मत मारो मोहना पिचकारी
उत्तराखण्ड के जनकवि शेरदा ‘अनपढ’ की होली पर बनी एक कविता प्रतिवर्ष होली में व्यवस्था के खिलाफ रंग डालने को प्रेरित करती है। कविता है-
मत मारो मोहना पिचकारी,
पैलिके छू मंहगाई मारी
मत मारो मोहना पिचकारी...
शेरदा की मंहगाई पर लिखी यह कविता आज देश और उत्तराखण्ड की व्यवस्था पर सटीक चोट करती है। अब पिचकारी भी कहां मारूं। जहां-तहां बदरंग व्यवस्था पर कोई रंग चढ़ेगा भी नहीं। सुविधाभोगी रंग में रंग चुके उत्तराखण्ड के नीति-नियंताओं पर कोई रंग नहीं भा रहा है। यहां एक ही रंग है सत्ता का। उसके लिये हौल्यार भी अलग हैं और आयोजक भी अलग। इसमें जनता नहीं पूंजीपति शामिल होते हैं। इसमें बांधों का रंग है, सिडकुल में उद्योग लगाने का जुगाड़ है, देहरादून में बैठकर दलाली करने वालों की जमात है, टासंफर पोस्टिंग है, माफिया-अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ है। ये सब मिलकर नई होलियों की रचना कर रहे हैं। बोल बदल गये हैं, संगीत बदल गया है अब होली के स्थान भी बदल रहे हैं। जनता ने कहा हमारी होली गैरसैंण में तो पार्टियों ने कहा देहरादून में। इस नहीं होली की जील उठाने वाले कहीं थापर है तो कहीं, जेपी। कहीं नैनो लगाने वाला टाटा है तो कहीं सब्सिडी डकार भागने वाले उद्योगपति। सत्ता की होली में अब राष्टीय ही नहीं क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी शामिल होने लगे हैं। गांव में होली खेलने के लिये लोग नहीं हैं। सरकार बाहर से हाल्यारों को बुला रही है। कभी बोगश्वर मेले में तो कभी गौचर में। इसके अलावा हर शहर में महोत्सव मनाकर वह पहाड़ को रंगना चाहती है। मुबई से कलाकार आ रहे हैं। नगर पालिकाओं को भारी बजट सौंपा जा रहा है कार्यकzम करने के लिये। इसके अलावा विरासत जैसी संस्थायें हैं पहाड़ की संस्कृति की पहरेदार। होलियों को संरक्षित यही करेंगी। सरकार ने ऐसे ही हजारों एनजीओ ओ अपना एजेंट बनाया है। पूरे वर्ष सरकार ने जनता के साथ खूब होली खेली। बेरोजगार कहां होली खेलें। विधानसभा के आगे पहरा है। ज्यादा अपनी बात करोगे तो सरकार डंडों की होली खेलेगी। गोली से होली खेलेगी। आत्महत्या के लिये मजबूर करने की होली खेलेगी। हल्द्वानी में बेरोजगारों को जहर पीने की होली ोलनी पड़ी। देहरादून में राणा को टावर में चढ़कर आत्महत्या की हाली खेलनी पडी। पूरे पहाड़ में अपराधों की होली खेली जा रही है। देहरादून में नये हाल्यारों की मौज है। राजनीतिक छुटभैयौं को लालबत्ती मिल रही है। मुख्यमंत्राी हर महीने, हर साल एक पुस्तक लिखकर होली खेल रहे हैं। महंगे ग्लैज पेपर पर अपना फोटो छपवा रहे हैं। शहरों में अपने चमचों के माध्यम से अपने को राष्टकवि घोषित करने में लगे हैं। उनके लिये पूरे साल भर होली ही होली है। देश-विदेश में लोग उन्हें सम्मानित कर रहे हैं। उन्हें उर्जा प्रदेश का मुख्यमंत्राी बताया जा रहा है। उस प्रदेश का जहां इस समय आठ घंटे की विद्युत कटौती चल रही है।
खैर, होली में इस तरह के रंग घुस गये हैं। यही परेशानी है। इन रंगों ने उत्तराखण्ड के रंग को बदलना शुरू किया है। बदरंग होली की इस प्रवृत्ति के खिलाफ नई होली की रचना का समय आ गया है। उत्तराखण्ड आंदोलनों की जमीन रही है। यहां आंदोलन भी होली रंगों मे सराबोर हो जाते हैं। आंदोलन के दौर में ऐसी होलियों की रचना हुयी है जो व्यवस्था पर तो चोट करती ही है, जनता को संघर्ष का संदेश भी देती थी। जनकवि ‘गिर्दा’ द्वारा रचित एक होली विदेशी कंपनियों के खिलाफ माहौल बनाती है। इस तर्ज पर उत्तराखण्ड की व्यस्था पर एक होली पिछले दिनों हमारे साथियों ने गायी। यह होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आप सबको प्रेषित-
झुकि आयो शहर में व्यापारी
अलिबैर की टेर गिरधारी। झुकि...
उद्योगपतियों की गोद में बैठी,
निशंक मारो पिचकारी। झुकि...
देहरादून में लूट मची है,
आओ लूटो व्यापारी। झुकि...
एनजीओ से विकास की रचना
सरदार बने अफसर भारी। झुकि...
झूठ रचो, प्रपंच रचो है,
विकास पर विज्ञापन भारी। झुकि...
कमल का फूल, कांगzेस की विरासत,
लालबत्तियों की भरमारी। झुकि...
यूकेडी को दोस्त बनाकर,
गैरसैंण पर साजिश भारी। झुकि...
अपराधी पहाड़ चढ़े हैं,
निशंक की कविता न्यारी। झुकि...
माफिया ठेकेदार, पहाड़ को लूटें,
नेताओं को सत्ता प्यारी। झुकि...
इस होली के संकल्प बडो है,
अबकी है जनता की बारी। झुकि..