उत्तराखण्ड की प्रादेषिक भाषा हेतु एक पहल
आदरणीय महानुभाव जय उत्तराखण्ड,
उत्तराखण्ड प्रदेष की परिकल्पना को साकार करने व शहीदों के बलिदान तथा वासी-प्रवासी आन्दोलनकारियों के अथक प्रयास के उपरान्त उत्तराखण्ड प्रदेश अस्तित्व में आया। इस नवनिर्मित प्रदेश के विद्वतजनों द्वारा अपने-अपने क्षेेत्र में इस प्रदेश के विकास के लिए अनवरत रूप से कार्य किया जा रहा है। जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यवसायिक गतिविधि, पलायन रोकने, जल संसाधन, आपसी सम्बन्ध, वन-तीर्थाटन, भाषा-संस्कृति, आदि कई महत्वपूर्ण विषयों के उन्नयन हेतु सम्बन्धित क्षेत्र के विद्वान प्रयासरत हैं। नवनिर्मित प्रदेश के विकास की विभिन्न विधाओं को आगे बढ़ाते हुए हम उत्तराखण्ड की प्रादेशिक भाषा के विषय पर भी समवैचारिक बुद्धिजीवी जुड़कर कार्य करें तो उत्तराखण्ड की प्रादेशिक भाषा का मार्ग सुगम हो सकता है। इसके लिए सर्व प्रथम प्रवासी उत्तराखण्डियों द्वारा इस विषय पर कार्य करने के लिए एक कार्ययोजना को मूर्तरूप दिया जाना अति आवश्यक है। इस प्रकार के कई अन्य विषयों पर प्रवास में कार्यरत कई बुद्धिजीवियों के विचार जानने तथा उन्हें एक समूह के रूप में संगठित कर इन विषयों पर कार्य करने की योजनाओं का बनाना वर्तमान में आवष्यक है।
क्या उत्तराखण्ड प्रदेष की कोई प्रादेषिक भाषा है ? यह उत्तराखण्ड की भाषा के सम्बन्ध में मुख्य प्रष्न है। उत्तराखण्ड प्रदेश जो मुख्य दो भागों को मिलाकर निर्मित हुआ है यह दो भाग (क्रमशः गढ़वाल-कुमाऊं) पौराणिक काल से एक खण्ड में होने के बावजूद भी इनमें पृथकता रही है। इन दोनों क्षेत्रों के तीज-त्योहार, व्याह-शादी, खान-पान, रीति-रिवाज, आदि में अमूमन एकरूपता रही है। यहाँ की बोली गढ़वाल में गढ़वाली तथा कुमाऊँ में कुमाउनी लाखांे लोगों द्वारा निरन्तर बोली जाती है। इन दोनों बोलियों में मामूली अन्तर है। इन बोलियों को भाषा मानते हुए कई विद्वानों ने अथक मेहनत कर इसमें साहित्य भी प्रकाशित किया है तथा कुछ लेखकों की रचनाएं पाण्डुलिपि के रूप में सुरक्षित रहते हुए पुस्तक का रूपधारण करने के लिए किसी प्रकाशक व वित्तीय सहायता प्रदान करने वाली वित्तीय संस्थाओं द्वारा अनदेखा करने से लंबित हैं। उत्तराखण्ड की दोनों भाषाओं में जो पुस्तकें यहाँ की भाषा साहित्य के रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं, यह प्रकाशित साहित्य अपनी एक अहम समस्या से गुजर रहा है। यहाँ यही एक मात्र ऐसा साहित्य है जो अपने लिए समुचित पाठक नहीं जुटा पा रहा है। यहाँ के भाषा विद्वानों ने यहाँ की भाषा (बोली) में बहुत कुछ लिखा हैै, यहाँ की विकट परिस्थितियों को दर्शाते हुए कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु जब वह पुस्तक बाजार में पाठकों तक पहुॅचती हैं तो अन्य भाषाओं की पुस्तकों की अपेक्षा यह पुस्तकें अपने लिए पाठक नहीं जुटा पाती। अन्य भाषाओं की पुस्तकों की अपेक्षा इनकी मांग कम होती है। उत्तराखण्ड की गढ़वाली-कुमाउनी भाषा की पुस्तकें केवल यहाँ की भाषा के शोधार्थियों तथा भाषा से जुड़े समाज सेवकों तक ही सिमट जाती हैं। कुछ लोगों द्वारा इन पुस्तकों को उलट-पलट कर अवष्य देखा भी जाता है परन्तु वे खरीदने के स्थान पर कम्पलीमेंटरी काॅपी की चाहत रखते हैं। इस स्थिति को देखते हुए भाषा सम्बन्धी कई विद्वानों के मन में अपनी भाषा के प्रति, भाषा को बोलने वालों के प्रति कई विचार अवश्य उत्पन्न होंगे, इसमें अतिशयोंक्ति नहीं। यहाँ प्रश्न उठता है कि आखिर जिस बोली को लाखों लोगों द्वारा अपने आपसी वार्तालाप या संवाद का माध्यम बनाया जा रहा है उसी भाषा या बोली में यदि कोई पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में आती है तो अपनी भाषा की पुस्तक पढ़ने वालों का रुझान इस ओर क्यों नहीं बढ़ता। यह भी विचारणीय प्रश्न है। इस विषय पर हुए शोध से एक बात स्पष्ठ हुई है कि यहाँ की भाषा या बोली को संवाद की भाषा के साथ-साथ सम्पर्क भाषा के रूप में नहीं अपनाए गया जिस कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है। इसके साथ-साथ यहाँ की भाषा को देवनागरी लिपि के माध्यम से लिखने पर कई स्थानों पर भाषा सम्बन्धी त्रुटियाँ पाई जाती हैं। लेखक अपने विचारों को जिस ध्वनि के साथ अंकित करते हैं पाठकों को उस ध्वनि के सम्बन्ध में जानकारी ही नहीं होती, नहीं लेखक द्वारा लेख के अन्त में उस ध्वनि को स्पष्ट करते हुए ध्वनि सूचक के रूप में स्पष्ठ किया जाता है। पूरी पुस्तक में इस प्रकार की कई त्रुटियां रहती हैं जिसे पाठक को पढ़ने में असुविधा होती है फलस्वरूप उसका अपनी भाषा में प्रकाशित पुस्तकों के प्रति रुझान कम हो जाता है। शोध में भाषा सम्बन्धी इन सभी उलझनों पर गहन अध्ययन करने के उपरान्त कुछ साकारात्मक परिणाम स्पष्ट हुए हैं जिसमें मुख्य रूप से भाषा के स्थानीय मूल ध्वनियों का अक्षरों/मात्राओं के रूप में देवनागरी लिपि में स्थान नहीं होना पाया गया। जिससे देवनागरी लिपि में लिखित गढ़वाली-कुमांउनी भाषा में प्रत्येक स्थान पर कमी महसूस होती है लिखित भाषा सरल होने के स्थान पर कठिन लगती है। यहां तक कि पढ़ने में नहीं आती। स्पष्ठ रूप से कहें तो उत्तराखण्ड की भाषा के कुछ स्थानीय ध्वनि सूचक ही निसन्देह उत्तराखण्ड की भाषा के मूल अक्षर हैं जिनका देवनागरी में जुड़ने से ही भाषा सम्बन्धी दुरूहता को पूरा किया जा सकता है, और उत्तराखण्ड की भाषा को सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
उत्तराखण्ड की लिखित भाषा सम्बन्धी उपरोक्त समस्या के समाधान के लिए उत्तराखण्ड में हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्व विद्यालय, श्रीनगर, से वर्षो से शोध किया जा रहा था। शोध कार्य सम्पन्न होने के उपरान्त उत्तराखण्ड की भाषा के मूल ध्वनियों के सम्बन्ध में साकारात्मक परिणाम निकले हैं, जिसमें उत्तराखण्ड की मुख्य (गढ़वाली-कुमाउनी) भाषा को देवनागरी की लेखन शैली में यहाँ की स्थानीय भाषा के कुछ ध्वनि आखरों को जोड़ देने के सम्बन्ध में प्रस्तावित किया है। ज्ञातव्य हो यहाँ के साहित्य में पूर्वकाल से ही देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता रहा है, जो निर्वाध रूप से वर्तमान में भी किया जा रहा है। उत्तराखण्ड की भाषा (गढ़वाली-कुमाउनी) की लेखन सूचक देवनागरी लिपि के साथ इन स्थानीय शब्दों के जुड़ने से उत्तराखण्ड की भाषा की अपनी ध्वनियाॅं पारिभाषित होंगी, इसके साथ ही ध्वनि आखर जुड़ने से भाषा में ध्वनि सम्बन्धी लिपिकीय त्रुटि को दूर किया जा सकेगा । भाषा में लिपिकीय त्रुटि का समाधान होने के उपरान्त ही ध्वनि-ध्वन्यात्मक, प्लूट-अति प्लूत तथा ब्यंजनान्त स्वरों को पूर्ण ध्वनि के साथ स्पष्ट लिखा जा सकेगा।
उत्तराखण्ड की गढ़वाली-कुमाउनी के लिए सफलता पूर्वक शोध तथा इससे उभरे स्थानीय भाषा की मूल ध्वनि और उसके आखरों को देवनागरी लिपि के साथ जोड़ने के लिए शासकीय स्तर पर कार्य किया जाना है। उत्तराखण्ड की मूल ध्वनि के रचनाकार ने इन आखरों को ‘गऊ आखर’ नाम दिया है। यह क्रमषः पांच अक्षर हैं जो देवनागरी लिपि के ब्यंजनाखर के नीचे मात्रा के रूप में प्रयोग होंगें। इन ‘गऊ आखरों’ के लगने से उत्तराखण्ड की भाषा के साहित्य में उत्तराखण्ड की भाषा की मूल ध्वनि स्पष्ठ हो सकेंगी। उत्तराखण्ड की भाषा के पक्ष में यह एक नया प्रयोग होगा।
देवनागरी लिपि के साथ जुड़ने वाले उत्तराखण्ड की भाषा के मूल ध्वनियों के पांच अक्षरों का साटवेयर विकसित होने के उपरान्त ही देवनागरी लिपि में उत्तराखण्ड की भाषा व उसके साहित्य पर स्वछन्द रूप से कार्य होगा। इस अध्ययन के कुछ विन्दुओं पर शासकीय स्तर पर कार्य किया जाना अति आवश्यक है। उत्तराखण्ड की भाषा के लिए पांच सूत्रीय कार्यक्रम निम्न हैं:-
1. गढ़वाली-कुमांउनी के अध्ययन के लिये एक विभाग की स्थापना ।
2. दोनों भाषाओं की समानता पर कार्यरत साहित्यकारों को प्रोत्साहन व उनके रचित साहित्य का प्रकाशन।
3. गढ़वाली-कुमांउनी बोलियों को भाषा की ओर अग्रसर करने के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग करने का कार्यक्रम तय करना।
4. गढ़वाली-कुमांउनी भाषा का समानता के आधारित पाठ्यक्रम तैयार कर उस में प्रदेष के प्राथमिक विद्यालयों से अध्ययन लागू करवाया जाना।
5. उत्तराखण्ड स्थित विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में उŸाराखण्ड भाषा विभाग की स्थापना करना।
ज्ञातव्य हो कि उत्तराखण्ड की क्रमशः दोनों बोलियों में से किसी एक को भी उत्तराखण्ड की प्रादेशिक भाषा का दर्जा नहीं दिया गया। ना हीं यहाँ की बोलियों को भाषा के रूप में विकसित करने के लिए शासन स्तर पर कार्यवाही हुई है। इस संबैचारिक समूह की स्थापना के उपरान्त ही इस अहम उद्देश्य को अग्रेषित करने में सफलता मिलेगी।
धन्यवाद,
(डाॅ. बिहारीलाल जलन्धरी)
उत्तराखण्ड की भाषा के ‘गऊ आखरों’ के श्रजक
प्रधान सम्पादक, देवभूमि की पुकार,
9868114987
ग्राम खेतु, पो. औ. सिन्दुड़ी (बीरोंखाल), जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड, दूरभाष: 09868114987