Author Topic: Gairsain: Uttarakhand Capital - गैरसैण मुद्दा : अब यह चुप्पी तोड़नी ही होगी  (Read 85762 times)

पंकज सिंह महर

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kal mujhe bhi ye mail mili thi, jiska jabab maine ye diya tha---------

आप कभी ऐसी मेल करेंगे, सोचा भी न था, क्या पहाड़ों में एक नया शहर नहीं बसना चाहिये, क्या उत्तराखण्ड देहरादून, नैनीताल, ह्ल्द्वानी, कोटद्वार जैसे शहरों पर ही डिपेण्ड रहे। क्या आज के युग में भी हम गैरसैंण, जखोली, मोरी, त्यूणी, धारचूला को नये शहर के रुप में डेवलप नहीं कर सकते।  आखित क्यों हम इन दो-चार शहरों पर ही जनदबाव डाल रहे हैं, हम क्यों नहीं सम्भावनायें ढूंढते, हम पहाड़ पर शहर क्यों नहीं बना रहे?
फिर आप यह क्यों भूल जाते हैं, कि उत्तराखण्ड राज्य ऐसे ही नहीं मिला वह २०० साल के संघार्ष के बाद मिला जिसमें ५२ शहादतें हुई और हमारी अस्मिता सडकों पर तार-तार हुई, इन लोगों का सपना और पूरे उत्तराखण्ड की भावना थी कि हमारा उत्तराखण्ड राज्य होगा और उसकी राजधानी गैरसैंण होगी।
क्या अब हम इतने अहसान फरामोश हो गये कि अपने आराम के लिये इनके बलिदान को भूल जांय और ब्यूरोक्रेट और नेताओं की सुख सुविधा के लिये जहां वे लोग कहें, वहीं राजधानी बना दें और राजधानी भी ऐसी जगह जो पूरे उत्तराखण्ड से औसतन ३०० कि०मी० दूर है।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड में आज जिस भी विभाग में ट्रांसफर की बात हो, सारे कार्मिक देहरादून, हल्द्वानी और कोटद्वार में ही अपना स्थानान्तरण चाहते हैं। क्यों ? ? ? ?
क्योंकि आज सिर्फ इन्हीं शहरों में कनेक्टिवेटी है.....संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा की अच्छी सुविधायें हैं, जब गैरसैंण, पिथौरागढ़, चौखुटिया, मोरी त्युणी, नैटवाड़ गोपेश्वर में भी हम यह सुविधायें देंगे तो लोग वहां भी रुकेंगे, एक नई बसावत होगी, पलायन उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य है, पहाड़ खाली हो रहे हैं।

जो लोग पहाड़ों में न रहने की दुहाई दे रहे हैं या अपने कुतर्कों से गैरसैंण आन्दोलन को कमजोर करने का प्रयास कर रहें हैं वे पहाड़ को न तो जानते हैं और न समझते हैं। साथ ही वे पहाड़ विरोधी और अपने को ही समृद्ध साबित करने की कुठा से ग्रसित हैं। क्योंकि जब ये आज अपने गांव जाते होंगे तो शहर की डीगें हांकते होंगे और इनका नजरिया अपने गांव वालो के लिये "पिछड़े पहाड़ी" का है, अगर वह पहाड़ी इनके बगल में खड़ा होने लगेगा तो निश्चित ही इन्हें मिर्चीं लगेगी ही।



*व्यस्तता के कारण अभी इतना ही पूरी बात कल करुंगा।

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Pankaj da aap bilkul sahi kah rahe hai sachchai yahi hai, main dava karata huin yadi raajdhani Gaisain shift hogi to ye kutarkwan sabase aage aake bolange ye to humane kiya ye bhul jayange ajkal to digital world hai inaki saari mails mere paas surakshit rahaingi, aapke lekh ka intejar Rahega.

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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aur ye dawa hai ki ek na ek din rajdhani gairsain jarur banegi..


dajyu yesa to hone hi wala thaira .. jab rajya virodhi rajya ka mukhyamanti ban sakta hai to phiyr yese log bhi kahenge..kya farak padta hai kahne do ...

per rajdhani gairsain hi hogi...


Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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पंकजदा और चारुदा की लेख मे जान है। दमदार लिखते है
विरोधियो तैयार रहना पंकजदा चारुदा के अचूक लेखो से।

dajyu/दाज्यू

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बहुत दिनों से गैरसैण को राजधानी बनाने वाले युवा लोगों का उत्साह देख रहा था, और इसको ना चाहने वाले लोगों के कुतर्क भी। कुतर्कों से दुख तो हुआ लेकिन पहले तो सोचा कि छोड़ो भैंस के आगे बीन बजाने से क्या होगा। लेकिन जब हमारे युवा-उत्तराखंड के तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी लोग  अपने कुतर्कों को  इस इंटरनैट युग में इधर उधर फैलाने लगे और उनके पीछे पीछे कुछ लोग "हम तुम्हारे साथ हैं" की तरह पर हुवां-हुवां चिल्लाने लगे तो लगा कि  मुझे भी अपनी भावनायें व्यक्त कर ही देनी चाहिये।

वे कहते हैं कि गैरसैण क्यों? मैं कहता हूँ ' उत्तराखंड क्यों' फिर 'भारत क्यों'। अग्रेजों के जमाने में भी ऐसे कुछ लोग रायबहादुर का खिताब लेकर अंग्रेजों के जूते चाटते थे और  कहते थे कि हमें आजादी क्यों चाहिये। लेकिन एक आम आदमी के लिये आजादी अस्मिता का सवाल था, खुली हवा में  सांस लेना वही समझ सकता है जिसने बदबूदार, सीलन युक्त कोठरी में दिन बितायें हैं। जिन लोगों ने ना पहाड़ के उस दर्द को देखा है जो धीरे धीरे पहाड़ को उजाड़ रहा है और ना आज की उसकी वास्तविकता से वाकिफ हैं वो तो कहेंगे ही गैरसैण क्यों। यदि ए.सी. चैम्बर में बैठकर इंटरनैट पर धकापेल करने से ही उत्तराखंड का विकास होना होता तो उत्तराखंड आज सबसे अच्छा राज्य होता। उत्तरप्रदेश के वे अधिकारी क्या बुरे थे जो लखनऊ में बैठकर पहाड़ के भाग्य का फैसला करते थे। ऐसे लोगों के लिये पहाड़ केवल साल में एक बार छुट्टी बिताने के लिये जाने वाला स्थान है, और फिर अपने लेटेस्ट कैमरे से फोटो खींच कर इंटरनैट पर साझा करके अपने को तीसमारखां समझने का माध्यम भी ।

पहाड़ का आदमी आज पहाड़ से क्यों भागने को मजबूर है, इसीलिये क्योंकि पहाड़ को पहाड़ के ऐसे नैनिहालों ने बिसरा दिया है। दिल्ली, मुम्बई, लंदन, कनाडा, दुबई में बैठकर पहाड़ी गीत गाना, पहाड़ी नाइट आयोजित करना और हो हो करते हुए हँसते हुए पहाड़ की दुर्दशा का दुखड़ा रोना, यह सब बहुत आसान है। कठिन है तो पहाड़ में बैठकर एक आम पहाड़ी के दर्द को महसूस कर उसके लिये चुपचाप कुछ करते जाना।

....जारी है...

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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दाज्यु बहुत खूब लिखा आपने खास तौर पर मुझे तीसरा पैराग्राफ बहुत अच्छा लगा।
इससे हमे मालुम हो रहा है कि हमारे उत्तराखण्ड मे कितने धारदार लेखक है जो अपनी लेख से पानी मे भी आग लगा सकते है।

खीमसिंह रावत

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achchha lekh hai / man ke udgaar gersain ko pyar karte hai/

बहुत दिनों से गैरसैण को राजधानी बनाने वाले युवा लोगों का उत्साह देख रहा था, और इसको ना चाहने वाले लोगों के कुतर्क भी। कुतर्कों से दुख तो हुआ लेकिन पहले तो सोचा कि छोड़ो भैंस के आगे बीन बजाने से क्या होगा। लेकिन जब हमारे युवा-उत्तराखंड के तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी लोग  अपने कुतर्कों को  इस इंटरनैट युग में इधर उधर फैलाने लगे और उनके पीछे पीछे कुछ लोग "हम तुम्हारे साथ हैं" की तरह पर हुवां-हुवां चिल्लाने लगे तो लगा कि  मुझे भी अपनी भावनायें व्यक्त कर ही देनी चाहिये।

वे कहते हैं कि गैरसैण क्यों? मैं कहता हूँ ' उत्तराखंड क्यों' फिर 'भारत क्यों'। अग्रेजों के जमाने में भी ऐसे कुछ लोग रायबहादुर का खिताब लेकर अंग्रेजों के जूते चाटते थे और  कहते थे कि हमें आजादी क्यों चाहिये। लेकिन एक आम आदमी के लिये आजादी अस्मिता का सवाल था, खुली हवा में  सांस लेना वही समझ सकता है जिसने बदबूदार, सीलन युक्त कोठरी में दिन बितायें हैं। जिन लोगों ने ना पहाड़ के उस दर्द को देखा है जो धीरे धीरे पहाड़ को उजाड़ रहा है और ना आज की उसकी वास्तविकता से वाकिफ हैं वो तो कहेंगे ही गैरसैण क्यों। यदि ए.सी. चैम्बर में बैठकर इंटरनैट पर धकापेल करने से ही उत्तराखंड का विकास होना होता तो उत्तराखंड आज सबसे अच्छा राज्य होता। उत्तरप्रदेश के वे अधिकारी क्या बुरे थे जो लखनऊ में बैठकर पहाड़ के भाग्य का फैसला करते थे। ऐसे लोगों के लिये पहाड़ केवल साल में एक बार छुट्टी बिताने के लिये जाने वाला स्थान है, और फिर अपने लेटेस्ट कैमरे से फोटो खींच कर इंटरनैट पर साझा करके अपने को तीसमारखां समझने का माध्यम भी ।

पहाड़ का आदमी आज पहाड़ से क्यों भागने को मजबूर है, इसीलिये क्योंकि पहाड़ को पहाड़ के ऐसे नैनिहालों ने बिसरा दिया है। दिल्ली, मुम्बई, लंदन, कनाडा, दुबई में बैठकर पहाड़ी गीत गाना, पहाड़ी नाइट आयोजित करना और हो हो करते हुए हँसते हुए पहाड़ की दुर्दशा का दुखड़ा रोना, यह सब बहुत आसान है। कठिन है तो पहाड़ में बैठकर एक आम पहाड़ी के दर्द को महसूस कर उसके लिये चुपचाप कुछ करते जाना।

....जारी है...

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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चिंगारी नीकल चुकी है, आग सुलगने लगी है।
दिल्ली से हवा ने, गैरसैण को रुख कर लिया है।
तुफानो का जीक्र होने लगा है,
कुतॅको के कुतॅक उडने लगे है।
सब जय उत्तराखण्ड कहने लगे है।

 

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