कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों के नृत्य: उत्तरी गढ़वाल (अब चमोली जिला) में कुछ मौजी जातियां (भाटिया गढ़वाली) हैं जो हमेशा बर्फीले क्षेत्र में रहती है। अतः उनके नृत्यों में कुछ भौगोलिक एवं सामाजिक कारणों से भिन्नता आ गई है। इनके नृत्य लोक रक्षा, आनन्द, प्रेम तथा मित्रता के द्योतक है। इनके प्रमुख नृत्य - थड़िया, गनगना, पौणा, चंचरी और याक नृत्य है।
गद्दी एवं जाड जातियों के नृत्य: गढ़वाल में ऊँचाइयों पर रहने वाली इन जातियों का जीवन स्वच्छन्द होता है। इनके नृत्यों में भेड-बकरियों का वही स्थान होता है जो मुनष्य का। इनके नृत्य इतने आकर्षक होते हैं जैसे प्रतीत होता है कि अप्सराएँ धरती पर उतर आई हों। भारत सरकार ने 1959 ई0 में इन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित किया था। इनके नृत्य हैं - झंझोरी, बणजार, देखणी, फुकन्या तथा बाँसुरिया आदि।
कुमाऊंनी गोठिए (गोष्ठ वाले) के नृत्य: ये लोग जंगलों में गाय, भैसों के साथ ही जंगल में डप्पर डालकर रहते हैं। ये लोग रात में नाच-गाकर अपना समय व्यतीत करते हैं। इनके नृत्यों में सिहवा-विध्वा (कृष्ण के भाई), घटकरण तथा हरूंचामू (गोठियों का देवता) के आख्यान होते हैं, नृत्यों में अभिनय अधिक होता है।
किरात एवं किन्नर जातियों के नृत्य: पुष्प-तोया मालिनी के तटों पर यह जातियाँ निवास करती है जो अब पूर्णतः गढ़वाली जीवन में में ढल चुकी है। फूयोंली, हिलांसी, कफ्फू आदि इनके नृत्य है। उपर्युक्त नृत्यों के अतिरिक्त पशुचारकों, पक्षियों के झांझोटी, प्रेमजी, वणजारा आदि भी नृत्य दर्शकों को आकर्षित करते हैं।
व्यावसायिक नृत्य: औजी, बद्दी, मिरासी, ठक्की एवं हुड़क्या व्यावसायिक जातियां अपने कला का प्रदर्शन करके अपनी आजीविका कमाती है। औली 'ढोल सागर' के ज्ञाता है। बद्दी जातिया नाच-गाकर ही अपना जीवन चलाती है। पहले गढ़वाल के ठकुरी राजाओं का आश्रय प्राप्त था लेकिन आजकल बदहाली की स्थिति में है। इनकी कला में भरत- नाट्यम, कुचिपुड़ी एवं मणिपुरी नृत्य शैलियों के दर्शन होते है। गढ़वाल, कुमाऊँ में ये सभी जातियां उच्चकोटि के शिल्पकार है, इनके मुख्य नृत्य इस प्रकार है। :
थाली नृत्य : बाद्दी ढोलक व सारंगी बजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है। उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है।
सरौं नृत्य : औजियों का यह नृत्य है।
चैती पसारा : चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने-अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं।
कुलाचार : कुल प्रशंसा गाते हुए 'हुड़क्का' स्वयं नृत्य भी करता है।
लांग नृत्य :मध्यकालीन लांग नृत्य के समान है। यह नृत्य वाद्दी करते हैं।
शिव-पार्वती नृत्य : बाद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि अवस्थाओं का नृत्य करते है।
नट-नटी नृत्य : जन समाज मनोरंजनार्थ ये लोग नट-नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं। ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों में अधिक होता है।
दीपक नृत्य : प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है। अन्त में दीये थाल में सजाकर नर्तकी नृत्य करती है।
सुई नृत्य : अनेक आंगिक अभिनय दिखाने के बाद नर्ककी अपने ओठों से सुई उठाकर अपना कमाल दिखाती हैं।
साँप नृत्य : साँप की तरह रेंगती हुई नर्तकी, साँप पर छंछदर का भावमय नृत्य प्रस्तुत करती है।