शैलेश मटियानी
गिरिराज किशोर ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का लेखक ठहराया है। शैलेश ने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी दिये।...
शैलेश मटियानी :लिखना एक आहट पैदा करना है
द्वारा दिनेश कर्नाटक (स्रोत: दैनिक जागरण)
शैलेश मटियानी को हमारे बीच से गये हुए छह साल पूरे हो चुके हैं। लगता है जैसे कल की बात हो। तमाम संघर्षो तथा दु:श्चिंताओं के बावजूद आखिरी समय तक जैसा कि वे लेखन के बारे में कहा करते थे," कागज पर खेती" करते रहे। उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए राजेंद्र यादव ने स्वीकार किया है कि हम सबके मुकाबले उनके पास अधिक उत्कृष्ट कहानियां हैं। गिरिराज किशोर ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का लेखक ठहराया है। शैलेश ने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी दिये। उनकी कहानियों का जिक्र आते ही मस्तिष्क में एक साथ कई चरित्र तेजी से घूमने लगते हैं, पद्मावती, इब्बू-मलंग, गोपुली, सावित्री, पोस्टमैन, नैन सिंह सूबेदार, सूबेदारनी, मिरदुला आदि ऐसे चरित्र हैं जो एक बार पाठक के मनोजगत में प्रवेश करने के बाद सदा-सदा के लिए उसकी स्मृति में डेरा जमा लेते हैं। प्रेमचंद के बाद इतने यादगार चरित्र हिंदी में शायद ही किसी और लेखक ने दिये होंगे। शैलेश से पहले पहाड़ साहित्य में सौंदर्य की विभिन्न छवियों तथा बिंबों के रूप में आता था। बल्कि इलाचंद जोशी जैसे बड़े लेखक पहाड़ की पृष्ठभूमि को अपने लेखन कर्म के लिए अनुर्वर मानते थे। शैलेश ने पहली बार पहाड़ के मनुष्य की जीवन गाथा को पूरी व्यापकता के साथ हिंदी के पाठकों के सम्मुख रखा। शैलेश का जन्म 14 अक्टूबर 1931 को अल्मोड़ा के समीप बाड़ेछीना में हुआ। छोटी उम्र में ही उनके ऊपर से माता-पिता का साया उठ गया। दादा-दादी के सहारे नाममात्र की शिक्षा ले पाए। उनकी मृत्यु के बाद वे चाचा की मांस की दुकान में काम करने लगे। यहीं से लिखना भी आरंभ किया और उनकी कहानियां दिल्ली से निकलने वाली अमर कहानी तथा रंगमहल में छपने लगी। उनके लेखन पर अल्मोड़ा के प्रबुद्ध समाज में भी चर्चा होने लगी थी। इन्हीं लोगों ने एक बार उन्हें कीमा कूटते हुए देखकर कटाक्ष किया- देखो, सरस्वती का कीमा कूटा जा रहा है! इस से उन्हें गहरी चोट लगी। उन्होंने देवी से प्रार्थना की- माता सरस्वती, चाहे जितना दु:ख देना लेकिन लेखक अवश्य बना देना! यह प्रार्थना जीवन भर उनके भीतर गूंजती रही। बाद में चाचा का आसरा छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें इलाहाबाद, दिल्ली तथा मुंबई में दर-दर की ठोकर खाने को विवश होना पड़ा। उनके जीवन में ऐसे भी दिन आये जब रोटी के लिए उन्हें हवालात का सहारा लेना पड़ा। मुंबई में उन्होंने श्रीकृष्ण चाट हाउस में काम किया। जो समय मिलता उसमें लिखते थे। इसी दौरान धर्मयुग सहित उस दौर की बड़ी पत्रिकाओं में छपने लगे। वहां रहते हुए ही मुंबई के फुटपाथी जीवन पर बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास लिखा जो अत्यधिक चर्चित हुआ। साहित्य जगत में पहचान बनने लगी तो चाट हाउस की नौकरी छोड़कर लेखन के सहारे आगे की आजीविका चलाने का संकल्प लिया। शैलेश मटियानी ने अपना पूरा जीवन लेखन के जुनून में जिया। उन्हें कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ा लेकिन उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। विकल्प तथा जनपक्ष का प्रकाशन किया। लेखकीय निष्ठा पर सवाल उठाये जाने पर धर्मयुग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ी। इलाहाबाद में मकान आवंटन के मामले में भ्रष्ट अधिकारियों तथा अपराधियों के गठजोड़ से लम्बी लड़ाई लड़ी जिसकी चरम परिणति के रूप में होनहार छोटे बेटे को गंवाना पड़ा। इस आघात से उबरना उनके लिए संभव नहीं हो सका। फिर वे इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी आ गए। 9 जुलाई 1995 को भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता के कार्यक्रम में उनको मास डिप्रेशन का दौरा पड़ा। उपचार के लिए हल्द्वानी से लखनऊ-दिल्ली आते-जाते रहे। इस बीच अपने साहित्यिक मित्रों से एक आत्मकथा तथा एक बड़ा उपन्यास लिखने की इच्छा का जिक्र करते रहे। यह उनकी लेखकीय निष्ठा और ऊर्जा ही थी कि गंभीर बीमारी के बावजूद वे पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। लम्बी मानसिक यंत्रणा के बाद 24 अप्रैल 2001 को उनका निधन हो गया।
उनके रचना कर्म पर टिप्पणी करते हुए हंस संपादक ने अपने बहुचर्चित संपादकीय शैलेश मटियानी बनाम शैलेश मटियानी में लिखा था- मटियानी को मैं भारत के उन सर्वश्रेष्ठ कथाकारों के रूप में देखता हूं, जिन्हें विश्व साहित्य में इसलिए चर्चा नहीं मिली कि वे अंग्रेजी से नहीं आ पाए। वे भयानक आस्थावान लेखक हैं और यही आस्था उन्हें टालस्टाय, चेखव और तुर्गनेव जैसी गरिमा देती है। उन्होंने अद्र्धागिनी, दो दु:खों का एक सुख, इब्बू-मलंग, गोपुली-गफुरन, नदी किनारे का गांव, सुहागिनी, पापमुक्ति जैसी कई श्रेष्ठ कहानियां तथा कबूतरखाना, किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई, चिट्ठी रसैन, मुख सरोवर के हंस, छोटे-छोटे पक्षी जैसे उपन्यास तथा लेखक की हैसियत से, बेला हुइ अबेर जैसी विचारात्मक तथा लोक आख्यान से संबद्ध उत्कृष्ट कृतियां हिंदी जगत को दीं। अपने विचारात्मक लेखन में उन्होंने भाषा, साहित्य तथा जीवन के अंत:संबंध के बारे में प्रेरणादायी स्थापनाएं दी हैं। साहित्य तथा मनुष्य के पारस्परिक संबंध पर उन्होंने लिखा है- मनुष्य की जैसी महाकाव्यात्मक स्थिति साहित्य में मिलती है; इतिहास, भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र या विज्ञान में न आज तक मिली है, न ही आगे मिल सकती है। भाषा के प्रति अपनी अगाध आस्था को व्यक्त करते हुए वे उसे मनुष्य की सर्वोच्च उपलब्धि मानते थे। साहित्य के बारे में उन्होंने लिखा है- मनुष्य को उसकी ऊंचाइयों, सुख-दुख, रूप-स्वरूप और कार्यकलापों में पूरी पारदर्शिता के साथ केवल साहित्य में ही देखा जा सकता है और यह बात तब तक के लिए सत्य है जब तक कि मनुष्य जाति का अंत न हो जाए। इसी तरह लेखन को वे मनुष्य के भीतर के आलोक को पहचानने का माध्यम मानते थे। उनके अनुसार जो पाठक को चमत्कृत न कर सके, वैसा साहित्य स्मृति का विषय नहीं बन पाता। लिखने को वे आहट उत्पन्न करना मानते थे। उन्होंने लिखा है- लेखन ऐसा होना चाहिए कि लिखने वाले की स्मृतियां पढ़ने वालों को स्वयं की स्मृतियों में ले जा सकें और यह तभी संभव होगा जबकि लेखक में गहरी संवेदना, सच्चाई तथा पारदर्शिता होगी।
हिंदी के सभी दिग्गजों ने एक सुर में शैलेश मटियानी को प्रेमचंद के बाद हिंदी कहानी का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माना लेकिन उनको वह सम्मान तथा चर्चा नहीं मिल सकी जिसके कि वे हकदार थे। इसकी एक वजह यह भी रही कि वे लेखक को स्वतंत्र चेतना मानते थे तथा साहित्य में गुटबाजी का विरोध करते थे। दुर्भाग्य से उनके निधन के बाद उनके लेखन पर चर्चा करने के बजाय उनकी बीमारी तथा अवसाद के दौरान की स्थापनाओं को अनावश्यक तूल देकर उनको पुरातनपंथी साबित करने की कोशिश की गयी। लोग भूल जाते हैं कि जिन अन्तर्विरोधों तथा विरोधाभासों को वे शैलेश मटियानी पर थोपना चाहते हैं क्या वे हमारे देश तथा समाज के अन्तर्विरोध नहीं है और क्या हम सभी उन विरोधाभासों के बीच नहीं जी रहे। मारकेज ने कहा है, लेखक का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह अच्छा लिखे। इस मामले में शैलेश का जवाब नहीं है। उन्हें कई पुरस्कार तथा सम्मान प्रदान किए गए। कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल ने उन्हें डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने सच्चाई, गहरी मानवीय संवेदना तथा लेखकीय स्वायत्तता की विरासत साहित्य को दी।
भारतीय कथा में साहित्य की समाजवादी परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता है। वे दबे-कुचले भूखे नंगों दलितों उपेक्षितों के व्यापक संसार की बड़ी आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं। वे सच्चे अर्थो में भारत के गोर्की थे।
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