ेशाम ढल रही थी। वर्षा अब भी जारी, शाम के साथ धुंध गहरा गई थी। ऐसे में ही मैंने शाम को घर लौटने का मन बना लिया। बाबा से विदाई ली, गिरते-फिसलते एक घण्टे में घर पहुंच गया। कपड़े बदलने के बाद एक बार बाबा का रिकार्डेड इण्टरव्यू सुना। मन को बड़ी शान्ति मिली, पर न जाने आज मन क्यों सशंकित सा था। ऐसा ही सशंकित भाव आज मैंने बाबा में भी देखा।
अंधेरा हो गया था, बिजली गुल थी, शटरों की खड़खड़ाहट के साथ एक-एक कर आदिबद्री बाजार की दुकानें बन्द होने लगी। कोई नीचे दुकान पर मेरे छोटे भाई विनोद से कुछ कह रहा था। फिर दो-चार लोगों में आपस में बातें हो रही थी। अपने संकित मन की जिज्ञासा को नहीं रोक पाया। भैया को सीढ़ियों के पास बुलाकर उन लोगों के बारे में जानकारी ली। भैया बोला पटवारी लोग हैं, कह
रहे हैं बेनीताल से आ कर थक गए हैं। चाय पिला दो। मैं पूर्वाग्रह से ग्रासित हो चला था। मैंने भैया से कहा- कुछ नहीं, ये सब बेनीताल से उपद्रव कर के आ रहे हैं साफ कह दे, चाय-वाय कुछ नहीं मिलेगी। इसी उपद्रव को अन्जाम देने के फिराक में कर्णप्रयाग
का तत्कालीन एस.डी.एम.जगदीश लाल अवसर देख रहा था, जो उसने शासन की शाबासी पाने के लिए 8 अगस्त की शाम को कर डाला। उसका अपराध जघन्य था, उसने अपने कारिन्दों के साथ शाम को गौशाले के दरवाजे तोड़ डाले और बाबा को सलफास खाने को मजबूर किया। ये लोग बाबा को घसीटते हुए बाहर लाए और उन्हें पहले चांटे जड़े और फिर डण्डों से पीटा। रंडोली के मदन व उसके अन्य साथियों की भी इन लोगों ने पिटाई की, जो घटना के चश्मदीद हैं। इन लोगों ने बड़ी निर्दयता के साथ उस 38 दिनों से अनशन पर बैठे बाबा को वहां से उठाया और बेनीताल के रास्ते से लुढकाते हुए नीचे लाए और कर्णप्रयाग पहुंचाया। रास्ते में ही बाबा प्रणान्त हो चला था पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बाबा को हृदय गति रुकने से मृत बताया गया। भ्रष्ट सत्ता की शक्ति के आगे शासन नत मस्तक था। रोज कर्णप्रयाग में सत्तारूढ़ छुट भैय्याओं की नौटंकी का जो रूप देखा, उससे मन घृणा से भर गया। वहां कर्णप्रयाग में बाबा का शव अस्पताल के आगे रखा
था। वही शान्त दैदिव्यमान चेहरा था। एक तरफ ढलका हुआ मानो कह रहा था- अंग्रेजी हुकूमत अभी कायम है, न्याय की आशाएं अभी धूमिल हैं, किन्तु मेरी मौत से राजधानी का मुद्दा अब दम नहीं तोड़ेगा। यह मुद्दा अब हमेशा जिन्दा रहेगा और जिन्दा कौम इन सपनों को अवश्य साकार देखेगी।’ बाबा अपने दिल में उत्तराखण्ड व राजधानी का दर्द ले कर चले गए। उनकी मौत पर सारा उत्तराखण्ड जब आन्दोलन की आग में जलने लगा, तो तत्कालीन नौछमी मुख्यमंत्री ने बेनीताल के लिए कई घोषणाएं की। उसमें दो
करोड़ रुपयों से बेनीताल के पर्यटन विकास व बाबा के नाम बेनीताल मोटर मार्ग का नाम व एक भव्य द्वार का निर्माण और भी बहुत सारी घोषणाएं, जो कि एक हृदयहीन, संवेदनहीन तत्कालीन कांग्रेस सरकार नौंटकी की पटकथा का एक हिस्सा भर, किस्सा भर थी। जिसे कभी भी मंचित नहीं होना था, राजनीतिक विदू्रपता को उद्घाटित कर गई। राजनीति के भी बड़े अजब-गजब ढंग हैं। अपनी सरकार में अनशन करते हुए यदि कोई बाबा मरता है, तो कोई बड़ी घटना नहीं समझी जाती। दूसरे की सरकार में
कोई बाबा ऐसे ही मरे, तो इससे सत्ता का एक बहुत बड़ा जघन्य अपराध व बड़ी घटना मान कर उसके विरु( अनशन शुरू किया जाता है। जब दोनों ही घटनाएं साम्य लिए हुए हैं, तो फिर सोच व भावनाओं का यह दोगलापन क्यों? पर यही वर्तमान राजनीति का विभत्स रूप है। सत्ता यदि शक्ति प्रदर्शन षडयन्त्र करने पर आमादा हो जाए, तो रामलीला मैदान की घटना घटती है और अन्ना हजारे का जन लोकपाल विधेयक एक समानांतर सरकार बनाने का षडयन्त्र प्रचारित कर नकारा जाता है। ऐसी ही तो राजनीतिक संस्कृति चल पड़ी है। इन्हीं राजनीतिक अन्तरविरोधों के कारण हमने अपने बाबा मोहन उत्तराखण्डी को खोया, किन्तु बाबा हमेशा सबके लिए उत्तुंग शिखर वाले हिमालय के जीवन्त रूप में दृष्टिगोचर होते रहेंगे। वह हिमालय, जो हमेशा पिघलता हुआ किन्तु उन्नत माल लिए हुए उत्तराखण्ड के सरोकारों, चिन्ताओं के हिमखण्डों का बोझ पीठ पर लादे चलता था। इस हिमालय ने न कभी टूटना सीखा न झुकना। इससे फूटने वाली विचारों व संकल्पों की अजस्र धाराएं नित्य अपने लक्ष्य व गन्तव्य की ओर गतिमान प्रवाहमान रही हैं और रहेंगी। नैनीताल समाचार के राजीव लोचन शाह, पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा, पी.सी.तिवारी ने बाबा की मौत के पश्चात दोषियों को दण्डित करने की जो मुहिम चलाई, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। वे दण्डित तो अभी नहीं हुए, पर चिन्हित तो हो ही गए हैं। सत्य हमेशा जीता है, असत्य का हमेशा पराभव हुआ है।