मुझमें भी बसावट थी, मुझमें भी किसी का बसेरा था,
यहां भी बच्चे उछलते-कूदते, रोते-गाते थे,
मैं गवाह हूं, लोरियों का, प्रसव पीड़ा का,
नामकरण का, चूड़ाकर्म का, विवाह का और मौत का भी,
मैं साथी रहा, मुझमें रह रहे परिवारों के सुख-दुःख का,
लेकिन आज इस दुःख की घड़ी में, मैं अकेला हूं,
उजाड़ सा, सुनसान सा,
राहें तकूं, तो किसकी,
क्या कोई सुन पायेगा मेरी सिसकी?