Author Topic: Share Informative Articles Here - सूचनाप्रद लेख  (Read 282578 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
Re: SHARE ANY INFORMATIVE ARTICLE WITH MEMBERS HERE.
« Reply #170 on: November 01, 2008, 09:56:52 AM »
गंगी गांव में झुमेलो ही मनोरंजन का साधनOct 31, 12:10 am

नई टिहरी (टिहरी गढ़वाल)। पहाड़ में लोकनृत्य झुमैलो की अपनी सशक्त परंपरा रही है। त्यौहार हो या शुभ कार्य आज भी लोगों की झुमैलो के प्रति दीवानगी कम नहीं हुई है। सीमांत गांव गंगी में दीपावली के समय आज भी झुमैलो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन रहता है।

त्यौहारों पर रात के समय गांव के सभी लोग मंदिर के प्रांगण में एकत्र होकर झुमैला गाते हैं। गांव में महिला पुरूषों की जुगलबंदी मन को मोहने लगती है। झुमैलो के जरिए ग्रामीण अपनी व्यथा और खुशी को प्रकट करते हैं। गांव के प्रधान नैन सिंह बताते हैं कि झुमैलो में खेत-खलिहानों से लेकर पशुधन सभी का वर्णन होता है। गांव के आराध्य देव की स्तुति और वर्णन होता है। गंगी की महिला बेलमती कहती है कि गांव में रेडियो और टीवी की सुविधा न होने के कारण आज भी झुमैलो ही मनोरंजन का साधन है। गांव में इस लोकनृत्य के लिए गांव के महिला-पुरूष जब अपनी पारंपरिक पोशाक पहनकर कतारबद्ध हो कर नृत्य करते हैं। इसके साथ ही आज झुमैलो में समय के बदलाव के साथ-साथ समाज में हो रहे बदलावों पर लोक जुड़ाव पर आधारित झुमेलो गीतों की रचना की सख्त जरूरत है ताकि सामाजिक बदलावों के साथ-साथ झुमैलो गीतों का विकास हो सके जिससे झुमैलो हमेशा ही लोगों के बीच जीवित रह सके।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
सुस्त प्रशासन
« Reply #171 on: November 07, 2008, 11:32:01 AM »
उत्तराखंड में विभागों की जिस प्रकार की कार्यशैली देखने को मिल रही है, वह किसी भी लिहाज से अच्छी नहीं कही जा सकती। जनता से जुड़े महकमे लापरवाही की सारी सीमाएं लांघने लगे हैं। उनकी यह प्रवृत्ति राज्य के आमजन पर भारी गुजर रही है। मसला बिजली, पानी, रसोई गैस का हो या फिर किसी विकास कार्य से जुड़ा। बस हर कहीं मीठी गोली देना मानो अधिकारियों की आदत सी बन गई है। लोग अपनी दिक्कतें बताने के लिए विभाग की चौखटों पर ऐडि़यां रगड़ थक हार रहे हैं, लेकिन अफसरों की निंद्रा टूट नहीं रही है। ताजा उदाहरण केरोसीन और रसोई गैस से जुड़ा हुआ है। राज्यभर में लंबे अरसे से केरोसीन और रसोई गैस की कालाबाजारी और घटतौली की शिकायतें आ रही हंै, पर शासन-प्रशासन खामोश है। उपभोक्ताओं से जुड़े इन मसलों पर वैसे ही विभाग को खुद अलर्ट रहना था, लेकिन हालात यह हैं कि शिकायत के बाद भी अफसरों के कान में जूं नहीं रेंग रही। उनमें कहीं पर भी संवेदनशीलता नहीं झलक रही है। चिंता का विषय यह कि लोगों के बताने पर भी कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। अगर कोई शिकायत करने पहुंचता भी है तो उसे दुत्कार कर भगाना या फिर मीठी गोली देकर लौटाने का ट्रेंड सा बनता जा रहा है। नतीजा, जमाखोर और एजेंसियां उपभोक्ताओं की जेब काट रही हैं। लोगों का ऐसे मामलों में खुद मुहिम शुरू करना सरकारी मशीनरी की लापरवाही का ही उदाहरण है। राजधानी के साथ ही दूसरे कुछ शहरों में लोग घटतौली पकड़ करके विभाग की पोल खोल रहे हैं। इससे इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि विभागीय अधिकारी अपने दायित्वों को कितनी ईमानदारी से निभा रहे हैं। छोटे से उत्तराखंड में इस प्रकार की कार्य संस्कृति पनपना निश्चित तौर पर अच्छा नहीं कहा जा सकता। वह भी उन परिस्थितियों में जबकि सरकार के मुखिया की छवि एक कड़क प्रशासक के रूप में मानी जाती है। बड़ा सवाल यह कि कब तक लोग सरकारी महकमों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराते रहेंगे। दरअसल, इसमें कहीं न कहीं सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति भी दिखाई पड़ रही है। सरकार कड़क होने का दम जरूर भरती है, लेकिन असल में उतना अमल नहीं किया जाता। जनता का सच्चा हितैषी होने के लिए सरकार को इस तरह का रवैया छोड़ना होगा।
 

खीमसिंह रावत

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 801
  • Karma: +11/-0
Re: SHARE ANY INFORMATIVE ARTICLE WITH MEMBERS HERE.
« Reply #172 on: November 07, 2008, 12:27:00 PM »
kripya koi geet to likhiye/ aur log bhi janege/

गंगी गांव में झुमेलो ही मनोरंजन का साधनOct 31, 12:10 am

नई टिहरी (टिहरी गढ़वाल)। पहाड़ में लोकनृत्य झुमैलो की अपनी सशक्त परंपरा रही है। त्यौहार हो या शुभ कार्य आज भी लोगों की झुमैलो के प्रति दीवानगी कम नहीं हुई है। सीमांत गांव गंगी में दीपावली के समय आज भी झुमैलो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन रहता है।

त्यौहारों पर रात के समय गांव के सभी लोग मंदिर के प्रांगण में एकत्र होकर झुमैला गाते हैं। गांव में महिला पुरूषों की जुगलबंदी मन को मोहने लगती है। झुमैलो के जरिए ग्रामीण अपनी व्यथा और खुशी को प्रकट करते हैं। गांव के प्रधान नैन सिंह बताते हैं कि झुमैलो में खेत-खलिहानों से लेकर पशुधन सभी का वर्णन होता है। गांव के आराध्य देव की स्तुति और वर्णन होता है। गंगी की महिला बेलमती कहती है कि गांव में रेडियो और टीवी की सुविधा न होने के कारण आज भी झुमैलो ही मनोरंजन का साधन है। गांव में इस लोकनृत्य के लिए गांव के महिला-पुरूष जब अपनी पारंपरिक पोशाक पहनकर कतारबद्ध हो कर नृत्य करते हैं। इसके साथ ही आज झुमैलो में समय के बदलाव के साथ-साथ समाज में हो रहे बदलावों पर लोक जुड़ाव पर आधारित झुमेलो गीतों की रचना की सख्त जरूरत है ताकि सामाजिक बदलावों के साथ-साथ झुमैलो गीतों का विकास हो सके जिससे झुमैलो हमेशा ही लोगों के बीच जीवित रह सके।


पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
उत्तराखंड में मक्खन के पेड़!
« Reply #173 on: November 11, 2008, 03:51:12 PM »


केदार दत्त, देहरादून: प्राचीन भारत की समृद्धि का बखान करने के लिए प्रसिद्ध मुहावरा है कि यहां दूध की नदियां बहती थीं। लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में तो वास्तव में ऐसे वृक्ष हैं, जिनके फल का गूदा मक्खन की तरह डबलरोटी में लगा कर खाया जाता है। यह बात अलग है कि आम लोगों को इस फल की जानकारी देने में तक राज्य सरकार अब तक विफल रही है। हालांकि उत्तराखंड में इसे मक्खन वाला पेड़ ही कहते हैं। यह मधुमेह और ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए गुणकारी है। विदेशी इसका लुत्फ उठाते हैं, मगर राज्य में इसकी खूबियों की जानकारी बहुत कम लोगों को है। बिना खास प्रयास किए उद्यान महकमा केवल यह उम्मीद करता है कि कभी ट्रेंड बदलेगा और बटरफू्रट लोकप्रिय होगा। एवोकैडो बटरफू्रट नामक ये पौधे वर्ष 1950 में मैक्सिको से लाये गये थे। ये पौधे सबसे पहले बागेश्वर और ज्योलीकोट (नैनीताल) में लगाए गए। देहरादून के ज्येष्ठ उद्यान निरीक्षक वीसी मिश्र बताते हैं कि एवोकैडो तत्कालीन उद्यान विशेषज्ञ डा. विक्टर साहनी की पहल पर लाया गया और धीरे-धीरे यह राज्य के अन्य हिस्सों में पहंुचा। अल्मोड़ा में एवोकैडो काटेज रेस्ट हाउस में इसके पौधे थे। इस समय बागेश्वर, वजूला, ज्योलीकोट, ताकुला (अल्मोड़ा), गरुड़ घाटी और उत्तरकाशी में इसके पेड़ हैं। उद्यान विभाग के उपनिदेशक (कुमाऊं) डा. केआर जोशी बताते हैं कि बटरफू्रट एवोकैडो में पर्याप्त प्रोटीन होता है, जबकि कोलेस्ट्राल व शुगर नहीं होता। एवोकैडो के फल का गूदा होता है बिल्कुल मक्खन जैसा..खाने में भी और दिखने में भी। यह तीन से छह हजार फीट की ऊंचाई पर लगता है और इसमें फल पांच-छह साल में आते हैं। प्रदेश में जहां यह फल मिलता है, वहां आने वाले विदेशी सैलानी और भारतीय जानकार इसे बड़े चाव से खाते हैं। डायबिटीज और रक्तचाप से पीडि़त मरीजों के लिए भी यह बेहद लाभदायक है। दुर्भाग्य से कम लोग ही इसके बारे में जानते हैं। यही इसके व्यावसायिक स्वरूप न ले पाने का प्रमुख कारण है। उन्हें भरोसा है कि मक्खन जैसे गूदे वाले इस फल का व्यावसायिक उत्पादन शुरू होगा, तो यह उत्तराखंड के दूरस्थ इलाकों के ग्रामीणों की आर्थिक दशा संवारने में सहायक होगा।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
उत्तराखंड में मक्खन के पेड़!
« Reply #174 on: November 13, 2008, 02:21:49 PM »
उत्तराखंड में मक्खन के पेड़!
Nov 09, 08:03 pm

देहरादून [केदार दत्त]। प्राचीन भारत की समृद्धि का बखान करने के लिए प्रसिद्ध मुहावरा है कि यहां दूध की नदियां बहती थीं। लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में तो वास्तव में ऐसे वृक्ष हैं, जिनके फल का गूदा मक्खन की तरह डबलरोटी में लगा कर खाया जाता है। अब यह बात अलग है कि आम लोगों को इस फल की जानकारी देने में अभी तक राज्य सरकार विफल रही है।

हालांकि उत्तराखंड में इसे मक्खन वाला पेड़ ही कहते हैं। यह मधुमेह और ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए गुणकारी है। विदेशी इसका लुत्फ उठाते हैं, मगर राज्य में इसकी खूबियों की जानकारी बहुत कम लोगों को है। बिना खास प्रयास किए उद्यान महकमा केवल यह उम्मीद करता है कि कभी ट्रेंड बदलेगा और बटरफू्रट लोकप्रिय होगा। एवोकैडो बटरफू्रट नामक यह पौधे वर्ष 1950 में मैक्सिको से लाए गए थे। ये पौधे सबसे पहले बागेश्वर और जौलीकोट [नैनीताल] में लगाए गए। देहरादून के ज्येष्ठ उद्यान निरीक्षक वीसी मिश्र बताते हैं कि एवोकैडो तत्कालीन उद्यान विशेषज्ञ डा. विक्टर साहनी की पहल पर लाया गया और धीरे-धीरे यह राज्य के अन्य हिस्सों में पहुंचा। अल्मोड़ा में एवोकैडो काटेज रेस्ट हाउस में इसके पौधे थे। इस समय बागेश्वर, वजूला, जौलीकोट, ताकुला [अल्मोड़ा], गरुड़ वैली व उत्तरकाशी में इसके पेड़ हैं।

उद्यान विभाग के उपनिदेशक [कुमाऊं] डा. केआर जोशी बताते हैं कि 'बटरफू्रट एवोकैडो में पर्याप्त प्रोटीन होता है, जबकि कोलेस्ट्राल व शुगर नहीं होता। एवोकैडो के फल का गूदा होता है बिल्कुल मक्खन जैसा..खाने में भी और दिखने में भी। यह तीन से छह हजार फीट की ऊंचाई पर लगता है और इसमें फल पांच-छह साल में आते हैं। सूबे में जहां यह फल मिलता है, वहां आने वाले विदेशी सैलानी और भारतीय जानकार इसे बड़े चाव से खाते हैं। डायबिटीज और रक्त चाप से पीड़ित मरीजों के लिए भी यह बेहद लाभदायक है। लेकिन दुर्भाग्य से कम लोग इसके बारे में जानते हैं। यही इसके व्यावसायिक स्वरूप न ले पाने का प्रमुख कारण है।' उन्हें भरोसा है कि मक्खन जैसे गूदे वाले इस फल का व्यावसायिक उत्पादन शुरू होगा, तो यह उत्तराखंड के दूरस्थ इलाकों के ग्रामीणों की आर्थिक दशा संवारने में सहायक होगा।



Anubhav / अनुभव उपाध्याय

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 2,865
  • Karma: +27/-0
Re: SHARE ANY INFORMATIVE ARTICLE WITH MEMBERS HERE.
« Reply #175 on: November 13, 2008, 03:01:54 PM »
Bahut kamaal ki news sunai hai Mehta ji is baar ghar jaana to please dhoondh ke kuch fal le kar aana :)

उत्तराखंड में मक्खन के पेड़!
Nov 09, 08:03 pm

देहरादून [केदार दत्त]। प्राचीन भारत की समृद्धि का बखान करने के लिए प्रसिद्ध मुहावरा है कि यहां दूध की नदियां बहती थीं। लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में तो वास्तव में ऐसे वृक्ष हैं, जिनके फल का गूदा मक्खन की तरह डबलरोटी में लगा कर खाया जाता है। अब यह बात अलग है कि आम लोगों को इस फल की जानकारी देने में अभी तक राज्य सरकार विफल रही है।

हालांकि उत्तराखंड में इसे मक्खन वाला पेड़ ही कहते हैं। यह मधुमेह और ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए गुणकारी है। विदेशी इसका लुत्फ उठाते हैं, मगर राज्य में इसकी खूबियों की जानकारी बहुत कम लोगों को है। बिना खास प्रयास किए उद्यान महकमा केवल यह उम्मीद करता है कि कभी ट्रेंड बदलेगा और बटरफू्रट लोकप्रिय होगा। एवोकैडो बटरफू्रट नामक यह पौधे वर्ष 1950 में मैक्सिको से लाए गए थे। ये पौधे सबसे पहले बागेश्वर और जौलीकोट [नैनीताल] में लगाए गए। देहरादून के ज्येष्ठ उद्यान निरीक्षक वीसी मिश्र बताते हैं कि एवोकैडो तत्कालीन उद्यान विशेषज्ञ डा. विक्टर साहनी की पहल पर लाया गया और धीरे-धीरे यह राज्य के अन्य हिस्सों में पहुंचा। अल्मोड़ा में एवोकैडो काटेज रेस्ट हाउस में इसके पौधे थे। इस समय बागेश्वर, वजूला, जौलीकोट, ताकुला [अल्मोड़ा], गरुड़ वैली व उत्तरकाशी में इसके पेड़ हैं।

उद्यान विभाग के उपनिदेशक [कुमाऊं] डा. केआर जोशी बताते हैं कि 'बटरफू्रट एवोकैडो में पर्याप्त प्रोटीन होता है, जबकि कोलेस्ट्राल व शुगर नहीं होता। एवोकैडो के फल का गूदा होता है बिल्कुल मक्खन जैसा..खाने में भी और दिखने में भी। यह तीन से छह हजार फीट की ऊंचाई पर लगता है और इसमें फल पांच-छह साल में आते हैं। सूबे में जहां यह फल मिलता है, वहां आने वाले विदेशी सैलानी और भारतीय जानकार इसे बड़े चाव से खाते हैं। डायबिटीज और रक्त चाप से पीड़ित मरीजों के लिए भी यह बेहद लाभदायक है। लेकिन दुर्भाग्य से कम लोग इसके बारे में जानते हैं। यही इसके व्यावसायिक स्वरूप न ले पाने का प्रमुख कारण है।' उन्हें भरोसा है कि मक्खन जैसे गूदे वाले इस फल का व्यावसायिक उत्पादन शुरू होगा, तो यह उत्तराखंड के दूरस्थ इलाकों के ग्रामीणों की आर्थिक दशा संवारने में सहायक होगा।




chattansingh

  • Newbie
  • *
  • Posts: 10
  • Karma: +0/-0
Re: SHARE ANY INFORMATIVE ARTICLE WITH MEMBERS HERE.
« Reply #176 on: November 14, 2008, 06:32:48 AM »
Mittro this my First artical barrowed from Yahoo but seems to be usefull for us.Please read it...
thank u
chattan singh

Study in journal Nature traces AIDS virus origin to 100 years ago
Provided by: The Canadian Press
Written by: Malcolm Ritter, THE ASSOCIATED PRESS
Oct. 1, 2008


NEW YORK - The AIDS virus has been circulating among people for about 100 years, decades longer than scientists had thought, a new study suggests.

Genetic analysis pushes the estimated origin of HIV back to between 1884 and 1924, with a more focused estimate at 1908.

Previously, scientists had estimated the origin at around 1930. AIDS wasn't recognized formally until 1981 when it got the attention of public health officials in the United States.

The new result is "not a monumental shift, but it means the virus was circulating under our radar even longer than we knew," says Michael Worobey of the University of Arizona, an author of the new work.

The results appear in Thursday's issue of the journal Nature. Researchers note that the newly calculated dates fall during the rise of cities in Africa, and they suggest urban development may have promoted HIV's initial establishment and early spread.

Scientists say HIV descended from a chimpanzee virus that jumped to humans in Africa, probably when people butchered chimps. Many individuals were probably infected that way, but so few other people caught the virus that it failed to get a lasting foothold, researchers say.

But the growth of African cities may have changed that by putting lots of people close together and promoting prostitution, Worobey suggested. "Cities are kind of ideal for a virus like HIV," providing more chances for infected people to pass the virus to others, he said.

Perhaps a person infected with the AIDS virus in a rural area went to what is now Kinshasa, Congo, "and now you've got the spark arriving in the tinderbox," Worobey said.

Key to the new work was the discovery of an HIV sample that had been taken from a woman in Kinshasa in 1960. It was only the second such sample to be found from before 1976; the other was from 1959, also from Kinshasa.

Researchers took advantage of the fact that HIV mutates rapidly. So two strains from a common ancestor quickly become less and less alike in their genetic material over time. That allows scientists to "run the clock backward" by calculating how long it would take for various strains to become as different as they are observed to be. That would indicate when they both sprang from their most recent common ancestor.

The new work used genetic data from the two old HIV samples plus more than 100 modern samples to create a family tree going back to these samples' last common ancestor. Researchers got various answers under various approaches for when that ancestor virus appeared, but the 1884-to-1924 bracket is probably the most reliable, Worobey said.

The new work is "clearly an improvement" over the previous estimate of around 1930, said Dr. Anthony Fauci, director of the National Institute of Allergy and Infectious Diseases in Bethesda, Md. His institute helped pay for the work.

Fauci described the advance as "a fine-tuning."

Experts say it's no surprise that HIV circulated in humans for about 70 years before being recognized. An infection usually takes years to produce obvious symptoms, a lag that can mask the role of the virus, and it would have infected relatively few Africans early in its spread, they said.

-

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
Re: SHARE ANY INFORMATIVE ARTICLE WITH MEMBERS HERE.
« Reply #177 on: December 11, 2008, 12:43:24 PM »
सख्त रुख जरूरी

सूबे की लाइफ लाइन को आक्सीजन की दरकार है। उत्तराखंड में सड़कें आवागमन का एकमात्र साधन हैं। विडंबना ही है कि राज्य बनने के आठ साल बाद भी मार्गो की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आ पाया। ऐसे में यात्रियों को इसका खामियाजा चुकाना पड़ रहा है। लगातार बढ़ रहे हादसे इसकी तस्दीक कर रहे हैं। हाई-वे की बात छोड़ दें तो शहरों के रास्तों की हालत भी बयां करने के काबिल नहीं हैं। प्रदेश की राजधानी देहरादून को ही लें, सड़कों पर जगह-जगह पड़े गड्ढे सुंदर दून की तस्वीर पर दाग लगा रहे हैं। कई लोग अब तक इन गड्ढों के कारण हादसे का शिकार हो चुके हैं। इसका सबसे बड़ी वजह जनता से जुड़े विभिन्न विभागों में तालमेल का न होना है। सड़क निर्माण पूरा हो जाने के बाद टेलीफोन विभाग वहां केबल बिछाने का काम शुरू करता है, लेकिन खोदे गए स्थान का भरान उसकी जिम्मेदारी नहीं है। यही हाल दूसरे विभागों का है। जलसंस्थान का आलम यह है कि सड़कों पर बने लंबे समय से मेनहोल खुले पड़े हैं, लेकिन इन्हें ढकने की जहमत नहीं उठाई जा रही। पिछले दिनों देहरादून में स्थित राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में एक मेनहोल में गिरकर मासूम की मौत के बाद प्रशासन हरकत में आया और इस संबंध में विभागों को सख्त आदेश भी जारी किए लेकिन विभागों को न तो प्रशासन के आदेशों की परवाह है और न ही अपनी जिम्मेदारी का अहसास। जब प्रदेश की राजधानी का यह हाल है तो प्रदेश के दूसरे शहरों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। सड़कें किसी भी प्रदेश का आईना होती हैं। ऐसे में ये हालत पर्यटन प्रदेश की सेहत को भी नासाज बनाए हुए हैं। अब समय आ गया है कि सरकार परिस्थितियों को गंभीरता से लेते हुए इन्हें दुरुस्त करने के लिए सख्त रुख अपनाए। इसके लिए जरूरी है कि सड़कों के निर्माण अथवा अनुरक्षण से पहले योजना बनाते समय दूसरे विभागों को भी शामिल किया जाए। इससे सड़क निर्माण के वक्त ही टेलीफोन अथवा पानी की पाइप लाइन बिछाई जा सकती हैं और बार-बार सड़कों की खुदाई के झंझट से भी मुक्ति मिल जाएगी। इसके अलावा संबंधित विभागों के अफसरों को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास करना होगा।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
In memory of tree huggers
« Reply #178 on: December 13, 2008, 05:11:29 PM »
In memory of tree huggers
Sunday, December 07, 2008



Jason Tutau with a tree hugger at Thurston Gardens
In 1973, women from the Chamoli district in the Uttaranchal region of India left their homes and in groups, hugged trees that were to be felled.

The movement became known as Chipko which literally means "to stick" in Hindustani.

These female peasants defied societal norms to ensure the preservation of their traditional forest rights that were threatened by the contractor system of the state Forest Department.

This demonstration of people power and the strength of its successes spread throughout the Uttaranchal Himalayas by the end of the decade.

In Tehri district, Chipko activists would go on to protest limestone mining in the Dehra Dun hills in the 1980s as well as the Tehri dam.

Then the Beej Bachao Andolan or Save the Seeds movement was founded from this activism that continues to the present day.

As the backbone of Uttaranchal's agrarian economy, women were most directly affected by environmental degradation and deforestation and their daily chores meant they connected issues that could arise from such environment degradation, easily.

They wanted to make sure their forest remain for its gifts - its herbal medicine and firewood to name just two.

And now you can seethe application of the concept as one of the main features of the Wasawasa Festival of Arts that's given an injection of life to Thurston Gardens this week.

When making the rounds at this inaugural festival of oceans, one will not miss the tree-huggers - not human beings but a masterful creation of a 'woman' made of twigs and vines: this version of tree hugging in a success story from the coastal province of Nadroga.

"Nadroga Navosa Provincial Secondary School is part of our environment program and as borders, visits to the sand dunes is organised some weekends and they help us create tree huggers," National Heritage officer and sand dunes park manager Jason Tutau said.

"Through the tree hugging exercise, we explain the concept and how it all started. The underlying message is obviously about our environment, our trees and so on and how we have a responsibility towards them."

The concept has been effective, he says, in terms of the response of children.

As an awareness creation tool, it is also a unique way of getting the conservation story through. The fact that it is as environment-friendly as it can be helps as well. Most of the mahogany trees at the sand dunes park in Sigatoka now have a tree-hugger each thanks to the collaborative effort of the Nadroga Navosa Provincial Secondary School and the National Heritage department.

The interactive approach of the festival means that you as a member of the public can be part of this exercise between 10 and midday.

You can also dabble in KalamWasa - the ocean of ink writing aspect of the festival - but that, as they say, is another story.

 http://www.fijitimes.com/story.aspx?id=108291

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
उत्तराखंड में बेरोजगारी का संकट कम होने के बजाय निरंतर बढ़ता जा रहा है। पृथक उत्तराखंड की मांग जिन कारणों से की गयी थी, उनमें एक कारण यह भी था कि यहां के निवासियों को रोजगार देने में पक्षपात बरता जा रहा था लेकिन पृथक उत्तराखंड अस्तित्व में आने के इतने वर्ष बाद भी यह संकट समाप्त नहीं हुआ। हालात यहां तक जा पहुंचे हैं कि एनटीटी प्रशिक्षण प्राप्त युवतियों को आत्महत्या का प्रयास करने तक के कदम उठाने पड़ रहे हैं। वह भी सरकार के सदन के सामने। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड सरकार ने बेरोजगारी समाप्त करने के लिए कदम नहीं उठाये। राज्य में कई नये उद्योग खुले हैं। उन उद्यमियों को तमाम तरह की सरकारी छूट इसी बिना पर दी जा रही है कि वे अपने उद्यम में राज्य के सत्तर प्रतिशत लोगों को रोजगार देंगे। इसमें राज्य के तमाम युवाओं को रोजगार मिला भी है लेकिन बेरोजगारी का संकट समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। दरअसल इसके कुछ कारण भी हैं। विचार करें दो मूल बात निकलकर यह आती है कि राज्य में तमाम शिक्षण और प्रशिक्षण ऐसे शुरू किये गये हैं, जिनका कोई भविष्य नहीं है। तमाम तरह के ऐसे कोर्स चलाये जा रहे हैं, जो महत्वहीन हैं। मसलन जो युवतियां विधान सभा के समक्ष एक वर्ष से अधिक समय से धरना दे रही हैं, वे एनटीटी प्रशिक्षण प्राप्त हैं। होना तो यह चाहिए था कि अगर सरकार के पास इन्हें रोजगार देने की सुविधा नहीं थी तो इस तरह के प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों पर ही अंकुश लगा दिया जाए। अगर सुविधा है तो ये क्यों इन्हें इतने समय से धरना देने के लिए विवश किया गया। नौबत यहां तक क्यों पहुंचने दी गयी कि वे आत्महत्या करने के लिए विवश हों। सरकार को न केवल एनटीटी प्रशिक्षितों के मुद्दे पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना होगा अपितु उन पाठ्यक्रमों पर भी दृष्टिपात करना होगा, जो राज्य में संचालित किये जा रहे हैं। अल्पकाल के लिए युवाओं को इनके प्रति प्रेरित कर समस्या को टाला जा सकता है लेकिन समस्या इससे सुलझने के बजाय और उलझेगी। बेहतर हो कि राज्य में वही कोर्स संचालित किये जायें, जो रोजगार दे सकें। युवाओं को सिर्फ कोर्स के नाम पर कोर्स कराकर बेरोजगारों की फौज खड़ी करना न युवाओं के हित में होगा और न राज्य के हित में।
 

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22