राजेन्द्र जोशी
उत्तराखंड देश का एक ऐसा राज्य है जहां प्रकृति ने अपना पूरा खजाना लूटा रखा है, यहां प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं, यहां के रमणीक स्थल स्वीटजरलैंण्ड से कम नहीं, यहां के लोगों में वो जीवटता है जो किसी में नहीं, यहां के लोगों में वह वीरता है जो कहीं नहीं, यहां के लोगों में देष के लिए मर मिटने का जज्बा है लेकिन फिर भी यह राज्य क्यों विकास में पीछे है इसका मूल्याकंन आपको ही करना होगा कि आखिर वह कौन सी वजह है जो यह प्रदेष इन आठ सालों में वह तरक्की नहीं कर पाया जो इसे करनी चाहिए थी
भारतीय गण राज्य के राजनैतिक मानचित्र पर नौ नवम्बर 2000 की मध्यरात्री से अस्तित्व में आये देश के 27 वें राज्य के रूप में स्थान पाने वाला यह पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड पूरे आठ साल का हो गया है, और आम आदमी को बिजली, पीने का पानी और जीवन की गाड़ी ढोने के लिये अब भी सडक़ों का इन्तजार है। डाक्टर और शिक्षकों का रोना तो आम पहाड़ी लोग अब भी रो रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या अब भी रोजगार की है जिसकी तलाष में यहां के बेरोजगारों का पलायन रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की किरण न पहुंच पाने के कारण पिछले 10 सालों में 12लाख से ज्यादा परिवारों ने प्रदेश के तराई वाले क्षेत्रों की ओर रूख किया है। जिससे पर्वतीय क्षेत्र की जनसंख्या कम हुई है। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के समय 10 करा़ेड के ओवर ड्राफ्ट के साथ इस राज्य का सरकारी कामकाज शुरू हुआ था और आज इसका नान प्लान का बजट ही छह हजार करोड़ के बराबर है। इसी तरह राज्य की सालाना योजना उस समय हजार करोड़ से कम थी जोकि आज 4778 करोड़ तक पहुंच गयी है। यही नहीं राज्य ने कई क्षेत्रों में पुराने और स्थापित राज्यों को भी पीछे धकेलने में सफलता हासिल की है। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि इस नये राज्य की जिस तरह से बुनियाद रखी गयी थी उस हिसाब से यह चल नहीं रहा है। पिछले दो सालोंं में तो विकास में ठहराव सा आ गया। राज्य सरकार के अर्थ एवं संख्या विभाग के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की संख्या 623790 तक पहुंच गयी है राज्य गठन के समय यह संख्या तीन लाख 75 हजार के करीब थी। उत्तराखण्ड की 3805 बस्तियां घोर पेयजल संकट से तथा 12247 बस्तियां आंशिक पेयजल संकट से जूझ रही हैं। प्रदेश की लगभग समूची और खास कर ग्रामीण, गरीब और पहाड़ी आबादी पूरी तरह सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर निर्भर है और सरकार 50 फीसदी अस्पतालों में डाक्टर नहीं करा पा रही है। राज्य के गठन से पहले भी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या स्कूलों में शिक्षकों और अस्पतालों में डाक्टरों के अभाव की रही है। राज्य गठन के आठ साल बाद भी इस पहाड़ी राज्य में निरक्षरों की संंख्या कुल 84 लाख की आबादी में से 3383567 है। इसी तरह बेरोजगारों की संख्या सात लाख तक चली गयी है। राज्य सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आने के बाद भी उत्तराखण्ड के कई गांवों के लोगों को एक गगरी पानी के लिये पांच किलोमीटर से भी दूर जाना पड़ता है। इसी तरह 239 गांवों के बच्चों को जूनियर हाई स्कूल में पढऩे के लिये पांच कि.मी. से दूर जाना पड़ता है। सरकारी रिकार्ड के अनुसार 2470 गांवों से सीनियर बेसिक स्कूल बालक, 7432 गांवों को सीनियर स्कूल बालिका 3695 गावों के लिये हायर सेकेण्डरी स्कूल पांच कि.मी से दूर है। इसी तरह 8716 गांवों के लिये ऐलोपैथिक अस्पताल भी पांच कि.मी. से दूर हैं। 2229 गांव ऐसे हैं जो कि पक्की सडक़ों से दूर हैं और उनमें बहतरा जैसे दर्जनों गांव हैं जो सडक़ से 30 कि.मी. से अधिक दूर हैं। 2646 गांवों के लिये बस स्टाप अब भी पांच कि.मी दूर से दूर हंै। रेलवे स्टेशन तो 15069 गांवों की पहुंच से दूर हैं। दशकों के संघर्ष के बाद नौ नवम्बर सन् 2000 को अस्तित्व में आने वाले उत्तराखण्ड राज्य ने आठ सालों में चार मुख्यमंत्री देखने के साथ ही कई राजनीतिक उतार चढ़ाव भी देख लिये। इन गुजरे वर्षों में शायद ही कोई ऐसा महीना रहा हो जब मुख्यमंत्री बदलने या सत्ताधारी दलों में उथल पुथल की चर्चाएं गर्म नहीं रही हों। इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस राज्य में विकास की गाड़ी अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाई। यहां तक कि नारायण दत्त तिवारी जैसा देश का सर्वाधिक अनुभवी राजनेता भी काफी कुछ करने के बाद भी उतना तो नहीं कर पाया जितना वह सोच कर उत्तराखण्ड आये थे। उत्तराखण्ड में मार्च 2007 से सत्ता परिवर्तन के साथ ही विकास का पहिया तो लगभग ठहर सा गया है। खुद मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने स्वीकारा है कि इन दो सालों के दौरान पांच चुनाव आ जाने से बार-बार चुनावी आचार संहिता लगती रही और विकास अवरुद्ध होता रहा। इन दो सालों में प्रदेश में एक भी उद्योग नहीं लगा। इसके विपरीत टाटा की महत्वाकांक्षी परियोजना नैनो प्रदेश के हाथ आते- आते सरकार की लापरवाही से गुजरात चली गयी। इन दो सालों में कोई नया उद्योग तो इस प्रदेश में लगा नहीं परन्तु भाष्कर इनर्जी और हौण्डा जैसे उद्योग लाल फीताशाही के चलते यहां से खिसक गये। पंडित नारायण दत्त तिवारी ने इसे उर्जा राज्य बनाने की घोषणा की थी और उनके कार्यकाल में कई बिजली परियोजनाओं पर काम भी शुरू हुआ मनेरी भाली उन्होंने ही शुरू की थी। लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में नयी परियोजनाऐं तो शुरू हुयी नहीं मगर दो बड़ी महत्वपूर्ण परियोजनाऐं अवश्य स्थगित हो गयीं। बीस सूत्रीय कार्यक्रम गरीबी उन्मूलन और समाज के आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के लिये शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम की प्रगति से ही पता चलता है कि किस राज्य में आम लोगों की भलाई के लिये क्या हो रहा है। तिवारी के शासन में उत्तराखण्ड देश में लगातार चार बार पहले स्थान पर रहा और अब यह प्रदेश और नीचे सातवें स्थान पर जा पहुंचा है। गांवों में सडक़, बिजली, और पानी जैसी मलभूत सुविधाओं के लिये भी काम ठप्प पड़े हैं। इसी लिये कई लोगों का मानना है कि प्रदेश की सत्ता लखनऊ से कुछ नेताओं और अधिकारियों की मौज के लिये ही देहरादून पहुंची है और आम आदमी की हालत जस की तस है। प्रदेश में विधायकों के 70 पद पहले से ही थे एक पद मनोनयन का फिजूल में ही बढ़ गया। इसके बाद 12 पद मंत्रियों के और जिन्हें मंत्री नहीं बनाया जा सका उनके लिये पिछले दरवाजे से सैकड़ों पद बना दिये। यह बात दीगर है कि आम आदमी के बेटे बेटी के लिये छोटी सी भी नौकरी नहीं है। यही कारण है कि रोजगार की तलाश में आज भी पहाड़ का युवा मैदानी इलाकों की ओर रूख कर रहा है। और तो और पर्वतीय क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में वहां जीवन बसर कर रहे ऐसे लोग जो अब कहीं जाकर रहने की स्थिति में आ चुके हैं वे भी इन पर्वतीय इलाकों को छोडक़र मैदान की ओर रूख करने लगे हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव इस पहाड़ी क्षेत्र पर पड़ रहा है। राजनैतिक दृष्टिï से भी इस क्षेत्र का नुकसान ही हुआ है। यहां जनसंख्या कम होने के कारण विधानसभा सीटें घटी हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव यहां के विकास कार्यों पर पड़ेगा। क्योंकि विधानसभाओं के कम होने से यहां के विकास कार्यों पर खर्च होने वाली विधायक निधि भी अन्य स्थानों पर खर्च होगी।