देहरादून। चैत्र मास की नवरात्रियोंमें उत्तराखंड के चंपावतजिले में स्थित पूर्णागिरिके दर्शनों के लिए अपार जन सैलाब उमड पडा है और मां के जयकारों से पूरा मेला क्षेत्र गुंजायमान हो रहा है।
चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण चंपावतजिले के प्रवेशद्वार टनकपुरसे 19किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108सिद्धपीठोंमें से एक है। तीन ओर से वनाच्छादित पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा के बीच कल-कल करती सात धाराओं वाली शारदा नदी के तट पर बसा टनकपुरनगर मां पूर्णागिरिके दरबार में आने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है।
इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं किंतु चैत्र मास की नवरात्रमें यहां मां के दर्शन का इसका विशेष महत्व बढ जाता है। मां पूर्णागिरिका शैल शिखर अनेक पौराणिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए है। पहले यहां चैत्र मास के नवरात्रियोंके दौरान ही कुछ समय के लिए मेला लगता था किंतु मां के प्रति श्रद्धालुओं की बढती आस्था के कारण अब यहां वर्ष-भर भक्तों का सैलाब उमडता है।
दर्शनार्थियोंकी बढती संख्या के बावजूद नागरिक सुविधाओं का विस्तार यहां बहुत नहीं है लेकिन राज्य सरकार द्वारा इस तीर्थ को वैष्णो देवी की तर्ज पर विकसित करने की कोशिश लंबे अरसे से चल रही है।
मां पूर्णागिरिमें भावनाओं की अभिव्यक्ति और शक्ति के प्रति अटूट आस्था का प्रदर्शन होता है। पौराणिक गाथाओं एवं शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार दक्ष प्रजापति की 60हजार कन्याएं थीं जो देवताओं को विवाह स्वरूप दी गई थीं उन्हीं में से एक सती का विवाह भगवान भोले शंकर से किया गया। भगवान शिव से संबंध होने पर दक्ष प्रजापति देवताओं में सम्मान से देखे जाने लगे।
एक बार देवताओं ने एक शुभ आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं के साथ ही भगवान शिव को भी आमंत्रित किया गया। देवताओं ने शिवजी को प्रधान सिंहासन पर बैठाकर उनका पूजन किया। इसी दौरान दक्ष प्रजापति भी वहां पहुंचे।
लोक व्यवहार के अनुसार दक्ष प्रजापति को अहंकार था कि शिव उनके जमाता हैं और भगवान शिव को उन्हें प्रथम अभिवादन करना चाहिए। अन्य देवताओं ने दक्ष प्रजापति का शिव से संबंध होने के कारण उन्हें पहले शीश नवाया,किंतु भगवान शंकर ने आध्यात्मिक भाव के कारण विचार किया कि यदि मैं महादेव होने के कारण पहले दक्ष प्रजापति का अभिवादन करूं तो पहले नमन से दक्ष प्रजाति की राज्य लक्ष्मी का विनाश हो जायेगा।
अपने श्वसुर के इस हित को मन में रखकर शिवजी ने पहले उठकर उनका अभिवादन नहीं किया और अपने आसन पर ही बैठे रहे। दक्ष प्रजापति इससे रुष्ट हो गए और कहने लगे कि मैने इस प्रकार के दरिद्र एवं अमांगलिकवेशधारी को अपनी कन्या का विवाह कर महान भूल की जो शिष्टाचार तक नहीं जानता।
दक्ष प्रजापति ने इसे अपना घोर अपमान समझते हुए बदले में शिवजी के अपमान की योजना बना डाली। उन्होंने हरिद्वार में महायज्ञ का आयोजन किया और यह निश्चय किया कि शिवजी को इस अनुष्ठान में शामिल न किया जाए जबकि अन्य सभी देवताओं को इसमें आमंत्रित किया गया।
आकाश मंडल से विमान में जाते हुए अपनी बहिनों के पतियोंको अनुष्ठान में शामिल होता देखकर सती ने दु:खी होकर शिवजी से अनुष्ठान में शामिल होने का अनुरोध किया किंतु शिवजी ने सती के अनुरोध को ठुकरा दिया लेकिन सती के हट पर शिवजी ने अपने नंदीगणके साथ सती को अनुष्ठान में शामिल होने के लिए भेज दिया।
मां सती यज्ञ स्थल पर पहुंची। यज्ञ मंडप में शिव का कोई स्थान नहीं था। चारों ओर शिव को छोडकर अन्य देवताओं को आहुति करने का उल्लेख था। अपने पति के इस अनादर को सती सहन नहीं कर पाई। पिता से पति के स्थान के बारे में पूछने पर प्रजापति ने कहा खप्परधारीरुंड,मुंड तथा श्मशान भस्म धारण करने वाले अमांगलिकवेशधारी के लिए यहां स्थान देने का कोई औचित्य नहीं है।
अपने पति के अपमान को सती सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने यज्ञ कुंड में ही अपनी आहुति दे दी तथा कहा कि अब मैं तुम्हारे संबंध से उत्पन्न इस देह को नहीं चाहती। सती के साथ गए रुद्रगणोंने जब सती को अग्नि में सती होते देखा तो रुद्र भगवान से द्वेष रखने वाले प्राणियों पर प्रहार किया तथा इसकी सूचना भगवान शंकर को दी।
भगवान शंकर क्रोधित हुए और उन्होंने अपनी जटा पर तीन बार हाथ फेरा। उससे शंकरीमहाशक्ति का एक वीरभद्रभयंकर स्वरूप का गण उत्पन्न हुआ और वह अपनी विशेष शंकरीसेना को लेकर यज्ञ स्थल कनखलकी ओर रवाना हुआ। उसने दक्ष प्रजापति के सिर को काटकर यज्ञाग्नि को समर्पित कर यज्ञ विध्वंस कर दिया।
भगवान शंकर भी तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से सती के शरीर को लेकर आकाश मार्ग में विचरण करने लगे। विष्णु भगवान ने तांडव नृत्य को देखकर सती के शरीर के अंग पृथक कर दिए जो आकाश मार्ग से विभिन्न स्थानों में गिरे। कथा के अनुसार जहां जहां देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
मां सती का नाभि अंग अन्नपूर्णा शिखर पर गिरा जो पूर्णागिरिके नाम से विख्यात् हुआ तथा देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिकागिरि,कालिकागिरि,हमलागिरिव पूर्णागिरिमें इस पावन स्थल पूर्णागिरीको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। देवी भागवत और स्कंद पुराण तथा चूणामणिज्ञानाणवआदि ग्रंथों में शक्ति मां सरस्वती के 51,71तथा 108पीठों के दर्शन सहित इस प्राचीन सिद्धपीठका भी वर्णन है जहां एक चकोर इस सिद्धपीठकी तीन बार परिक्रमा कर राज सिंहासन पर बैठा।
पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्माकुंडके निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मादेवमंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया।
ऐसी मान्यता है कि नवरात्रियोंमें देवी के दर्शन से व्यक्ति महान पुण्य का भागीदार बनता है। देवी सप्तसतीमें इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियोंमें वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वह व्यक्ति सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न होगा।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरिके दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यासनामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर झूठे मंदिर के नाम से जाना जाता है।
कहा जाता है कि एक बार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरिके उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया किंतु दयालु मां ने इस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर उसे आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी।
कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबाके नाम से मोटी रोटी [रोट] बनाकर सिद्धबाबाको अर्पित करते हैं। यहां यह भी मान्यता है कि मां के प्रति सच्ची श्रद्धा तथा आस्था लेकर आया उपासक अपनी मनोकामना पूर्ण करता है, इसलिए मंदिर परिसर में ही घास में गांठ बांधकर मनौतियां पूरी होने पर दूसरी बार देवी दर्शन लाभ का संकल्प लेकर गांठ खोलते हैं। यह परंपरा यहां वर्षो से चली आ रही है। यहां छोटे बच्चों का मुंडन कराना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
कहा जाता है कि इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है। इसलिए इसकी विशेष महत्ता है। यहां प्रसिद्ध वन्याविद्तथा आखेट प्रेमी जिमकार्बेटने सन् 1927में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरिके प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी व विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफी ख्याति प्रदान की।
पूर्णागिरिमंदिर टनकपुरसे 19किमी दूर है जहां ठुलीगाडतक 12किलोमीटर का सफर बस से किया जाता है। इसी बीच लोक निर्माण विभाग द्वारा छह किलोमीटर लंबी सडक का निर्माण कराया गया है। मेलावधिमें इस मार्ग से वाहनों का आवागमन बंद रहता है जिससे यात्री जय माता दी के उद्घोष के बल पर सात किमी की दुर्गम चढाई पार कर मां के दरबार पहुंचते हैं।
पहले इस मेले की व्यवस्था पिथौरागढजिला पंचायत द्वारा की जाती थी किंतु 15सितंबर 1997को चंपावतके नाम से नए जिले का निर्माण होने के बाद अब मेले की पूरी व्यवस्था चंपावतजिला पंचायत द्वारा की जा रही है। पहले ऊधम सिंह नगर जिला प्रशासन द्वारा जहां एक ओर मेले के मुख्य पडाव टनकपुरमें व्यवस्थाओं को अंजाम दिया जाता था लेकिन अब चंपावतजिले में बनबसातक का क्षेत्र आने से पूरी व्यवस्था की बागडोर चंपावतजिला प्रशासन संभाल रहा है।
चंपावतजिला पंचायत अध्यक्ष ललित मोहन पांडेय ने बताया कि सकुशल मेला संपन्न कराने तथा यात्रियों की सुविधा और सुरक्षा के मद्देनजर चाक-चौबंद व्यवस्था के साथ सुरक्षा के कडे इंतजाम किए गए हैं। उन्होंने बताया कि अब तक लगभग आठ लाख भक्तों ने मां पूर्णागिरिके दर्शन किए हैं तथा मेले का आनंद लिया।
यहां का संपूर्ण वातावरण इस समय भक्ति भावना से ओत-प्रोत प्रतीत हो रहा है। बच्चे, बूढे, नौजवान और महिलाएं मां के जयकारों के साथ सात किलोमीटर कठिन पथरीलीचढाई को पार कर मां के दर्शनों का पुण्य अर्जित करने पहुंच रहे हैं। नैसर्गिक छटा के धनी चंपावतजिले को प्रकृति ने मुक्तहस्तसे संजायाहै और यहां पर्यटन विकास की अपार संभावनाएं हैं। यदि पूर्णागिरिमें आने वाले यात्रियों का रुख श्यामलाताल, वल्दीघाटी, चंपावत,मानेश्वर,लोहाघाट,खेतीखानऔर देवीधूराकी ओर मोडकर उनकी पर्वतीय यात्रा को काठगोदाम में समाप्त किया जाए तो इस क्षेत्र के पर्यटन विकास में भी नए आयाम जुड सकेंगे।
साभार : in.jagran.yahoo.com