हो उठी थी। समाज के मान्यता-प्राप्त नियमों को धता बताते हुए एक अविवाहित राजकुमार अपने बूढ़े, मरणासन्न पिता से सत्यवती का विवाह करने की बात करने आया था। उसका पिता सत्यवती के वियोग के फलस्वरूप रोगग्रस्त होकर शैय्या पर पड़ा था और किसी नवयुवक प्रेमी की भांति तड़पने लगा था।

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From : Mr Bhishma Kukreti.

Great Garhwali Personality – 104                                         Vidya Sagar Nautiyal: A Multifarious Personality                                                                Bhishm Kukreti
     Vidya Sagar Nautiyal was a known figure not only in Garhwal but in Hindi and Russian Literature.   Vidya Sagar Nautiyal was born on 29th September 1933, in Tihri Riyasat. (Nautiyal used to  quote-  Tihri riyasat par ek Angrej Bhakt Samant ka raj chalta tha) . His father was range-Officer in forest department.        Vidya sagar got education from Pratap Inter College, Tihri Garhwal and intermediate from Dehradun. . While he was studying, he published his first story ‘Mook Balidan’ in the college magazine. Later on he went to Kashi for graduation from Banaras Hindu Vishv Vidyalay . There, he got neighborhood of poet Kedar Nath Singh in Bhagwan Das Hostel.  There, young Vidya Sagar got association of various potential poets and other literature creative.  Vidya Sagar Nautiyal got impressed by famous Namvar singh for his spoken capability and for his knowledge of Hindi literature. When Vidya Sagar got introduction with Namwar Singh, Namwar singh appreciated stories of very young Vidya Sagar Nautiyal. While, Vidya Sagar Nautiyal was in Kashi, the literay word became known about his capability as story writer. Many literary figures of their time appreciated Bhains ka Katya’ a Hindi story by Nautiyal. Dr. V Charnishov translated the above story in Russian language. Communism influenced very much on Viadya sagar and he was always a communist. Vidya sagar fought election from Dev Prayag and he was MLA of Uttarpradesh Assembaly from Dev Prayag constituency. Vidya Sagar was asocial and political activist who fought for deprived ones .                                       Literary Works of Shri Vidya Sagar Nautiyal  1- Das Pratinidhi Kahaniyan ---2-Uttar bayan hai -----Showing common men’s struggle in Garhwal and a tragic novel 3--Jhund Se Bichhuda ----a description of hard life of Hills4-Bhim Akela-- A Novel on declining social values in Garhwal5-Yamuna ke Bete--a tragic novel with lot of tension and struggle in life6- Suraj sabka hai 7- Mohan gata Jayega   Stories of Vidya sagar Nautiyal are based on day today life of rural garhwal. Manju Singh produced a telefilm ‘Nath’ on his story for Doordarshan. Door Darshan telecasted the film more than ten times as the viewers liked the film and story. Many organizations awarded Nautiyal for his service to literature. Vidya Sagar Nautiyal passed away on 12nd Feb 2012, in Bangalore.  Copyright@ Bhishm Kukreti

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Regards
B. C. Kukreti


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On Sun, Feb 12, 2012 at 9:29 PM, Pahar <pahar.org@gmail.com> wrote:

    Dear Friends,
     
    This morning (12.2.12) 'Bhim Akela' (writer, leader, legislator, activist and a fine human being Mr. Vidya Sagar Nautiyal) died at Bangalore. He was ailing for last some months. He will be remembered for his stories, travelogues and all kinds of vibrant prose which he wrote since his childhood in Tehri state. A student leader in BHU, an MLA of CPI in UP Legislative Assembly and an active participant of Uttarakhand's social movements.
     
    He was among the Life members of PAHAR, a contributor to PAHAR Annual and we all were moved when he accepted PAHAR RAJAT SAMMAN a few years back at Dehradun.
     
    We all are proud of him, his literary genius and his activist mind, which are all parts of his dreams for the ordinary humans and mountain people.
     
    We salute him and send condolences to his family members on behalf of all the members of PAHAR.
     
    -Shekhar Pathak, Rajivlochan Sah, Uma Bhatt, Girija Pande, Raghubir Chand,  Zahoor Aalam, Anup Sah  and many others
     
    PAHAR, Nainital
     
    --
    PAHAR
    People's Association for Himalaya Area Research
    'Parikrama', Talla Danda, Tallital,
    NAINITAL- 263 002, Uttarakhand, India

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bhishma Kukreti bckukreti@gmail.com

Story  कथा                                                                        दुधौ  सवाद                                              कथा कार - भग्यान विद्या सागर नौटियाल                                     A  Story by Vidya Sagar Nautiyal                                                  ( अनुवाद - भीष्म कुकरेती )( A Tribute to Great Story Writer, Novel Writer, Freedom Fighter,  Social Activist  and left Activist late Vidya Sagar Nautiyal ) (या कथा,सन १९७५ मा हिमांशु जोशी क संपादन मा 'चीड के वनों से, अलकनंदा प्रकाशन मा छपी छे.कथा हिंदी मा च. मीन गढवाली मा अनुवाद कार, जन से गढवा ळी सहित्यौ भंडार बढो -भी.कुकरेती)          ब्व़े बाब दुई भैंस पिजाणो उबरो चलि गेन. तौळ उबर जांद दै  ब्वेन् अपण दस सालै नौनी मैना कुण चाट घाळिक ब्वाल, ' चुल्लुमा भुज्जी धरीं च. देखणि रै इन नि ह्व़ा, जौळ जा..". ब्व़े बाब जाणो परांत, मंज्यूळो कुठड़ो म  मैना अर वींको सात सालौ भुला दीनू इ छ्या. " दीदी ! मै  डौर लगद, त्वे बि लगद ?"' ये भाई  ! क्यांक डौर लगद त्वे तैं ! मी त नि डरुद  !"" दीदी ! मी तैं यीं भैंसी  डौर लगद जु इथगा रात ह्व़े जांद अर तबि बि  दूध नि दीन्दी " "किलै ?""ब्व़े बुल्दी बल भैंस दैंत होंदी '"हमर भैंसी त दूध दिवाळि  च. दैंत त मर्खुड्या हूंद ." " हमर भैंसी बि त मरखुडया च "'भाई! हमर भैंस त दुधाळ च . दुधाळ भैंसि से नि डर्दन '' दुधाळ त वा बाजारौ कुणि च . आज तलक, हम कुणि त ईं भैंसिन कबि दूध नि दे ."                               मैना न कुछ नि बोली अर कड़छुळन कढै-उन्दौ भुजी खरोळण बिसे गे .             हाँ उन त या भैंस ये परिवारौ खुणि दैंत बणिक इ आई . धार मा ब्यणस्यरिको गैणा बि नि आंदो  अर तैबारी बिटेन देवकी अर मैना बुबा घनानन्द यीं भैंसी  सिवाटहल  मा लगी जान्दन. सरा दिन देवकी रून्ड़ो बौण , पटाळा भेंकळु , भुनका  जन काण्ड वाळ बुट्यों अर भींटों-  भींटों  मा जैक घास बटोळिक  लांदी छे अर द्वी झण अदा  रात तलक भैंसि   खातिरदारि मा लग्यां रौंदा छा. भैंसि  जब बियाई छे त कटड़ा तैं  छांच  पिलैक मारी दे ज्यां से वो कटड़ा बजार मा  भिज्याण वळु दूध  मा हकदार नि बौण साको. मनिख लोक त चांटा मारिक अपण बच्चों दूध पीणो जिद्द छुडै  सकदन  पण जानवरूं   बच्चों पर आंखी  घुरैक या गुस्सा से  क्वी फरक नि पड़दो. जानवरूं बच्चो  तैं दुधौ स्वादौ  कीमत अपण जानि देकी दीण पोड़द .                            घनानंद ब्यणस्यरिक म बिजि जांद. भैंस पिजाणो उपरान्त वु डैकणो  फांक्यूँ  मा रात लटक्याँ परोठयूँ  तैं उतार्दो अर द्वी बगतो दूध तैं एक परोठी मा डाळिक शहरो ज़िना चली जान्दो. क्यानो रुड़ी,बरखा अर ह्यूंद  ? यू घनानन्द को रोजौ नियम च. जै दिन शहर दूध नि जालो मतलब परिवार भुक्की  रालो. अपण या  कै हौरिक बीमारी या क्वी हौरी वजै हून्दो बि घनानंद  शहर जाण बन्द नि कौर सकुद. वु शहर  जांद अर आन्द बगत दूधो परोठी मा इ  चौंळ  लेकी आन्द या कबि लूण, गुड़ ल्हेकी आन्द. रोज पांच मील जाण अर पांच मील आण.                             या इकी भैंस सरा परिवारों खर्चा चलाणि च . ये परिवारों हौंसण -पुळयांण, , नाच-गाण , खौळ - म्याळ  , सीण -बिजण, काम-आराम  सब्युंक केंद्र बिंदु या भैंसि च .   देवकी कुण दुन्या मा सबसे भली जगा वा च जब कें  पथरोड़ी जगा मा,  बंजर मा या कै रगड़ मा हौर घास मीलि जा;  घनानंद कुण उ दिन निर्भागी दिन होंद जैदिन भैंसी दूध नि द्याओ या कम दूध द्याऊ; मैना खुणि उ  दिन सुन्दर च जै दिन ब्व़े तैं भैंसों खुण हौरू हौरू डड्यळ मीलु जावु; दीनू खुणि वा रात पुळेणो (ख़ुशी) च जें  रात भैंसि चौड़ दूध दे द्याऊ अर वैकी ब्व़े झट्ट  से मंज्यूळ ऐका  वै तैं रुट्टी खलैक अपण हथों न सिवाळ द्याओ. आक तलक परिवारों कै बि  मनिखन नि जाणि कि यीं भैंसि   दूधो सवाद कनो च. ना त ब्व़े बाब ना इ लौड़ -लौड़ी जाणदन बल यीं भैंसि क दूध बकुळ /गाड़ू  च या छाळु /पतुळ च या मिट्ठू ; बच्चों कुण त भैंसों दूध अर भैंसों जुगाळी फ्यूण मा क्वी फ़रक नी च .                        दीनू न कति दें स्वाच बि च बल वु कैदिन डैकणो  डालुन्द लटकीं परोठी बिटेन दूध चुरैक घटाघट  दूध पी जौ .पन र्त्यान वै तैं भितर बिटेन भैर आण मा डौर लगडी छे अर सुबेर जब वु बिजदो  छौ त वैको बुबा दूध लेकी बजार चलि जान्दो छौ. दिनं जब वैको ब्व़े बाब जब ड़्यारम  नि रौंदन   त दीनू न अपण सकापौडि  (गूढ़  योजना) अपणि दीदी मा ब्वाल बि च अर दीद न बि चटकारा लेकि सकापौडि तैं सुफल कर णो वायदा बि कौर. पण रत्यां सरा योजना भ्युं जोग ह्व़े जांदी छे. अन्ध्यरि रात मा  सुबेर स्याम दूध दीण वळी भैंस वैको  दिमाग मा दैंत बौणि जांदी छे अर फिर वो मंज्यूळो कुठडि बिटेन भैर सीड्यु मा आणो सांस   इ नि कौर सकुद छौ.                                        भैंसों दूध सुकणो मतबल छौ परिवारों लाइफ लाइन सुकण . आज घनानंद शहर बिटेन बौड़ी क नि आई . वैकी रीति  परोठी क्वी हैंको मनिख ल्हेकी आयो. आज रतुआ ईन भैंसी तैं को पिजालो क समस्या ऐ गे. या भैंसी इकहत्या च. घनानंद छोड़िक क्वी हैंको ईंक ऐणो  पर हhth  लगाओ ना की या भैंसि जोर से बित्की जांद अर घनानंद छोड़िक क्वी ईं भैंसि  तैं  पिजैइ  नि सकद. देवकी भैंसि तैं मलासणि रौंदी अर घना दूध पिजान्दो . आज घनानंद घौर  नि बौड़ .अब घनानंद छै मैना तलक घौर नि ऐ सकदो. कुछ दिनु से भैंसिक   दूध कम होंद गे अर घनानंद दूध मा पाणी मिलौट करण लगी गे. आज वै तैं दूध मा मिलौट करणों सजा सुणये गे.                  " भोळ क्वी भैंसूं गलादार आलो त यीं भैंसी वै पर ठेलि द्युंला," देवकी न मैना मा ब्वाल, ' अदा मोल बि मिल ग्याई त गनीमत च."                         " ए ब्व़े!  एक .दै मी तैं यीं भैंसि दूधो सवाद त चखा दे, बस एक दै  ."  दीनु न ब्वाल् अर अपण मुख हैंक तरफ कौरी दे. वैकि समज मा नि आणि छे  कि  जै  बात तैं वैन भौत सोच समजिक अर हिकमत से अपण ब्व़े ब्वाल वा बात अपण ब्व़े  से करण चएंद छे कि ना !   A Tribute to Great Story Writer, Novel Writer, Freedom Fighter,  Social Activist  and Left Activist late Vidya Sagar Nautiyal सर्वाधिकार - भग्यान  विद्या सागर नौटियाल जीक उत्तराधिकारी

 

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