Author Topic: History of Haridwar , Uttrakhnad ; हरिद्वार उत्तराखंड का इतिहास  (Read 54697 times)

Bhishma Kukreti

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  कुणिंद यौयेध कालीन राजा छत्रेश्वर
Chhatreshwar King Ruleover Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur

Kuninda Yauyedh Rules over Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur
 
       
Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  - 194
                   
                         
                     हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 194               


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


            कुणिंद मुद्राओं से छत्रेश्वर , रावण व भानु शासकों की सूचना मिलती है।  इन शासकों का कोई अभिलेख व शिलालेख न मिलने से उनके अस्तित्व के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती है।
 छत्रेश्वर आदि शासकों का अन्य कुणिंद व स्रुघ्न से संबंध भी कठिन है।  इन मुद्राओं से कुणिंद राजवंश का काल भी पता नहीं चलता है।
    छत्रेश्वर अन्य नरेशों के पूर्वर्ती नरेश है।  छत्रेश्वर की ताम्र मुद्राएं मिलीं हैं जिनका निर्माण कुषाण ताम्रमुद्राओं के मानदंड अनुसार हुआ है।
                    छत्रेश्वर मुद्रा में मुद्रालेख
छत्रेश्वर मुद्रा में शिव चित्रांकन हुआ है। शिव दाहिने हाथ में त्रिशूल व युद्ध परशु लिए खड़े हैं।  बायां हाथ कमर पर है।  पृष्ठ भाग में दाहनी ओर मृग खड़ा है। दाहनी ओर निकट ही चैत्य व त्रिभुजाकार Y आकृति के नीचे नाग है।  एक चिन्ह उनके नीचे व एक अस्पस्ट चिन्ह ऊपर बना है (स्मिथ, क्वाइन्स इन इंडियन म्यूजियम कोलकत्ता, भाग -1 , पृष्ठ 170 )
  कनिंघम आदि ने ब्राह्मी मुद्रा लेख को 'भगवतः चतरेश्वर पमहात्मन्य:'  पढ़ा ह।
 ऐलन के अनुसार संभवतः परवर्ती कुणिंद नरेशों की राजधानी छत्र या चत्र रही होगी।
बंदोपध्याय (प्राचीन मुद्रा ) अनुसार छत्रेश्वर का अर्थ शिव है जो कुणिंदों के कुलदेवता थे।
   कनिंघम ऐलन और बंदोपाध्याय के कथन को नहीं मानता है। कनिंघम अनुसार भगवतः चतरेश्वर शिव का नाम नहीं अपितु शासक का ही नाम है।

          कुणिंद शासन क्षेत्र

 छत्रेश्वर की मुद्राएं यमुना पश्चिम में अधिक मिली हैं जिससे अनुमान लगता है कि छत्रेश्वर का कुणिंद क्षेत्र हिमाचल दक्षिण पूर्व से लेकर पश्चिम उत्तराखंड के यमुना निकट रहा होगा। कुणिंद जनपद के या उत्तराखंड के धुर दक्षिण पूर्व में बाद गोविषाण में मित्र वंशी शासकों का अधिकार हो गया था। ऐसा लगता है कुणिंद काल में भी गोविषाण अथवा कुमाऊं तराई में अथवा बिजनौर पूर्व में कुषाण राजा राज्य करता था (डबराल ुखंड इतिहास भाग ३, पृष्ठ 156 )
                  राज्यावधि
  छत्रेश्वर ने ताम्र मुद्राएं ढालने हेतु कुषाण मुद्राओं के अनुकरण किया है।  एक कथनानुसार (न्यूमेसमेटिक सोसाइटी, vol 15 , जून 1953 , पृष्ठ 180 ) गोविषाण व पूर्वी पंचनद पर कुषाण सामंत का शासन रहा होगा ।  डबराल अनुसार यदि इस कल्पना में सत्यता है तो छत्रेश्वर ने संभवतः कुषाण शासक अथवा सामंत वासुदेव से भूमि स्वतंत्र की थी।  (डबराल वही पृष्ठ 257 )
 डबराल अनुसार छत्रेश्वर का शासन काल 243 से 250 इश्वी तक आंका जा सकता है।

 

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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


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                     :=============  स्वच्छ भारत !  स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान उत्तराखंड  =============:



Bhishma Kukreti

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   कुणिंद  अवसान ( हरिद्वार  ,  बिजनौर  , सहारनपुर   इतिहास )
End of Kuninda rule from haridwar, saharanpur , Bijnor
       
      Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  197
                   
                         
                     हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 197               


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

      प्रारम्भिक काल में कुणिंद शासन यमुना (कालिंदी ) के पूर्व बिजनौर व उत्तर में तिब्बत सीमा तक रहा ततपश्चात कुणिंद गण  .यमुना से पश्चिम में बढ़े और सतलज तक कुनिंद गण राज्य रहा।  (डबराल  ) . महाभारत व पुरानों अनुसार पूर्व कुणिंद काल 1400 Bc से 1000 तक रहा (प्रिंसेप , इंडियन ऐन्टिक्विटिज पृष्ठ 85 )।  यद्यपि कोई पुरात्ववेति प्रमाण नहीं मिलते हैं।  पाणनि के अष्टाध्यायी से स्पष्ट है कि कुणिंद जनपद पांचवीं सदी तक अवश्य थे। चौथी सदी के प्रथम काल में  रावण या उसके उत्तराधिकारियों का राज बिखरने लगा था।
 इस प्रकार पर्वतीय उत्तराखंड , बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर क्षेत्र में 950 BC से 350 AD तक कुणिंद शासन रहा।
 कहा जाता है कि नंद वंश की स्थापना भी किसी कुणिंद शाखा ने की थी। मौर्य वंश का भी प्रभाव कुणिंन्द जनपद पर था।
    यवनों दासता मुक्ति हेतु कुणिंदों ने शुंग की आधीनता स्वीकार की व पश्चिम में पड़ोसियों की रक्षा हेतु कार्य भी किये। अमोधभूति ने सारे जनपद को संगठित करने हेतु संघर्ष किया।  अमोधभूति के वंशज कुषाण बासुदेव आदि से कुणिंद भूमि स्वतंत्र करने में सफल अवश्य हुए किन्तु अधिक दिन तक क्षुण न रख सके। अंत में विशाल कुणिंद जनपद छोटे छोटे राज्यों में बंट गया गणसत्ता के स्थान पर अश्वमेध यज्ञ करने वाले नरेश के हाथों एकछत्रीय राजाओं के पास सत्ता ा गयी।
    कुणिंद गगनराज समाप्ति के साथ भी अन्य गणराज जैसे यौयेध , त्रिगर्त , कुलूत भी लुप्त हो गए।
 कुणिंद एक विशाल गणराज्य का समाप्त होना एक हानिप्रद घटनाएं सिद्ध हुईं।

       





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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


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Bhishma Kukreti

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             युग शैल के अश्वमेध यज्ञ कर्ता  शासक और हरिद्वार , सहारनपुर , बिजनौर का इतिहास  (290 -350 ई )-1


     Ashwamedha yagya Performing Kings & History of haridwar, saharanpur and bijnor
        Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  198
                   
                         
                     हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  198               


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


            अंतिम कुषाण नरेश पश्चात व कुणिंद शासन अवसान बाद पर्वतीय उत्तराखंड व मैदानी प्राचीन उत्तराखंड इतिहास हेतु निम्न सूचनाओं पर निर्भर करना पड़ता है -
अ -  छत्रेश्वर , भानु व रवां की कुणिंद मुद्राएं
ब - गोविषाण में मित्र वंशजों के इष्टका लेख जो बिजनौर इतिहास पर प्रकाश डालने में सहायक हैं
स -प्रयाग प्रसस्ति जिसमे कर्तृ पुर नृपति का उल्लेख है
द -लाखामंडल में प्राचीन प्रसस्ति जो सहारनपुर व हरिद्वार इतिहास हेतु सहायक हैं
  उपरोक्त सामग्रियों से अनुमान लगता है कि कुणिंद अवसान कालीन शासक व गोविषाण (उधम सिंह नगर ) मित्रवंशी समकालीन थे।
       
               पश्चिम देहरादून के जौनसार बाबर क्षेत्र में  (पूर्वी सहारनपुर व उत्तरी हरिद्वार से सटा क्षेत्र ) जयदास या उसके किसी वंशज का शासन था .
         शिव भवानी
जगतग्राम (  पश्चिम देहरादून ) में पुरातत्व विभाग ने 1952 -54 खुदाई की तो देहरादून , सहारनपुर , हरिद्वार इतिहास के नए पृष्ठ खुले।  अम्ब्री गाँव में शिव भवानी का एक अभिलेख मिला व अश्वमेध यज्ञ के चिन्ह भी जगतग्राम में मिले (asidehraduncircle. in /excavation . html )
    महाभारत अनुसार सूर्यवंशी  नभागपुत्र ने प्राचीनकाल में अंबरीष में यज्ञ किया था (आदि पर्व 1 /227 ) .   ब्राह्मी लिपि  व ईंटों से लगता है कि यह साइट तीसरी सदी की है।  अश्वमेध यज्ञ की बलि स्थान व गुरुदाकार वेदी से सिद्ध हुआ कि यहां युगशैल के शासकों ने अश्वमेध यज्ञ किया था। भारत में तीसरी सदी में अश्वमेध यज्ञ की सूचना अभी तक नहीं मिली है।
     चूँकि अभी अभिलेख पढ़ा नहीं गया है तो शिव भवानी के बारे में अधिक जानकारी अभी तक नहीं हो सकी है
 







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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

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   युगशैल शासक शील वर्मन

 History of  Yugshail Kings of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur

    Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  199
                   
                         
                     हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 199                 


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

 राजा शीलवर्मन ने अशोक शिलालेख के ठीक सामने जगतग्राम नामक स्थान में एक या अधिक अश्वमेध यज्ञ किये थे।  यज्ञ हेतु उसने गरुडाकार बलि वेदियां बनायीं थीं जिनकी ईंटों पर निम्न अभिलेख अंकित हैं (सरकार सलेक्टेड इंस्क्रिप्सन vol 1 पृष्ठ 99 ) -
१- सिद्धम , युगेश्वरस्याश्वमेधे युगशैलमहीपते
इष्टका वार्षगणस्य नृपतेशीलवर्मण
२- नृपतेर्वाषगणस्य पोण षष्ठस्य धीमत:
 चतुर्थस्याश्वमेधस्य चित्यो  यं शीलवर्मण
उपरोक्त इष्टा लेख से निम्न तथ्य सामने आते हैं -
 अ -राजा शीलवर्मन वार्षगण्य गोत्र में पैदा हुआ था
ब = युगशैल या तो राजधानी थी या शासित प्रदेश का नाम था।
स - पोण शीलवर्मन का छटा पूर्व पुरुष था
ध - शीलवर्मन ने इससे पहले तीन अश्वमेध यज्ञ किये थे और एक तो जगतग्राम में सम्पन हुआ था।
             वार्षगणस्य गोत्र
 वार्षगणस्य गोत्र उत्तराखंड में नहीं मिलते हैं।  महाभारत अनुसार वार्षगण एक प्राचीन ऋषि थे जो सांख्य व योग गुरु थे।  सांख्य व योग ग्रंथों में वार्षगण का नाम आदर से लिया गया है।  वार्षगण का समय दूसरी सदी का माना जा सकता है। शीलवर्मन छटी पीढ़ी का पुरुष है तो शीलवर्मन का काल तीसरी सदी का माना जा सकता है।
     शीलवर्मन का काल तीसरी सदी के ही समय में यमुना घाटी में सेन बर्मन ने यदुवंश की स्थापना की थी। लाखामंडल में राजकुमारी ईश्वरा लेख में जिन 12 राजाओं के नाम मिले हैं।  किन्तु सरकार व राम चंद्रन इतिहासकार इसे एक ही राजा नहीं मानते हैं।
                      पोण
           शीलवर्मन पोण की छटी पीढ़ी में पैदा हुआ था।  पोण को शीलवर्मन का वंश संस्थापक मान सकते हैं। किन्तु पोण के विषय में कोई अन्य सूचना उपलब्ध नहीं है।  हर्षचरित का पौण /पौणकि के भी संबंध स्थापित नहीं होते हैं।
  शीलवर्मन से पहले चार वंशक भी अज्ञात ही हैं। समुद्रगुप्त से पहले छत्रेश्वर , भानु , रावण, शिवभवानी को शीलवर्मन के पूर्वज व इन्हे पोण उत्तराधिकारी मानने हेतु कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध हैं। शिव भवानी पररवर्ती शासक था या शीलवर्मन पूर्वर्ती था पर भी एकमत नहीं हुआ जा सकता है। 

          अश्वमेध यज्ञकर्ता नृप होने से शीलवर्मन का हरिद्वार व पूर्वी सहारनपुर पर शासन होना तर्कसंगत है किन्तु बिजनौर पर तब किसका शासन था अज्ञात ही है।  क्या तब बिजनौर पर मित्र वंशियों का शासन था पर चर्चा अगले अध्याय में की जायेगी।






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 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


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        शीलवर्मन का शासित क्षेत्र

History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History from 250-350 AD
 
    Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  200
                   
                         
                     हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  200               


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


         शीलवर्मन के इष्टकाल में युगशैल के  अतिरिक्त किसी शासित क्षेत्र का नाम नहीं आया है .  एक ही श्लोक  में दो बार युगशैल आने का अर्थ है युगशैल काल सूचक , व स्थान सूचक भी था। युगशैल को राज्य या राजधानो दोनों माना जा सकता है। शीलवर्मन ने जगतग्राम (यमुना पूर्वी तट ) अश्वमेध यज्ञ सम्पन किया जिसका अर्थ है शीलवर्मन का शासन यमुना तट से पूर्व की ओर दूर दूर तक फैला होगा।  कोई एक दो ग्राम जीतने पर कोई अश्वमेध यज्ञ नहीं करेगा।  युगशैल का अर्थ दो शैल या जोड़ी में पहाड़ भी हो सकता है। याने चार अश्वमेध सम्पन करने वाले शासक का विजिट क्षेत्र लघु हिमालय या  मध्य हिमालय भी हो सकता है।  सहारनपुर का पूर्वी क्षेत्र तो अवश्य ही कालसी या जगतग्राम के अंतर्गत रहा होगा।
    अनुमान लगाया जा सकता है कि जगतपुर का नाम युगपुर रहा होगा।
       यदि गोविषाण का मित्र वंश शीलवर्मन का संबंधी या सहभागी था या उसने अश्वमेध में युगशैल को नजराना देना स्वीकार किया हो तो सहारनपुर , हरिद्वार व बिजनौर का भाबर क्षेत्र शीलवर्मन के अंतर्गत रहा होगा।  शीलवर्मन का शासन क्षेत्र अवश्य ही समृद्ध क्षेत्र था। वीरभद्र , ऋषिकेश में प्रथम शताब्दी के समृद्धशाली मृद िनत से बने भवन दीवारें व वाद के पुरात्व अवशेष इस अनुमान को बल देते हैं कि शीलवर्मन का शासन हरिद्वार पर अवश्य था। 
     डा डबराल के पांडुवाला (लालढांग , बहादुराबाद तहसील हरिद्वार ) पुरात्व अवशेष अध्ययन भी इंगित करते हैं कि उस काल में मैदानी भागों में पक्की लाल ईंटो का प्रचलन था व ईंटो पर चित्रकारी की जाती थी पांडुवाला अवशेष अध्ययन बाटते हैं कि भोज्य सामग्री परोसने हेतु कई कायस्थ व धातु उपकरण प्रयोग होते थे। 
     शीलवर्मन काल में शिक्षा का प्रचार संतोषजनक था अन्यथा इष्टका लेख का कोई प्रयोजन न होता।
      शुंग व कुषाण युग में जनता शैव्य सम्प्रदाय की और झुक गयी थी।  वीरभद्र में चौथी -पांचवीं सदी का शैव्य मंदिर भी यही इंगित करता है।  शुंग काल में गरुड़ आकृति का प्रचलन हो गया था विदेशी राजा भी गुर्द ध्वज उपयोग करते थे।  जगतग्राम में गरुडाक्रिति वलिवेदी से अनुमान लगता है वैष्णव धर्म भी प्रचलित था ।
          शील वर्मन का शासन काल
 शीलवर्मन का शासन काल समुद्रगुप्त के शासन कल से पहले ही होना चाहिए।  समुद्रगुप्त का शासन काल 340 ई से शुरू होता है और दस वर्ष उसे मध्य देश जीतने में लगे।  अतः शीलवर्मन का शासन काल 340 -350 मध्य माना जा सकता है।  इष्टका लिपि तीसरी सदी की मानी गयी है। 
  रावण , पृथ्वीमित्र , शिवभावानी व शीलवर्मन के मध्य आठ आठ साल का अंतर् होना चाहिए






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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


      Ancient History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient  History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient   History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand  ;  Ancient  History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient  History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar;      History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Bijnor;   seohara , Bijnor History Ancient  History of Nazibabad Bijnor ;    Ancient History of Saharanpur;   Ancient  History of Nakur , Saharanpur;    Ancient   History of Deoband, Saharanpur;     Ancient  History of Badhsharbaugh , Saharanpur;   Ancient Saharanpur History,     Ancient Bijnor History;
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   पांडुवाला पुरात्व और कुषाण काल परवर्ती  हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर इतिहास

   Place of Panduwala, LalDhang  in Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History


        Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -201
                   
                         
             हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -   201             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


           पांडुवाला पुरातत्व अन्वेषण का श्रेय इतिहास खोजी डा शिव प्रसाद को जाता है (उत्तराखंड इतिहास भाग 3  पृष्ठ 276 -277 ।
 पांडुवाला लालढांग के पश्चिम में कोटद्वार -हरिद्वार मार्ग पर स्थित है। लालढांग हरिद्वार जनपद का बहादुराबाद तहसील का भाग है जो हरिद्वार से 19 . 4 किलोमीटर पूर्व की दूरी पर है और कोटद्वार से पश्चिम  की और 27 किलोमीटर दूरी पर है। पांडुवाला बिजनौर-पौड़ी गढ़वाल सीमा पर स्थित है।
       डा डबराल ने सूचना इस प्रकार दी -
" पांडुवाला सुरक्षित वन में दूर दूर तक प्राचीन वस्तियों के खंडहर फैले हैं। (काल 250 -350 ई  ) शीलवर्मन काल में पांडुवाला एक समृद्ध नगर था।  नगर को पांडुवाला स्रोत्र या रवासन नदी से जल प्राप्त होता था। तालाब तट पर लाल ईंटों की पक्के घात बने थे। तालाब से एक नहर निकाली गयी थी।  शायद गंदे पानी निकास हेतु बनाई गयीं थीं या सिंचाई हेतु।  संभवतः तालाब के किनारे छोटे मोठे मंदिर थे।
      नगर में मुख्य मंदिर शिव मंदिर था।  मंदिर में लाल शिला की लिंगोद्भव मूर्ति थी। मूर्ति मथुरा काल की सुंदर मूर्ति थी (कुषाण काल ). संभवतः कुषाण युग के बाद भी मथुरा कला नष्ट नहीं हुयी थी।  इस मूर्ति को उठाकर पांडुवाला मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया है।  अन्य मंदिरों की छोटी मूर्तियां नजीबाबाद मंदिर में प्रतिष्ठित की गयी  किन्तु ये मूर्तियां आठवीं सदी के बाद की हैं।
     जहां आजकल बणगूजरों की बस्ती हैं वहां कभी नगर का विशिष्ठ भाग रहा होगा। यहां यत्र तत्र कटी हुईं शिलायें पड़ी हैं।  इन ईंटों का आकार व प्रकार वीरभद्र में मिले अवशेषों से मिलती हैं। सौ वर्ष पूर्व यहां कई मूर्तियां व चित्रित शिलायें बिखरी थीं जिन्हे मूर्ति चोर ले गए हैं।  "
          स्तूप
 पांडुवाला में एक वृहद बौद्ध स्तूप था।  डा डबराल ने लिखा (उपरोक्त संदर्भ ) इस स्तूप के ऊपर छह -बारह फिट तक मिटटी पड़ी है। मैं इस स्तूप देखने गर्मियों में 1968 में गया था। पांडुवाला स्रोत्र के पानी ने स्तूप को बीच से काट डाला है। दीवारों के कुछ भाग दिखाई पड़ते हैं।  किन्तु सुरक्षा न होने से बजरी आदि से ढक गए हैं।
  अब भी स्रोत्र की तलहटी में दोनों और दूर दूर तक मृतिका पात्रों की भरमार है। सावधानी से खोदने पर पात्र पूरे निकल आते हैं।
   डा डबराल को खुदाई बाद कुछ्   मृतिका पात्र मिले थे।
 दीपक - छोटे पात्र आज केदीपकों  जैसे थे जो छोटी छोटी सामग्री रखने हेतु रही होंगीं।
कटोरियाँ - लंबोतरी चपटी व रेखाओं से चित्रित कटोरियाँ तरल भोज्य पदार्थ खाने हेतु उपयोग होती थीं
थालियां -थालियां गोल थीं व मध्य में एक गोल आकृति अंकित रहती थी जो  द्योतक रहा होगा।  कुछ थालिओं के मध्य में समांतर रेखाएं चित्रित है यह भी स्तूप का द्योतक होंगे।
कुछ पात्रों  के गले के नीचे कांच मिले जो घिसाई का द्योतक हैं।  कुछ पात्रों में गले के निचे लेप किया गया है। ये पात्र लाल रंग के हैं। अनगिनित आकार की कुंडियां , छातियां मटकियां , मटके भी डा डबराल को मिले थे।
  कुछ मृतिकाओं में अस्थि रसायन मिले।
     एक पात्र के अध्ययन में एक टूटी वाले मृतिका भांड को विशेषज्ञ राय कृष्ण दास ने कुषाण युगीन करार दिया।
 फुरर ने प्राचीन पांडुवाला की पहचान ब्रह्मपुर से की। 


 





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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


      Ancient History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ;   Panduwala & Ancient History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ;  Panduwala Bahadurabad  Ancient History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient  History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient   History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand  ;  Ancient  History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient  History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar;      History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Bijnor;   seohara , Bijnor History Ancient  History of Nazibabad Bijnor ;    Ancient History of Saharanpur;   Ancient  History of Nakur , Saharanpur;    Ancient   History of Deoband, Saharanpur;     Ancient  History of Badhsharbaugh , Saharanpur;   Ancient Saharanpur History,     Ancient Bijnor History;
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 गोविषाण /क्षिपुर के मित्र वंशी शासक व बिजनौर का इतिहास

     Mitra Dynasty and istory of Haridwar, Bijnor,   Saharanpur
        Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  202
                   
                         
       हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -   202             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

   सन 1901 व 1939 -40 में कनिंघम की खोजें अनुसार उत्खलन किया गया और कई ऐतिहासिक सामग्री मिलने से गोविषाण व बिजनौर के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।  1978 -79  में हेमवती नंद गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर द्वारा उत्खनन ने मयूरध्ज बिजनौर का उत्खनन किया व दूसरी शताब्दी पूर्व से कुषाण कालीन सामग्री मिलने से हरिद्वार से काशीपुर-बिजनौर  पट्टी की समृद्धि का पता चलता है। 
              गोविषाण दुर्ग
गोविषाण दुर्ग उत्खनन में निम्न अंकित ईंटे मिलीं -
१- राyn मातृ मित्तस पुत्त
२- तस्य रांवों श्री पृथ्वी विमत्तस ....
 दोनों लेख अधूरे हैं जिससे सिद्ध होता है कि लेख कई ईंटों पर लिखा गया था।  दुर्ग ढह गया है तो संबंधित ईंटों को खोजना कथन ही था।
 पूरे लेख में संभवतः अन्य नरेशों के भी नाम थे किन्तु तीन नरेशों की तो पुष्टि होती ही है -
मातृ मित्र
मातृमित्र का पुत्र
पृथविमित्र
 उन दिनों मथुरा , कौशम्बी , पांचालों व पाटलिपुत्र नरेशों के अंत में मित्र लगाने की प्रथा थी।
  इस अन्वेषण से स्पस्ट है कि गोविषाण पर किसी मित्र वंश का स्वतंत्र शासन था या सटे किसी  पांचाल नरेश मित्र का शासन था।
        पुष्यमित्र शासन के पश्चात मध्य देश में नामन्त मित्र लगाने की प्रथा बनी रही।
       कनिंघम ने मुद्राओं के आधार पर उत्तर पांचाल के बारह नरेशों का नाम उल्लेख किया (क्वाइंस ऑफ अन्सियन्ट इंडिया , पृष्ठ 81 -84 ) व नाम हैं -ध्रुव मित्र , सूर्य मित्र , फाल्गुनी मित्र, भानुमित्र , भद्रघोष , भूमिमित्र , जयमित्र , विश्वपाल , इंद्रमित्र व विष्णुमित्र।  इन नामों में मातृ मित्र व पृथ्वीमित्र नाम नहीं हैं।  उपरोक्त मुद्राओं की लिपि अशोककालीन ब्राह्मी है याने पहली सदी से पहले।  जबकि गोविषाण में ईंटों की लिपि तीसरी सदी के लगभग की है।  इतिहासकार सरकार ने मुद्राओं के आधार पर उपरोक्त 12 नरेशों के अतिरिक्त अन्य  बारह नरेशों के नाम दिए हैं किन्तु उनमे ये दो नाम नहीं हैं।
           
  मातृ  मित्र
गोविषाण दुर्ग में मित्र वंश का संस्थापक की सूचना नहीं मिलती है। मातृ मित्र की कोई मुद्रा भी नहीं मिली ना ही किसी अभिलेख में नाम।  हो सकता है अन्य ईंटों में कोई नाम रहे हों।
 पृथ्वीमित्र
 ईंटों पर लेख से पता नहीं लगता कि कौन पूर्ववर्ती था और कौन पर्ववर्ती शासक

   लेख लिपि काल
 इष्टका लेखों की भाषा से  लगता है कि ये शासक वासुदेव कुषाण के बाद के शासक थे।
  काल 250 -290 ई  माना जा सकता है।
  मातृमित्र व पृथ्वीमित्र के इष्टा लेख की भाषा संस्कृत से उसी प्रकार प्रभावित है जैसे छत्रेश्वर मुद्राओं के लेख।
    अतः माना जा सकता है कि पश्चमी भाबर व बेहट में छत्रेश्वर वंशीयों का शासन था तो बिजनौर , काशीपुर भाबर पर मित्र वंशियों का शासन था।
    स्थापत्य
 गोविषाण के मित्र वंशियों के दुर्ग अवशेष अभी भी हैं। ये अवशेस तीन कालों की सूचना देते हैं।  संभवतया यहां एक दुर्ग व कई मंदिर रहे होंगे। दुर्ग के पास 600 'x 600 ' का द्रोण सागर तालाब भी मित्र वंश काल का ही है।
    उज्जैन गाँव काशीपुर तहसील जनश्रुति अनुसार द्रोण सागर निर्माण व उज्जैन दुर्ग पांडवों ने गुरु द्रोण हेतु बनाये थे।
     दुर्ग व तालाब खुदाई मित्र वंशी शासकों ने किया।
 मित्र वंशी शासन के चार सदी बाद  चीनी यात्री हुएन सांग ने गोविषाण की समृद्धि का वर्णन किया है।  उसने गोविषाण का घेरा ढाई मील बताया है।
 कनिंघम ने मित्र वंशी ुर्ग का उल्लेख किया है।  दुर्ग 1500 फ़ीट चौड़ा व 3000 फ़ीट लम्बा था।  दुर्ग का निर्माण 15 x 10 x 2 1/2 इंच की ईंटों से हुया था।  दुर्ग निकट खेतों से 25 -30 फ़ीट ऊपर टीले में स्थित था.  दो पुराने फाटकों के अवशेष प्राप्त हुए जिनसे आज उगे जंगल में प्रवेश होता है।  कनिंघम ने पूर्व को छोड़ तीन दिशाओं में खाइयों का वर्णन किया है।  डबराल अनुसार अब खाईयां भर गयी हैं।





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    छागलदेश और हरिद्वार , सहारनपुर इतिहास
    Ancient Haridwar, Saharanpur and Bijnor History in 250-460
        Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  203
                   
   हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -    203             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

            जयदास व उसके बंशजों का हरिद्वार -सहारनपुर इतिहास में स्थान

          देहरादून जिले में चकरौता से 25 मील  पूर्व में यमुना व मोरदगाज संगम पर एक प्राचीन मंदिर में खंडित शिलालेख मिला है।  रोहिलाओं के विध्वंसकारी कार्यों से कई मूर्तियां व शिलालेख खण्डित  हो गयीं हैं।  प्रशस्ति की पहली , दूसरी , तीसरी , पांचवीं व छटी पंक्ति सुरक्षित हैं चौथी पंक्ति आधी खंडित हो गयी है
  इसे छागलदेश प्रशस्ति शिलालेख 11 " x 13 " शिला पर अंकित हिन् जिसे चांगलदेश प्रशस्ति नाम दिया गया है यह शिलालेख लोकेश्वर मंदिर जो 12 -13 वीं सदी का बताया जाता है में मिलीं जहां पुरातत्व बिभाग को यहां  5 वीं 6 ठी सदी के छत वाले मंदि र के अवशेस भी मिले हैं जिसकी जानकारी अभी उपलब्ध नहीं हो सकी है।
     यह प्रशस्ति छागलदेश या छगलकेतु नामक किसी राजा ने अंकित करवाई हैं। प्रशस्ति का आरंभ 'सिद्धम ' से है -
  सिद्धम। नस्वा , नगेन्द्रतनयां परिहासक (त्रीम )
   (घृत्वा सदा ) पशुपते रतिचारुरूपम (पहली पंक्ति )
  असीत पुरा नरपतिज्जैयदास नामा नामा
तस्या आत्मज नृपति   ....
 तस्याद  गुहेश च क्षितिपो वभूव। ।
  तस्माद अभूत अचलेत्यवनीपतीश।  । 
    ..... .... छागलेशदास।
रुद्रेशदास इति तत तनयस च जज्ञे।
तनमांच रूद्रनृपतेश  ........ केतु। । 
देव्यां अजेश्वर नृपात गुणवान गुणायाम।
 ... हतभुज्यां अधिपान्जयंता: (दूसरि पंक्ति ) ( यू पी  हिस्टोरिकल सोसाइटी , जुलाई , 1944 , पृष्ठ 83 से 90 )
    निम्न नरेशों का वर्णन प्रशस्ति में मिलता है
नरेश ---------------- उपाधि
१- जयदास -------------- नरपति
२- ... ? (तस्य आत्मज  -----नृपति
३- गुहेश ------------------- क्षिपति
४- अचल -------------------- अवनीपतीश
५- ?    ------------------------?
६- छागलेशदास -------------?
७- रुद्रेशदास ------------- नृपतेश
८-  अजेश्वर , छागलदेश , छागलकेतु --- नृप

  राज्य शासित क्षेत्र
 यद्यपि पूरी सूचना अभाव में कहना कठिन है किन्तु विश्लेषण से पता लगता है कि कुषाण काल में राजाओं की उपाधि महाराजा , राजतिराज का प्रचलन बढ़ गया था।  अतः  जयदास वंशी नरेश बृहद भूभाग नृप नहीं थे।  हो सकता है इस वंश का शासन जौनसार बाबर , बेहट सहारनपुर निकटवर्ती भाग व पूर्वी हिमाचल तक रहा हो।  उत्तर पश्चिम हरिद्वार भी जयदास वंशजों के आधीन हो भी तर्कपूर्ण है। उत्तरकाशी व बड़ाहाट  संभवतया जयदास वंशजों के ही अधीन था क्योंकि किसी अन्य राजा के वहां पंहुचने का  अर्थ
   होता कि छागलेश वंशी शासक न होते। 
             छागलेश /छागल केतु
 अंतिम नरेश छागलेश या अजेश्वर था जिसकी पत्नी नाम गुणवती था। छागलेश के पुत्र की तुलना इंद्र पुत्र जयंत से की गयी है।  अगला भाग खंडित हो चूका है अतः छागलेश पुत्र का नाम पता नहीं चलता है।
       जयदास वंशज राज्य काल
   छत्रेश्वर , रावण , भानु काल 290 -350  ई  तक मान सकते हैं।   एक पीढ़ी के शासन के हिसाब से जयदास वंशी राज्य काल 110 -112 रहा होगा इस हिसाब से डबराल का मत है कि जयदास से छागलदास काल 350 से 460 ई तक होना चाहिए।
            शिक्षा

    लालखामण्डल में इस काल मेके कई शिलालेख या इष्टालेख संस्कृत में मिले हैं जिससे अनुमान लगता है कि 3 ऋ सदी से 6 सदी तक उचित शिक्षा प्रबंध था।
      धार्मिक मान्यताएं
  प्रशस्ति से अनुमान लगता है कि क्षेत्र में शैव्य सम्प्रदाय का प्रभुत्व था।  पशुपति , सिद्धम , नागरंदर शब्द इसी ओर इशारा कर रहे हैं।
   
       स्थापत्य
 जय दास वंशज काल में मूर्ति निर्माण प्रगति पथ पर था।  मंदिर  वाले होते थे। मंदिरों में द्वारपाल निर्मित होते थे जो मानवाकार आकृति के होते थे। डा वासुदेव शरण अग्रवाल अनुसार लाखामंडल की मूर्तियां पांचवीं -छथि सदी की हैं।  द्वारपाल की आकृति से ओज , शौर्य टपकता है और कला का सुंदर नमूने प्रस्तुत करते हैं।  उन पर लगी पोलिश भी अति उत्तम किस्म की हैं।  शिव मंदिर जयदास वंशजों ने निर्मित किया या पहले किसी अन्य शाशकों ने के बारे में निश्चित नहीं है किन्तु निर्माण उच्चकोटि के हैं इसमें संदेह नहीं है।
     यमुना -मोरद संगम प्राचीन काल से ही धार्मिक श्ठल थे।  लाखामंडल में केदार शिला का शिव रूप में  पूजा होती है।  लाखामंडल में कई प्रागैतिहासिक खंदिर मूर्तियां व खंडहर पड़े हैं। 


(आर्किलॉजी सर्वे  इण्डिया देहरादून जॉन की वेब साइट से  कुछ वर्णन लय गया है )
     
 



 
   
     




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     कर्तृपुर के खशधिपति

   Khashadhipati of Kartripur and History of haridwar, Saharanpur and Bijjnor     

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  204
                   
                         
  हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  204             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

    समुद्रगुप्त ने प्रयागप्रशस्ति में अपने शासन के सीमान्त राज्यों का उल्लेख इस प्रकार किया है -
  समतट डबाक , कामरूप , नेपाल कर्तृपुरादि प्रत्यंतनृपतिभि: सर्वकरदानाज्ञारणप्रणामगमनपरितोयित प्रचंडशासनस्य।
   इस प्रशस्ति अभिलेख में कामरूप के पश्चिम में नेपाल है और फिर कर्तृरादि नाम आया है।  इसका अर्थ है कि नेपाल के पश्चिम में कर्तृपुर था। 
        डबराल ने उत्तराखंड का इतिहास खंड -3 में पृष्ठ 282 से 294 तक कर्तृपुर की विवेचना की और निर्णय दिया कि कर्तृपुर गढ़वाल में था जो बाद में शायद कत्यूरी वंश की राजधानी बना।
    विभिन्न स्रोत्रों की विवेचना उपरान्त डबराल ने लिखा कि इस खशाधिपति ने समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार की और उत्तराखंड गुप्त साम्राज्य की आधीन आ गया था।  कुमार गुप्त के मंदसौर अभिलेख में गुप्त साम्राज्य के अधीन सुमेरु व कैलास  जो कि प्राचीन काल में उत्तराखंड के ही भाग थे।
   यद्यपि अभी तक पता नहीं लगा कि गुप्त काल में खशधिपति उपायन देकर  गुप्त राजाओं ने युद्ध में पराजित था। कुमारगुप्त की मुद्राएं हमीरपुर , सहारनपुर , मथुरा में मिलने से (ऐल्लन व राधाकुमुंद मुकर्जी , गुप्ता ऐम्पायर पृष्ठ 74 )  भी अनुमान लगता है कि बि जनौर , हरिद्वार व सहारनपुर क्षेत्र गुप्त साम्राज्य के अधीन आ गए थे।
     खशधिपति का  पद  गवर्नर जैसा पद था या कुछ और पर भी कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है।  पर यह लगभग तय ही है कि सहारनपुर , बिजनौर और हरिद्वार न्यूनधिक रूप से गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत आ गए थे।   गोविषाण के मित्र  अथवा लाखामंडल के जयदास शासकों के वंशजों का क्या हुआ पर कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है।
 डबराल ने गुप्त काल से पहले प्राचीन उत्तराखंड दक्षिण के शासकों का काल का निम्न भाँति  अनुमानित विवरण दिया -
कुषाण -वासुदेव प्रथम व परवर्ती शासक - 206 से 250 ई
कुणिंद नरेश -छागलेश्वर , भानु , रावण --243 -290 ई
गोविषाण मित्रवंशी नरेश - 250 -290
अश्वमेध यज्ञकर्ता  नरेश शीलवर्मन आदि --290 -350 ई
 कर्तृपति खशधिपति -350 -380 ई
गुप्त सम्राट 270 -381 ई






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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


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