‘बोली’ को क्यों मार दी गोली ?
पहाड़ी सरोकारों से जुड़े संगठन इस मुद्दे पर हो रहे मुखर
गंगा प्रसाद उनियाल
देहरादून। ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को यह मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल’ 18वीं सदी के रचनाकार भारतेंदु हरीशचंद्र की अपनी बोली-भाषा के प्रति यह पंक्तियां यह बताने के लिए काफी हैं कि अपनी बोली-भाषा का क्या महत्व होता है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने भी खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्द्धित हुआ। लेकिन, इधर लाठियां, गोलियां खाकर बड़े संघर्षों से मिले अलग उत्तराखंड राज्य में अपनी बोली को ही झटकेमें अपनों ने ही गोली मार दी। पहाड़ी सरोकारों से जुड़े कई संगठन अब इस मुद्दे पर मुखर हो रहे हैं, जो कि इस मसले पर एक बड़े आंदोलन की ओर संकेत कर रहा है।
यहां बात हो रही है प्रदेश सरकार के उस जीओ की जो समूह ग की भर्ती नियमावली में बोली की अनिर्वायता को हटाने केलिए कुछ दिन पूर्व जारी हुआ है। प्रदेश शासन ने बोली को लेकर भ्रम होने की बात कह कर शासनादेश तो जारी किया है, लेकिन भ्रम किस चीज से पैदा हुआ इसे स्पष्ट नहीं किया है। भर्ती नियमावली में बोलियों का ज्ञान होना जरूरी होने की बात कही गई थी, बोलियां बोलनी आनी चाहिए वाली बात कतई नहीं थी। शासन के इस कदम से हर वह आंदोलनकारी और पहाड़ी सरोकारों से जुड़ा व्यक्ति आहत है, जिसने अलग राज्य केलिए ढेरों सपने बुने थे। वह सपने पूरे होने तो दूर की बात रही, यहां तो अपनी बोली पर ही बन आई है। गढ़वाली लोक संस्कृति के पुरोधा और लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी सरकार से इस निर्णय से काफी व्यथित हैं। कहते हैं कि मैदानी वोट की खातिर स्थानीय बोली को तिलांजलि दी जा रही है। वह सवाल करते हैं कि आखिर बोली की जानकारी रखने में क्या बुराई है। गढ़वाल केंद्रीय विवि में लोक संस्कृति एवं लोक कला निष्पादन केंद्र के पूर्व निदेशक प्रोफेसर दाता राम पुरोहित कहते हैं कि गढ़वाली और कुमांऊनी भाषाएं (बोलियां) मैजोरिटी की बोलियां हैं तो इन पर सवाल पूछने में क्या हर्ज है? । गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज भी संसद में आठवीं अनुसूची में गढ़वाली और कुमाऊंनी बोली के लिए प्रस्ताव रख चुकें हैं, जबकि राज्य की विधानसभा भी गढ़वली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोली में पत्राचार और इस भाषा में संवाद संबंधी प्रस्ताव पास कर चुकी है। इस तरह का जीओ लाकर पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र का भेद पैदा किया जा रहा है जो कि राज्य हित में ठीक नहीं है। उक्रांद भी देर से सही इस मुद्दे पर अब मुखर हो गया है। रविवार को इस मुद्दे पर मशाल जुलूस के जरिये वह अपने तेवर दिखा चुका है। अखिल गढ़वाल सभा की गत दिवस दून में हुई बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार विभिन्न संगठन इस मुद्दे पर जनजागरण आंदोलन चलाने को कमर कस चुके हैं।
सांसद सतपाल महाराज इस संबंध में संसद में रख चुके हैं प्रस्ताव. Source- epaper.amarujala