Author Topic: पहाड़ की नारी पर कविता : POEM FOR PAHADI WOMEN  (Read 53741 times)

Meena Pandey

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               ग़ज़ल
करे जतन हद सब्र  की  होने  लगी है
शहर की प्यास धोके गावं पीने लगी है!
फैलायंगी फने नागिन जाने किन रास्तों पर
बीन हर तरफ़ सफेरो की  बजने  लगी है!
बुढा बरगद करेगा भी हिफाजत कब तक
शाख  हर टूटकर गिरने  लगी  है!
गावं की याद मे तन्हा मेरे मन की गागर 
पनघट मे बहुत गहरी  उतरने  लगी है !
जब  से  परिन्दे  हुए  है  आखेटक 
जिन्दगी  जाल  सी  लगने लगी है!
ये दोपहरे भी अब चिराग मांगती है
आत्मा  सूरज की  गलने लगी  है!
उस हवा ने छुकर के मेरा जिस्म पूछा
खून क्यो सर्द है आग क्यो बुझने लगी है!
गावं की मिटटी बनकर चंदन "मीना"
शहर के माथे  पर  सजने लगी  है!


पंकज सिंह महर

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मीना जी, बहुत सुन्दर कविता है, जिस तरह से आपने मौसम की तुलना भुनते भट्ट से की, उसे पढ़्कर बहुत आन्नद आया।

Meena Pandey

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GRAMIN YUVAK
« Reply #52 on: March 25, 2008, 04:44:21 PM »
ग्रामीण युवक
 
वो पगडण्डी पर शहर को निहारता युवक
या डाकिये के थैले मे पड़ा
एक पुराना ख़त!

उसका जीवन
खेतो पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी 
नही उगा पाता उन खेतो पर
अपने हिस्से का भविष्य !

उसकी राते लंबे पहाडो पर
कोहरे सी छट जाती है
जब वो बुडी ख्वाहिशे और नन्हें सपने 
शराब समझ कर पी जाता है!

वो बचपन मे पाठी जैसा दिखता था
बड़ा हुआ तो
हर महीने के ख़त मे तब्दील हुआ
और जब चल बसा था वो
अचानक टेलीग्राम  हो गया!

हेम पन्त

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Wah! Wah! Wah! kya 'Gajjjjab' likha hai......... Dil chhoo gayi aapki kavita.... Likhte rahiye humein bhi kuchh seekhne ko milega...

वो बचपन मे पाठी जैसा दिखता था
बड़ा हुआ तो
हर महीने के ख़त मे तब्दील हुआ
और जब चल बसा था वो
अचानक टेलीग्राम  हो गया!
 

Meena Pandey

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 जिंदगी

निमुजियो हूँ  काण  भे,
बुझ नि सकना उ आण भे!
 
निखालिस भे तो पाणी  भे,
चाख सकछा तो मसवानी भे!

निमखन  खे-बेर  निकाव  दी,
जिंदगी के भे तो, उखाव भिखाव भे !
           

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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wah wah meenu bhaute badi

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Ati sunder Pandey Ji.

जिंदगी

निमुजियो हूँ  काण  भे,
बुझ नि सकना उ आण भे!
 
निखालिस भे तो पाणी  भे,
चाख सकछा तो मसवानी भे!

निमखन  खे-बेर  निकाव  दी,
जिंदगी के भे तो, उखाव भिखाव भे !
          


Meena Pandey

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अल्मोड़ा के नाम
 
अल्मोड़ा फ़िर तेरी तस्वीर मेरी आँखों मे
फ़िर कोई याद चुपके से कोंध आई है
एक अरसा जुदा रहकर सुबह की भूली
लोटकर देहरी पर तेरी आई है !

मेरी कसकती- सिसकती तन्हाइयो के कानो ने
रह रह के सुना है हँसी शोर तेरा
और
इन चिकनी सडको को फादते मेरे तलवे
पटालो की तेरी फिसलन को नही भूले है!
 
अब भी खीम- सिंह की बाल मिठाई पर
मेरी नन्ही सी जिद्द जाके अटकी है
धर के रूप नंदा देवी का
मेरी श्रद्धा जहाँ हर वर्ष पूजी जाती है
हर दिन त्यौहार होता है
मेरी जीभ पकवानों का मज़ा लेती है !

मेरी यादो के फागुन मे
जब भी रंग होली का तेरी उतरा है
बन के राधा तेरी गलियों मे
मन किसी कान्हा की मांग करता है !

माना इस अजनबी शहर  मे
मे दूर बहुत दूर तुझसे बैठी हू
मगर इस अजनबी सावन मे भीगे मेरे दिन भी
अपने शहर के
पतझड़ को प्यार करते है !

मीना पाण्डेय

Risky Pathak

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Jai Ho pandey jee... Ati - Uttam.....

Meena Pandey

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ये गर्मिया

ये गर्मिया बोझिल है!
जलते है हाथ, पैर, मन!

हथेली भर पानी से
धोती हूँ उद्विग्न मन
नही मिटती
अकेलेपन की उमस!

बर्फ की सिलिया
सर्द हवा और
भीगी सडको पर 
लोटते तुम!
वो सर्दिया बेशक अच्छी थी !

 

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