Author Topic: Gangotri, the Source of the River Ganga,गंगोत्री गंगा नदी का उद्गगम स्थान  (Read 62653 times)

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गौमुख




गंगोत्री ग्लेसियर समुद्रतल से 4255 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह ग्लेसियर लगभग 24 किमी लंबा तथा 6-8 किमी चौडा है। यह ग्लेसियर चौखंबा की हिमाच्छादित चोटियों से आरंभ होता है और गौमुख तक पसरा हुआ है। यह पवित्र स्थल गंगोत्री से लगभग 16 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। गौमुख को भागीरथी माता की प्रत्यक्ष उद्गमस्थली के रूप में माना जाता है। गौमुख की यात्रा करते समय शायद ही ऐसा कोई यात्री होगा जो इस धरती के सौंदर्य, शुचिता और पवित्रता से सम्मोहित न होता हो।



 भागीरथी की उत्तुंग चोटियां शिवलिंग की लंबी श्रृंखलाएं तीर्थयात्रियों के मन को अपनी ओर आकर्षित करती रहती है। गंगोत्री से 9 किमी की दूरी पर चिरबासा के विशाल देवदार के झबरीले वृक्ष तीर्थयात्रियों को अत्यधिक सम्मोहित करते है। यहां का प्राकृतिक दृश्य अत्यधिक मनोहारी एंव मन को शांति प्रदान करने वाला है। गंगोत्री से 14 किमी की चढ़ाई चढ़ने के पश्चात् तीर्थयात्री एक शांत जगह पर शिविर लगाकर विश्राम करते है। यहां से गौमुख के भव्य एवं विस्तृत ग्लेसियर का सौंदर्य तीर्थयात्रियों को सम्मोहित कर देता है।

 भोजवासा भी यहां का एक प्रमुख स्थान है। इसके आसपास भोजपत्र के पेड़ का घना जंगल फैला हुआ है। भोजपत्र के पेड़ की छाल को स्थानीय बोली में भोजपत्र के रूप में जाना जाता है। प्राचीन काल में भोजपत्र लिखने के लिए उपयोग में लाए जाते थे। पहले संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ एवं तांत्रिक विधियां इन्ही भोजपत्रों पर लिखी जाती थी।



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गौमुख की राह उमंग और आसभरी होती है । चट्टानों पर आपका एक-एक कदम उस ग्लेशियर की तरफ ले जाता है जो गंगा का उद्भव है । घाटी में नीचे भागीरथी चीड़ व देवदार के बीच उछलती बहती है । जैसे-जैसे ग्लेशियर नज़दीक आता जाता है, पेड़ दुर्लभ होते जाते है, केवल चट्टानें व पत्थर ही नज़र आते हैं ।



यहां भी छोटे-छोटे मंदिर व ढाबे ज़रूर मिल जाएंगे । भरतीय हिमालय के ९,५७५ ग्लेशियरों में से ७३ कि.मी. लंबे सियाचिन ग्लेशियर को छोड़ दें तो गंगोत्री सबसे बड़ा है । पौराणिक मिथक के अनुसार देवी गंगा नदी के रूप में यही अवतरित हुई थी ताकि राजा भागीरथ के पूर्वजों (सागर पुत्रों) को मोक्ष प्राप्त् हो । उन्हें मिले श्राप के अनुसार मोक्ष प्रािप्त् के लिए गंगा स्नान जरूरी था ।




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कहा जाता है कि गंगा के तेज़ प्रवाह को कम करने के लिए शिव ने गंगा को पहले अपनी जटाआें में झेला था । गंगोत्री मंदिर एक गोरखा कमांडर, अमरसिंह थापा ने १८वीं सदी की शुरूआत में बनाया था ।

 सर्दियों में यह कस्बा पूरी तरह से वीरान रहता है लेकिन गर्मियों में यह श्रद्धालुआें से भरा होता है । प्रति वर्ष ५०,००० से अधिक भक्त गौमुख तक पहुंचते है । गंगोत्री कस्बे से गौमुख १८ कि.मी. दूर है । गंगोत्री कस्बा एकदम अनियोजित होटलों, ढाबों व गुमटियों से भरा है जो उस छोटे से क्षेत्र में जहां - जहां उग आए हैं ।



 गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान संरक्षित क्षेत्र है जहां वाहन प्रवेश की अनुमति नहीं होना चाहिए । मगर टूरिस्ट ट्राफिक ने जंगलो का सफाया कर दिया है, रास्ते भर प्लास्टिक की बोतलें व पोलीथीन की थैलियां नज़र आती है । श्रावण मास में गौमुख में सबसे ज़्यादा श्रद्धालु जमा होते हैं । रास्ते मेंं भोजवासा बेस कैम्प है जहां श्रद्धालु व पर्वतारोही रात्रि विश्राम करते हैं ।



 यह नाम यहां भोजवृक्ष का जंंगल होने से पड़ा है । मान्यता है कि महाभारत इन्हीं भोजवृक्षों के भोजपत्रों पर लिखी गई थी । आज भोज वास उजाड़ है, एक भोजवृक्ष ढूंढ़ना भी मुश्किल है, ढाबों में चूल्हा जलाने में सारे वृक्ष खप गए हैं ।



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[bgcolor=#0009ff]एक अन्य कथा के अनुसार राजा सगर ने जादुई रुप से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति की। एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये एक यज्ञ किया। यज्ञ के लिये घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इंद्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सारे पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया अंत में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि के समीप बँधा था।

 सगर के पुत्रों ने यह सोच कर कि ॠषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं उन्होंने ऋषि का अपमान किया । तपस्या में लीन ॠषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जल कर वहीं भस्म हो गये । सगर के पुत्रो की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगे क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था।

 सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे । उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया । उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके संस्कार की राख गंगाजल में प्रवाह कर भटकती आत्माएं स्वर्ग में जा सके।

 भगीरथ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों के आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके।

तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊंचाई से जब पृथ्वी पर गिरूंगी, तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तब भगीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया, और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोक कर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई।

 वह धारा भगीरथ के पीछे पीछे गंगा सागर संगम तक गई, जहां सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये बहुत ही श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं।
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गंगा और राजा शांतनु की कथा

भरतवंश में शान्तनु नामक बड़े प्रतापी राजा थे। एक दिन गंगा तट पर आखेट खेलते समय उनहें गंगा देवी दिखाई पड़ी। शान्तनु ने उससे विवाह करना चाहा। गंगा ने इसे इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि वे जो कुछ भी करेंगी उस विषय में राजा कोई प्रश्न नहीं करेंगे। शान्तनु से गंगा को एक के बाद एक सात पुत्र हुए



 परन्तु गंगा देवी ने उन सभी को नदी में फेंक दिया। राजा ने इस विषय में उनसे को प्रश्न नहीं किया। बाद में जब उन्हें आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसे नदी में फेंकने के विरुद्ध शान्तनु ने आपत्ति की। इस प्रकार गंगा को दिया गया उनका वचन टूट गया और गंगा ने अपना विवाह रद्द कर स्वर्ग चली गयीं। जाते जाते उन्होंने शांतनु को वचन दिया कि वह स्वयं बच्चे का पालन-पोषण कर बड़ा कर शान्तनु को लौटा देंगी।

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ब्रह्मा का कमंडल से गंगा का जन्म

एक प्रफुल्लित सुंदरी युवती का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ। इस खास जन्म के बारे में दो विचार हैं। एक की मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु का चरण धोया और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया।

दूसरे का संबंध भगवान शिव से है जिन्होंने संगीत के दुरूपयोग से पीड़ित राग-रागिनी का उद्धार किया। जब भगवान शिव ने नारद मुनि ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जो ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में भर लिया। इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ और वह ब्रह्मा के संरक्षण में स्वर्ग में रहने लगी।

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    भारत में हिन्दुत्व के ताने-बाने से जितने निकट से गंगा जुड़ी हुई है, वैसी कोई और नदी नहीं है। अनंत काल से आध्यात्मिक शुद्दिकर्त्ता के रूप में, पूजनीय तथा स्वास्थ्य एवं उन्नति प्रदान करने वाली गंगा, देश के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का हिस्सा है। इस पवित्र जल के आकर्षण तथा नदी के इर्द-गिर्द व्याप्त कहावतों एवं रहस्यों तथा इसके उद्गम ने पौराणिक युग से ही तपस्वियों तथा साहसिकों को आकर्षित किया है।

 गंगोत्री की तीर्थ यात्रा, उद्गमस्थल पर देवी गंगा को समर्पित मंदिर तथा उतराखंड के चार धामों मे से एक हिंदुओं के जीवन का पवित्रतम अनुभव है और उसी प्रकार यात्रियों के लिये उत्साह एवं प्रेरणावर्द्धक भी है। सदियों से मुक्ति की खोज में लाखों तीर्थयात्रियों ने गंगोत्री की यात्रा की है तथा पवित्र नदी ने उन्हें आवश्यक सहायता तथा आशा प्रदान है।

 

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